Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 9 Sanskrit Shemushi Chapter 12 वाडमनःप्राणस्वरूपम् Textbook Exercise Questions and Answers.
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प्रश्न 1.
एकपदेन उत्तरं लिखत
(क) अन्नस्य कीदृशः भागः मनः?
(ख) मथ्यमानस्य दहनः अणिष्ठः भागः किं भवति?
(ग) मनः कीदृशं भवति?
(घ) तेजोमयी का भवति?
(ङ) पाठेऽस्मिन् आरुणिः कम् उपदिशति?
(च) "वत्स! चिरञ्जीव"-इति कः वदति?
(छ) अयं पाठः कस्मात् उपनिषदः संगृहीतः?
उत्तराणि :
(क) अणिष्ठः।
(ख) सर्पिः।
(ग) अन्नमयम्।
(घ) वाक्।
(ङ) श्वेतकेतुम्।
(च) आरुणिः।
(छ) छान्दोग्योपनिषदः।
प्रश्न 2.
अधोलिखितानां प्रश्नानामुत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत
(अधोलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत भाषा में लिखिए-)
(क) श्वेतकेतुः सर्वप्रथमम् आरुणिं कस्य स्वरूपस्य विषये पृच्छति?
(श्वेतकेतु सबसे पहले आरुणि से किसके स्वरूप के विषय में पूछता है?)
उत्तरम् :
श्वेतकेतुः सर्वप्रथमम् आरुणिं मनसः स्वरूपस्य विषये पृच्छति।
(श्वेतकेतु सबसे पहले आरुणि से मन के स्वरूप के विषय में पूछता है।)
(ख) आरुणिः प्राणस्वरूपं कथं निरूपयति?
(आरुणि प्राण का स्वरूप क्या बतलाते हैं?)
उत्तरम् :
आरुणिः निरूपयति यत् "आपोमयो लघुतमः रूपः भवति प्राणाः।"
(आरुणि वर्णन करते हैं कि "जलमय लघुतम रूप प्राण होता है।")
(ग) मानवानां चेतांसि कीदृशानि भवन्ति?
(मनुष्यों के मन किस प्रकार के होते हैं?)
उत्तरम् :
मानवानां चेतांसि अशितान्नानुरूपाणि भवन्ति।
(मनुष्यों के मन खाये गए अन्न के अनुरूप होते हैं।)
(घ) सर्पिः किं भवति? [घी (घृत) क्या होता है?]
उत्तरम् :
मथ्यमानस्य दनः योऽणुतमः यदुवंम् आयाति तत् सर्पिः भवति।
(मथे जाते हुए दही का जो सबसे लघुतम रूप ऊपर उठता है, वह धी होता है।)
(ङ) आरुणेः मतानुसारं मनः कीदृशं भवति?
(आरुणि के मतानुसार मन कैसा होता है?)
उत्तरम् :
आरुणे: मतानुसारं मनः अन्नमयं भवति।
(आरुणि के मतानुसार मन अन्नमय होता है।)
प्रश्न 3.
(अ) 'अ' स्तम्भस्य पदानि 'ब' स्तम्भेन दत्तैः पदैः सह यथायोग्यं योजयत -
अ ब
मनः - अन्नमयम्
प्राणः - तेजोमयी
वाक - आपोमयः
उत्तरम् :
मनः - अन्नमयम्
प्राणः - आपोमयः
वाक् - तेजोमयी
(आ) अधोलिखितानां पदानां विलोमपदं पाठात् चित्वा लिखत -
उत्तरम् :
पद - विलोम पद
प्रश्न 4.
उदाहरणमनुसृत्य निम्नलिखितेषु क्रियापदेषु 'तुमुन्' प्रत्ययं योजयित्वा पदनिर्माणं कुरुत -
यथा - प्रच्छ् + तुमुन् प्रष्टुम्
(क) श्रु + तुमुन् ...........
(ख) वन्द् + तुमुन् ........
(ग) पठ् + तुमुन् .........
(घ) कृ + तुमुन् ...........
(ङ) वि + ज्ञा + तुमुन् ........
(च) वि + आ + ख्या + तुमुन् ..........
उत्तरम् :
(क) श्रु + तुमुन् - श्रोतुम्
(ख) वन्द् + तुमुन् - वन्दितुम्
(ग) पठ् + तुमुन् - पठितुम्
(घ) कृ + तुमुन् - कर्तुम्
(ङ) वि + ज्ञा + तुमुन् - विज्ञातुम्
(च) वि + आ + ख्या + तुमुन् - व्याख्यातुम्
प्रश्न 5.
निर्देशानुसारं रिक्तस्थानानि पूरयत -
(क) अहं किञ्चित् प्रष्टुम् ...........। (इच्छ्-लट्लकारे)
(ख) मनः अन्नमयं ......... (भू-लट्लकारे)
(ग) सावधान ......... । (श्रु-लोट्लकारे)
(घ) तेजस्विनावधीतम् .......... । (अस्-लोट्लकारे)
(ङ) श्वेतकेतुः आरुणेः शिष्य. ........... । (अस्-लङ्लकारे)
उत्तरम् :
(क) अहं किञ्चित् प्रष्टुम् इच्छामि।
(ख) मनः अन्नमयं भवति।
(ग) सावधानं शृणु।
(घ) तेजस्विनावधीतम् अस्तु।
(ङ) श्वेतकेतुः आरुणेः शिष्यः आसीत्।
(अ) उदाहरणमनुसृत्य वाक्यानि रचयत -
यथा - अहं स्वदेशं सेवितुम् इच्छामि।
(क) .................... उपदिशामि।
(ख) ............. प्रणमामि।
(ग) ........... आज्ञापयामि।
(घ) ........... पृच्छामि।
(ङ) .............. अवगच्छामि।
उत्तरम् :
(क) अहं शिष्यं उपदिशामि।
(ख) अहं गुरुं प्रणमामि।
(ग) अहं सेवकं आज्ञापयामि।
(घ) अहं गुरुं प्रश्नं पृच्छामि।
(ङ) अहं मनसः स्वरूपं अवगच्छामि।
प्रश्न 6.
(अ) सन्धिं कुरुत -
(i) अशितस्य + अन्नस्य = .............
(ii) इति + अपि + अवधार्यम = ...........
(ii) का + इयम् = .............
(iv) नौ + अधीतम् = ...............
(v) भवति + इति = ...............
उत्तरम् :
(i) अशितस्य + अन्नस्य
(ii) इति + अपि + अवधार्यम्
(iii) का + इयम्
(iv) नौ + अधीतम्
(v) भवति + इति
(आ) स्थूलपदान्यधिकृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत -
(i) मथ्यमानस्य दनः अणिमा ऊर्ध्वं समुदीषति।
उत्तरम् :
कीदृशस्य दनः अणिमा ऊर्ध्वं समुदीषति?
(ii) भवता घृतोत्पत्तिरहस्यं व्याख्यातम्।
उत्तरम् :
केन घृतोत्पत्तिरहस्यं व्याख्यातम्?
(iii) आरुणिम् उपगम्य श्वेतकेतुः अभिवादयति।
उत्तरम् :
आरुणिं उपगम्य कः अभिवादयति?
(iv) श्वेतकेतुः वाग्विषये पृच्छति।
उत्तरम् :
श्वेतकेतुः कस्य विषये पृच्छति?
प्रश्न 7.
पाठस्य सारांशं पञ्चवाक्यैः लिखत।
उत्तर :
(i) पाठे आरुणिः श्वेतकेतुं विज्ञापयति। यत्
(ii) अन्नमयं भवति मनः।
(iii) आपोमयो भवति प्राणाः।
(iv) तेजोमयी भवति वाक्।
(v) मनुष्यः यादृशमन्नादिकं खादति तादृशमेव तस्य चित्तादिकं भवति।
प्रश्न 1.
"भगवन् ! श्वेतकेतुरहं.
रिक्तस्थाने पूरणीयक्रियापदं किम्?
(अ) वन्दे
(ब) वन्दते
(स) वन्दसे
(द) वन्दामहे
उत्तर :
(अ) वन्दे
प्रश्न 2.
"वत्स! चिरञ्जीव।"
रेखाङ्कितपदे प्रयुक्तसन्धेः नाम किम्?
(अ) यण्
(ब) दीर्घ
(स) अनुस्वार
(द) विसर्ग
उत्तर :
(स) अनुस्वार
प्रश्न 3.
'भगवन् ! प्रष्टुम् इच्छामि किमिदं मनः?"
रेखांकितपदे प्रयुक्तप्रत्ययः कः?
(अ) तव्यत्
(ब) तुमुन्
(स) तमप्
(द) क्त
उत्तर :
(ब) तुमुन्
प्रश्न 4.
"भगवन्! केयं वाक्?
रेखाङ्कितपदस्य सन्धि-विच्छेदः भवति
(अ) के + यम्
(ब) को + यम्
(स) का + अयम्
(द) का + इयम्
उत्तर :
(द) का + इयम्
प्रश्न 5.
"भूय एवं मां विज्ञापयतु।"
रेखाकितपदे प्रयुक्तविभक्तिः वर्तते
(अ) द्वितीया
(ब) चतुर्थी
(स) षष्ठी
(द) सप्तमी
उत्तर :
(अ) द्वितीया
लघूत्तरात्मक प्रश्न :
(क) संस्कृत में प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
'वाड्मनःप्राणस्वरूपम्' इति पाठस्य आधारग्रन्थः कः?
('वाङ्मनःप्राणस्वरूपम्' इस पाठ का आधार ग्रन्थ कौनसा है?)
उत्तर :
छान्दोग्योपनिषद्। ('छान्दोग्योपनिषद्'।)
प्रश्न 2.
मनः कः भवति?
(मन क्या होता है?)
उत्तर :
अशितस्यान्नस्य योऽणिष्ठः तन्मनः।
(खाये हुए अन्न का अत्यन्त लघु रूप मन होता है।)
प्रश्न 3.
प्राणः कः भवति?
(प्राण क्या होता है?)
उत्तर :
पीतानाम् अपां योऽणिष्ठः स प्राणः।
(पीये हुए जल का जो अत्यन्त लघु रूप है वह प्राण होता है।)
प्रश्न 4.
वाक् का भवति?
(वाक् क्या होती है?)
उत्तर :
अशितस्य तेजसा योऽणिष्ठः सा वाक् भवति।
(उपभोग किये गये तेज का जो सूक्ष्मतम रूप है वह वाक् होती है।)
प्रश्न 5.
सर्पिः किम् भवति? (घी क्या होता है?)
उत्तर :
मध्यमानस्य दधनः योऽणिमा, स ऊर्ध्वः समुदीषति, तत्सर्पिः भवति।
(मथे गए दही का जो सूक्ष्मतम रूप है, वह ऊपर उठता है तब वह घी होता है।)
प्रश्न 6.
आरुणिः उपदेशान्ते भूयोऽपि किं कर्तुमिच्छति?
(आरुणि उपदेश के अन्त में पुनः क्या करना चाहता है?)
उत्तर :
आरुणिः उपदेशान्ते भूयोऽपि श्वेतकेतुं विज्ञापयितुमिच्छति।
(आरुणि उपदेश के अन्त में पुनः श्वेतकेतु को बतलाना चाहता है।)
प्रश्न 7.
अन्नमयं किं भवति?
(अन्नमय क्या होता है?)
उत्तर :
अन्नमयं मनः भवति। (अन्नमय मन होता है।)
प्रश्न 8.
आपोमयो कः भवति?
(जलमय क्या होता है?)
उत्तर :
आपोमयो प्राणाः भवति।
(जलमय प्राण होते हैं।)
प्रश्न 9.
तेजोमयी का भवति?
(तेजमयी क्या होती है?)
उत्तर :
तेजोमयी वाक् भवति। (तेजमयी वाक् होती है।)
प्रश्न 10.
मानवस्य चित्तादिकं कीदृशं भवति?
(मानव का चित्त आदि कैसा होता है?)
उत्तर :
यादृशमन्नादिकं गृह्णाति मानवः तादृशमेव तस्य चित्तादिकं भवति।
(मानव जिस प्रकार का अन्न आदि ग्रहण करता है उसी प्रकार का उसका चित्त आदि होता है।)
प्रश्न 11.
किम् नौ अधीतम् अस्तु? (हम दोनों के द्वारा पढ़ा हुआ कैसा होवे?)
उत्तर :
तेजस्वि नौ अधीतम् अस्तु। (हम दोनों के द्वारा पठित ज्ञान तेजस्विता से युक्त हो।)
प्रश्न 12.
श्वेतकेतोः पितुः किनाम आसीत्?
(श्वेतकेतु के पिता का क्या नाम था?)
उत्तर :
श्वेतकेतोः पितुः नाम आरुणिः आसीत्।
(श्वेतकेतु के पिता का नाम आरुणि था।)
प्रश्न 13.
'वाङ्मनःप्राणस्वरूपम्' पाठ कः कस्मै उपदेशं ददाति?
('वाङ्मनःप्राणस्वरूपम्' पाठ में कौन किसको उपदेश देता है?)
उत्तर :
पाठेऽस्मिन् ऋषिः आरुणिः स्वपुत्राय श्वेतकेतवे उपदेशं ददाति।
(इस पाठ में ऋषि आरुणि अपने पुत्र श्वेतकेतु को उपदेश देते हैं।)
प्रश्न 14.
श्वेतकेतुः सर्वप्रथमं कस्मिन् विषये पृच्छति? (श्वेतकेतु सबसे पहले किस विषय में पूछता है?)
उत्तर :
श्वेतकेतुः सर्वप्रथमं मनसः विषये पृच्छति।
(श्वेतकेतु सबसे पहले मन के विषय में पूछता है।)
प्रश्न 15.
कीदृशस्य तेजसः अणिष्ठः वाक् भवति?
(किस प्रकार के तेज का लघुतम भाग वाणी होती है?)
उत्तर :
अशितस्य तेजसः अणिष्ठः वाक् भवति।
(उपभोग किये गये तेज का लघुतम भाग वाणी होती है।)
(ख) प्रश्न निर्माणम् :
प्रश्न 1.
रेखाङ्कितपदमाधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत -
उत्तर :
प्रश्न निर्माणम्
पाठ-परिचय - प्रस्तुत पाठ छान्दोग्योपनिषद् के छठे अध्याय के पञ्चम खण्ड पर आधारित है। इसमें मन, प्राण तथा वाक् (वाणी) के संदर्भ में रोचक विवरण प्रस्तुत किया गया है। उपनिषद् के गूढ़ प्रसंग को बोधगम्य बनाने के उद्देश्य से इसे आरुणि एवं श्वेतकेतु के संवादरूप में प्रस्तुत किया गया है। आर्ष-परम्परा में ज्ञान-प्राप्ति के तीन उपाय बताए गए हैं जिनमें परिप्रश्न भी एक है। यहाँ गुरुसेवापरायण शिष्य वाणी, मन तथा प्राण के विषय में प्रश्न पूछता है और आचार्य उन प्रश्नों के समुचित उत्तर प्रदान कर उसकी जिज्ञासा का समाधान करता है।
पाठ का सप्रसंग हिन्दी-अनुवाद एवं संस्कृत-व्याख्या -
1. श्वेतकेतुः - भगवन्! श्वेतकेतुरहं वन्दे।
आरुणिः - वत्स! चिरञ्जीव।
श्वेतकेतुः - भगवन्! किञ्चित्प्रष्टुमिच्छामि।
आरुणिः - वत्स! किमद्य त्वया प्रष्टव्यमस्ति?
श्वेतकेतुः - भगवन्! प्रष्टुमिच्छामि किमिदं मनः?
आरुणिः - वत्स! अशितस्यान्नस्य योऽणिष्ठः तन्मनः।
श्वेतकेतुः - कश्च प्राणः?
आरुणिः - पीतानाम् अपां योऽणिष्ठः स प्राणः।
श्वेतकेतुः - भगवन्! केयं वाक्?
आरुणिः - वत्स! अशितस्य तेजसा योऽणिष्ठः सा वाक्। सौम्य! मनः अन्नमयं, प्राणः आपोमयः
वाक् च तेजोमयी भवति इत्यप्यवधार्यम्।
कठिन-शब्दार्थ :
प्रसंग - प्रस्तुत नाट्यांश हमारी संस्कृत की पाठ्य-पुस्तक 'शेमुषी' (प्रथमो भागः) के 'वाङ्मनःप्राणस्वरूपम्' नामक पाठ से उद्धृत है। मूलतः यह पाठ 'छान्दोग्योपनिषद्' के छठे अध्याय के पञ्चम खण्ड पर आधारित है। इस अंश में मन, प्राण तथा वाणी के स्वरूप को रोचक ढंग से श्वेतकेतु और आरुणि के संवाद के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है।
हिन्दी-अनुवाद :
श्वेतकेतु-हे भगवन् ! मैं श्वेतकेतु आपको प्रणाम करता हूँ।
आरुणि-पुत्र! चिरकाल तक जीओ। श्वेतकेत-हे भगवन! मैं आपसे कछ पछना चाहता हूँ।
आरुणि-पुत्र! आज तुम्हें क्या पूछना है? श्वेतकेतु-हे भगवन् ! मैं यह पूछना चाहता हूँ कि यह मन क्या है?
आरुणि-पुत्र! खाये हुए अन्न का जो लघुतम भाग है, वही मन है। श्वेतकेतु-और प्राण क्या है?
आरुणि-पीये गए जल का जो सबसे सूक्ष्म (लघुतम) भाग है, वही प्राण है। श्वेतकेतु-हे भगवन् ! यह वाणी क्या है?
आरुणि-पुत्र! खाये हुए अन्न से उत्पन्न तेज (ऊर्जा) का जो सबसे सूक्ष्म (लघुतम) भाग है वही वाणी है। हे सौम्य! यह मन अन्न से निर्मित है, प्राणं जल में परिणत है और वाणी तेज (अग्नि) का परिणामभूत है, यह भी समझने के योग्य है।
सप्रसङ्ग संस्कृत-व्याख्या -
प्रसङ्ग: - प्रस्तुतसंवादः अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य 'शेमुषी-प्रथमो भागः' इत्यस्य 'वाङ्मनःप्राणस्वरूपम्' इति शीर्षकपाठाद् उद्धृतः। मूलतः पाठोऽयं छान्दोग्योपनिषदः षष्ठाध्यायात् संकलितः। संवादेऽस्मिन् श्वेतकेतुः स्वपितरं आरुणिं मन-प्राण वाणीनां विषये प्रश्नानि पृच्छति। आरुणिः तस्य जिज्ञासां शमयति।
संस्कृत-व्याख्या -
श्वेतकेतुः - हे प्रभो! अहं श्वेतकेतुः प्रणामं करोमि।
आरुणिः - पुत्र! आयुष्मान् भव।
श्वेतकेतुः - हे प्रभो ! कमपि प्रश्नं कर्तुम् ईहे।
आरुणिः - पुत्र ! भवता अद्य किं प्रच्छनीयम्?
श्वेतकेतुः - हे प्रभो! प्रष्टुमीहे यदेतन्मनः किं भवति?
आरुणिः - पुत्र! भक्षितस्य धान्यस्य यः लघिष्ठः भागः तत् मनः भवति।
श्वेतकेतुः - प्राणः च को भवति?
आरुणिः - कृतपानस्य जलस्य यः लघुतमः भागः सः प्राणः।
श्वेतकेतुः - हे प्रभो! एषा वाणी का भवति?
आरुणिः - पुत्र! उपभुक्तस्य तेजसः यः लघिष्ठः भागः सा वाणी भवति। वत्स! मनः अन्नस्य विकारभूतं भवति, प्राणः जलमयः वाणी चाग्निमयी भवति। एवमपि त्वया अवगन्तव्यम्।
व्याकरणात्मक टिप्पणी -
2. श्वेतकेतुः - भगवन्! भूय एव मां विज्ञापयतु।
आरुणिः - सौम्य! सावधानं शृणु। मथ्यमानस्य दनः योऽणिमा, स ऊर्ध्वः समुदीषति। तत्सर्पिः भवति।
श्वेतकेतुः - भगवन्! व्याख्यातं भवता घृतोत्पत्तिरहस्यम्। भूयोऽपि श्रोतुमिच्छामि।
आरुणिः - एवमेव सौम्य! अश्यमानस्य अन्नस्य योऽणिमा, स ऊर्ध्वः समुदीषति। तन्मनो भवति। अवगतं न वा?
श्वेतकेतुः - सम्यगवगतं भगवन्!
आरुणिः - वत्स! पीयमानानाम् अपां योऽणिमा स ऊर्ध्वः समुदीषति स एव प्राणो भवति।
कठिन-शब्दार्थ :
प्रसंग - प्रस्तुत संवाद हमारी संस्कृत की पाठ्य-पुस्तक 'शेमुषी' (प्रथमो भागः) के 'वाङ्मनःप्राणस्वरूपम्' नामक पाठ से उद्धृत है। इसमें श्वेतकेतु तथा आरुणि के संवाद के माध्यम से मन, प्राण एवं वाणी के स्वरूप का सूक्ष्म वर्णन किया गया है।
हिन्दी-अनुवाद : श्वेतकेतु-हे भगवन् ! फिर से एक बार मुझे समझाइए।
आरुणि-हे सौम्य ! सावधानी से सुनो। मथे जाते हुए दही का जो लघुतम भाग है, वह ऊपर उठ जाता है और वही घृत (घी) होता है।
श्वेतकेतु-हे भगवन् ! आपने घृत की उत्पत्ति के रहस्य का वर्णन कर दिया। इसके आगे भी कुछ सुनना चाहता हूँ।
आरुणि-हे सुशील! इसी प्रकार खाये हुए अन्न का जो लघुतम भाग है, वह ऊपर उठ जाता है और वही मन है। समझे या नहीं?
श्वेतकेतु-हे भगवन् ! अच्छी प्रकार से समझ गया।
आरुणि-पुत्र! पीये गये हुए जल का जो सबसे सूक्ष्मतम रूप है, जो ऊपर उठता है, वही प्राण होता है।
सप्रसङ्ग संस्कृत-व्याख्या : प्रस्तुतसंवादः अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य 'शेमुषी-प्रथमो भागः' इत्यस्य 'वाङ्मनःप्राणस्वरूपम्' इति शीर्षकपाठाद् उद्धृतः। मूलतः पाठोऽयं छान्दोग्योपनिषदः षष्ठाध्यायस्य पञ्चमखण्डात् संकलितः। अंशेऽस्मिन् श्वेतकेतो: आरुणेश्च
संवादमाध्यमेन मन-प्राण-वाणीनां स्वरूपस्य सूक्ष्मरूपेणवर्णनं वर्तते।
संस्कृत-व्याख्या श्वेतकेत: - हे प्रभो ! पुनरपि अतिशयेन एव मां प्रबोधय।
आरुणिः-वत्स! सावचेतः भूत्वा आकर्णय। आलोड्यमानस्य दनः या सूक्ष्मता भवति सा उपरि समुत्तिष्ठति, तदेव घृतं भवति।
श्वेतकेतुः-हे प्रभो! स्पष्टीकृतं त्वया आज्योद्गमनस्य गूढं (परञ्च) पुनरपि अहं श्रवणाय ईहे।
आरुणिः-तथैव वत्स! भक्ष्यमाणस्य धान्यस्य या सूक्ष्मता भवति सा उपरि समुत्तिष्ठति। तत् मनः भवति। ज्ञातं न वा? श्वेतकेतुः-सम्यक् मया ज्ञातं देव!
आरुणिः-पुत्र! आचम्यमानानां जलानां यः सूक्ष्मतमः रूपः भवति, असौ उपरि गच्छति। असौ एव प्राणः भवति।
व्याकरणात्मक टिप्पणी -
3. श्वेतकेतुः - भगवन्। वाचमपि विज्ञापयतु।
आरुणिः - सौम्य! अश्यमानस्य तेजसो योऽणिमा, स ऊर्ध्वः समुदीषति। सा खलु वाग्भवति। वत्स! उपदेशान्ते भूयोऽपि त्वां विज्ञापयितुमिच्छामि यदन्नमयं भवति मनः, आपोमयो भवति प्राणस्तेजोमयी च भवति वागिति। किञ्च यादृशमन्नादिकं गृह्णाति मानव स्तादृशमेव तस्य चित्तादिकं भवतीति मदुपदेशसारः। वत्स! एतत्सर्वं हृदयेन अवधारय।
श्वेतकेतः - यदाज्ञापयति भगवन। एष प्रणमामि।
आरुणिः - वत्स! चिरञ्जीव। तेजस्वि नौ अधीतम् अस्तु।
कठिन-शब्दार्थ :
प्रसंग - प्रस्तुत संवाद हमारी संस्कृत की पाठ्य-पुस्तक 'शेमुषी' (प्रथमो भागः) के 'वाङ्मनःप्राणस्वरूपम्' नामक पाठ से उद्धृत है। मूलतः यह पाठ 'छान्दोग्योप-निषद्' के छठे अध्याय के पञ्चम खण्ड से संकलित किया गया है। इस अंश में श्वेतकेतु और आरुणि के संवाद के माध्यम से मन, प्राण तथा वाणी के स्वरूप का रोचक एवं सरल ढंग से वर्णन किया गया है।
हिन्दी अनुवाद :
श्वेतकेतु - हे भगवन् ! वाणी के विषय में भी समझाइये।
आरुणि-हे सौम्य (सशील) ! खाये जाते हए तेजोमय भाग का जो लघतम रूप है वह ऊपर उठता है. निश्चय ही वह वाणी होती है। पुत्र ! इस उपदेश (व्याख्यान) के अन्त में एक बार पुनः तुम्हें समझाना चाहता हूँ कि अन्न का ही परिणामभूत (विकार) मन होता है, जल का ही परिणामभूत प्राण होता है तथा तेज का ही परिणामभूत (विकार) वाणी होती है। और अधिक क्या? मनुष्य जैसा भी अन्न आदि खाता है वैसा ही उसका मन आदि हो जाता है, यही मेरे उपदेश (शिक्षा) का सार है। पुत्र! यह सम्पूर्ण ज्ञान अपने हृदय में धारण कर लो।
श्वेतकेतु - जैसी आप आज्ञा देते हैं। हे भगवन् ! यह मैं प्रणाम करता हूँ।
आरुणि - पुत्र ! आयुष्मान होओ। हम दोनों (गुरु-शिष्य) के द्वारा पढ़ा हुआ (गृहीत) ज्ञान तेजोयुक्त होवे।
सप्रसङ्ग संस्कृत-व्याख्या -
प्रसङ्ग - प्रस्तुतसंवादः अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य 'शेमुषी-प्रथमो भागः' इत्यस्य 'वाङ्मनःप्राणस्वरूपम्' इति शीर्षकपाठाद् उद्धृतः। अंशेऽस्मिन् महर्षिः आरुणिः स्वप्रवचनस्य अवसाने श्वेतकेतो: मन-प्राण-वाणीनां स्वरूपविषये जिज्ञासायाः निवारणं सूक्ष्मतया करोतीति वर्णितम्।
संस्कृत-व्याख्या श्वेतकेतुः - हे प्रभो! वाणीमपि मां प्रबोधय।
आरुणि: - वत्स! भक्ष्यमाणस्याग्नेः या सूक्ष्मता भवति, सा उपरि उच्छलति, सा निश्चयेन वाणी भवति। पुत्र! प्रवचनावसाने पुनरपि अतिशयेन अहं भवन्तं प्रबोधयितुम् ईहे यत् मनः धान्यस्य विकारभूतं भवति। जलमयो भवति प्राणः, वाणी च अग्निमयी भवति। यथा धान्यादिकम् अश्नाति मनुष्यः तथैव तस्य जनस्य हृदयादिकं भवति। अयमेव मम प्रवचनस्य सारः। पुत्र! इदं सकलं मनसि धारय।
श्वेतकेतुः - यथा आदिशति श्रीमान्। अयमहं त्वां नमामि। आरुणिः-वत्स! आयुष्मान् भव। आवयोः पठितं ज्ञानं तेजोयुक्तं भवतु।
व्याकरणात्मक टिप्पणी -