These comprehensive RBSE Class 12 Sociology Notes Chapter 6 सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियाँ will give a brief overview of all the concepts.
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→ विविधता का अर्थ: विविधता का अर्थ अन्तर है। भारतीय सन्दर्भ में यहाँ पर कई समूहों और समुदायों के लोग निवास करते हैं, जो कि सांस्कृतिक चिन्हों के रूप में धर्म, जाति, भाषा, पंथ, प्रजाति अथवा सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर पहचाने जाते हैं। जब यही विभिन्न समुदाय एक राष्ट्र के अभिन्न अंग होते हैं तो उनके मध्य प्रतिस्पर्धा के परिणामस्वरूप कई कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती हैं।
→ सांस्कृतिक विविधता और चुनौतियाँ: सांस्कृतिक विविधता कई चुनौतियाँ प्रस्तुत करती है। जब सांस्कृतिक पहचानें प्रबल होती हैं तब कठिनाइयाँ और बढ़ जाती हैं, जो कि तीव्र भावावेशों को भड़काकर लोगों को संगठित कर सकती हैं। कई बार सांस्कृतिक अन्तरों के साथ सामाजिक और आर्थिक असमानतायें भी जुड़ जाती हैं तब स्थिति और विकट हो जाती है। किसी समुदाय विशेष की समस्याओं को दूर करने के उपायों से अन्य समुदायों में विद्रोह की भावनायें भी उत्पन्न हो जाती हैं। जब नदी, जल अथवा रोजगार जैसे संसाधनों का असमान रूप से वितरण होता है तब समस्याएँ और भी बढ़ जाती हैं।
→ सामुदायिक पहचान:
सामुदायिक पहचान के दो रूप हैं
(1) अर्जित पहचान-इसमें व्यक्ति की योग्यता, गुण, विशेषता, व्यवसाय अथवा धन का महत्त्व होता है। इसके अन्तर्गत किसी विशेष पद अथवा प्रस्थिति को विशेष व्यक्ति के द्वारा ही प्राप्त किया जाता है। यद्यपि इसके द्वार सभी व्यक्तियों के लिए समान रूप से खुले होते हैं।
(2) प्रदत्त पहचान-प्रदत्त सामुदायिक पहचान जन्म अथवा अपनेपन पर आधारित होती है। इसमें व्यक्ति की पसन्द अथवा नापसन्द का कोई महत्त्व नहीं होता है। परिवार, नातेदारी, जाति, प्रजाति, क्षेत्र, भाषा, धर्म और संस्कृति इसी के अन्तर्गत आते हैं। प्रदत्त सामुदायिक पहचान से ही भावात्मक गहनता उत्पन्न होती है, जो कि हमारे रिश्तों को मजबूत बनाती है। यही सम्बन्ध व्यक्ति को पहचान प्रदान करते हैं। प्रदत्त पहचान और सामुदायिता की भावना की एक विशेषता यह होती है कि ये सर्वव्यापी होती हैं। परिवार, मातृभूमि, मातृभाषा सब इसके अन्तर्गत ही आते हैं। हममें से प्रत्येक व्यक्ति अपनी पहचान के प्रति समान रूप से प्रतिबद्ध होता है। इसीलिये राष्ट्र, भाषा, जाति अथवा धर्म में परस्पर झगड़े पाये जाते हैं, जिनका समाधान करना काफी कठिन होता है। इसमें एक पक्ष के द्वारा दूसरे पक्ष को घृणा से देखा जाता है और कभी-कभी यही संघर्ष काफी विकराल हो जाता है।
कभी-कभी संघर्षरत पक्षों में एक सत्य और दूसरा असत्य का पक्षधर होता है तो कभी दोनों ही असत्य के रास्ते पर होते हैं। कभी-कभी दोनों ही पक्ष न्याय की खातिर लड़ते हुए दिखाई देते हैं । इतिहास के द्वारा कभी एक पक्ष को आक्रान्ता तो दूसरे को विजेता कह दिया जाता है।
→ समुदाय-राष्ट्र एवं राष्ट्र-राज्य-समुदाय: यह व्यक्तियों का एक समूह है जो कि निश्चित उद्देश्यों के लिए बना होता है। इसके सदस्य परस्पर सामूहिकता के आधार पर जुड़े होते हैं।
→ राष्ट्र: राष्ट्र एक प्रकार से बड़े स्तर का समुदाय होता है, जो कि समुदायों से मिलकर बना समुदाय होता है। राष्ट्र के सदस्य एक ही सामूहिकता का हिस्सा बनने की इच्छा रखते हैं। इसकी स्थापना साझे धर्म, संस्कृति, भाषा, नृजातीयता, क्षेत्रीयता अथवा इतिहास के आधार पर हो सकती है। लेकिन इसे परिभाषित करना अथवा इसकी उन विशेषताओं को बता पाना आसान नहीं है जो कि एक राष्ट्र में होनी चाहिये।
→ राज्य: राष्ट्र के सदस्य एक ही राजनीतिक सामूहिकता की इच्छा रखने की भावना रखते हैं। राजनीतिक एकता की यही इच्छा स्वयं को एक राज्य बनाने की आकांक्षा के रूप में व्यक्त होती है। सही अर्थों में राज्य शब्द का अर्थ एक ऐसा अमूर्त सत्य होता है जिसमें राजनीतिक-विधिक समुच्चय समाहित होते हैं, जो कि एक खास भौगोलिक क्षेत्र पर और उस पर रहने वाले लोगों पर अपना नियंत्रण रखता है।
→ राष्ट्र-राज्य में सम्बन्ध: राष्ट्र ऐसे समुदाय होते हैं, जिनका अपना राज्य होता है। वास्तव में राष्ट्र-राज्य शब्द एक ही योजक चिन्ह से जुड़े हैं। पहले यह बात सही पाई थी कि केवल एक अकेला राज्य एक ही राष्ट्र का प्रतिनिधित्व कर सकता था अथवा प्रत्येक राष्ट्र का एक राज्य ही होना आवश्यक था।
→ आत्मसात्करण और एकीकरण की नीतियाँ: इन नीतियों का उद्देश्य सभी नागरिकों को एक समान सांस्कृतिक मूल्यों और मानकों को अपनाने के लिए राजी, प्रोत्साहित अथवा मजबूर करना होता है। ये मूल्य अथवा मानक प्रायः सम्पूर्ण रूप से अथवा अधिकांशतः अप्रभावशाली सामाजिक समूह के होते हैं। समाज के अन्य अप्रभावशाली अथवा अधीनस्थ समूहों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने सांस्कृतिक मूल्यों का परित्याग कर दें और निर्धारित मूल्यों को अपना लें।
एकीकरण को बढ़ावा देने वाली नीतियाँ शैली की दृष्टि से तो पृथक होती हैं। परन्तु उनका सर्वोच्च उद्देश्य अलग नहीं होता है। ये इस तथ्य पर बल देती हैं कि सार्वजनिक संस्कृति को सामान्य राष्ट्रीय स्वरूप तक सीमित रखा जाये, जबकि सभी गैर राष्ट्रीय संस्कृतियों को निजी क्षेत्र के लिए छोड़ दिया जाये। इस मामले में भी प्रभावशाली संस्कृति को 'राष्ट्रीय संस्कृति' माने जाने का खतरा है।
→ सांस्कृतिक विविधता एवं भारतीय राष्ट्र-राज्य-एक विहंगम दृष्टि
भारत राष्ट्र-राज्य एक परिचय: भारत राष्ट्र-राज्य सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से विभिन्न प्रकार की विविधताओं से परिपूर्ण है। इसकी जनसंख्या 2011 के अनुसार लगभग 121 करोड़ है। जनसंख्या की दृष्टि से भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा राष्ट्र है। यहाँ पर लगभग 1632 प्रकार की भाषायें और बोलियों को बोला जाता है। इनमें से 18 भाषाओं को अधिकारिक रूप से संविधान की आठवीं अनुसूची में मान्यता दी गई है। धार्मिक दृष्टि से भारत में 80.5 प्रतिशत जनसंख्या हिन्दुओं की है और लगभग 13.4 प्रतिशत जनसंख्या मुसलमानों की है। इस दृष्टि से इण्डोनेशिया और पाकिस्तान के बाद भारत विश्व का तीसरा बड़ा मुस्लिम राष्ट्र है। शेष जनसंख्या में यहाँ पर ईसाई, सिक्ख, बौद्ध और जैन जनसंख्या आती है।
→ भारत राष्ट्र का स्वरूप: भारत राष्ट्र की स्थिति न तो आत्मसात्करण की है और न ही एकीकरण की। कुछ समुदायों के द्वारा भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित किये जाने की माँग की जाती रही है। यद्यपि राष्ट्र की नीति में एकीकरण की नीति को महत्त्व दिया जाता रहा है। भारत के संविधान में भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है; परन्तु धर्म, भाषा और ऐसे ही अन्य कारकों को पूर्ण रूप से निष्कासित नहीं किया गया है। अन्तर्राष्ट्रीय मानकों की दृष्टि से यहाँ पर अल्पसंख्यकों को राज्य के द्वारा पूर्ण सुरक्षा प्रदान की गई है।
→ भारतीय सन्दर्भ में क्षेत्रवाद: भारत में क्षेत्रवाद का आरम्भ ब्रिटिश शासन की देन है, जबकि ब्रिटिश प्रशासन को प्रान्तों में (प्रेजीडिम) में बाँटा गया था। उदाहरण के लिए, बम्बई प्रान्त मराठी, गुजराती, कन्नड़ और कोंकणी बोलने वालों का बहुभाषी राज्य था तो मद्रास प्रान्त तमिल, तेलुगू, कन्नड़ और मलयालम बोलने वाले लोगों से मिलकर के बना था।
इस प्रकार से केवल धर्म ही नहीं, अपितु भाषा ने भी क्षेत्रीय तथा जनजातीय पहचान के साथ मिलकर भारत में नृजातीय-राष्ट्रीय पहचान बनाने के लिए एक सशक्त साधन के रूप में कार्य किया है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि भाषाई समुदायों को सशक्त बनाया है। सन् 2000 में छत्तीसगढ़, उत्तराखण्ड और झारखण्ड जैसे नये राज्य बने जिनमें भाषा की कोई भूमिका नहीं थी। वर्तमान में भारतीय राष्ट्र-राज्य में 28 राज्य और 8 संघ शासित राज्य हैं।
→ भारत में संघीय शासन प्रणाली:भारत में संघ और राज्यों के मध्य शक्तियों को विभाजित किया गया है। भारत के संविधान में शासन सम्बन्धी विषयों अथवा कार्यों की सूची होती है जिसकी जिम्मेदारी केन्द्र अथवा राज्य की होती है। इसके अलावा संविधान में अन्य क्षेत्रों की सूची भी दी गई है जो कि समवर्ती सूची कहलाती है, जिसमें केन्द्र और राज्य दोनों को ही कार्य संचालन की अनुमति प्रदान की गई है। इसके बारे में राज्य और केन्द्र दोनों ही काम कर सकते हैं। राज्य विधानमण्डल संसद के उच्च सदन, राज्य सभा के गठन का निर्धारण करते हैं। इसके अलावा कुछ आवधिक समितियाँ और आयोग हैं जो कि केन्द्र और राज्य सम्बन्धों को निश्चित करते हैं।
→ राष्ट्र-राज्य एवं धर्म से सम्बन्धित मुद्दे और पहचानें
अल्पसंख्यकों के अधिकार और राष्ट्र-निर्माण: भारतीय संविधान निर्माता अच्छी तरह से जानते थे कि सुदृढ़ एवं संयुक्त राष्ट्र का निर्माण तभी होगा जबकि सभी वर्गों को अपने धर्म का पालन करने और अपनी संस्कृति तथा भाषा का विकास करने की पूर्ण स्वतंत्रता होगी। अतः इसके लिए भारतीय संविधान में निम्न प्रावधान किये गये हैं
→ अनुच्छेद-29
→ अनुच्छेद-30
→ साम्प्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता एवं राष्ट्र:
राज्य साम्प्रदायिकता-सामान्य रूप से साम्प्रदायिता का अर्थ है-धार्मिक अभिवृत्ति जो अपने ही समूह को वैध अथवा श्रेष्ठ समझती है और अन्य समूहों को अवैध, निम्न अथवा विरोधी समझा जाता है। वस्तुतः यह एक आक्रामक राजनीतिक विचारधारा है जो धर्म से जुड़ी है। परन्तु यह आंग्ल भाषा के शब्द कम्युनिटी से सम्बन्धित नहीं है।
→ साम्प्रदायिकता की विशेषताएँ:
→ साम्प्रदायिकता के प्रभाव:
साम्प्रदायिक दंगों के दौरान लोग अपने-अपने समुदायों के पहचानहीन सदस्य बन जाते हैं, जो कि अपने अभिमान को पूरा करने के लिए अन्य सम्प्रदाय के लोगों को मारने, बलात्कार करने और लूटपाट करने का काम करते हैं। अपने अनुचित कार्यों के औचित्य को सिद्ध करने के लिए वे अपने सहधर्मियों के अपमान का बदला लेना मानते हैं। यद्यपि सभी धर्म और सम्प्रदायों में साम्प्रदायिकता की भावना पाई जाती है; परन्तु अल्पसंख्यक लोगों में यह भावना सर्वाधिक पाई जाती है। औपनिवेशिक शासन के देन के रूप में आज भी हमारे समाज में साम्प्रदायिक दंगों को देखा जा सकता है। .
→ धर्मनिरपेक्षतावाद: सामान्य रूप से धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति अथवा राज्य वह होता है जो किसी धर्म अथवा अन्य धर्मों की तुलना में पक्ष नहीं लेता है। इस दृष्टि से धर्मनिरपेक्षता धार्मिक उग्रवाद का विरोधी भाव है; परन्तु इसमें धार्मिक विद्वेष का होना आवश्यक नहीं है। राज्य और धर्म के पारस्परिक सम्बन्धों की दृष्टि से, धर्मनिरपेक्षता का यह भाव सभी धर्मों के प्रति आदर और सम्मान का प्रतीक होता है न कि अलगाव अथवा दूरी का।
→ धर्मनिरपेक्षता से सम्बन्धित जटिलतायें:
→ राज्य और नागरिक समाज
सत्ताधारी राज्य: इस राज्य संरचना में विधानमण्डल, अधिकारीतंत्र, न्यायपालिका, सशस्त्र सेनायें और पुलिस और राज्य के अन्य सभी स्कन्ध लोगों से पृथक् हो जाते हैं। इसमें लोगों की आवाज को नहीं सुना जाता है और जिसके पास शक्ति होती है वह सत्तावादी बनने की संभाविता रखता है। इसमें भाषण, प्रेस, राजनीतिक क्रियाकलाप, सत्ता के दुरुपयोग से संरक्षण का अधिकार, विधि की अपेक्षित प्रक्रियाओं का अपेक्षित अधिकार इत्यादि विभिन्न प्रकार की स्वतंत्रतायें सीमित अथवा समाप्त कर दी जाती हैं। इस प्रकार के राज्य की संस्थायें भ्रष्टाचार, अकुशलता अथवा संसाधनों की कमी के कारण लोगों की सुनवाई करने में अक्षम भी हो सकती हैं।
→ नागरिक समाज: इसे वह व्यापक कार्यक्षेत्र कहते हैं जो परिवार के निजी क्षेत्र से परे होता है लेकिन राज्य और बाजार दोनों क्षेत्र से बाहर होता है। नागरिक समाज सार्वजनिक अधिकार का गैर-राजकीय तथा गैर-बाजारी भाग होता है जिसमें अलग-अलग व्यक्ति, संस्थाओं और संगठनों का निर्माण करने के लिए परस्पर जुड़े होते हैं। यह सक्रिय नागरिकता का क्षेत्र होता है जहाँ लोग परस्पर मिलकर के नागरिक समस्याओं पर विचार करते हैं, राज्य को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं अथवा उसके समक्ष अपनी मांगों को रखते हैं। ये अपने विभिन्न कार्यों को पूरा करने का प्रयास करते हैं अथवा समर्थन को पाने का प्रयास करते हैं।
→ नागरिक समाज की कसौटियाँ
भारत के नागरिकों को सत्तावादी शासन का अनुभव आपातकाल के दौरान हुआ था, जबकि संसद को निलम्बित कर दिया गया और सरकार के द्वारा सीधे ही कानून बनाये गये थे। नागरिकों की स्वतंत्रतायें छीन ली गईं और बिना मुकदमों के ही लोगों को जेलों में डाल दिया गया था। सरकार के द्वारा निम्न स्तर के कर्मचारियों पर दबाव डाला गया और उन्हें सरकारी कामों को करने का आदेश दिया गया था। आपातकाल के द्वारा लोगों में सक्रिय भागीदारी की लहर पैदा हुई। इसके परिणामस्वरूप 1970 के दशक में नागरिक समाज के नये-नये कार्यक्रमों को बनाया गया था। इसी दौरान देश में पर्यावरण संरक्षण, नारी अधिकार और अन्य कई महत्त्वपूर्ण मुद्दे उठ खड़े हुए थे।