RBSE Solutions for Class 11 Home Science Chapter 2 स्वयं को समझना

Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Home Science Chapter 2 स्वयं को समझना Textbook Exercise Questions and Answers.

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RBSE Class 11 Home Science Solutions Chapter 2 स्वयं को समझना

RBSE Class 11 Home Science स्वयं को समझना Textbook Questions and Answers

समीक्षात्मक प्रश्न

प्रश्न 1. 
'स्वयं' शब्द से आप क्या समझते हैं? समझाएँ। उदाहरण देकर इसके विभिन आयामों पर चर्चा करें।
उत्तर:
हमारे माता: पिता, भाई-बहन, अन्य सम्बन्धियों, मित्रों तथा हमारे बीच अनेक बातें सामान्य हैं परन्तु फिर भी हम में से प्रत्येक अलग व्यक्ति है, जो अन्य सभी से भिन्न है। इस अनोखेपन की यह अनुभूति हमें अपने होने का एहसास कराती है-'मैं' होने की अनुभूति, जो 'आप', 'वे' और 'अन्य' से अलग है।

किशोरावस्था के दौरान हम अपने बारे में सबसे अधिक सोचना शुरू कर देते हैं कि हम कौन हैं, 'मुझे''अन्य' से भिन्न कौनसी बातें बनाती हैं? इस अवस्था में किसी अन्य अवस्था की तुलना में हम स्वयं' को परिभाषित करने को अधिक कोशिश करते हैं।

'स्वयं' की अनुभूति का अर्थ है-यह अनुभव करना कि हम कौन हैं और कौनसी बातें हमें अन्य लोगों से । भिन्न बनाती हैं? इस प्रकार हम कह सकते हैं कि 'स्वयं' शब्द का अर्थ उनके अनुभवों, विचारों, सोच तथा अनुभूतियों का संपूर्ण रूप है जो स्वयं के विषय में है।

'स्वयं' के विभिन्न आयाम अनलिखित हैं

  1. व्यक्तिगत स्वयं-व्यक्तिगत स्वयं के वे पक्ष हैं जिसमें केवल आप जुड़े हैं।
  2. सामाजिक स्वयं-सामाजिक स्वयं का अर्थ उन पक्षों से है जहाँ आप अन्य व्यक्तियों के साथ जुड़े हुए हैं। इनमें आपस में बाँटना, सहयोग, समर्थन और एकता शामिल है।

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प्रश्न 2. 
'स्वयं' को समझना महत्वपूर्ण क्यों है?
उत्तर:
किसी भी व्यक्ति को 'स्वयं' के बारे में समझना अति आवश्यक है क्योंकि इससे व्यक्ति स्वयं को ज्यादा से ज्यादा समझ पाता है और अपने व्यक्तित्व को निखार पाता है। किशोरावस्था के दौरान हम अपने बारे में सबसे अधिक सोचना शुरू कर देते हैं कि हम कौन हैं और 'मुझे 'अन्य' से भिन्न कौनसी बातें बनाती है? इस अवस्था में किसी अन्य अवस्था की तुलना में हम 'स्वयं' को परिभाषित करने की अधिकाधिक कोशिश करते हैं।

जैसे: जैसे हम अपने आप का परिचय अथवा पहचान जानने लगते हैं, वैसे-वैसे हममें एक नियंत्रण बोध आता है जिससे कि हम अपने जीवन की यात्रा आसानी से पूर्ण कर सकते हैं। आत्मविश्लेषण सिफ स्वय द्वारा किया जा सकता है, अतः हमें निरंतर स्वयं से पूछते रहना चाहिए कि हम कौन हैं? यह हमारे लिए एक ऐसा प्रश्न होना चाहिए जिसे हम खुद से जीवन भर पूछते रहें क्योंकि एक स्वस्थ व्यक्तित्व वाले व्यक्ति में सुधार की संभावना हमेशा बनी रहती है। दूसरों को सुनें और उनसे सीखें भी, पर खुद को पाने में निर्णय, स्वीकृति और पसंद अपनी होनी चाहिए।

प्रश्न 3. 
उदाहरण देते हुए निम्नलिखित अवस्थाओं के दौरान 'स्वयं' की विशेषताएँ बताएँ
(I) शैशवकाल के दौरान 
(II) प्रारम्भिक बाल्यावस्था के दौरान 
(III) मध्य बाल्यावस्था के दौरान 
(IV) किशोरावस्था के दौरान
उत्तर:
(i) शैशवकाल के दौरान 'स्वयं' की विशेषताएँ: जन्म के समय शिशु को अपने विशिष्ट अस्तित्व ' की जानकारी नहीं होती। शिशु यह महसूस नहीं कर पाता कि वह बाहर के संसार से अलग और भिन्न है-उसे अपने बारे में कोई जानकारी अथवा समझ और पहचान नहीं होती। शिशु अपना हाथ अपने चेहरे के सामने लाता है लेकिन उसे यह पता नहीं होता कि वह उसका हाथ है और वह उन अन्य सभी लोगों और वस्तुओं जिन्हें वह अपने चारों ओर देखता है, से अलग है। 'स्वयं' की भावना शैशवकाल के दौरान क्रमिक रूप से उत्पन्न होती है

और लगभग 18 महीने की आयु तक स्वयं की छवि की पहचान होने लगती है। दूसरे वर्ष की दूसरी छमाही में, शिशु व्यक्तिगत सर्वनामों-'मैं', 'मुझे' और 'मेरा' का उपयोग करने लगता है। वह किसी व्यक्ति अथवा वस्तु पर अधिकार जताने जैसे-'मेरा खिलौना' अथवा 'मेरी माँ', अपने बारे में अथवा जो कार्य वह कर रहा है उसे बताने अथवा अपने अनुभवों को बताने जैसे "मैं खाना खा रहा हूँ" के लिए इनका उपयोग करते हैं। इस समय तक शिशु स्वयं को तस्वीर में भी पहचानना शुरू कर देता है।

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(ii) प्रारम्भिक बाल्यावस्था के दौरान 'स्वयं' की विशेषताएँ:

  1. इस अवस्था में बच्चे 3 वर्ष के हो जाते हैं, अतः वे बोलने लगते हैं। वे 'स्वयं' को अन्य लोगों से अलग बताने के लिए 'स्वयं' का अथवा अपनी वस्तुओं के बाह्य विवरण का उपयोग करते हैं-वे विवरणात्मक शब्दों जैसे 'लम्बा' अथवा 'बड़ा' का उपयोग करते हैं। उनका 'स्वयं' सम्बन्धी विवरण सम्पूर्ण अर्थों में होता है अर्थात् वे 'स्वयं' की तुलना अन्य से नहीं करते। वह यह कहने की बजाय कि मैं किरण से लम्बा हूँ, यह कहता है कि 'मैं लम्बा हूँ।'
  2. वे जो कार्य कर सकते हैं, उसके अनुसार 'स्वयं' का विवरण देते हैं। जैसे-वे कहते हैं कि "मैं गिनती कर सकता हूँ।"
  3. उनका स्वयं विवरण निश्चित होता है-अर्थात् वे स्वयं' को उन वस्तुओं के अनुसार परिभाषित करते हैं, जो वे कर सकते हैं अथवा जो उन्हें दिखाई पड़ता है।
  4. वे अक्सर स्वयं का आकलन वास्तविकता से अधिक करते हैं। जैसे, "मुझे सभी कविताएँ आती हैं।" लेकिन हो सकता है कि वे उसे पूरी तरह से याद न हो।
  5. वे यह पहचानने में भी असक्षम होते हैं कि उनमें भिन्न-भिन्न गुण हो सकते हैं। वे अलग-अलग समय में 'अच्छे', 'बुरे', 'मतलबी' व 'आकर्षक' हो सकते हैं।

(iii) मध्य बाल्यावस्था के दौरान 'स्वयं' की विशेषताएँ:

इस अवधि में बच्चे का स्वयं-मूल्यांकन अधिक जटिल हो जाता है। इस बढ़ती हुई जटिलता की विशेषता बताने वाले अनलिखित पाँच प्रमुख परिवर्तन हैं:

  1. इस अवस्था में बच्चा अपनी आंतरिक विशेषताओं के संदर्भ में अधिक विवरण देता है तथा बाह्य विशेषताओं के बारे में कम बताता है। जैसे, वह कह सकता है कि "मैं मेहनत करके अपना कार्य समय पर समाप्त कर सकता
  2. बच्चे के विवरण में सामाजिक विवरण और पहचान शामिल होती है। जैसे, "मैं स्कूल के संगीत समूह
  3. बच्चे सामाजिक तुलना करने लगते हैं, वे स्वयं को वास्तविक रूप की बजाय अन्य लोगों से तुलनात्मक रूप से भिन्न बताते हैं। जैसे, "मैं किरण से तेज दौड़ सकती हूँ।"
  4. वे वास्तविक स्वयं' और 'आदर्श स्वयं' में अंतर करने लगते हैं अर्थात् वे अपनी वास्तविक क्षमताओं (जो उनके पास हैं) और जो उनके पास होनी चाहिए में अंतर कर सकते हैं।
  5. इस उम्र के बच्चे का स्वयं का विवरण अधिक वास्तविक हो जाता है। 

(iv) किशोरावस्था के दौरान 'स्वयं' की विशेषताएँ:

किशोरावस्था में स्वयं की समझ अधिक जटिल हो जाती है। स्वयं' की पहचान के विकास हेतु किशोरावस्था को एक नाजुक समय के रूप में देखा जाता है। इस अवस्था में स्वयं की भावना की विशेषताएँ निम्नवत् हैं

  1. किशोरावस्था के दौरान स्वयं का विवरण संक्षिप्त एवं केवल विचार रूप में ही होता है। किशोर अपने व्यक्तित्व को संक्षिप्त रूप से बताने या अपने आंतरिक गुणों पर अधिक बल देते हैं।
  2. किशोरावस्था के दौरान स्वयं में कई विरोधाभास होते हैं। अत: किशोर कह सकता है कि, "मैं शांत हूँ लेकिन सरलता से विचलित हो जाता है।"
  3. किशोर स्वयं की भावना में काफी उतार-चढ़ाव का अनुभव करता है। स्वयं के बारे में उसकी समझ स्थिति और समय के अनुसार बदलती रहती है।
  4. किशोर के 'आदर्श स्वयं' व 'वास्तविक स्वयं' में से 'आदर्श स्वयं' अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। उदाहरण के लिए, एक लड़की जो वास्तव में बहुत छोटी है, लम्बा होने की इच्छा रख सकती है।
  5. किशोर स्वयं के बारे में अधिक सचेत होते हैं और अपने में ही मग्न रहते हैं। अधिकांश किशोर अपने बाह्य रूप-रंग के प्रति अत्यधिक परेशान रहते हैं।

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प्रश्न 4. 
"किशोरावस्था ऐसा समय है जब सभी किशोर पहचान के संकट का अनुभव करते हैं।" क्या आप इस कथन से सहमत हैं? अपने उत्तर के पक्ष में कारण हैं।
उत्तर:
हाँ, मैं इस कथन से पूर्णतया सहमत हूँ कि किशोरावस्था ऐसा समय है जब सभी किशोर पहचान के संकट का अनुभव करते हैं। किशोरावस्था के दौरान स्वयं में कई विरोधाभास होते हैं। अतः किशोर स्वयं के बारे में इस प्रकार बता सकता है कि, "मैं शांत हूँ लेकिन सरलता से विचलित हो जाता हूँ।" अथवा "मैं शांत हूँ और बातूनी भी।" किशोरावस्था पहचान के विकास हेतु महत्वपूर्ण अवस्था है क्योंकि इस समय स्वयं के विकास पर किशोर का ध्यान अधिक केंद्रित रहता है। ऐसा माना गया है कि किशोरावस्था 'स्वयं' की पहचान बनाने के संदर्भ में कठिन समय होता है। इसके तीन मुख्य कारण हैं

  1.  किशोरावस्था से पहले कभी भी व्यक्ति 'स्वयं' को जानने में इतना तल्लीन नहीं रहा। अर्थात् अब वह स्वयं को समझने के लिए अत्यधिक चिंतित होता है।
  2. किशोरावस्था के अंतिम वर्षों में व्यक्ति 'स्वयं' और 'पहचान' की अपेक्षाकृत स्थाई भावना निर्मित कर लेता है और कह सकता है-"मैं यह हूँ।"
  3. यही वह समय भी है जब व्यक्ति की पहचान पर तीव्र शारीरिक परिवर्तनों और बदल रही सामाजिक मांगों का प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 5. 
यौवनारम्भ और यौवनावस्था की संकल्पनाओं पर चर्चा करें। यौवनारम्भ के दौरान लड़कियों और लड़कों में होने वाले प्रमुख शारीरिक और जैविक परिवर्तनों का विवरण दें।
उत्तर:
यौवनारम्भ और यौवनावस्था की संकल्पना: किशोरावस्था के दौरान शरीर में कुछ सार्वभौमिक शारीरिक और जैविक परिवर्तन होते हैं जो एक विशेष क्रम में होते हैं। इन परिवर्तनों के परिणामस्वरूप यौन परिपक्वता आती है। यौन परिपक्वता की आयु को यौवनारम्भ (Puberty) कहा जाता है। अक्सर मासिक धर्म (पहला) को लड़कियों में यौन परिपक्वता का बिंदु माना जाता है। लड़कों के लिए यौवनारम्भ को चिह्नित करने वाली कोई विशिष्ट प्रक्रिया नहीं है। यद्यपि इसके लिए अक्सर जिस मानदंड का उपयोग किया जाता है वह है शुक्राणु (स्पर्मेटोजोआ) का उत्पादन। विभिन्न संस्कृतियों में चौवनारम्भ भिन्न-भिन्न औसत आयु में होता है। लड़कों व लड़कियों की लंबाई में एक वर्ष में होने वाली अधिकतम बढ़ोतरी को यौवनारम्भ का एक उपयोगी मानदंड माना गया है। लड़कियों में बढ़ोतरी मासिक धर्म से एकदम पहले अधिक तेजी से होती है और लड़कों में कुछ वयस्क विशेषताओं के विकास से पहले ऐसा होता है। वह अवधि जिसमें शारीरिक और जैविक परिवर्तनों के परिणमस्वरूप यौवनारम्भ होता है, उसे यौवनावस्था कहा जाता है। 

यौवनारम्भ के दौरान लड़कियों और लड़कों में होने वाले प्रमुख शारीरिक और जैविक परिवर्तन निम्नलिखित हैं:

I. शारीरिक परिवर्तन:

1. शरीर की ऊँचाई:
प्रारम्भिक वर्षों में अर्थात् बाल्यावस्था में लड़कों और लड़कियों का शारीरिक विकास लगभग एक समान होता है, परंतु प्रारम्भिक किशोरावस्था में लड़कियों की शारीरिक ऊँचाई लड़कों की अपेक्षा तीव्र गति से बढ़ती है। किंतु पंद्रह वर्ष की आयु के पश्चात् लड़कों की ऊँचाई लड़की की ऊँचाई से आगे निकलने लगती है। अठारह वर्ष की आयु का लड़का अपनी ही आयु की लड़की से सामान्यतः 3 इंच से 314 इंच तक लंबा होता है।

2. शारीरिक भार:
किशोरों में शारीरिक ऊँचाई की भाँति शारीरिक भार में भी वृद्धि होती है, किंतु जहाँ अठारह वर्ष की आयु में किशोरों की ऊँचाई में स्थिरता आ जाती है, वहीं भार की वृद्धि में स्थिरता नहीं आती है।

3. शारीरिक अनुपात:
शरीर के कुछ भाग जो जीवन के प्रारंभिक वर्षों में अनुपात में छोटे होते हैं, वे किशोरावस्था के आते-आते बड़े हो जाते हैं, क्योंकि दूसरे भागों की अपेक्षा वे परिपक्व आकार जल्दी प्राप्त कर लेते हैं। किशोरावस्था के समाप्त होते-होते प्रायः लड़के और लड़कियाँ दोनों में शरीर के सभी अंग पूर्णतः विकसित होकर अपने पूर्ण आकार में आ जाते हैं। 

II. जैविक परिवर्तन

1. लड़कों के प्रजनन अंगों का विकास 

  • किशोर लड़कों में अंडकोष (वृषण) का विकास होता है। 
  • प्रायः लड़कों में शारीरिक ऊँचाई में वृद्धि के साथ-साथ जननेंद्रियों में भी वृद्धि होती है। 
  • लड़कों की बाँहें, टाँगों व छाती एवं गुप्तांगों के इर्द-गिर्द बाल पाए जाते हैं तथा दाढ़ी आने लगती है। 
  • कोमल एवं पारदर्शी त्वचा धीरे-धीरे कठोर एवं मोटी हो जाती है। 
  • उनकी आवाज में परिवर्तन आ जाता है। 

2. लड़कियों के प्रजनन अंगों का विकास

  • किशोरियों में शरीर के अन्य अंगों के विकास के साथ-साथ स्तन का विकास होता है। 
  • आंतरिक अंगों में गर्भाशय तथा योनी का विकास होने से वह शक्तिशाली हो जाती हैं।
  • लड़कियों में माहवारी मासिक धर्म के आरंभ का अर्थ है-लैंगिक परिपक्वता। प्रथम माहवारी यौन विकास का एक महत्वपूर्ण चिह्न है।
  • लड़कियों की बगलों और जांघर्षों में बाल आ जाते हैं।

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प्रश्न 6. 
एक किशोर के व्यक्तित्व को आकार देने में परिवार की क्या भूमिका है?
उत्तर:
एक किशोर के व्यक्तित्व को आकार देने में परिवार की महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है। किशोरों की पहचान निर्माण को उन पारिवारिक सम्बन्धों से प्रोत्साहन मिलता है, जहाँ स्वयं की राय बनाने हेतु प्रोत्साहित किया जाता है और जहाँ परिवार के सदस्यों में सुरक्षित सम्बन्ध होते हैं। इसके कारण किशोर को अपने बढ़ते हुए सामाजिक दायरे को जानने के लिए एक सुरक्षित आधार मिलता है। यह भी पाया गया है कि सुदृढ़ और स्नेहमय पालन-पोषण से पहचान का स्वरूप विकास होता है। 'स्नेहमय' पालन-पोषण का अर्थ है कि अभिभावक उत्साही, स्नेही और बच्चे के प्रयासों एवं उपलब्धियों का समर्थन करने वाले हों। वे अक्सर बच्चे की प्रशंसा करते हैं, उसके कार्यकलापों के प्रति उत्साह दिखाते हैं, उसकी भावनाओं के प्रति संवेदनपूर्ण ढंग से प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं और उसके व्यक्तित्व एवं उसकी राय को समझते हैं। तथापि ऐसे माता-पिता दृढ़ अनुशासन वाले होते हैं।

इस प्रकार के पालन-पोषण से बच्चों में स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता आती है। 

प्रश्न 7. 
संस्कृति एक किशोर की पहचान को कितना प्रभावित करती है? उदाहरण सहित व्याख्या करें।
उत्तर:
एक किशोर की पहचान निर्माण की प्रक्रिया पर विभिन्न संस्कृतियों का प्रभाव भिन्न होता है। यह जानने के लिए हम अपनी संस्कृति और पश्चिमी संस्कृति की तुलना करते हैं। यथा-
(1) अधिकांश पश्चिमी संस्कृतियों, जैसे-अमेरिका और ब्रिटेन में किशोरों से पूर्णतः आत्मनिर्भर होने की अपेक्षा की जाती है। कई मामलों में तो उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे परिवार से अलग जाकर अपना घर बसाएँ। जबकि भारतीय संदर्भ में, अधिकांश किशोर अपने माता-पिता पर काफी हद तक निर्भर होते हैं और परिवार हमेशा उन पर नियंत्रण बनाए रखते हैं।

(2) पारम्परिक संस्कृति और पश्चिमी संस्कृति में 'पहचान विकास' के भिन्न होने की संभावना का एक कारण और भी है। पारम्परिक भारतीय समुदायों में किशोरों में स्वयं को स्वतंत्र तथा आत्मनिर्भर रूप से दर्शाना और अपने बारे में बात करने का विचार एक सामान्य क्रियाकलाप नहीं है। यही नहीं इस प्रकार की प्रवृत्ति को अक्सर न तो बढ़ावा ही दिया जाता है और न ही सहन किया जाता है। अन्य शब्दों में, किशोर अक्सर स्वयं के बारे में अपने परिवार और समुदाय के संदर्भ में जैसे 'मैं' की बजाय 'हम' के रूप में बात करते हैं। उदाहरण के लिए, एक किशोर लड़की से विवाह के बारे में उसकी राय पूछने पर वह यह कहने कि, "मैं चाहूंगी कि मेरे माता-पिता मेरी शादी तय करें" की बजाय यह कहेगी कि, "हमारे परिवार में माता-पिता शादी तय करते हैं।"

अतः हम यह देख सकते हैं कि स्व-बोध के निर्माण में सांस्कृतिक संदर्भ कितना महत्वपूर्ण है। यद्यपि ये सांस्कृतिक प्रभाव भी प्रत्येक परिवार और प्रत्येक व्यक्ति के साथ भिन्न हो जाते हैं। जैसे, एक पारम्परिक भारतीय समाज में यौवनारंभ के साथ ही लड़कियों पर कई प्रतिबन्ध लग जाते हैं जबकि लड़के पहले की तरह ही स्वतंत्र होते हैं। दूसरे, पारम्परिक समुदाय की लड़की के 'स्वयं' और 'पहचान' के घटक शहरी क्षेत्रों में रहने वाली लड़की से एकदम अलग होंगे।

प्रश्न 8. 
किशोरावस्था के दौरान होने वाले प्रमुख भावात्मक और संज्ञानात्मक परिवर्तन कौनसे हैं?
उत्तर:
भावात्मक परिवर्तन-किशोर विकास के दौरान कई भावात्मक परिवर्तनों का अनुभव करता है। यथा
(i) इनमें से कई परिवर्तन किशोर में हो रहे जैविक और शारीरिक परिवर्तनों के कारण होते हैं। किशोर अपने शारीरिक रूप को लेकर अधिक चिंतामग्न रहते हैं। उन्हें लगता है कि दूसरे लोग उनके शरीर और व्यवहार के प्रत्येक पहलू को देख रहे हैं।

(ii) शारीरिक परिवर्तनों के प्रति सभी किशोर अलग-अलग तरीके से प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। जैसे, एक लड़का जिसके चेहरे पर उसकी उम्र के अन्य लड़कों की तुलना में पर्याप्त बाल नहीं हैं, उसे यह अजीब-सा लग सकता है। तथापि चेहरे पर बाल न होना किसी अन्य लड़के को परेशान करे, ऐसा भी हो सकता है।

(iii) शारीरिक विकास के प्रति गर्व अथवा सहज भाव रखने से किशोरों के स्व-बोध पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

(iv) दूसरी ओर, यदि किशोर इस बात से कि वह कैसा दिखाई देता है, आवश्यकता से अधिक असंतुष्ट है तो वह अपने व्यक्तित्व के अन्य पहलुओं, जैसे-कार्य, पढ़ाई, आदि पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाता है। इससे , विद्यालय में उसके कार्य निष्पादन में गिरावट आ सकती है और यह उसकी स्वयं के प्रति धारणा अथवा स्वाभिमान को कम करती है।

(v) अपने प्रति नकारात्मक धारणा रखने से व्यक्ति असुरक्षित महसूस करता है और उसमें शरीर के प्रति नकारात्मक भावनाएँ उत्पन्न होती हैं।

(vi) किशोरों की मन:स्थिति भी बदलती रहती है। उदाहरणतः कभी परिवार के सदस्यों और मित्रों के साथ रहने की इच्छा रखना और कभी बिल्कुल अकेले रहना। कभी उसे अचानक बेहद तेज क्रोध भी आ सकता है।

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संज्ञानात्मक परिवर्तन:

(i) जब तक बच्चा 11 वर्ष का होता है, उसका स्वयं-विवरण काफी वास्तविक हो जाता है और बच्चा 'वास्तविक' और 'आदर्श' स्वयं में अन्तर करने में सक्षम हो जाता है। 

(ii) किशोरावस्था के दौरान एक जबर्दस्त परिवर्तन यह होता है कि किशोर अमूर्त रूप से सोचने लगता है अर्थात् वे वर्तमान से तथा जो वह देखते और अनुभव करते हैं उससे अधिक आगे भी सोच सकते हैं। यही नहीं जैसे-जैसे सोच लचीली होती जाती है, वे परिकल्पित स्थितियों के बारे में भी सोच सकते हैं। अन्य शब्दों में, वे विभिन्न संभावनाओं और उनके परिणामों के बारे में सोच सकते हैं और इसके लिए यह आवश्यक भी नहीं कि वे उस स्थिति से होकर गुजरें अथवा किसी परिणाम को झेलें। 

(iii) किशोर कल्पनात्मक ढंग से अपने वर्तमान को अपने लिए चयनित कल्पित भविष्य के साथ जोड़ सकता है। उदाहरण के लिए किशोर उन संभावित जीविकाओं के बारे में सोच सकता है जो वह वयस्क के रूप में अपना सकता है तथा जो उसकी स्थिति और मिजाज के अनुकूल हो। तद्नुसार वह अपने अध्ययन की वर्तमान दिशा निर्धारित कर सकता है।

Raju
Last Updated on Aug. 8, 2022, 10:01 a.m.
Published Aug. 5, 2022