These comprehensive RBSE Class 11 Business Studies Notes Chapter 1 व्यवसाय, व्यापार और वाणिज्य will give a brief overview of all the concepts.
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→ व्यापार और वाणिज्य का इतिहास:
प्राचीनकाल में भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार भूमिगत और सामुद्रिक अन्तर्देशीय व विदेशी व्यापार और वाणिज्य ही था। ईसा पूर्व तीसरी सहस्त्राब्दी में व्यापारिक केन्द्र भी आये, जिसके परिणामस्वरूप व्यापारियों और व्यापारिक समुदाय वाले भारतीय समाज का निर्माण हुआ। मुद्रा ने मापन की इकाई और विनिमय के माध्यम के रूप में काम किया, धात्विक मुद्रा की शुरुआत हुई और इसके उपयोग से आर्थिक गतिविधियों में तेजी आई ।
→ स्वदेशी बैंकिंग प्रणाली ने मुद्रा उधार एवं साखपत्रों के माध्यम से घरेलू और विदेशी व्यापार के वित्त पोषण में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। कृषि और पशुपालन प्राचीन लोगों के आर्थिक जीवन के महत्त्वपूर्ण घटक थे। उस समय सूती वस्त्रों की बुनाई, रंगाई, मिट्टी के बर्तन बनाना, कला और हस्तशिल्प, मूर्तिकला, कुटीर उद्योग, राजगीरी, यातायात-साधन आदि अतिरिक्त आय के साधन थे। प्रसिद्ध वर्कशाप (कारखाने) थे। व्यापार और वाणिज्य के वित्त पोषणं हेतु वाणिज्यिक और औद्योगिक बैंक बने, कृषि बैंक भी अस्तित्व में आये। व्यापार के विकास में मध्यस्थों की प्रमुख भूमिका रही। उन्होंने विदेशी व्यापार का जोखिम वहन करने का उत्तरदायित्व लेकर निर्माताओं को वित्तीय सुरक्षा प्रदान की।
→ 'जगत सेठ' जैसी संस्था का भी विकास हुआ। मुगलकाल और ईस्ट इण्डिया के दिनों में उनका बहुत प्रभाव रहा। स्वदेशी बैंकिंग प्रणाली ने निर्माताओं, व्यापारियों और सौदागरों को विस्तार और विकास के लिए अधिक पूँजी कोषों से लाभान्वित किया। प्राचीन काल में जल और स्थल परिवहन लोकप्रिय थे। व्यापार जमीन और समुद्र दोनों ही माध्यमों से होता था। सामुद्रिक व्यापार, वैश्विक व्यापार नेटवर्क की एक अन्य महत्त्वपूर्ण शाखा थी।
→ कालीकट तथा पुलिकट प्रमुख बन्दरगाह थे। देश के विभिन्न भागों में अलग-अलग समुदाय के लोग व्यवसाय में आये जिनमें पंजाबी और मुलतानी उत्तरी क्षेत्र में, भट्ट गुजरात व राजस्थान में, महाजन पश्चिमी भारत में, अहमदाबाद जैसे शहरी क्षेत्रों में 'नगर सेठ' तथा अन्य शहरी समूहों में व्यावसायिक वर्ग (हकीम, वैद्य, विधिवक्ता, पण्डित या मुल्ला, चित्रकार, संगीतकार) आदि मुख्य थे।
→ व्यापारिक समुदाय ने गिल्ड से अपनी प्रतिष्ठा और ताकत प्राप्त की जो अपने हितों की रक्षा के लिए स्वायत्त निगम थे। उद्योग और व्यापार पर कर, राजस्व के प्रमुख साधन थे। इनमें चुंगीकर, सीमा शुल्क कर, नौका कर आदि मुख्य थे। ये अलग-अलग दर से वसूल किये जाते थे। राजा या कर संग्रहकों से गिल्ड प्रमुख का सीधा व्यवहार हुआ करता था। गिल्ड व्यवसायी धार्मिक हितों के संरक्षक थे। इस प्रकार वाणिज्यिक गतिविधियों ने बड़े व्यापारियों को समाज में सत्ता हासिल करने में सक्षम बनाया।
→ पाटलीपुत्र, पेशावर, तक्षशिला, इन्द्रप्रस्थ, मथुरा, वाराणसी; मिथिला, उज्जैन, सूरत, कांची, मदुरै, भरूच, कावेरी पट्ट, ताम्रलिप्ति आदि प्राचीन भारत में प्रमुख व्यापार केन्द्र थे।
→ प्राचीनकाल में निर्यात में मसाले, गेहूं, चीनी, नील, अफीम, तिल का तेल, कपास, रेशम, तोते, जीवित मवेशी और पशु उत्पाद, कछुआ कवच, मोती, नीलमणि, चमकीले पत्थर, क्रिस्टल, लैपेस लाजुली, ग्रेनाइट, फिरोजा और तांबा आदि शामिल थे जबकि आयात में घोड़े, पशु उत्पाद, चीनी, सिल्क, फ्लेक्स और लेनिन, मणि, सोना-चाँदी, टिन, | ताँबा, सीसा, माणिक, पुखराज, मूंगा, काँच और एम्बर शामिल थे।
→ 1 ई. से 1191 ई. तक भारतीय उप-महाद्वीप की विश्व अर्थव्यवस्था में मुख्य स्थिति थी। मेगस्थनीज, फाह्यान, ह्वेनसांग, अलबरूनी, इब्नबतूता (11वीं शताब्दी), फ्रांसीसी फ्रेकोइस (17वीं शताब्दी) और अन्य लोग जो भारत आये उन्होंने भारत को अपने लेखन में स्वर्णभूमि और स्वर्णद्वीप कहा। पूर्व औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था को समृद्धि का स्वर्ण युग माना जाता है। इसी ने यूरोपियों को भारत की ओर यात्रा के लिए प्रेरित किया। 18वीं सदी का भारत प्रौद्योगिकी, नवाचार और विचारों में पश्चिमी यूरोप के पीछे था।
→ ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बढ़ते नियन्त्रण से भारत की आजादी में कमी आई। 18वीं शताब्दी के मध्य में भारत में ब्रिटिश शाही साम्राज्य का उत्थान हुआ। इसकी नीतियों के परिणामस्वरूप भारतीय अर्थव्यवस्था की दशा बदल गई। भारत जो तैयार माल का निर्यातक था, वह कच्चे माल का निर्यातक और विनिर्मित माल का खरीददार बन गया।
→ आजादी के बाद अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई और भारत में केन्द्रीकृत नियोजन की शुरुआत हुई। योजनाओं में आधुनिक उद्योगों, आधुनिक प्रौद्योगिकी और वैज्ञानिक संस्थानों, अंतरिक्ष और परमाणु कार्यक्रमों की स्थापना को महत्त्व दिया गया। इन प्रयासों के बावजूद भी भारतीय अर्थव्यवस्था तीव्र गति से विकसित नहीं हो सकी।। फलतः सन् 1991 में देश में आर्थिक उदारीकरण की नीति को अपनाया गया। फलतः भारतीय अर्थव्यवस्था आज दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। भारत सरकार की हाल की पहलों जैसे 'मेक इन इण्डिया', 'स्किल इण्डिया', 'डिजिटल इण्डिया' और नवनिर्मित निर्यात नीति आदि इसमें विशेष सहायक हो रही हैं।
→ व्यवसाय की प्रकृति और अवधारणा-सामान्य अर्थ में, व्यवसाय का अर्थ व्यस्त रहना है, जबकि विशेष सन्दर्भ में, व्यवसाय का अर्थ ऐसे किसी भी धन्धे से है, जिसमें लाभार्जन हेतु व्यक्ति विभिन्न प्रकार की क्रियाओं में नियमित रूप से संलग्न रहते हैं। वस्तुतः व्यवसाय से तात्पर्य उन आर्थिक क्रियाओं से है, जिनमें वस्तुओं का उत्पादन व विक्रय तथा सेवाओं को प्रदान करना सम्मिलित है। इन क्रियाओं का मुख्य उद्देश्य समाज में मनुष्यों की आवश्यकताओं की पर्ति करके धन कमाना है।
→ व्यावसायिक क्रियाओं की विशेषताएँ
→ व्यवसाय, पेशा तथा रोजगार में तुलना: व्यवसाय, पेशा तथा रोजगार में स्थापना की विधि, कार्य की प्रकृति, योग्यता, प्रतिफल, पूँजी निवेश, जोखिम, हित-हस्तान्तरण तथा आचार संहिता के आधार पर तुलना की जा सकती है।
→ व्यवसाय का अभिप्राय उन आर्थिक क्रियाओं से है, जिनका सम्बन्ध लाभ कमाने के उद्देश्य से वस्तुओं का उत्पादन या क्रय-विक्रय या सेवाओं की पूर्ति से है। पेशे में वे क्रियाएँ सम्मिलित हैं, जिनमें विशेष ज्ञान व दक्षता की आवश्यकता होती है और व्यक्ति इनका उपयोग अपने धन्धे में आय अर्जन हेतु करता है। रोजगार का आशय उन धन्धों से है, जिनमें लोग नियमित रूप से दूसरों के लिए कार्य करते हैं और बदले में पारिश्रमिक प्राप्त करते हैं।
→ व्यावसायिक क्रियाओं का वर्गीकरण-विभिन्न व्यावसायिक क्रियाओं को दो वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है
(1) उद्योग-उद्योग से अभिप्राय उन आर्थिक क्रियाओं से है जिनका सम्बन्ध संसाधनों को उपयोगी वस्तुओं में परिवर्तन करना है। उद्योगों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जाता है
(2) वाणिज्य: वाणिज्य में वे सभी क्रियाएँ सम्मिलित हैं जिनके द्वारा माल अथवा सेवा को सही व्यक्ति के पास, सही स्थान, सही समय, सही मूल्य पर, सही मात्रा तथा सही दशा में पहुँचाने का वैध कार्य पूरा किया जाता है। वाणिज्य में दो प्रकार की क्रियाएँ सम्मिलित हैं व्यापार तथा व्यापार की सहायक क्रियाएँ। व्यापार का अर्थ वस्तुओं की बिक्री, हस्तान्तरण अथवा विनिमय से है। व्यापार आन्तरिक (देशीय) तथा बाह्य (विदेशी) हो सकता है। आन्तरिक व्यापार थोक व्यापार व फुटकर व्यापार में वर्गीकृत किया जा सकता है जबकि बाह्य (विदेशी) व्यापार आयात व्यापार, निर्यात व्यापार तथा पुनर्निर्यात व्यापार के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। व्यापार की सहायक क्रियाएँ वे क्रियाएँ होती हैं जो व्यापार को सहायता प्रदान करती हैं। इन सहायक क्रियाओं में परिवहन एवं संचार, बैंकिंग एवं वित्त, बीमा, भण्डारण, विज्ञापन आदि को सम्मिलित किया जा सकता है। इन क्रियाओं को सेवाएँ भी कहते हैं।
→ व्यवसाय के उद्देश्य:
व्यवसाय का उद्देश्य लाभ अर्जित करना है जो लागत पर आगम का आधिक्य है। लेकिन व्यवसाय को लम्बे समय तक चलते रहने के लिए लाभ अग्रणी उद्देश्य होता है, लेकिन एकमात्र नहीं। वर्तमान में एक अच्छे व्यवसाय के लिए केवल लाभ पर बल देना तथा दूसरे उद्देश्यों को भुला देना, खतरनाक साबित हो सकता है। व्यवसाय के बहुमुखी उद्देश्य होते हैं जिनकी आवश्यकता प्रत्येक उस क्षेत्र में होती है जो निष्पादन परिणाम, व्यवसाय के जीवन एवं समृद्धि को प्रभावित करते हैं । व्यवसाय के बहुमुखी उद्देश्य निम्न क्षेत्रों में वांछनीय हैं - बाजार स्थिति, नवप्रवर्तन, उत्पादकता, भौतिक एवं वित्तीय संसाधन, लाभार्जन, प्रबन्ध निष्पादन एवं विकास, कर्मचारी निष्पादन एवं मनोवृत्ति तथा सामाजिक उत्तरदायित्व।
→ व्यावसायिक जोखिम:
→ व्यावसायिक जोखिमों की प्रकृति (विशेषताएँ):
→ व्यावसायिक जोखिमों के कारण-व्यावसायिक जोखिमें अनेक कारणों से हो सकती हैं जैसे प्राकृतिक, मानवीय, आर्थिक एवं अन्य कारण।
→ व्यवसाय का आरम्भ-एक व्यवसायी को निम्नलिखित मूल घटकों को व्यवसाय प्रारम्भ करते समय ध्यान में| रखना चाहिए