These comprehensive RBSE Class 11 Business Studies Notes Chapter 8 व्यावसायिक वित्त के स्त्रोत will give a brief overview of all the concepts.
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→ व्यावसायिक वित्त का अर्थ, प्रकृति एवं महत्त्व-व्यवसाय के विभिन्न कार्यों को करने के लिए जिस धन की आवश्यकता होती है, उसे व्यावसायिक वित्त कहते हैं । कोई भी व्यवसाय बिना पर्याप्त धन के कार्य नहीं कर सकता है। व्यवसाय में धन की आवश्यकता स्थायी सम्पत्तियों को क्रय करने (स्थायी पूँजी की आवश्यकता), दिन-प्रतिदिन कार्यों के लिए (कार्यशील पूँजी की आवश्यकता) एवं व्यवसाय के विकास एवं विस्तार की योजनाओं के लिए होती है।
→ वित्त/धन के स्रोतों का वर्गीकरण:
एकल स्वामित्व एवं साझेदारी इकाइयों के लिए धन व्यक्तिगत स्रोतों अथवा बैंक, मित्रों आदि से ऋण लेकर कोष जुटाया जा सकता है। कम्पनी संगठन के लिये व्यावसायिक वित्त के स्रोतों को हम निम्न प्रकार से विभाजित कर सकते हैं
→ अवधि के आधार पर:
→ स्वामित्व के आधार पर:
आन्तरिक एवं बाह्य सुविधाओं के आधार पर
→ दीर्घ, मध्य एवं अल्पमत अवधि स्रोत:
जो स्रोत 5 वर्ष से अधिक अवधि के लिए कोष प्रदान करते हैं, उन्हें दीर्घ अवधि स्रोत कहते हैं। जिन स्रोतों से एक वर्ष से अधिक लेकिन 5 वर्ष से कम अवधि की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है, उन्हें मध्य अवधि स्रोत कहते हैं। जिन स्रोतों से एक वर्ष से कम के लिए धन जुटाया जा सकता है, उन्हें अल्प अवधि स्रोत कहते हैं।
→ स्वामीगत कोष एवं ऋणगत कोष:
उद्यम के स्वामी जिन कोषों की व्याख्या करते हैं उन्हें स्वामीगत कोष कहते हैं जबकि दूसरे व्यक्तियों अथवा संसाधनों से ऋण के माध्यम से जो कोष जुटाये जाते हैं उन्हें ऋणगत कोष कहते हैं।
समता अंशों का निर्गमन एवं संचित आय से स्वामीगत कोष प्राप्त किये जा सकते हैं जबकि ऋणगत कोष ऋण एवं उधार लेने के माध्यम से प्राप्त किये जाते हैं।
→ आन्तरिक एवं बाह्य स्रोत:
आन्तरिक, स्रोत वह होते हैं जिनका सृजन व्यवसाय के भीतर ही होता है। जैसे लाभों का पुनर्विनियोग के द्वारा। पूँजी के बाह्य स्रोत, वह स्रोत होते हैं जो व्यवसाय के बाहर के होते हैं, जैसे आपूर्तिकर्ता, ऋणदाता एवं निवेशकों के द्वारा दिया गया धन ।
→ व्यावसायिक वित्त के स्त्रोत:
एक व्यावसायिक इकाई विभिन्न स्रोतों से पूँजी जुटा सकती है। ये स्रोत निम्नलिखित हैं
1. संचित आय-कम्पनी सामान्यतया अपनी पूरी आय को अंशधारियों में लाभांश के रूप में विभाजित नहीं करती। शुद्ध आय के एक भाग को व्यवसाय में भविष्य में उपयोग के लिए संचित कर लेती है। इसे संचित आय या लाभ का पुनः विनियोग भी कहते हैं । संचित आय के लिए उपलब्ध राशि कम्पनी के शुद्ध लाभ, लाभांश नीति तथा संगठन की आय पर निर्भर करती है। इसका उपयोग सामान्यतः कम्पनी के विकास एवं विस्तार के लिए किया जाता
2. व्यापारिक साख-व्यापारिक साख एक व्यवसायी द्वारा दूसरे व्यवसायी को वस्तु एवं सेवाओं के क्रय करने | | के लिए दी गई उधार की सुविधा को कहते हैं। यह एक अल्प अवधि वित्त के स्रोत के रूप में उपयोग में लायी जाती है। यह उन ग्राहकों को दी जाती है जिनकी वित्तीय स्थिति सुदृढ़ एवं अच्छी ख्याति होती है। व्यापारिक साख की शर्ते अलग-अलग उद्योगों एवं अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग होती हैं।
3. आढ़त-आढ़त एक ऐसी वित्त सम्बन्धित सेवा है जिसमें आढ़तिया विभिन्न सेवाएँ प्रदान करता है जैसे विपत्रों को भुनाना एवं ग्राहकों की लेनदारी को वसूल करना तथा सम्भावित ग्राहक आदि की साख के सम्बन्ध में सूचना देना। विगत कुछ वर्षों में यह स्रोत अल्प अवधि वित्त के लोकप्रिय स्रोत के रूप में उभरकर आया है।
4.लीज वित्तीयन-लीज एक ऐसा अनुबन्ध है जिसमें सम्पत्ति का स्वामी दूसरे पक्षकार को आवधिक भुगतान के बदले में सम्पत्ति के प्रयोग का अधिकार देता है। सम्पत्ति का स्वामी पट्टाकार कहलाता है जबकि ऐसी सम्पत्ति का उपयोगकर्ता पट्टाधारी कहलाता है। लीज की व्यवस्था के नियमन के लिए शर्ते लीज अथवा पट्टा अनुबन्ध में की जाती है। पट्टे के माध्यम से वित्त फर्म के आधुनिकीकरण एवं विविधीकरण के लिए महत्त्वपूर्ण साधन है।
5. सार्वजनिक जमा-जब व्यावसायिक संस्थाएँ या संगठन सीधे जनता से धन जमा करते हैं तो इसे सार्वजनिक जमा कहा जाता है। इन जमाओं पर सामान्यतया बैंकों की ब्याज दर से अधिक दर से ब्याज दिया जाता है। सार्वजनिक जमा व्यवसाय की दीर्घ अवधि एवं अल्प अवधि दोनों ही वित्तीय आवश्यकताएँ पूरी करती हैं। सार्वजनिक सभा की स्वीकृति का नियमन भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा होता है।
6. वाणिज्यिक पत्र-वाणिज्यिक पत्र किसी व्यावसायिक संस्था द्वारा अल्प अवधि (सामान्यतः 90 से 364 दिन तक) के लिए कोष जुटाने के लिए एक गैर-जमानती प्रतिज्ञा पत्र होता है। इसे एक फर्म दूसरी फर्म को, बीमा कम्पनी को पेंशन कोष एवं बैंकों को जारी करती है क्योंकि यह पूर्णतया असुरक्षित होता है। अच्छी साख वाली संस्थाएँ ही इन पत्रों को जारी कर सकती हैं। इनका नियमन भी भारतीय रिजर्व बैंक के द्वारा होता है।
7. अंशों का निर्गमन-अंशों के निर्गमन से प्राप्त पूँजी अंश पूँजी कहलाती है। एक कम्पनी की पूँजी छोटेछोटे भाग में विभक्त होती है, उन्हें अंश कहा जाता है। समता अंशों के निर्गमन से प्राप्त पूँजी समता पूँजी तथा पूर्वाधिकार अंशों से प्राप्त पूँजी पूर्वाधिकार अंश पूँजी कहलाती है।
समता अंश कम्पनी की स्वामीगत पूँजी का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनके धारकों की आय में परिवर्तन होता रहता है। इन्हें निश्चित लाभांश नहीं मिलता बल्कि उन्हें कम्पनी की आय के आधार पर भुगतान किया जाता है। इनके धारकों को कम्पनी की जोखिम उठाने वाला कहा जाता है। यह अंशधारक अपने मताधिकार का प्रयोग कर कम्पनी के प्रबन्ध में भागीदार बनते हैं। . पूर्वाधिकार अंशों के धारकों को लाभांश के भुगतान एवं पूँजी की वापसी के सम्बन्ध में पूर्वाधिकार प्राप्त होता है। पूर्वाधिकार अंशों को सामान्यतः मताधिकार प्राप्त नहीं होते हैं। इनमें कुछ विशेषताएँ समता अंश एवं ऋण पत्र दोनों की होती है। पूर्वाधिकार अंश संचयी एवं असंचयी, भागीदारी एवं अभागीदारी तथा परिवर्तनीय एवं अपरिवर्तनीय आदि के रूप में हो सकते हैं।
8. ऋण-पत्र-ऋण-पत्र लम्बी अवधि ऋणगत पूँजी एकत्रित करने का एक महत्त्वपूर्ण विलेख है। एक कम्पनी ऋण-पत्र जारी करके वित्तीय कोष जुटा सकती है। इन पर स्थिर दर से ब्याज दिया जाता है। ऋण-पत्रों का निर्गमन उसी दशा में अधिक उपयुक्त रहता है जब कम्पनी की बिक्री एवं आय अपेक्षाकृत स्थिर होती हैं । ऋण-पत्र भी सुरक्षित एवं असुरक्षित, पंजीकृत एवं वाहक, परिवर्तनीय एवं गैर-परिवर्तनीय आदि के रूप में हो सकते हैं।
9. वाणिज्यिक बैंक-वाणिज्यिक बैंक सभी प्रकार की व्यावसायिक संस्थाओं या फर्मों को अल्प अवधि एवं मध्य अवधि के ऋण उपलब्ध कराते हैं । यद्यपि अब बैंकों ने दीर्घ अवधि के ऋण भी देने शुरू कर दिये हैं। ऋण का भुगतान एकमुश्त या किस्तों में किया जाता है। बैंक नकद, साख, अधिविकर्ष, आवधिक ऋण, विपत्रों का क्रय/भुनाना एवं साखपत्र जारी करके ऋण प्रदान करते हैं। बैंक की ब्याज दर ऋण माँगने वाली फर्म की विशेषताओं तथा अर्थव्यवस्था में प्रचलित ब्याज की दर जैसे तत्वों पर निर्भर करती है।
10. वित्तीय संस्थान-व्यावसायिक संस्थाओं को औद्योगिक वित्त की व्यवस्था के लिए केन्द्रीय एवं राज्य सरकारें दोनों ने समूचे देश में कई वित्तीय संस्थानों की स्थापना की है। ये संस्थान स्वामीगत पूँजी एवं ऋणगत पूँजी दोनों को दीर्घ एवं मध्य अवधि के लिए पूँजी उपलब्ध कराते हैं। इन संस्थानों का उद्देश्य देश में औद्योगिक विकास का संवर्द्धन करना भी होता है। इसीलिए इन्हें विकास बैंक भी कहा जाता है। वित्तीय सहायता के अतिरिक्त ये संस्थान बाजार का सर्वेक्षण तथा उद्यम संचालकों को तकनीकी एवं प्रबन्धकीय सेवाएँ भी प्रदान करते हैं।
→ अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीयन:
अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीयन भी पूँजी प्राप्ति का एक प्रमुख स्रोत माना जाने लगा है। अर्थव्यवस्था में खुलेपन एवं व्यावसायिक संस्थानों के कार्य प्रचलन के वैश्वीकरण के कारण भारतीय कम्पनियाँ विश्व पूँजी बाजार से वित्तीय कोष जुटा सकती हैं। वर्तमान में विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय स्रोत जिनसे कोष पैदा किये जा सकते हैं वे निम्नलिखित हैं-वाणिज्यिक बैंकों से विदेशी मुद्रा में ऋण, अन्तर्राष्ट्रीय एजेन्सी एवं विकास बैंकों द्वारा वित्तीय सहायता, अन्तर्राष्ट्रीय पूँजी बाजार में वित्तीय प्रपत्रों जैसे अन्तर्राष्ट्रीय जमा रसीद, अमेरिकन जमा रसीद, विदेशी करेंसी परिवर्तनीय बॉण्ड आदि का निर्गमन।
→ वित्तीय कोषों के स्रोत के चयन को प्रभावित करने वाले तत्त्व:
लागत; वित्तीय शक्ति एवं प्रचालन में स्थायित्व; संगठन के प्रकार एवं वैधानिक स्थिति; उद्देश्य एवं समयावधि; जोखिम; नियंत्रण; साख पर प्रभाव; लोचपूर्णता एवं सुगमता; तथा प्राप्त होने वाला कर लाभ इत्यादि।