Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Sociology Chapter 6 सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियाँ Textbook Exercise Questions and Answers.
प्रश्न 1.
सांस्कृतिक विविधता का क्या अर्थ है? भारत को एक अत्यन्त विविधतापूर्ण देश क्यों माना जाता है?
उत्तर:
सांस्कृतिक विविधता शब्द असमानताओं की अपेक्षा अन्तरों पर अधिक बल देता है। उदाहरण के लिए, जब हम यह कहते हैं कि भारत एक महान् सांस्कृतिक विविधता वाला देश है तो इसका तात्पर्य यही है कि यहाँ पर अनेक प्रकार के सामाजिक समूह एवं समुदाय निवास करते हैं। ये समुदाय सांस्कृतिक चिन्हों, जैसे - भाषा, धर्म, प्रजाति अथवा जाति के रूप में परिभाषित किये जाते हैं। इन्हीं सब कारणों से भारत को विविधतापूर्ण देश के रूप में जाना जाता है।
सांस्कृतिक अंतरों का समायोजन कठिन - सांस्कृतिक विविधताओं के अन्तरों का समायोजन करना राजनैतिक दृष्टि से चुनौतीपूर्ण होता है। इसलिए अनेक राज्यों ने इन विविध पहचानों को राजनीतिक स्तर पर दबाया है।
प्रश्न 2.
सामुदायिक पहचान क्या होती है और वह कैसे बनती है?
उत्तर:
सामुदायिक पहचान जन्म से सम्बन्धित होने के भाव पर आधारित होती है न कि किसी अर्जित योग्यता अथवा प्रस्थिति की उपलब्धि के आधार पर। यह 'हम क्या हैं' इस भाव का परिचायक होती है न कि इस भाव का परिचायक है कि 'हम क्या बन गये हैं। किसी भी समुदाय में जन्म लेने के लिए हमें कुछ भी नहीं करना पड़ता है। सत्य तो यही है कि किसी परिवार, समुदाय अथवा देश में उत्पन्न होने अथवा जन्म लेने पर हमारा कोई वश नहीं होता है। इस प्रकार की पहचानों को प्रदत्त पहचान के रूप में जाना जाता है। दूसरे शब्दों में, प्रदत्त पहचान व्यक्ति के जन्म पर आधारित होती है और जन्म से निश्चित होती है। सम्बन्धित लोगों की पसन्द अथवा नापसन्द इसके साथ जुड़ी नहीं होती है।
प्रश्न 3.
राष्ट्र को परिभाषित करना क्यों कठिन है ? आधुनिक समाज में राष्ट्र और राज्य कैसे सम्बन्धित हैं?
उत्तर:
राष्ट्र को परिभाषित करने में कठिनाई - राष्ट्र एक विशेष प्रकार का समुदाय होता है जिसका वर्णन तो सरल है लेकिन इसे परिभाषित करना कठिन है; क्योंकि राष्ट्र की हरेक संभव कसौटी के लिए बहुत से अपवाद तथा विरोधी उदाहरण मिलते हैं। यथा:
(1) बहुत से राष्ट्र ऐसे हैं जिनकी स्थापना साझे धर्म, भाषा, नृजातीयता, इतिहास या क्षेत्रीय संस्कृति जैसी साझी सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और राजनैतिक संस्थाओं के आधार पर की गई है। इनमें से ऐसे परिभाषित लक्षणों को तय करना कठिन है जो एक राष्ट्र के लिए आवश्यक हैं।
(2) ऐसे अनेक राष्ट्र हैं जिनकी अपनी एक साझा भाषा, धर्म या नृजातीयता नहीं है। लेकिन दूसरी तरफ अनेक भाषाएँ अथवा नजातियाँ ऐसी हैं, जो अनेक राष्ट्रों में मिलती हैं। लेकिन यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि सभी मिलकर एक एकीकृत राष्ट्र का निर्माण करते हैं।
इससे स्पष्ट होता है कि राष्ट्र को परिभाषित करना काफी कठिन है। इसके बारे में यही कहा जा सकता है कि राष्ट्र एक ऐसा समुदाय है जो अपना राज्य प्राप्त करने में सफल हो गया है। आधुनिक समाज में राष्ट्र - राज्य सम्बन्ध
प्रश्न 4.
राज्य अक्सर अपनी सांस्कृतिक विविधता के बारे में शंकालु क्यों होते हैं?
उत्तर:
सांस्कृतिक विविधता के बारे में राज्य की शंकालुता - राज्य अक्सर अपनी सांस्कृतिक विविधता के बारे में शंकालु होते हैं। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं
(1) नागरिकों से देशभक्ति और आज्ञाकारिता प्राप्त करना कठिन - ऐतिहासिक तौर पर राज्यों ने राष्ट्रनिर्माण की रणनीतियों के माध्यम से अपनी राजनीतिक वैधता को स्थापित करने और उसे और ज्यादा बढ़ाने के प्रयत्न किये हैं। उन्होंने आत्म सात्करण और एकीकरण की नीतियों के माध्यम से अपने नागरिकों को देशभक्ति, निष्ठा, आज्ञाकारिता प्राप्त करने के प्रयास किये हैं।
लेकिन सांस्कृतिक विविधता के संदर्भ में नागरिकों की देशभक्ति, निष्ठा और आज्ञाकारिता के उद्देश्यों को प्राप्त करना आसान नहीं था; क्योंकि सांस्कृतिक विविधता की परिस्थिति में नागरिक अपने देश के साथ अपनत्व रखने के साथ - साथ संभवतः अपने नृजातीय, धार्मिक, भाषायी अथवा अन्य किसी प्रकार के समुदाय के साथ भी गहरा तादात्म्य रखते हैं। इसलिए राज्य अक्सर अपनी सांस्कृतिक विविधता के बारे में शंकाल रहते हैं।
(2) सामाजिक विखंडन का डर-अधिकांश राज्यों को यह डर था कि सांस्कृतिक विविधता के अन्तर को मान्यता प्रदान किये जाने से सामाजिक विखंडन की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी और समरसतापूर्ण समाज के निर्माण में रुकावट आयेगी। संक्षेप में, इस प्रकार की पहचान सम्बन्धी राजनीति राज्य की एकता के लिए खतरा समझी गई।
प्रश्न 5.
क्षेत्रवाद क्या होता है? आमतौर पर यह किन कारणों पर आधारित होता है?
उत्तर:
क्षेत्रवाद का अर्थ - क्षेत्रवाद एक संकुचित धारणा है। इसके अन्तर्गत किसी क्षेत्र विशेष के लोग राष्ट्र की तुलना में अपने क्षेत्र विशेष के हितों और स्वार्थों पर अधिक ध्यान देते हैं तथा राष्ट्रीय हितों को इसमें गौण कर दिया जाता है। कभी - कभी लोगों की यही संकुचित सोच ही नये राज्यों की माँगों का कारण भी बन जाती है।क्षेत्रवाद के कारण-क्षेत्रवाद के लिए कई कारण उत्तरदायी रहे हैं।
1. भाषाई कारण - भारत में विभिन्न भाषाओं के लोग साथ-साथ निवास करते हैं। कई बार भाषा को लेकर तनाव और संघर्ष की भावना उत्पन्न हो जाती है। भाषा के आधार पर नये राज्यों की मांग भी होती है। उदाहरण के लिए, पूर्व मुम्बई और पंजाब बहुभाषी राज्य थे। भाषा के आधार पर राज्यों का पुनःनिर्माण हुआ और पंजाब से । हिमाचल प्रदेश और हरियाणा राज्य बने। मुम्बई से महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों का निर्माण किया गया था।
2. जनजातीय पहचान का कारण - जनजातीय पहचान के कारण भी क्षेत्रीयता की भावना का उदय होता है। विशिष्ट जनजातियों के द्वारा समय - समय पर अपने अधिकारों की माँग की जाती है और इसी सन्दर्भ में कई क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का उदय भी होता है, जिनके द्वारा क्षेत्रीय लोगों को संगठित करके और उनमें जनचेतना पैदा करके नये राज्य की माँग की जाती है। उदाहरण के लिए, भारत में सन् 2000 में जो छत्तीसगढ़ नया राज्य बना है, वह जनजातीय माँग का ही एक सशक्त उदाहरण माना जा सकता है।
3. क्षेत्रीय वचन - स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में सभी क्षेत्रों का समान रूप से विकास नहीं हो पाया है। देश में कई क्षेत्र तो ऐसे हैं जो कि विकास को प्राप्त हो चुके हैं और कई क्षेत्र ऐसे भी हैं जो कि विकास की प्रक्रिया में काफी पीछे रह गये हैं। ऐसी स्थिति में पिछड़े क्षेत्रों में विकास के नाम पर आन्दोलन होते हैं। और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का उदय होता है जो कि क्षेत्र विशेष के हितों के लिए लोगों को जागरूक करने का काम करते हैं।
4. पारिस्थितिकी पर आधारित नृजातीयता - पारिस्थितिकी और नृजातीयता भी नये राज्यों की माँग और क्षेत्रवाद के जन्म के लिए उत्तरदायी होती हैं।
प्रश्न 6.
आपकी राय में, राज्यों के भाषायी पुनर्गठन ने भारत का हित या अहित किया है ?
उत्तर:
हमारी राय में राज्यों के भाषायी पुनर्गठन ने भारत का हित अधिक किया है और अहित कम किया है। यथा भाषायी पुनर्गठन से होने वाला अहित भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन से निम्न समस्याएँ आती हैं।
(1) भाषायी पुनर्गठन से कुछ क्षेत्रों का विभाजन अत्यधिक कठिन हो जाता है और इस आधार पर पडौसी राज्यों में परस्पर संघर्ष चलता रहता है। इस प्रकार के विवाद हितकर न होकर अहितकर होते हैं।
(2) भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन से क्षेत्रवाद की समस्या भी प्रबल होती है। भाषायी पुनर्गठन से होने वाले हित.
(1) भाषा-आधारित राज्यों के निर्माण करते समय पं. जवाहरलाल नेहरू समेत अनेक नेताओं को यह भय था कि भाषा आधारित नये राज्यों के निर्माण की प्रक्रिया कहीं देश के उपविभाजन की प्रक्रिया को तेज न कर दे। लेकिन भाषा-आधारित राज्यों के द्वारा देश की एकता और अखण्डता को कोई क्षति नहीं पहुँचाई गई, अपितु इन्होंने राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को मजबूत करने की दिशा में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया।
(2) भाषा के आधार पर नये राज्यों के निर्माण से स्थानीय लोगों में मानसिक सन्तोष की भावना पैदा हुई और साथ में ही शांति और सहयोग की भावना भी विकसित हुई।
(3) भाषा के आधार पर नये राज्यों के गठन से उस क्षेत्र का विकास भी पहले की अपेक्षा तेजी के साथ हुआ।
इस प्रकार भाषा आधारित राज्यों के निर्माण से अनेक हितकारी परिणाम सामने आए।
प्रश्न 7.
'अल्पसंख्यक' (वर्ग) क्या होता है? अल्पसंख्यक वर्गों को राज्य से संरक्षण की जरूरत क्यों होती है?
उत्तर:
अल्पसंख्यक वर्ग का अर्थ - अल्पसंख्यक समूहों की धारणा का प्रयोग समाजशास्त्र में व्यापक रूप से किया जाता है। संख्यात्मक विशिष्टता के अलावा इसका और भी महत्त्व होता है। इसमें प्रायः असुविधा अथवा हानि का भाव निहित होता है। अतः विशेषाधिकार प्राप्त अल्पसंख्यकों, जैसे - अत्यधिक धनवान लोगों को अल्पसंख्यकों की श्रेणी में नहीं लिया जा सकता है। यदि इनका उल्लेख करना आवश्यक हो जाये तो इनके साथ कोई विशेषक जोड़ दिया जाता है, जैसे-विशेषाधिकार प्राप्त अल्पसंख्यक।
जब अल्पसंख्यक शब्द का प्रयोग विशेषक के रूप में किया जाता है तो सामान्य रूप से इसका अर्थ अपेक्षाकृत छोटे परन्तु साथ ही सुविधाविहीन समूह के लिए किया जाता है। अल्पसंख्यक शब्द का समाजशास्त्रीय अर्थ हैअल्पसंख्यक वर्ग के सदस्य सामूहिकता का निर्माण करते हैं। दूसरे शब्दों में, ऐसे लोगों में अपने समूह के प्रति एकात्मकता, एकजुटता और इससे सम्बन्धित होने का प्रबल भाव समाहित होता है। यह भाव हानि अथवा असुविधा के साथ जुड़ा हुआ होता है, क्योंकि पूर्वाग्रह और भेदभाव का शिकार होने का अनुभव आमतौर पर अपने ही समूह के प्रति निष्ठा और लगाव की भावनाओं को बढ़ावा देता है। अल्पसंख्यकों को राज्य द्वारा संरक्षण-अल्पसंख्यक वर्गों को राज्य के संरक्षण की आवश्यकता विभिन्न कारणों से होती है।
(1) अल्संख्यक वर्ग के लोग सदियों से समाज में अपवर्जन की नीति के शिकार रहे हैं। अतः इन वर्गों के लोगों को राष्ट्र की मुख्य धारा के साथ जोड़ने के लिए राज्य के द्वारा इन वर्गों को विशेष रूप से संरक्षण दिये जाने की आवश्यकता होती है।
(2) एक लोकतांत्रिक राज्य में सभी वर्गों के समान अल्पसंख्यक वर्गों के अधिकारों को सनिश्चित करने के लिए भी राज्य के द्वारा अल्पसंख्यकों को संरक्षण देने की विशेष रूप से आवश्यकता होती है। जिससे कि अन्य समुदायों की भाँति अल्पसंख्यक वर्गों के द्वारा भी अपने अधिकारों का प्रयोग किया जा सके।
(3) अल्पसंख्यक वर्ग के लोगों की अपनी विशिष्ट भाषा और संस्कृति होती है। इसके संरक्षण के लिए यह आवश्यक होता है कि राज्य के द्वारा इन वर्गों को संरक्षण दिया जाये। जिससे कि इन वर्गों के लोग अपनी भाषा और संस्कृति का उचित प्रकार से संरक्षण कर सकें।
(4) अल्पसंख्यक वर्गों में आमतौर पर शिक्षा की कमी पाई जाती है। इसी कारण से इन वर्गों के लोग एक तो अपने अधिकारों से परिचित नहीं हो पाते हैं तो दूसरी ओर ये लोग शोषण और अनाचार के भी शिकार होते हैं। अतः शिक्षा के प्रचार-प्रसार और इनके शोषण को रोकने के लिए राज्य के द्वारा इन्हें संरक्षण दिये जाने की आवश्यकता होती है। निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि विभिन्न कारणों से अल्पसंख्यकों को राज्य से संरक्षण की आवश्यकता होती है।
प्रश्न 8.
सम्प्रदायवाद अथवा साम्प्रदायिकता क्या है?
उत्तर:
साम्प्रदायिकता का अर्थ-सामान्य रूप से साम्प्रदायिकता अथवा सम्प्रदायवाद का अर्थ है-धार्मिक पहचान पर आधारित आक्रामक उग्रवाद । उग्रवाद, अपने आप में एक ऐसी अभिवृत्ति है जो कि अपने ही समूह को वैध अथवा श्रेष्ठ मानती है और दूसरी ओर अन्य समूहों को निम्न, हीन अथवा अपना विरोधी मानती है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि साम्प्रदायिकता एक आक्रामक राजनीतिक विचारधारा है।
साम्प्रदायिकता का स्वरूप:
(1) साम्प्रदायिकता राजनीति के साथ सम्बन्धित होती है न कि धर्म के साथ। यद्यपि यह भी सत्य है कि सम्प्रदायवादी धर्म के साथ भी घनिष्ठ रूप से जुड़े होते हैं; लेकिन यह भी सत्य है कि व्यक्तिगत विश्वास और सम्प्रदायवादी के बीच आवश्यक रूप से कोई सम्बन्ध नहीं होता है।
(2) सम्प्रदायवाद के द्वारा प्रायः यह दावा किया जाता है कि धार्मिक पहचान अन्य सभी की अपेक्षा सर्वोच्च होती है। चाहे व्यक्ति धनी हो अथवा गरीब, चाहे उसका व्यवसाय कोई भी क्यों न हो, जाति अथवा राजनीतिक विश्वास हो, धर्म ही सब कुछ होता है।
(3) भारत में सम्प्रदायवाद एक विशिष्ट मुद्दा बन गया है, क्योंकि यह तनाव, व्यक्तिगत द्वेष और हिंसा का पुनरावर्तक स्रोत होता है। साम्प्रदायिकता के दौरान, लोग अपने-अपने समुदायों के पहचानहीन सदस्य बन जाते हैं । यहाँ तक लोग हिंसा, लूटपाट, बलात्कार तथा इसी प्रकार की गैर-कानूनी गतिविधियों में संलग्न हो जाते हैं और इन औचित्यहीन कार्यों के सम्बन्ध में उनका मानना है कि उनके द्वारा ऐसा अपने सहधर्मियों के लिए बदला लेने के लिए किया जा रहा है।
(4) साम्प्रदायिकता की स्थिति में जन-धन की व्यापक हानि होती है। इसके कारण समाज में असन्तोष फैलता है। परस्पर तनाव के साथ-साथ लोग एक-दूसरे के प्रति अविश्वास भी रखते हैं। इस प्रकार से साम्प्रदायिकता असन्तोष और राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध होती है। निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि साम्प्रदायिकता समाज और राष्ट्र दोनों के लिए ही हानिकारक होती है।
प्रश्न 9.
भारत में वह विभिन्न भाव (अर्थ) कौनसे हैं जिनमें धर्मनिरपेक्षता या धर्मनिरपेक्षतावाद को समझा जाता है?
उत्तर:
भारत में धर्मनिरपेक्षता का भाव-धर्मनिरपेक्षता के भारतीय भाव में पश्चिमी भाव भी सन्निहित हैं और साथ में ही इसमें कुछ अन्य भाव भी विद्यमान हैं। सामान्य रूप से धर्मनिरपेक्षता शब्द का प्रयोग 'साम्प्रदायिकता' के बिल्कुल विपरीत अथवा विलोम के अर्थ में किया जाता है। इस प्रकार से एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति अथवा राज्य वह होता है जो किसी विशेष धर्म का अन्य धर्मों की तुलना में पक्ष नहीं लेता है।
इस भाव से धर्मनिरपेक्षता धार्मिक उग्रवाद का विरोधी भाव है और इसमें धर्म के प्रति विद्वेष अथवा तनाव का भाव होना आवश्यक नहीं है। राज्य और धर्मों के पारस्परिक सम्बन्धों की दृष्टि से, धर्मनिरपेक्षता का यह भाव सभी धर्मों के समान आदर और सम्मान का प्रतीक होता है। भारतीय सन्दर्भ में धर्मनिरपेक्षता के भाव की विशेषताएँ-भारतीय सन्दर्भ में धर्मनिरपेक्षता की निम्न विशेषताएँ हैं।
अन्त में निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि भारत में कितने ही धर्मों के लोग निवास करते हैं।संविधान के द्वारा भारत में पंथनिरपेक्षता को अपनाया गया है और प्रत्येक नागरिक को धार्मिक मामलों में पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की गई है।
प्रश्न 10.
आज नागरिक समाज संगठनों की क्या प्रासंगिकता है?
उत्तर:
नागरिक समाजों की प्रासंगिकता:
(1) 1970 के दशक में नागरिक समाज द्वारा अनेक नये-नये कार्यक्रम आरम्भ किये गये। इसी अवधि में महिलाओं, पर्यावरण की सुरक्षा, मानव अधिकार और दलितों के आन्दोलन आरम्भ हुए, जिन्होंने नागरिक समाज की प्रासंगिकता को स्पष्ट कर दिया।
(2) आज नागरिक समाज के संगठनों के क्रियाकलाप और भी अधिक व्यापक हो गये हैं, जिसमें राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय अभिकरणों के साथ पक्ष समर्थन तथा प्रचार सम्बन्धी गतिविधियाँ चलाने के साथ-साथ विभिन्न आन्दोलनों में सक्रियतापूर्वक भाग लेना आवश्यक है।
(3) इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के मुद्दों को उठाया गया, जैसे-भूमि सम्बन्धी सुधारों के लिए जनजातीय आन्दोलन, नगरीय शासन का हस्तान्तरण, स्त्रियों के प्रति हिंसा और बलात्कार के प्रति अभियान, बाँधों तथा अन्य विकास परियोजनाओं के कारण विस्थापित होने वाले लोगों का पुनर्वास, मशीनों की सहायता से मछलियाँ पकड़ने वाले मछुआरों का संघर्ष, फेरी लगाकर के सामान बेचने वाले और पटरियों के किनारे रहने वाले लोगों का पुनर्वास इत्यादि।
(4) नागरिक स्वतंत्रता संगठन राज्य के कामकाज पर निगाह रखने के लिए और उससे कानून का पालन करवाने के लिए महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो रहे हैं।
(5) सूचना के अधिकार को इस दिशा में मील का पत्थर माना जा सकता है। इसके द्वारा नागरिकों को सरकारी एजेन्सियों से विभिन्न मामलों में सूचना को पाने का अधिकार दिया गया है।
(6) नागरिक समाज यह सुनिश्चित करने के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि राज्य, राष्ट्र और उसके लोगों के प्रति जवाबदेह हैं। निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि नागरिक समाज की आवश्यकता और प्रासंगिकता आज भी काफी बढ़ती जा रही हैं।