Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Political Science Chapter 8 क्षेत्रीय आकांक्षाएँ Textbook Exercise Questions and Answers.
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क्रियाकलाप सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
(पृष्ठ संख्या 149)
प्रश्न 1.
क्या इसका मतलब यह हुआ कि क्षेत्रवाद सांप्रदायिकता के समान खतरनाक नहीं है ? क्या हम यह भी कह सकते हैं कि क्षेत्रवाद अपने आप में खतरनाक नहीं?
उत्तर:
भारत में विभिन्न क्षेत्र और भाषायी समूहों को अपनी संस्कृति बनाए रखने का अधिकार है। हमने एकता की भावधारा से बँधे एक ऐसे सामाजिक जीवन के निर्माण का निर्णय लिया था, जिसमें इस समाज को आकार देने वाली समस्त संस्कृतियों की विशिष्टता बनी रहे। भारतीय राष्ट्रवाद ने एकता और विविधता के बीच संतुलनं साधने की कोशिश की है। राष्ट्र का आशय यह नहीं है कि क्षेत्र को नकार दिया जाए। इस अर्थ में भारत का नजरिया यूरोप के कई देशों से पृथक् रहा, जहाँ सांस्कृतिक विभिन्नता को राष्ट्र की एकता के लिए खतरे के रूप में देखा गया।
परन्तु लोकतंत्र में क्षेत्रीय आकांक्षाओं की राजनीतिक अभिव्यक्ति की अनुमति है और लोकतंत्र क्षेत्रीयता को राष्ट्र - विरोधी नहीं मानता। क्षेत्रीय आकांक्षाएँ लोकतांत्रिक राजनीति का अभिन्न अंग हैं। बातचीत के माध्यम से सरकार ने क्षेत्रीय आंदोलनों के साथ समझौता किया। इससे सौहार्द्र का माहौल बना और कई क्षेत्रों में तनाव कम हुआ। जहाँ तक साम्प्रदायिकता का सवाल है यह धार्मिक या भाषायी आधार पर आधारित एक संकीर्ण मनोवृत्ति है। यह धार्मिक या भाषायी अधिकारों एवं हितों को राष्ट्रीय हितों के ऊपर रखती है। इसलिए यह समाज एवं राष्ट्र विरोधी मनोवृत्ति है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि क्षेत्रवसाम्प्रदायिकता के समान खतरनाक नहीं है, केवल इससे अलगाववाद की भावना नहीं पनपनी चाहिए अन्यथा क्षेत्रवाद एक राष्ट्र के लिए गम्भीर समस्या बन जाता है।
(पृष्ठ संख्या 150)
प्रश्न 2.
खतरे की बात हमेशा सीमांत के राज्यों के संदर्भ में ही क्यों उठाई जाती है? क्या इस सबके पीछे विदेशी हाथ ही होता है?
उत्तर:
स्वतंत्रता के तुरंत बाद हमारे देश को विभाजन, विस्थापन, देसी रियासतों के विलय और राज्यों के पुनर्गठन जैसे कठिन मुद्दों से जूझना पड़ा। आजादी के तुरंत बाद जम्मू - कश्मीर का मसला सामने आया। यह सिर्फ भारत - पाकिस्तान के बीच संघर्ष का मामला नहीं था। कश्मीर घाटी के लोगों की राजनीतिक आकांक्षाओं का सवाल भी इससे जुड़ा हुआ था। भारत और पाकिस्तान सीमा से लगे जम्मू-कश्मीर के विलय के संबंध में विवाद आज तक बना हुआ है। इस सबके पीछे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से विदेशी ताकतों का भी हाथ होता है, ताकि वे देश की शक्ति को कमजोर बना सकें तथा अपना मतलब सिद्ध कर सकें।
ठीक इसी प्रकार पूर्वोत्तर के कुछ भागों में भारत का अंग होने के मसले पर सहमति नहीं थी। पहले नगालैण्ड में और फिर मिजोरम में भारत से अलग होने की माँग करते हुए प्रभावशाली आंदोलन चले। दक्षिण भारत में भी द्रविड़ आंदोलन से जुड़े कुछ समूहों ने एक समय अलग राष्ट्र की बात उठाई थी। कश्मीर और नगालैण्ड जैसे कुछ क्षेत्रों में चुनौतियाँ इतनी विकट और जटिल थीं कि राष्ट्र-निर्माण के पहले दौर में इनका समाधान नहीं किया जा सका। आज भी विदेशी ताकतें भारत को कमजोर करने के लिए सीमांत राज्यों से हाथ मिला रही हैं।
(पृष्ठ संख्या 158)
प्रश्न 5.
पर यह सारी बात तो सरकार, अधिकारियों, नेताओं और आतंकवादियों के बारे में है। जम्मू एवं कश्मीर की जनता के बारे में कोई कुछ क्यों नहीं कहता ? लोकतंत्र में तो जनता की इच्छा को महत्व दिया जाना चाहिए। क्यों मैं ठीक कह रही हूँ न?
उत्तर:
सन् 1989 से जम्मू: कश्मीर में अलगाववादी राजनीति ने सर उठाया था। इसने कई रूप लिए और इस राजनीति की कई धाराएँ हैं। अलगाववादियों का एक वर्ग कश्मीर को अलग राष्ट्र बनाना चाहता है। अर्थात् एक ऐसा कश्मीर जो न पाकिस्तान का हिस्सा हो और न भारत का। सन् 1989 तक यह राज्य उग्रवादी आंदोलन की गिरफ्त में आ चुका था। इस आंदोलन में लोगों को अलग कश्मीर राष्ट्र के नाम पर लामबंद किया जा रहा था। उग्रवादियों को पाकिस्तान ने नैतिक, भौतिक और सैन्य सहायता दी। इन सब बातों को देखकर ऐसा लगता है कि ये समस्त बातें तो सरकार, अधिकारियों, नेताओं और आतंकवादियों के विषय में हैं। जम्मू एवं कश्मीर की जनता के बारे में भी विचार करना चाहिए क्योंकि इन सभी कार्यवाहियों का सीधा संबंध जनता से है इसलिए जम्मू एवं कश्मीर की जनता की भी राय लेनी चाहिए, क्योंकि लोकतंत्र में जनता की इच्छा को महत्व दिया जाना चाहिए। यह बात बिल्कुल सही है।
(पृष्ठ संख्या 163)
प्रश्न 6.
मेरी दोस्त चोन कहती है कि दिल्ली के लोग यूरोप के नक्शे के बारे में ज्यादा जानते हैं और अपने देश के पूर्वोत्तर के हिस्से के बारे में कम। अपने सहपाठियों को देखकर तो यही लगता है कि उसकी बात एक हद तक सही है।
उत्तर:
मेरी दोस्त चोन जो कि पूर्वोत्तर से संबंधित है। उसका कहना है कि दिल्ली के लोग यूरोप के नक्शे के बारे में ज्यादा जानते हैं तथा अपने देश के पूर्वोत्तर इलाके के बारे में कम जानते हैं। मैंने अपने सहपाठियों से भी पूर्वोत्तर के बारे में जानकारी ली तो पता चला कि यह बात एक सीमा तक सही भी है। पूर्वोत्तर का अलग - थलग पड़ जाना, इस इलाके की जटिल सामाजिक संरचना और देश के अन्य हिस्सों के मुकाबले इस इलाके का आर्थिक रूप से पिछड़ा होना, जैसी कई बातों ने एक साथ मिलकर एक जटिल स्थिति पैदा की। इस इलाके में भारत की अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखा काफी बड़ी है लेकिन पूर्वोत्तर और भारत के शेष भागों के बीच संचार व्यवस्था बहुत कमजोर थी जिसमें अब बहुत सुधार हुआ है। अतः लोग यहाँ के विषय में कम जानते हैं।
(पृष्ठ संख्या 165)
प्रश्न 7.
मुझे यह 'भीतरी' और 'बाहरी' का मामला कभी समझ में नहीं आता। कोई आदमी कहीं पहले चला गया हो तो वही दूसरों को 'बाहरी' समझने लगता है?
उत्तर:
पूर्वोत्तर क्षेत्र में बड़े पैमाने पर आप्रवासी आए हैं। इससे एक खास समस्या पैदा हुई है। स्थानीय जनता इन्हें 'बाहरी' समझती है और 'बाहरी' लोगों के खिलाफ उसके मन में गुस्सा है। भारत के दूसरे राज्यों अथवा किसी अन्य देश से आए लोगों को यहाँ की जनता रोजगार के अवसरों और राजनीतिक सत्ता के एतबार (विश्वास) से एक प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखती है। स्थानीय लोग बाहर से आए लोगों के बारे में मानते हैं कि ये लोग यहाँ की जमीन हथिया रहे हैं। पूर्वोत्तर के कई राज्यों में इस मसले ने राजनीतिक रंग ले लिया है और कभी - कभी इन बातों के कारण हिंसक घटनाएँ भी होती हैं। यह देखकर ऐसा लगता है कि कोई आदमी कहीं पहले चला गया हो तो वही दूसरों को 'बाहरी' समझने लगता है। अपने देश के ही निवासियों के साथ ऐसा व्यवहार उचित प्रतीत नहीं होता।
सन् 1985 में राजीव गाँधी के नेतृत्व वाली सरकार और ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) के साथ एक समझौता हुआ। समझौते से शांति स्थापित हुई और प्रदेश की राजनीति का चेहरा भी बदला लेकिन 'आप्रवास' की समस्या का समाधान नहीं हो पाया। 'बाहरी' का मसला अब भी असम और पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों की राजनीति में एक जीवंत मसला है। यह समस्या त्रिपुरा में ज्यादा गंभीर है क्योंकि यहाँ के मूल निवासी खुद अपने ही प्रदेश में अल्पसंख्यक बन गए हैं। मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश के लोगों में भी इसी भय के कारण चकमा शरणार्थियों को लेकर गुस्सा है।
प्रश्न 1.
निम्नलिखित में मेल करें
(अ) चरण सिंह |
(i) औद्योगीकरण |
(ब) पी.सी.महालनोबिस |
(ii) जोनिंग |
(स) बिहार का अकाल |
(iii) किसान |
(द) वर्गीज कूरियन |
(iv) सहकारी डेयरी |
उत्तर:
(अ) चरण सिंह |
(iii) किसान |
(ब) पी.सी.महालनोबिस |
(i) औद्योगीकरण |
(स) बिहार का अकाल |
(ii) जोनिंग |
(द) वर्गीज कूरियन |
(iv) सहकारी डेयरी |
प्रश्न 2.
पूर्वोत्तर के लोगों की क्षेत्रीय आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति कई रूपों में होती है। बाहरी लोगों के खिलाफ आन्दोलन, ज्यादा स्वायत्तता की माँग के आन्दोलन और अलग देश बनाने की माँग करना - ऐसी ही कुछ अभिव्यक्तियाँ हैं। पूर्वोत्तर के मानचित्र पर इन तीनों के लिए अलग - अलग रंग भरिए और दिखाइए कि किस राज्य में कौन - सी प्रवृत्ति ज्यादा प्रबल है?
उत्तर:
प्रश्न 3.
पंजाब समझौते के मुख्य प्रावधान क्या थे? क्या ये प्रावधान पंजाब और उसके पड़ोसी राज्यों के बीच तनाव बढ़ाने के कारण बन सकते हैं? तर्क सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर:
पंजाब समझौते के प्रमुख प्रावधान: सन् 1984 के चुनावों के बाद सत्ता में आने के बाद नए प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने नरमपंथी अकाली नेताओं से बातचीत प्रारंभ की। अकाली दल के तत्कालीन अध्यक्ष हरचंद सिंह लोंगोवाल के साथ जुलाई 1985 में एक समझौता हुआ। इसे राजीव गाँधी लोंगोवाल - समझौता या पंजाब समझौता कहा जाता है। यह समझौता पंजाब में शांति स्थापित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। इस समझौते के प्रावधान पंजाब व उसके पड़ोसी राज्यों के मध्य तनाव बढ़ाने के कारण नहीं बने। इस समझौते के प्रमुख प्रावधान इस प्रकार हैं।
समझौते के तुरंत बाद शांति न तो आसानी से स्थापित हुई और न बाद तक। हिंसा का चक्र लगभग एक दशक तक चलता रहा। उग्रवादी हिंसा व इस हिंसा को दबाने के लिए की गई कार्यवाहियों में मानवाधिकार का व्यापक उल्लंघन हुआ। साथ ही, पुलिस की ओर से भी ज्यादती हुई। केन्द्र सरकार को पंजाब में राष्ट्रपति शासन लागू करना पड़ा।।
समझौते के बाद शांति की पुनः स्थापना - संशय और हिंसा से भरे वातावरण में राजनीतिक प्रक्रिया को पुनः पटरी पर लाना आसान काम नहीं था। फिर भी इस दिशा में उठाए गए कुछ प्रमुख कदम इस प्रकार हैं।
1. सन् 1992 में पंजाब राज्य में चुनाव हुए परंतु गुस्से में आई जनता ने दिल से मतदान प्रक्रिया में पूरी तरह से भाग नहीं लिया। केवल 22% मतदाताओं ने मतदान का प्रयोग किया। उग्रवाद को सुरक्षा बलों द्वारा दबा दिया गया। परन्तु फिर भी अनेक वर्षों तक पूरी जनता विशेषकर हिन्दू और सिख दोनों को ही कष्ट व यातनाएँ झेलनी पड़ी।
2. सन् 1990 के दशक के मध्यवर्ती वर्षों में पंजाब में शांति की स्थापना हुई। सन् 1997 में अकाली दल (बादल) और भाजपा के गठबंधन को बड़ी जीत प्राप्त हुई। उग्रवाद को खत्म करने के बाद के दौर में यह पंजाब का पहला चुनाव था। राज्य में एक बार पुनः आर्थिक विकास तथा सामाजिक परिवर्तन के प्रश्न फिर से प्रमुख हो गए। वर्तमान में भी धार्मिक पहचान यहाँ के निवासियों के लिए लगातार प्रमुख बनी हुई है फिर भी राजनीति अब धर्म निरपेक्षता के मार्ग पर चल पड़ी है।
प्रश्न 4.
आनंदपुर साहिब प्रस्ताव के विवादास्पद होने के क्या कारण थे?
उत्तर:
पंजाब में सिख समुदाय. भी दूसरे धार्मिक समुदायों की भाँति जाति और वर्ग में बँटा हुआ था। कांग्रेस को दलितों के बीच चाहे वे सिख हों या हिंदू, अकालियों से कहीं अधिक समर्थन प्राप्त था। इन्हीं परिस्थितियों को देखते हुए सन् 1970 के दशक में अकालियों के एक वर्ग ने पंजाब के लिए स्वायत्तता की मांग उठाई। सन् 1973 ई. में, आनंदपुर साहिब में हुए एक सम्मेलन में इस आशय का प्रस्ताव पारित हुआ। आनंदपुर साहिब प्रस्ताव में क्षेत्रीय स्वायत्तता की बात उठाई गई थी। प्रस्ताव की माँगों में केन्द्र-राज्य संबंधों को पुनर्परिभाषित करने की बात भी शामिल थी। इस प्रस्ताव में सिख 'कौम' (नेशन या समुदाय) की आकांक्षाओं पर जोर देते हुए सिखों के 'बोलबाला' (प्रभुत्व या वर्चस्व) का ऐलान किया गया। परन्तु यह प्रस्ताव परोक्ष रूप से एक अलग सिख राष्ट्र की माँग को बढ़ावा देने वाला था। जिस कारण यह प्रस्ताव विवादास्पद हुआ।
आनंदपुर साहिब प्रस्ताव का सिख जन - समुदाय पर बड़ा कम असर पड़ा। कुछ साल बाद जब सन् 1980 में अकाली दल की सरकार बर्खास्त हो गई तो अकाली दल ने पंजाब तथा पड़ोसी राज्यों के बीच पानी के बँटवारे के मुद्दे पर एक आंदोलन चलाया। धार्मिक नेताओं के एक समूह ने स्वायत्त सिख पहचान की बात उठाई। कुछ चरमपंथी समूहों ने भारत से अलग होकर खालिस्तान नामक देश बनाने की वकालत की।
प्रश्न 5.
जम्मू-कश्मीर की अंदरूनी विभिन्नताओं की व्याख्या कीजिए और बताइए कि इन विभिन्नताओं के कारण इस राज्य में किस तरह अनेक क्षेत्रीय आकांक्षाओं ने सर उठाया है ?
उत्तर:
जम्मू - कश्मीर की अंदरूनी विभिन्नताएँ: जम्मू - कश्मीर में तीन राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्र सम्मिलित हैं - जम्मू, कश्मीर और लद्दाख। कश्मीर घाटी को कश्मीर के दिल के रूप में देखा जाता है। कश्मीरी बोली बोलने वाले अधिकतर लोग मुस्लिम हैं। कश्मीरी भाषी लोगों में अल्पसंख्यक हिन्दू भी शामिल हैं। जम्मू क्षेत्र पहाड़ी तलहटी व मैदानी इलाके का मिश्रण है, जहाँ हिन्दू, मुस्लिम तथा सिख अर्थात् अनेक धर्म व भाषाओं के लोग रहते हैं। लद्दाख पर्वतीय क्षेत्र है, जहाँ बौद्ध व मुस्लिमों की आबादी है, परन्तु यह आबादी बहुत कम है।
कश्मीर मुद्दे का स्वरूप-'कश्मीर मुद्दा' भारत तथा पाकिस्तान के बीच सिर्फ विवाद भर नहीं है। इस मुद्दे के कुछ बाहरी तो कुछ भीतरी पहलू हैं। इसमें कश्मीरी पहचान का सवाल जिसे कश्मीरियत के रूप में जाना जाता है, सम्मिलित है। इसके साथ ही साथ जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक स्वायत्तता का मुद्दा भी इसी से जुड़ा हुआ है। विभिन्नताओं के परिप्रेक्ष्य में विभिन्न प्रकार की आकांक्षाएँ।
(i) शेख अब्दुल्ला द्वारा धर्म निरपेक्ष राज्य बनाने की आकांक्षा-जम्मू एवं कश्मीर में सन् 1947 से पहले राजशाही थी। इसके हिन्दू शासक हरिसिंह भारत में शामिल होना नहीं चाहते थे तथा उन्होंने अपने स्वतंत्र राज्य के लिए भारत और पाकिस्तान के साथ समझौता करने की कोशिश की। पाकिस्तानी नेता सोचते थे कि कश्मीर पाकिस्तान से संबद्ध है, क्योंकि राज्य की अधिकांश आबादी मुस्लिम है। परन्तु यहाँ के निवासी स्थिति को अलग दृष्टिकोण से देखते थे। वे अपने को सबसे पहले कश्मीरी तथा बाद में कुछ और मानते थे। राज्य में नेशनल कांफ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में जन-आन्दोलन चला। शेख अब्दुल्ला चाहते थे कि महाराजा पद छोड़ें, परन्तु वे पाकिस्तान में सम्मिलित होने के खिलाफ थे।
(ii) जम्मू - कश्मीर में घुसपैठियों तथा उग्रवादियों से प्रतिरक्षा की आकांक्षा: अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान ने कबायली घुसपैठियों को अपनी तरफ से कश्मीर पर कब्जा करने भेजा। ऐसे में कश्मीर के महाराजा भारतीय सेना से मदद माँगने को मजबूर हुए। भारत ने सैन्य सहायता उपलब्ध कराई तथा कश्मीर घाटी से घुसपैठियों को खदेड़ा। इससे पहले भारत सरकार ने महाराजा से भारत संघ में विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करा लिए। इस पर भी सहमति जताई गई कि स्थिति सामान्य होने पर जम्मू - कश्मीर की नियति का फैसला जनमत सर्वेक्षण के द्वारा होगा। मार्च 1948 में शेख अब्दुल्ला जम्मू - कश्मीर राज्य के प्रधानमंत्री बने। भारत, जम्मू एवं कश्मीर की स्वायत्तता को बनाए रखने पर सहमत हो गया। इसे संविधान में धारा 370 का प्रावधान करके संवैधानिक दर्जा दिया गया।
(iii) कश्मीर की स्वायत्तता की आकांक्षा: सन् 1996 में फारुख अब्दुल्ला के नेतृत्व में नेशनल कांफ्रेंस की सरकार बनी और उसने जम्मू-कश्मीर के लिए क्षेत्रीय स्वायत्तता की माँग की। सन् 1989 से जम्मू - कश्मीर में अलगाववादी राजनीति ने सर उठाया। इसकी एक धारा के समर्थक चाहते थे कि कश्मीर भारत संघ का ही हिस्सा रहे परन्तु उसे और स्वायत्तता दी जाए। स्वायत्तता की बात जम्मू और लद्दाख के लोगों को अलग-अलग ढंग से लुभाती है।
इस क्षेत्र के लोगों की एक आम शिकायत उपेक्षा भरे व्यवहार व पिछड़ेपन को लेकर है। इस कारण से पूरे राज्य की स्वायत्तता की माँग जितनी प्रबल है उतनी ही प्रबल माँग इस राज्य के विभिन्न भागों में अपनी-अपनी स्वायत्तता को लेकर है। 5 अगस्त, 2019 को जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 द्वारा अनुच्छेद 370 समाप्त कर दिया गया और राज्य को पुनर्गठित कर 2 केन्द्र शासित प्रदेश- जम्मू और कश्मीर तथा लद्दाख बना दिए गए।
प्रश्न 6.
कश्मीर की क्षेत्रीय स्वायत्तता के मसले पर विभिन्न पक्ष क्या हैं? इनमें कौन-सा पक्ष आपको समुचित जान पड़ता है? अपने उत्तर के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
कश्मीर मुद्दा भारत और पाकिस्तान के बीच एक बड़ा मुद्दा रहा है। लेकिन इस राज्य की राजनीतिक स्थिति के बहुत से आयाम हैं। कश्मीर की क्षेत्रीय स्वायत्तता के मसले पर विभिन्न पक्ष निम्न प्रकार हैं।
(i) कश्मीर मुद्दा' भारत और पाकिस्तान के बीच सिर्फ विवाद भर नहीं है। इस मुद्दे के कुछ बाहरी तो कुछ भीतरी पहलू हैं। इसमें कश्मीरी पहचान का सवाल जिसे कश्मीरियत के रूप में जाना जाता है, शामिल है। इसके साथ ही साथ जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक स्वायत्तता का मसला भी इसी से जुड़ा हुआ है।
(ii) कश्मीर समस्या का एक कारण पाकिस्तान का रवैया है। उसने हमेशा यह दावा किया है कि कश्मीर घाटी पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए। सन् 1947 में इस राज्य में पाकिस्तान ने कबायली हमला करवाया था। इसके परिणामस्वरूप राज्य का एक हिस्सा पाकिस्तानी नियंत्रण में आ गया।
(iii) भारत ने दावा किया कि यह क्षेत्र का अवैध अधिग्रहण है। पाकिस्तान ने इस क्षेत्र को आजाद कश्मीर' कहा। सन् 1947 के बाद कश्मीर भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष का एक बड़ा मुद्दा रहा है।
(iv) आंतरिक रूप से देखें तो भारतीय संघ में कश्मीर की हैसियत को लेकर विवाद रहा है। कश्मीर को संविधान में धारा 370 के तहत विशेष दर्जा दिया गया था। धारा 370 के अंतर्गत जम्मू एवं कश्मीर को भारत के अन्य राज्यों के मुकाबले अधिक स्वायत्तता दी गई और इस राज्य का अपना संविधान था लेकिन अब धारा 370 को समाप्त कर दिया गया है।
(v) इस विशेष परिस्थिति में दो विरोधी प्रतिक्रियाएँ सामने आईं। लोगों का एक समूह मानता है कि इस राज्य को धारा 370 के अंतर्गत विशेष दर्जा देने से यह भारत के साथ पूरी तरह से नहीं जुड़ पाया है। यह समूह मानता है कि धारा 370 को समाप्त कर देना चाहिए तथा जम्मू-कश्मीर को अन्य राज्यों की तरह ही होना चाहिए।
(vi) कश्मीरियों के एक वर्ग ने तीन प्रमुख शिकायतें उठाई हैं। पहली यह कि भारत सरकार ने वायदा किया था कि कबायली . घुसपैठियों से निबटने के बाद जब स्थिति सामान्य हो जाएगी तो भारत संघ में विलय के मुद्दे पर जनमत-संग्रह कराया जाएगा। इसे पूरा नहीं किया गया। दूसरी, धारा 370 के तहत दिया गया विशेष दर्जा पूरी तरह से अमल में नहीं लाया गया। इससे स्वायत्तता की बहाली अथवा राज्य को ज्यादा स्वायत्तता देने की माँग उठी। तीसरी शिकायत यह की जाती है कि भारत के बाकी हिस्सों में जिस तरह लोकतंत्र पर अमल होता है उस तरह का संस्थागत लोकतांत्रिक व्यवहार जम्मू - कश्मीर में नहीं होता। मेरे मतानुसार क्षेत्रीय स्वायत्तता के मसले पर उचित पक्ष।
समस्या का उचित हल: कश्मीर की क्षेत्रीय स्वायत्तता के मसले पर विभिन्न पक्षों का अवलोकन करने पर मेरे मतानुसार उचित पक्ष निम्नानुसार हो सकते हैं जिसका यदि क्रियान्वयन किया जाए तो संभवतः कश्मीर की समस्या का समाधान हो सकता।
(i) कश्मीर को भारतीय संविधान के अंतर्गत पर्याप्त स्वायत्तता दे दी जाए। क्योंकि आधुनिक कश्मीर के जनक शेख अब्दुल्ला व उनके राजनैतिक उत्तराधिकारी, लद्दाख और जम्मू की जनता लगभग शत - प्रतिशत आज भी अपने राज्य को भारतीय संघ में रखने की पक्षधर है। कश्मीर की आम जनता भी अब पूर्णतः शांति से अपना जीवन - यापन चाहती है। उसने आतंकवाद के कारण वर्षों से सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक दृष्टि से अशांतिपूर्ण माहौल सहा है।
(ii) कश्मीर की जनता को कश्मीर मुद्दे पर अपना पक्ष रखने का अधिकार होना चाहिए क्योंकि एक तरफ इस राज्य में विभिन्नताएँ हैं और इसी के अनुकूल अलग-अलग राजनीतिक आकांक्षाएँ हैं।
(iii) कश्मीर को भारत का हिस्सा बने रहने में देशवासियों को गौरव की अनुभूति होनी चाहिए। कश्मीर भारत का मुकुट है। लोगों को पड़ोसी देशों के उकसाने पर पथभ्रष्ट भी नहीं होना चाहिए। कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा।
प्रश्न 7.
असम आंदोलन सांस्कृतिक अभिमान और आर्थिक पिछड़ेपन की मिली-जुली अभिव्यक्ति था। व्याख्या कीजिए।
अथवा
ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) द्वारा चलाये जा रहे आंदोलन की व्याख्या कीजिए। (राजस्थान बोर्ड 2016)
अथवा
1979 से 1985 तक चला असम आन्दोलन बाहरी लोगों के खिलाफ चले आन्दोलनों का सबसे अच्छा उदाहरण है। इस कथन के समर्थन में उपयुक्त तर्क दीजिए।
अथवा
"असम आंदोलन सांस्कृतिक गौरव तथा आर्थिक पिछड़ेपन की मिली-जुली अभिव्यक्ति था।" क्या आप इस कथन से सहमत हैं ? अपने उत्तर की पुष्टि किन्हीं तीन तर्कों द्वारा कीजिए।
उत्तर:
असम आंदोलन का स्वरूप-असम आंदोलन सांस्कृतिक अभिमान/गौरव एवं आर्थिक पिछड़ेपन की मिली - जुली अभिव्यक्ति था, इस कथन की व्याख्या हेतु निम्नलिखित तथ्य प्रस्तुत हैं।
(1) असम पूर्वोत्तर में सबसे बड़ा एवं ऐतिहासिक दृष्टि से प्राचीनतम राज्य रहा है। पूर्वोत्तर क्षेत्र में 7 राज्य या बहनें हैं। पूर्वोत्तर में बड़े पैमाने पर अप्रवासी आए हैं, इससे एक विशेष समस्या उत्पन्न हुई है। बाहरी लोगों के विरुद्ध स्थानीय जनता के मन में क्रोध है। भारत के अन्य राज्यों या किसी अन्य देश से आए लोगों को यहाँ की जनता रोजगार के अवसरों एवं राजनीतिक सत्ता के विश्वास से एक प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखती है। बाहर से आए लोगों के बारे में स्थानीय लोग यह मानते हैं कि ये लोग यहाँ की जमीन हथिया रहे हैं। पूर्वोत्तर के कई राज्यों में इस मुद्दे ने राजनीतिक रंग ले लिया है।
(2) सन् 1979 से 1985 तक चला असम आंदोलन 'बाहरी' लोगों के विरुद्ध चले आंदोलनों का उत्तम उदाहरण है। असमी लोगों को यह संदेह था कि बांग्लादेश से आकर बहुत-सी मुस्लिम जनसंख्या असम में निवास कर रही है। लोगों को यह आशंका थी कि यदि इन विदेशी लोगों को पहचानकर उन्हें अपने देश नहीं भेजा गया तो स्थानीय असमी जनता अल्पसंख्यक हो जाएगी। असम में खनिज तेल, चाय तथा कोयले जैसे प्राकृतिक संसाधनों की उपस्थिति के बावजूद व्यापक गरीबी थी। यहाँ की जनता ने यह अनुभव किया कि असम के प्राकृतिक संसाधन बाहर भेजे जा रहे हैं और असमी लोगों को कोई लाभ प्राप्त नहीं हो रहा
(3) ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू AASU) नामक संगठन ने विदेशियों के विरोध में एक आंदोलन प्रारंभ किया। 'आसू' का आंदोलन अवैध अप्रवासी, बंगाली व अन्य लोगों के दबदबे और उनको मतदाता के रूप में दर्ज कर लेने के विरुद्ध था। आंदोलन की माँग थी कि सन् 1951 के पश्चात् जितने भी लोग असम में आकर बसे हैं उन्हें असम से बाहर भेजा जाए। इस आंदोलन ने असमी जनता के प्रत्येक वर्ग का समर्थन प्राप्त किया। इस आंदोलन को पूरे असम में समर्थन प्राप्त हुआ। आंदोलन के दौरान हिंसक घटनाएँ भी हुईं। आंदोलन के दौरान रेलगाड़ियों का आवागमन और बिहार स्थित बरौनी तेलशोधक कारखाने को तेल-आपूर्ति रोकने का भी प्रयत्न किया गया।
(4) असम समझौता-6 वर्षों की सतत अस्थिरता के पश्चात् राजीव गाँधी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार ने 'आसू' के नेताओं से वार्ता आरंभ की। इसके फलस्वरूप सन् 1985 में एक समझौता हुआ। समझौते में यह निश्चित किया गया कि जो लोग बांग्लादेश युद्ध के दौरान या उसके बाद के वर्षों में असम आए हैं, उनकी पहचान की जाएगी तथा उन्हें वापस भेजा जाएगा। आंदोलन की सफलता के पश्चात् आसू और असम गण संग्राम परिषद् ने साथ.मिलकर स्वयं को एक क्षेत्रीय राजनीतिक दल के रूप में संगठित किया। इस दल का नाम असम गण परिषद् रखा गया। असम गण परिषद सन् 1985 में इस वायदे के साथ सत्ता में आई थी कि विदेशी लोगों की समस्या का हल किया जाएगा और एक स्वर्णिम 'असम' प्रान्त का निर्माण किया जाएगा।
(5) असम समझौते से शांति कायम हुई तथा प्रदेश की राजनीति का चेहरा भी बदला किन्तु आप्रवास की समस्या का समाधान नहीं हो पाया। 'बाहरी' का मुद्दा अब भी असम एवं पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों की राजनीति में एक जीवंत मुद्दा है।
निष्कर्ष: समझौते को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि बुनियादी मामलों में केन्द्र सरकार व छात्र संगठनों, आसू' तथा 'असम गण संग्राम परिषद्' के नेताओं, दोनों ने एक - दूसरे को. उल्लेखनीय रियायतें दी हैं। अतः यह मानने का कोई आधार नहीं है कि असम समझौता किसी पक्ष विशेष की जीत या किसी पक्ष विशेष की हार है। असम समझौता एक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय उपलब्धि है, जिसका श्रेय भारत के तत्कालीन युवा प्रधानमंत्री श्री राजीव गाँधी को जाता है। असम के दोनों छात्र संगठनों के नेताओं ने भी विवेक और सौहार्द्र का परिचय दिया, जिससे यह आंदोलन समाप्त हो सका।
प्रश्न 8.
हर क्षेत्रीय आंदोलन अलगाववादी माँग की तरफ अग्रसर नहीं होता। इस अध्याय से उदाहरण देकर इस तथ्य की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
भूमिका - भारत विविधताओं का देश है। ऐसे प्रजातांत्रिक देश में स्वायत्तता की माँग स्वाभाविक राजनीतिक - व्यवस्था का अंग होता है। देश के अनेक क्षेत्रों में स्वतंत्रता के पश्चात् ही आंदोलन आरंभ हो गए। आंदोलन में सम्मिलित कुछ लोगों ने अपनी माँग के पक्ष में हथियार उठाए। सरकार ने उनको दबाने में जवाबी कार्यवाही की। कई बार राजनैतिक एवं क्रमिक चुनाव प्रक्रिया अवरुद्ध हुई। इन संघर्षों पर रोक लगाने के लिए सरकार को समझौता करना पड़ा। किन्तु नगालैण्ड एवं मिजोरम के अतिरिक्त कोई भी अलगाववादी आंदोलन लंबे समय तक नहीं चला।
इस अध्याय में वर्णित आंदोलनों का वर्णन इस प्रकार है।
(i) जम्मू एवं कश्मीर-जम्मू एवं कश्मीर के राजा ने स्वयं भारतीय संघ में मिलने की सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए। वहाँ राजशाही के खिलाफ लोकतंत्र के समर्थन में नेशनल कांफ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्ला जननायक थे। वे प्रधानमंत्री पं.जवाहरलाल नेहरू के परम मित्र थे और उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कभी भी देश से पृथक होने हेतु हथियारों का सहारा नहीं लिया। वह राज्य के प्रधानमंत्री कहलाए। धारा 370 के अधीन विशेष दर्जा प्राप्त किया किन्तु कुछ आतंकवादी/अलगाववादियों को छोड़ दें तो आज तक जितने जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री हुए वे देश के संविधान के प्रति निष्ठावान रहे हैं।
(ii) दक्षिण भारत में केवल द्रविड़ आंदोलन से सम्बन्धित कुछ समूहों में एक समय तक हिन्दी थोपे जाने अथवा ब्राह्मणवाद. थोपे जाने के भय से केवल उस समय के लिए पृथक राष्ट्र की बात उठाई थी। दक्षिण भारत के कई लोग राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष आदि प्रमुख पदों के साथ-साथ केन्द्रीय मंत्रिमंडल में बड़ी संख्या में केबिनेट मंत्री रह चुके हैं।
(iii) पूर्वोत्तर के कुछ क्षेत्रों में भारत का अंग होने पर सहमति नहीं थी किन्तु सबसे बड़े आकार के राज्य असम अथवा अन्य चार राज्यों में कभी ऐसे कष्टदायक स्वर नहीं उठे। केवल नगालैण्ड एवं मिजोरम में भारत से पृथक होने की माँग प्रभावी आंदोलनों के रूप में चलाई गई। अब नगालैण्ड की समस्या को आंशिक रूप से अनसुलझा कहा जा सकता है। भारत एक जनतांत्रिक राष्ट्र है, तभी तो सिक्किम ने सहर्ष जनमत द्वारा भारत का 22 वाँ राज्य बनना स्वेच्छा से स्वीकार किया। यह सर्वाधिक शांतिप्रिय राज्य माना जाता है।
(iv) पंजाब में अलगाववाद का मुद्दा उस समय उठा, जब कुछ निहित स्वार्थी राजनीतिज्ञों के निजी स्वार्थ डगमगाने लगे। आनन्दपुर प्रस्ताव के पश्चात् कुछ अलगाववादियों ने खालिस्तान बनाने की सिफारिश की किन्तु वह अब पुरानी हो चुकी है। सन् 1984 के पश्चात् से अब तक कई चुनाव हुए। अकाली - भाजपा गठबंधन अथवा कांग्रेस दल की सरकारें बनीं। पंजाब में अब अलगाववाद की समस्या नहीं है।
निष्कर्षतः यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि प्रत्येक क्षेत्रीय आंदोलन अलगाव की अभिव्यक्ति नहीं होता।
प्रश्न 9.
भारत के विभिन्न भागों से उठने वाली क्षेत्रीय मांगों से 'विविधता में एकता' के सिद्धान्त की अभिव्यक्ति होती है। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? तर्क दीजिए।
उत्तर:
भारत के विभिन्न भागों से उठने वाली क्षेत्रीय मांगों से 'विविधता में एकता' के सिद्धांत की अभिव्यक्ति से मैं पूर्णतया सहमत हूँ। इसके समर्थन में निम्नांकित तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं।
(i) भारत विश्व का सातवाँ बड़ा राष्ट्र है। आकार की दृष्टि से इसके कई प्रदेश अनेक यूरोपीय एवं विश्व के दूसरे देशों से बड़े हैं। इतिहासकारों के मतानुसार सदियों से यहाँ अनेक जनजातियाँ, नृभाषी समूह, धर्मावलंबी, भाषा-भाषाई संप्रदाय एवं मतों के अनुयायी विभिन्न संस्कृतियों के लोग साथ - साथ रहते आए हैं तथा उदार भारतीयों ने संसार को एक कुटुंब मानकर विदेशों से आने वाले व्यापारियों, शिल्पकारों, धर्म-प्रचारकों, दार्शनिकों एवं वृत्तांतकारों आदि का स्वागत किया है।
(ii) यदि कोई एक राज्य अथवा राज्य सरकार या नेता अथवा राजनैतिक दल अपनी बहुसंख्यक स्थिति को लादकर उनकी भाषा - भाषाई, निजी या व्यक्तिगत पहचान या धर्म या मत को समाप्त करना चाहते हैं तो क्षेत्रीय - आकांक्षाएँ अथवा स्वायत्तता की माँग उठाना लोकतंत्र में स्वाभाविक है।
(iii) भारतीय संस्कृति की मूल विशेषता अनेकता में एकता है। किन्तु यहाँ के लोग अहिंसावादी, शांतिप्रिय होने के साथ-साथ जियो और जीने दो के सिद्धान्त में विश्वास रखते हैं। वे स्वयं की पहचान बनाए रखना चाहते हैं जिससे विविधताओं वाला यह देश एक उपवन अथवा बगीचा बना रहे। इसमें भाँति-भाँति के पेड़-पौधे, फल-फूल उगें और सुगंध फैलाएँ।
(iv) जनता यह जानती है कि प्रजातंत्र में जनमत की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। प्रत्येक राष्ट्राध्यक्ष/प्रधानमंत्री, केन्द्रीय सरकार अथवा मुख्यमंत्री, राज्य सरकार को वोट (मत) चाहिए। वे हमारी विविधता को समाप्त नहीं कर सकते, उन्हें भारतीय संस्कृति के मूलमंत्र अर्थात् विविधता में एकता का स्मरण कराने के लिए अपने क्षेत्र व अपनी पहचान/संस्कृति/भाषा इत्यादि लोगों के साथ मिलकर अपनी मांगों को मनवाने हेतु अपने विचारों को लिखकर, बोलकर या सभा करके अभिव्यक्त करना होगा। वे ये भी जानते हैं कि अभिव्यक्ति का अधिकार सच्चे लोकतंत्र की सबसे बड़ी राजनैतिक शक्ति है। अत: विभिन्न क्षेत्रों में जो माँगें उठती हैं वे विविधताओं में एकता लाने के इतिहास/परम्परा व जमीनी हकीकत को यथार्थ का जामा पहनाती हैं।
(v) हमें इसे लोकतंत्र का अटूट हिस्सा मानना चाहिए। भारतीय संविधान निर्माताओं ने बहुत सोचकर ही धार्मिक, सांस्कृतिक व शैक्षिक मूल अधिकार प्रदान करने के साथ-साथ विभिन्न प्रकार की समानताएँ व स्वतंत्रताएँ दी हैं।
निष्कर्ष: क्षेत्रीय आकांक्षाएँ लोकतांत्रिक राजनीति का अभिन्न अंग हैं, क्योंकि भारत के विभिन्न भागों से उठने वाली क्षेत्रीय माँगों से 'विविधता में एकता' के सिद्धान्त की अभिव्यक्ति होती है। क्षेत्रीय मुद्दे की अभिव्यक्ति कोई असामान्य अथवा लोकतांत्रिक राजनीतिक व्याकरण से बाहर की घटना नहीं है। ग्रेट ब्रिटेन जैसे छोटे देश में भी स्कॉटलैण्ड, वेल्स और उत्तरी आयरलैण्ड में क्षेत्रीय आकांक्षाएँ उभरी हैं। स्पेन में बास्क लोगों और श्रीलंका में तमिलों ने अलगाववादी माँग की। भारत एक बड़ा लोकतंत्र है और यहाँ विभिन्नताएँ भी बड़े पैमाने पर हैं।
अतः भारत को क्षेत्रीय आकांक्षाओं से निपटने की तैयारी लगातार रखनी होगी। भारत ने विभिन्नता के सवाल पर लोकतांत्रिक दृष्टिकोण अपनाया। लोकतंत्र में क्षेत्रीय आकांक्षाओं की राजनीतिक अभिव्यक्ति की अनुमति है और लोकतंत्र क्षेत्रीयता को राष्ट्र - विरोधी नहीं मानता। इसके अतिरिक्त लोकतांत्रिक राजनीति में इस बात के पूर्ण अवसर होते हैं कि विभिन्न दल और समूह क्षेत्रीय पहचान, आकांक्षा अथवा किसी विशेष क्षेत्रीय समस्या को आधार बनाकर लोगों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करें। इस प्रकार विभिन्नताओं वाले राष्ट्र में क्षेत्रीय आकांक्षाएँ और बलवती होती हैं।
प्रश्न 10.
नीचे लिखे अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें "हजारिका का एक गीत .......... एकता की विजय पर है; पूर्वोत्तर के सात राज्यों को इस गीत में एक ही माँ की सात बेटियाँ कहा गया है ........... मेघालय अपने रास्ते गई .......... अरुणाचल भी अलग हुई और मिजोरम असम के द्वार पर दूल्हे की तरह दूसरी बेटी से ब्याह रचाने को खड़ा है ......... इस गीत का अंत असमी लोगों की एकता को बनाए रखने के संकल्प के साथ होता है और इसमें समकालीन असम में मौजूद छोटी - छोटी कौमों को भी अपने साथ एकजुट रखने की बात कही गयी है ............." करबी और मिंजिंग भाई-बहन हमारे ही प्रियजन हैं।"
(अ) लेखक यहाँ किस एकता की बात कह रहा है?
(ब) पुराने राज्य असम से अलग करके पूर्वोत्तर के अन्य राज्य क्यों बनाए गए?
(स) क्या आपको लगता है कि भारत के सभी क्षेत्रों के ऊपर एकता की यही बात लागू हो सकती है? क्यों?
उत्तर:
(अ) यहाँ पर लेखक पूर्वोत्तर के सात राज्यों को एक ही परिवार की सात पुत्रियों की एकता के माध्यम से एकता की विजय-यात्रा की बात कह रहा है।
(ब) समस्त समुदायों की सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने के लिए एवं आर्थिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए पुराने राज्य असम से अलग करके पूर्वोत्तर के अन्य राज्य बनाए गए।
(स) मैं समझता हूँ कि भारत के सभी क्षेत्रों के ऊपर एकता की यही बात लागू हो सकती है जिसकी ओर कवि हजारिका का गीत या संजीव बरुआ का कथन हमारा ध्यान आकर्षित करता है।
(i) पहला तर्क यह है कि हमारा देश विभिन्नताओं में एकता वाला देश है। इन्हें बनाए रखना ही हमारे देश की सुन्दरता, एकता, अखंडता व पहचान का प्रमुख आधार है।
(ii) किसी देश की एकता हेतु क्षेत्रीय आकांक्षाएँ खतरा नहीं हैं। उन्हें लेकर राजनीतिक दल या स्थानीय नेता या हित समूह या दबाव समूह कोई चर्चा करें तो घबराने की बात नहीं है। हमारा संविधान अनुभवी, दूरदर्शी, राष्ट्रभक्त तथा महान विद्वान् लोगों द्वारा तैयार किया गया है। उन्होंने क्षेत्रीय विभिन्नताओं व आकांक्षाओं के लिए देश के संविधान में पर्याप्त व्यवस्था की है।
(iii) देश के नेता, राजनीतिक दल, क्षेत्रीय दल सभी मानव अधिकारों के समर्थक व उनमें विश्वास रखने वाले हैं। यदि शांतिपूर्वक बातचीत करके या समझौते करके एकता स्थापित की जाती है तो यह एकता अधिक स्थायी होगी। यदि देश की एकता के लिए केन्द्र में मिली - जुली सरकारें बनती हैं तो कोई बुराई नहीं; समय के साथ - साथ धीरे - धीरे बदलाव आएँगे, शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार होगा। जनसंचार के माध्यमों के द्वारा एक नहीं अनेक भाषाएँ फलेंगी - फूलेंगी।