Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Sanskrit व्याकरणम् अलंकार-प्रकरणम् Questions and Answers, Notes Pdf.
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अलंकरोति इति अलङ्कारः - अलङ्कार वह है जो अलंकृत करता है, सजाता है। लोक में जिस प्रकार आभूषण आदि शारीरिक शोभा की वृद्धि में सहायक होते हैं, उसी प्रकार काव्य में अनुप्रास, उपमा, रूपक आदि अलङ्कार काव्य की चारुता में अभिवृद्धि करते हैं। मुख्य रूप से अलङ्कार दो प्रकार के होते हैं -
(i) शब्दालङ्कार (ii) अर्थालङ्कार
शब्द और अर्थ को काव्य का शरीर माना गया है। काव्य-शरीर का अलङकरण भी शब्द एवं अर्थ दोनों ही रूपों में होता है। जो अलङ्कार केवल शब्द द्वारा काव्य के सौन्दर्य में अभिवृद्धि करते हैं, वे शब्द पर आश्रित रहने के कारण शब्दालङ्कार कहे जाते हैं, जैसे-अनुप्रास, यमक आदि। - जो अलङ्कार अर्थ द्वारा काव्य के सौन्दर्य में अभिवृद्धि करते हैं, वे अर्थ पर आश्रित होने के कारण अर्थालङ्कार कहे जाते हैं, जैसे-उपमा, रूपक आदि।
कुछ अलङ्कार ऐसे भी होते हैं, जो शब्द और अर्थ दोनों पर आश्रित रहकर काव्य की शोभा बढ़ाते हैं, वे उभयालङ्कार कहे जाते हैं, जैसे-श्लेष।
1. अनुप्रासः अलङ्कारः
अनुप्रासः शब्दसाम्यं वैषम्येऽपि स्वरस्य यत्। - साहित्यदर्पण
स्वर की विषमता होने पर भी शब्दसाम्य (वर्ण या वर्णसमूह की आवृत्ति) को अनुप्रास अलङ्कार कहते हैं। अधोलिखित श्लोक में अनुप्रास अलङ्कार है -
वहन्ति वर्षन्ति नदन्ति भान्ति,
ध्यायन्ति नृत्यन्ति समाश्वसन्ति।
नद्यो घना मत्तगजा वनान्ताः
प्रियाविहीनाः शिखिनः प्लवङ्गाः॥
- इस उदाहरण में व्, न्, त् तथा य् वर्णों की बार-बार आवृत्ति अलग-अलग स्वरों के साथ हुई है; जिससे कविता का सौन्दर्य बढ़ गया है, अतः इस श्लोक में अनुप्रास अलङ्कार है।
अन्य उदाहरण -
हंसो यथा राजतपञ्जरस्थः
सिंहो यथा मन्दरकन्दरस्थः।
वीरो यथा गर्वित कुञ्जरस्थः
चन्द्रोपि बभ्राज तथाम्बरस्थः॥
यहाँ - थ, न्द, र-वर्णों की आवृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार है। अन्य उदाहरण ललित-लवङ्ग-लता-परिशीलन-कोमल-मलय-समीरे। मधुकर-निकर-करम्बित-कोकिल-कूजित-कुञ्ज-कुटीरे॥ यहाँ-ल, क, र आदि अक्षरों की आवृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार है।
2. यमक-अलङ्कारः -
सत्यर्थे पृथगर्थायाः स्वरव्यञ्जनसंहतेः।
क्रमेण तेनैवावृत्तिर्यमकं विनिगद्यते॥
जब वर्णसमूह की उसी क्रम से पुनरावृत्ति की जाए, किन्तु आवृत्त वर्ण-समुदाय या तो भिन्नार्थक हो अथवा अंशत: या पूर्णतः निरर्थक हो, तो यमक अलङ्कार कहलाता है।
प्रकृत्या हिमकोशाधो दूर-सूर्यश्च साम्प्रतम्।
यथार्थनामा सुव्यक्तं हिमवान् हिमवान् गिरिः।।
इस श्लोक में 'हिमवान्' शब्द की आवृत्ति हुई है और दोनों पद भिन्नार्थक हैं। अतः यहाँ पर प्रयुक्त अलङ्कार यमक है, जो श्लोक के सौन्दर्य की अभिवृद्धि में सहायक है।
अन्य उदाहरण -
नवपलाशपलाश वनं पुरः
स्फुट-पराग-परागत-पङ्कजम्।
मृदुलतान्त-लतान्तमलोकयत्
सः सुरभिं सुरभिं सुमनोभरैः॥
यहाँ पलाश - पलाश तथा सुरभिं - सुरभिं दोनों पद सार्थक हैं और भिन्नार्थक हैं। पराग ---पराग में दूसरा पद निरर्थक है, क्योंकि इसमें गत शब्द क 'ग' मिलाया गया है। लतान्त-लतान्त में पहला निरर्थक है तथा दूसरा सार्थक है; क्योंकि इसमें मृदुलता का 'लता' जोड़ लिया गया है। अत: यहाँ यमक अलंकार है।
अन्य उदाहरण -
नगजा नगजा दयिता दयिता विगतं विगतं ललितं ललितम्।
प्रमदा प्रमदा महता महता मरणं मरणं समयात् समयात्॥
'न गजा' और 'नगजा' से अर्थ भिन्न हो जाता है। अतः यहाँ यमक अलंकार है।
अर्थालंकार
3. उपमा
दो वस्तुओं में भेद रहने पर भी, जब उनकी समानता (साधर्म्य) बताई जाए तब वह उपमा अलंकार होता है। जैसे-कमलमिव मुखं मनोज्ञम् ।
संस्कृत में लक्षण -
उपमा यत्र सादृश्यं लक्ष्मीरुल्लसति द्वयोः ।
अथवा साम्यं वाच्यवैधर्म्य वाक्यैक्यमुपमा द्वयोः। उदाहरण
कमलमिव मुखं मनोज्ञमेतत्। यहाँ मुख की उपमा कमल से दी गई है। उपमा अलङ्कार में चार उपादान होते हैं 1. उपमान (जिससे उपमा दी जाय), जैसे-कमलम्
2. उपमेय (जिसकी उपमा दी जाय), जैसे-मुखम् 3. समान धर्म जैसे मनोज्ञं (मनोज्ञता, सुन्दरता) 4. उपमानवाची शब्द जैसे इव (यथा, वत्, तुल्य, सम आदि)
जहाँ इन चारों का स्पष्ट उल्लेख हो वह पूर्णोपमा कहलाती है, जैसे उपर्युक्त उदाहरण में। जहाँ इनमें से कुछ लुप्त रहते हैं वह लुप्तोपमा कहलाती है। उपमा के भेद प्रभेद अनेक हैं।
4. रूपकम्
संस्कृत में लक्षण
तद्रूपकमभेदो यः उपमानोपमेपयोः। अत्यधिक समानता (सादृश्य) के कारण, जहाँ उपमेय को उपमान का रूप दे दिया जाए, अथवा उपमेय पर उपमान का आरोप कर दिया जाए, वहाँ रूपक अलंकार होता है। जैसे-मुखं चन्द्रः । यहाँ मुख (उपमेय) पर चन्द्र (उपमान) का आरोप किया गया है अर्थात् दोनों को एक ही माना गया है। जैसे-तस्याः मुखं चन्द्र एव।
उदाहरण
त्वयैव मातस्सुतशोकसागरः। यहाँ सुतशोक (उपमेय) और सागर (उपमान) में समानता है, इसलिए सुतशोक में सागर का आरोप हुआ है।
5. उत्प्रेक्षा
भवेत् सम्भावनोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य परात्मना।
पर (उपमान) के द्वारा प्रकृत (उपमेय) की सम्भावना ही उत्प्रेक्षा अलङ्कार है।
उदाहरणम् -
लिम्पतीव तमोऽङ्गानि वर्षतीवाञ्जनं नभः।
असत्पुरुषसेवेव दृष्टिविफलतां गता ।।
यहाँ अन्धकार का फैलना रूप उपमेय की लेपन आदि उपमान के रूप में सम्भावना की गई है। अतएव उत्प्रेक्षा अलंकार है। उत्प्रेक्षावाचक शब्द हैं-मन्ये, शङ्के, ध्रुवम्, प्रायः, नूनम, इव आदि। इनमें इव का प्रयोग उपमा में भी होता है। अन्तर यह है कि इव शब्द जब उत्प्रेक्षा का वाचक होता है तब क्रिया के साथ प्रयुक्त होता है और जब उपमा का वाचक होता है तब संज्ञा के साथ।
मन्ये शङ्के ध्रुवं प्रायो नूनमित्येवमादयः।
उत्प्रेक्षा व्यज्यते शब्दैरिवशब्दोऽपि तादृशः।।
6. श्लेषः अलङ्कारः
श्लिष्टैः पदैरनेकार्थाभिधाने श्लेष इष्यते।
श्लिष्ट पदों के द्वारा अनेक अर्थों की अभिव्यक्ति होने पर श्लेष अलङ्कार कहा जाता है।
उदाहरणम् -
उच्चरद्धूरि कीलालः शुशुभे वाहिनीपतिः।
जिसके शरीर से अधिक मात्रा में रक्त निकल रहा है, वह सेनापति शोभित हुआ। द्वितीय पक्ष में-जिससे अधिक मात्रा में जल उछलता है, वह समुद्र शोभित हुआ। यहाँ कीलाल तथा वाहिनीपति शब्दों के दो-दो अर्थ होने के कारण श्लेष अलङ्कार है। (कीलाल = रुधिर/जल; वाहिनीपति = सेनापति/समुद्र)।
अन्य उदाहरण -
प्रतिकूलतामुपगते हि विधौ विफलत्वमेति बहुसाधनता।
अवलम्बनाय दिनभर्तुरभून्न पतिष्यतः करसहस्त्रमपि॥
पहला अर्थ - विधु (=चन्द्रमा) के प्रतिकूल होने पर सभी साधन विफल हो जाते हैं। गिरने (=अस्त होने) के समय सूर्य के हजार कर (=किरण ) भी सहारा देने के लिए पर्याप्त नहीं होते। (पूर्णिमा के दिन सूर्य के अस्त होने के समय चन्द्रमा सूर्य की विपरीत दिशा = पूर्व दिशा में उदित हुआ करता है।)
दूसरा अर्थ - विधि (=भाग्य) के प्रतिकूल होने पर सभी साधन विफल हो जाते हैं। गिरने (विपत्ति आने) के समय सूर्य के समान तेजस्वी मनुष्य के हजार हाथ भी सहारा देने के लिए पर्याप्त नहीं होते।
- इस उदाहरण में 'विधौ' पद में श्लेष है। 'विधि' (=भाग्य) तथा 'विधु' (चन्द्रमा) -इन दोनों शब्दों का सप्तमी विभक्ति एकवचन में 'विधौ' रूप बनता है। जिसके कारण एक ही श्लोक के दो अलग-अलग अर्थ हो गए। इसीलिए यहाँ श्लेष अलंकार है।
श्लेष अर्थालंकार भी होता है। जब शब्द के परिवर्तन कर देने पर भी श्लेष बना रहता है तब वह श्लेष अर्थालंकार होता है; जैसे -
स्तोकेनोन्नतिमायाति स्तोकेनायात्यधोगतिम्।
अहो सुसदृशी वृत्तिस्तुलाकोटेः खलस्य च॥
यहाँ 'उन्नति' शब्द का अर्थ है- 'ऊपर उठना' और 'अभ्युदय'। 'अधोगति' शब्द का अर्थ है- 'नीचे जाना' और तएव इन पदों में श्लेष है, इनके पर्यायवाची शब्द रख देने पर भी यहाँ श्लेष बना रहता है। अतएव यह श्लेष अर्थालंकार का उदाहरण है।
7. अर्थान्तरन्यासः
संस्कृत में लक्षण -
सामान्यं वा विशेषो वा यदन्येन समर्थ्यते।
यत्र सोऽर्थान्तरन्यासः विशेषस्तेन वा यदि॥
मुख्य अर्थ के समर्थन करने वाले दूसरे वाक्यार्थ (अर्थान्तर) का प्रतिपादन (न्यास) अर्थान्तरन्यास अलंकार कहलाता है। इसमें सामान्य कथन के द्वारा विशेष (प्रस्तुत) वस्तु का अथवा विशेष के द्वारा सामान्य वस्तु का समर्थन होता है ; जैसे-दुष्करं किं महात्मनाम्।
उदाहरण -
हनूमानब्धिमतरद् दुष्करं किं महात्मनाम्।
यहाँ हनूमानब्धिमतरत् (हनुमान जी ने समुद्र पार किया) मुख्य वाक्य है। इसका समर्थन अगले वाक्य द्वारा किया गया है। अतः यहाँ अर्थान्तरन्यास अलङ्कार है।
अन्य उदाहरण -
पयः पानं भुजंगानां केवलं विषवर्धनम्।
उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये॥
8. अतिशयोक्तिः
संस्कृत में लक्षण -
सिद्धेऽध्यवसायत्वेऽतिशयोक्तिर्निगद्यते।
अध्यवसाय के सिद्ध होने पर अतिशयोक्ति अंलकार होता है। अध्यवसाय का अर्थ है- उपमेय के निगरण (विलोप) के साथ उपमान के अभेद का आरोप। जैसे–चन्द्र शोभते कहने पर अर्थ लिया जाता है-मुखं शोभते। परन्तु यहाँ प्रथम प्रयोग में उपमेय भूत 'मुख' का निगरण पूर्वक उपमान (चन्द्र) में उसके अभेद का आरोप हुआ है। इसी प्रकार = 'इहापि मुखं द्वितीयश्चन्द्रः' यहाँ मुख को दूसरा चन्द्रमा कहना अतिशयोक्ति है।
उदाहरण -
पुष्पं प्रवालोपहितं यदि स्यात्
मुक्ताफलं वा स्फुट विद्रुमस्थम्।
ततोऽनुकुर्याद् विशदस्य तस्या।
स्ताग्रौष्ठपर्यस्तरुचः स्मितस्य॥
यहाँ शब्द के प्रवाल के साथ पुष्प की और विद्रुम के साथ मोती की असम्भाव्य सम्बन्ध की कल्पना की गई है। इसलिए यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार है।
9. व्याजस्तुतिः
संस्कृत में लक्षण -
व्याजस्तुतिर्मुखे निन्दा स्तुतिर्वा रूढिरन्यथा
प्रारंभ में निंदा अथवा स्तुति मालूम होती हो, परंतु उससे भिन्न (अर्थात् दीखने वाली निंदा का स्तुति में अथवा स्तुति का निंदा में) पर्यवसान होने पर व्याजस्तुति अलङ्कार होता है।
उदाहरण -
व्याजस्तुतिस्तव पयोद ! मयोदितेयं
यज्जीवनाय जगतस्तव जीवनानि
स्तोत्रं तु ते महदिदं घन ! धर्मराज !
साहाय्यमर्जयसि यत्पथिकान्निहत्य॥
10. अन्योक्तिः अलङ्कारः
असमानविशेषणमपि यत्र समानेतिवृत्तमुपमेयम्।
उक्तेन गम्यते परमुपमानेनेति साऽन्योक्तिः॥
जहाँ कथित उपमान द्वारा ऐसे उपमेय की प्रतीति हो जो उपमान के विशेषणों के असमान होता हुआ भी समान इतिवृत्त वाला हो, वहाँ अन्योक्ति अलंकार होता है। अन्योक्ति अलंकार का ही दूसरा नाम अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार है।
उदाहरण -
तावत् कोकिल विरसान् यापय
दिवसान् वनान्तरे निवसन्।
यावन्मिलदलिमाल:
कोऽपि रसालः समुल्लसति॥
अर्थ - हे कोयल ! वन में रहते हुए अपने बुरे समय को तब तक किसी प्रकार बिता लो, जब तक कि कोई बौर (मंजरी) से लदा हुआ भौरों से सुशोभित आम का वृक्ष तुम्हें नहीं मिल जाता। यहाँ कोयल उपमान है और कोई सज्जन उपमेय है। यद्यपि कोयल और सज्जन के विशेषणों में असमानता है। अतः यहाँ अन्योक्ति अलंकार है।