These comprehensive RBSE Class 12 Sociology Notes Chapter 4 बाज़ार एक सामाजिक संस्था के रूप में will give a brief overview of all the concepts.
→ बाजार का अर्थ: सामान्य रूप से बाजार को एक आर्थिक संस्था के रूप में जाना जाता है परन्तु बाजार एक आर्थिक संस्था ही नहीं अपितु एक सामाजिक संस्था भी है।
→ बाज़ार और अर्थव्यवस्था पर समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य: सर्वप्रथम 18वीं सदी में राजनीतिक अर्थशास्त्रियों में एडम स्मिथ ने अपनी पुस्तक 'द वैल्थ ऑफ नेशन्स' में बाजार की अर्थव्यवस्था को समझने का प्रयास किया था। उन्होंने यह तर्क दिया कि बाजारी अर्थव्यवस्था लोगों में आदान-प्रदान अथवा सौदों का एक लम्बा क्रम है, जो अपनी क्रमबद्धता के कारण स्वतः ही एक स्थिर व्यवस्था की स्थापना करती है। यह स्थिति तब भी होती है जबकि करोड़ों के लेन-देन में शामिल लोगों में से कोई भी व्यक्ति इसकी स्थापना करने का इरादा नहीं रखता है। हर एक व्यक्ति केवल अपने ही लाभ को बढ़ाने के बारे में सोचता है। तब ऐसा लगता है कि कोई अदृश्य बल काम कर रहा है जो कि इन लोगों के लाभ की प्रवृत्ति को समाज के लाभ की प्रवृत्ति में परिवर्तित कर देता है। इसी बल को एडम स्मिथ के द्वारा अदृश्य हाथ का नाम दिया गया था।
एडम स्मिथ तथा अन्य प्रारम्भिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार अर्थव्यवस्था को समाज के एक पृथक् हिस्से के रूप में देखा जा सकता है, जो कि बड़े सामाजिक और राजनीतिक सन्दर्भ से अलग है। इसके विपरीत समाजशास्त्रियों का मानना है कि बाजार सामाजिक संस्थायें हैं, क्योंकि बाजारों का नियंत्रण सामाजिक समूहों या वर्गों के द्वारा होता है और यह सामाजिक प्रक्रियाओं तथा संरचनाओं के साथ इसकी सम्बद्धता होती है।
→ बाजार के रूप: कृषक तथा आदिवासी समाजों में हाट तथा पशु बाजार, बाजार के ही रूप हैं। साप्ताहिक बाजार अथवा हाट में आस-पास के गाँवों के लोग एकत्रित होते हैं जो अपनी उपज तथा उत्पादों को बेचते हैं तथा अपनी आवश्यकता की बनी वस्तुओं को क्रय करते हैं। पशु बाजारों में पशुओं को खरीदा और बेचा जाता है। ऐसे बाजार आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ मेल-मिलाप के केन्द्र भी बन जाते हैं। आज सड़कों के निर्माण तथा संचार साधनों के कारण इनके रूप में परिवर्तन आता जा रहा है।
स्थानीय लोग बाजार में अपनी कृषि उपज तथा जंगल से लाये गये.उत्पादों को व्यापारियों को बेचते हैं और अपनी आवश्यकताओं की वस्तुओं जैसे नमक, कृषि के औजार तथा अन्य उपभोग की वस्तुओं को खरीदते हैं। अधिकांश लोग सामाजिक उद्देश्य से बाजार जाते हैं जहाँ पर वे अपने रिश्तेदारों से भेंट कर सकते हैं अथवा अपने जवान बेटे-बेटियों के विवाहों को निश्चित कर सकते हैं। ब्रिटिश शासन के दौरान औपनिवेशिक क्षेत्रों को सड़कों के साथ जोड़ दिया गया। स्थानीय लोगों को समझाया-बुझाया गया ताकि आदिवासी क्षेत्रों से समृद्ध वनों तथा खनिज संसाधनों का दोहन किया जा सके। परिणामस्वरूप जनजातीय क्षेत्रों में व्यापारी, साहूकार तथा आसपास के मैदानी क्षेत्रों का जमावड़ा लग गया। इससे जनजातीय अर्थव्यवस्था में परिवर्तन आने लगा। अब जंगल के उत्पादों को बाहरी लोगों को बेचा जाने लगा और नये प्रकार की वस्तुओं को व्यापार के साथ जोड़ा जाने लगा। अब आदिवासी लोगों से खानों तथा बागानों में श्रमिक के रूप में काम लिया जाने लगा। इन बदलावों के कारण स्थानीय आदिवासी अर्थव्यवस्थायें बड़े बाजारों के साथ जुड़ती चली गईं; लेकिन स्थानीय जनसमुदाय पर इसका प्रभाव प्रायः नकारात्मक ही था।
एल्फ्रेड गेल जैसे मानवशास्त्रियों ने अपने अध्ययन में बताया कि बाजार का महत्त्व केवल आर्थिक क्रियाओं तक ही सीमित नहीं है। बाजार की अर्थव्यवस्था उस क्षेत्र में अधिक्रमित अंतर-समूहों के सामाजिक सम्बन्धों का प्रतीकात्मक चित्रण भी करती है। विभिन्न सामाजिक समूह और जाति, सामाजिक अधिक्रम में एक साथ ही बाजार व्यवस्था में अपने अनुसार स्थापित होते हैं।
→ पूर्व उपनिवेशिक और उपनिवेशिक भारत में जाति आधारित बाजार एवं व्यापारिक तंत्र:
औपनिवेशिक काल से पूर्व भारत में विस्तृत और परिष्कृत व्यापारिक तंत्र विद्यमान था। देश में उन्नत उत्पादन केन्द्रों के साथ-साथ देशज व्यापारियों का संगठित समाज और बैंकिंग व्यवस्था विद्यमान थी, जिसके द्वारा आन्तरिक व्यापार के साथ-साथ विदेशी व्यापार भी किया जाता था। सामाजिक समूहों और व्यापारिक समुदायों के द्वारा बैंकों की तरह से कर्ज दिये जाते थे। विनिमय पत्र के रूप में हंडी प्रचलित थी, जिसे व्यापारी लम्बी दूरी के कारण अपने व्यापार में प्रयोग करते थे। चूँकि व्यापार प्राथमिकता में इन समुदायों की जाति एवं नातेदारी में होता था, इसलिए देश के किसी एक कोने में एक व्यापारी द्वारा जारी की गई हुंडी दूसरे कोने के व्यापारी के द्वारा स्वीकार कर ली जाती थी।
औपनिवेशिक शासनकाल के दौरान तमिलनाडु के नाटूकोटाइ चेट्टीयारों समूह की बैंकिंग और व्यापारिक गतिविधियाँ समुदाय के सामाजिक संगठनों के साथ जुड़ी हुई थीं। जाति, नातेदारी और परिवार की संरचना सब व्यापार के अनुकूल थी तथा व्यापार इन्हीं सामाजिक संरचनाओं के अन्दर किया जाता था। व्यापारिक एवं बैंकिंग गतिविधियाँ भी जाति और नातेदारी सम्बन्धों के द्वारा ही संचालित की जाती थीं।
→ बाजारों का सामाजिक संगठन : पारम्परिक व्यापारिक समुदाय: भारतीय सन्दर्भ में वैश्य चार वर्गों में से एक रहे हैं, जो प्राचीन काल से व्यापार और वाणिज्य में उनके महत्त्व को दर्शाते हैं। यद्यपि वैश्य की प्रस्थिति प्रायः स्थिर पहचान अथवा सामाजिक स्थिति की अपेक्षा अधिक्रम अथवा आकांक्षा से प्राप्त की हुई होती है। हालांकि कुछ वैश्य समुदाय ऐसे भी हैं जो कि पारम्परिक रूप से लम्बे समय से व्यापार और वाणिज्य में संलग्न रहे हैं, जैसे-उत्तर भारत में बनिया। कुछ जाति समूह भी व्यापार के कार्य में शामिल हो गये हैं, जो कि वैश्य की प्रस्थिति में शामिल होना अथवा पाना चाहते हैं। . भारतीय जाति व्यवहार और व्यवसायों के बीच जटिल सम्बन्ध रहे हैं। जैसे-पारसी, सिन्धी और जैन इत्यादि की व्यापारिक स्थिति काफी महत्त्वपूर्ण रही है जो कि व्यापार और वाणिज्य में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते आये हैं। व्यापार और क्रय-विक्रय का काम जाति और नातेदारी समूहों के द्वारा नियंत्रित किया जाता था।
→ उपनिवेशवाद और नये बाजारों का आविर्भाव: औपनिवेशिक काल से पहले ही भारत में एक मौद्रीकृत अर्थव्यवस्था विद्यमान थी। औपनिवेशिक काल में भारत पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की ओर उन्मुख हुआ। ब्रिटिश शासन से पूर्व भारत निर्मित माल के व्यापार का महत्त्वपूर्ण केन्द्र था; परन्तु औपनिवेशिक काल के दौरान वही भारत कच्चे माल तथा कृषक उत्पादन का महत्त्वपूर्ण स्रोत और उत्पादित सामान का उपभोक्ता बना दिया। ये कार्य इंग्लैंड को लाभ पहुँचाने के लिए किये गये थे। इसी दौरान भारतीय बाजार व्यवस्था में कुछ वर्गों को विशेष अवसर मिले, जैसे-मारवाड़ी परिवार, जिन्होंने औपनिवेशिक शासन के दौरान मिलने वाली व्यापारिक सुविधाओं का कलकत्ता में लाभ उठाया। ये लोग अपने व्यापार तथा साहूकारी को जारी रखने के लिए देश के विभिन्न भागों में बस गये। ये लोग अपने गहन सामाजिक तंत्रों के कारण ही अपने व्यापार में रहे थे।
→ पूँजीवाद एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में: कार्ल मार्क्स जो कि पूँजीवाद के आलोचक थे, उन्होंने पूँजीवाद को पण्य उत्पादन अथवा बाजार के लिए उत्पादन करने की व्यवस्था के रूप में समझा। मार्क्स की सभी आर्थिक व्यवस्थायें सामाजिक व्यवस्थायें भी थीं।।
→ वस्तुकरण अथवा पण्यीकरण:
पूँजीवाद के विकास के साथ ही हर क्षेत्र में बाजारों का विस्तार हुआ जो कि अब तक बाजार से अछूते थे। पण्यीकरण तब होता है जबकि जिस वस्तु को अभी तक बेचा नहीं जाता था वह अब बाजार में बिकने लग जाती है। जैसे कि श्रम और कौशल को अब बाजार में बेचा जा सकता है। मार्क्स के अनुसार पण्यीकरण एक नकारात्मक सामाजिक प्रक्रिया है।
वर्तमान सन्दर्भ में किडनी का प्रत्यारोपण धन लेकर करना अथवा वैवाहिक एजेन्सियों के द्वारा विवाह करवाने के उपलक्ष्य में धन लेना पण्यीकरण के ही उदाहरण हैं।
→ उपभोग: उपभोग पूँजीवादी समाज की एक अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता है। आधुनिक समाजों में उपभोग एक महत्त्वपूर्ण तरीका है जिसके द्वारा सामाजिक भिन्नता का निर्माण होता है तथा इसे प्रदर्शित किया जाता है। उपभोक्ता अपनी सामाजिक एवं सांस्कृतिक आवश्यकताओं के अनुरूप वस्तुयें खरीदकर उनका प्रदर्शन करता है। इसी के आधार पर विभिन्न कम्पनियों के द्वारा अपने उत्पादों को तैयार किया जाता है। विज्ञापन के जरिये उपभोक्ताओं को अपने उत्पादों के साथ जोडा जाता है।
मैक्स वेबर के द्वारा बताया गया कि जो लोग सामान को खरीदते हैं और उसका उपभोग करते हैं वह समाज में लोगों की प्रस्थिति के साथ गहराई के साथ जुड़ा होता है। उन्होंने इसे प्रतिष्ठा के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया। उदाहरण के लिए, भारत में मध्यमवर्गीय परिवारों के पास कार का मॉडल तथा कम्पनियों के मोबाइल लोगों की सामाजिक प्रतिष्ठा की पहचान हैं।
वस्तुओं के उपभोग की दृष्टि से उच्च वर्ग तथा निम्न वर्ग की जीवन-शैली तथा सामाजिक मूल्य अलगअलग होते हैं। मध्यम वर्ग के अपने सामाजिक व्यवहार तथा जीवन-मूल्य अलग होते हैं। यही कारण है कि समाजशास्त्रियों के द्वारा उपभोग के स्वरूप तथा जीवन-शैलियों का उनके सामाजिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व के आधार पर अध्ययन किया जाता है।
→ भूमण्डलीकरण :
(1) स्थानीय, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों का गठजोड़-1980 के दशक में भारत के द्वारा एक नये आर्थिक युग में प्रवेश किया गया, जो कि उदारवाद जैसी आर्थिक नीति के परिवर्तन के कारण सम्भव हो सका। इसी परिवर्तन के अन्तर्गत भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया का शुभारम्भ हुआ। जिसमें सम्पूर्ण विश्व परस्पर अन्तर्सम्बन्धित है, न केवल आर्थिक दृष्टि से अपितु राजनीतिक दृष्टि से भी अन्तर्सम्बन्धित है। भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया के कई रूप हैं परन्तु इनमें महत्त्वपूर्ण हैं-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर वस्तुओं, पूँजी, समाचार और लोगों का संचलन तथा एक साथ ही प्रौद्योगिकी (कम्प्यूटर, दूरसंचार और परिवहन के क्षेत्र में) तथा अन्य कई प्रकार की असाधारण सुविधाओं का विस्तार, जो कि एक संचालन को महत्त्वपूर्ण गति प्रदान करते हैं।
(2) बाजारों का एकीकरण-भूमण्डलीकरण की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है विश्व के हर क्षेत्र में बाजारों का तेजी से विस्तार और एकीकरण का बढना। यहाँ एकीकरण का अर्थ है कि विश्व के किसी भी कोने में यदि किसी भी बाजार में परिवर्तन होता है तो दूसरे कोने के बाजारों पर इसका अनुकूल अथवा प्रतिकूल प्रभाव अवश्य पड़ता है। उदाहरण के लिए, यदि अमेरिका के शेयर मार्केट में गिरावट आती है तो भारत के शेयर मार्केट पर भी इसका प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है।
(3) लोगों, सांस्कृतिक उत्पादों और छवियों का परिचालन-भूमण्डलीकरण के अन्तर्गत पूँजी और वस्तुओं का ही नहीं अपितु लोगों, सांस्कृतिक उत्पादों एवं छवियों का भी सम्पूर्ण विश्व में परिचालन होता है जो कि विनियम के नूतन दायरों में प्रवेश करती हैं तथा नये बाजारों में प्रवेश करती हैं। विभिन्न प्रकार के उत्पाद, सेवायें और सांस्कृतिक तत्व जो पूर्व में बाजार व्यवस्था के बाहर थे परन्तु वह अब बाजार व्यवस्था के हिस्से बन जाते हैं।
→ उदारीकरण: भारतीय अर्थव्यवस्था में भूमण्डलीकरण का आरम्भ उदारीकरण की देन रहा है। उदारीकरण के अन्तर्गत सरकारी विभागों का निजीकरण, पूँजी, श्रम और व्यापार में सरकारी हस्तक्षेप में कमी, विदेशी वस्तुओं के आसान आयात के जरिये आयात शुल्क में कमी और विदेशी कम्पनियों को भारत में अपने उद्योग स्थापित करने को आमंत्रित करना इत्यादि को शामिल किया गया। बाजारीकरण के रूप में इस आर्थिक नियंत्रण को सरकार के द्वारा समाप्त कर देना, उद्योगों का निजीकरण, मजदूरी और मूल्यों पर सरकारी नियंत्रण को समाप्त कर देना इत्यादि के रूप में समझा जा सकता है।
→ भारत में उदारवाद या उदारीकरण के प्रभाव: