These comprehensive RBSE Class 12 History Notes Chapter 5 यात्रियों के नज़रिए : समाज के बारे में उनकी समझ will give a brief overview of all the concepts.
→ मध्यकालीन भारत (लगभग दसवीं से सत्रहवीं सदी तक) के राजनीतिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन के इतिहास का अध्ययन करने के लिए कई स्रोत उपलब्ध हैं; जिनमें से मुख्य स्रोत उन विदेशी यात्रियों द्वारा लिखित वृत्तान्त हैं, जिन्होंने मध्यकाल में भारत की यात्रा की थी।
→ मध्यकाल में भारत में अनेक विदेशी यात्री आए; जिनमें अल बिरूनी (ग्यारहवीं शताब्दी), इब्न बतूता (चौदहवीं शताब्दी), फ्रांस्वा बर्नियर (सत्रहवीं शताब्दी) आदि प्रमुख थे।
→ अल बिरूनी का जन्म आधुनिक उज्बेकिस्तान में स्थित ख्वारिज्म (शिक्षा का एक महत्वपूर्ण केन्द्र) में 973 ई. में हुआ था।
→ अल बिरूनी सीरियाई, फारसी, हिब्रू, संस्कृत आदि भाषाओं का अच्छा ज्ञान रखता था।
→ सुल्तान महमूद गजनवी ने 1017 ई. में ख्वारिज्म पर आक्रमण किया। वह विद्वानों का बहुत सम्मान करता था इसलिए ख्वारिज्म के कई विद्वानों एवं कवियों को अपने साथ अपनी राजधानी गज़नी ले आया, अल बिरूनी भी उनमें से एक था।
→ गज़नी में ही अल बिरूनी की भारत के प्रति रुचि विकसित हुई। पंजाब के गज़नवी साम्राज्य का हिस्सा बनने के पश्चात् उसने ब्राह्मण पुरोहितों एवं विद्वानों के साथ कई वर्ष व्यतीत किए तथा संस्कृत, धर्म एवं दर्शन का ज्ञान प्राप्त किया।
→ संस्कृत में रचित खगोल विज्ञान, गणित तथा चिकित्सा सम्बन्धी कार्यों का आठवीं शताब्दी से ही अरबी भाषा में अनुवाद होने लगा था।
→ कई भाषाओं में दक्ष अल बिरूनी को भाषाओं की तुलना और ग्रन्थों का अनुवाद करने में महारत हासिल थी। उसने पतंजलि के व्याकरण सहित संस्कृत की कई कृतियों का अरबी में अनुवाद किया। इसके अतिरिक्त उसने अपने ब्राह्मण मित्रों के लिए यूनानी गणितज्ञ यूक्लिड की रचनाओं का संस्कृत में अनुवाद किया।
→ अल बिरूनी के लेखन कार्य के समय तक यात्रा वृत्तान्त अरबी साहित्य का एक मान्य भाग बन चुके थे। ये वृत्तान्त पश्चिम में सहारा मरुस्थल से लेकर उत्तर में वोल्गा नदी तक फैले क्षेत्रों से सम्बन्धित थे।
→ अल बिरूनी ने अरबी भाषा में 'किताब-उल-हिन्द' नामक पुस्तक की रचना की। यह ग्रन्थ 80 अध्यायों में विभाजित है जिनमें धर्म, दर्शन, त्योहारों, खगोल विज्ञान, कीमिया, रीति-रिवाजों, प्रथाओं, सामाजिक जीवन, कानून, भार-तौल व मापन विधियाँ, मूर्तिकला, मापतंत्र विज्ञान आदि विषयों का वर्णन है।
→ आज के कुछ विद्वानों का तर्क है कि अल बिरूनी का गणित विषय की ओर अधिक झुकाव था। इसी कारण उसकी पुस्तक, जो लगभग एक ज्यामितीय रचना है, अपनी स्पष्टता एवं पूर्वानुमेयता के लिए प्रसिद्ध है। अल बिरूनी ने संभवतः उपमहाद्वीप के सीमान्त क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए उसकी कृतियाँ लिखी थीं। वह लेखन में भी अरबी भाषा का प्रयोग करता था।
हिन्दू |
ई. पू. लगभग छठी-पाँचवीं शताब्दी में प्रयुक्त प्राचीन फारसी शब्द 'हिन्दू' का प्रयोग सिंधु नदी (Indus) के पूर्वी क्षेत्र के लिए होता था। इस फारसी शब्द को अरबी लोगों ने जारी रखा तथा इस क्षेत्र को 'अल-हिन्द' और यहाँ के लोगों को 'हिन्दी' कहा। कालान्तर में तुर्कों ने सिंधु से पूर्व में रहने वाले लोगों को 'हिन्दू', उनके निवास क्षेत्र को 'हिन्दुस्तान' और उनकी भाषा को 'हिन्दवी' कहा। उस समय यह शब्द धार्मिक पहचान का द्योतक नहीं था। धार्मिक सन्दर्भ में इस शब्द का प्रयोग बहुत समय बाद होना शुरू हुआ। |
→ इब्न बतूता ने अरबी भाषा में 'रिला' नाम से अपना यात्रा वृत्तान्त लिखा था जो चौदहवीं शताब्दी में भारतीय उपमहाद्वीप के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन के विषय में जानकारी का महत्वपूर्ण स्रोत है।
→ इब्न बतूता का जन्म मोरक्को के तैंजियर नामक नगर में एक शिक्षित एवं सम्मानित परिवार में हुआ था।
→ इब्न बतूता 1333 ई. में मध्य एशिया होते हुए स्थल मार्ग से सिंध पहुँचा। उसने दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के बारे में सुन रखा था कि वह कला एवं साहित्य का संरक्षक है। उसकी ख्याति से प्रभावित होकर इब्न बतूता मुल्तान एवं कच्छ के रास्ते दिल्ली पहुंचा।
→ सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक ने इब्न बतूता की विद्वता से प्रभावित होकर उसे दिल्ली का काजी (न्यायाधीश) नियुक्त कर दिया। वह इस पद पर कई वर्षों तक रहा। सुल्तान ने 1342 ई. में उसे मंगोल शासक के अपने दूत के रूप में चीन जाने का आदेश दिया तब उसने चीन की व्यापक रूप से यात्रा की, परन्तु वहाँ वह लम्बे समय तक नहीं ठहरा। 1347 ई. में उसने वापस अपने घर जाने का निश्चय किया।
→ चीन के विषय में इब्न बतूता के वृत्तान्त की तुलना मार्को पोलो के वृत्तान्त से की जाती है जिसने 13वीं शताब्दी के अन्त में वेनिस से चलकर चीन व भारत की यात्रा की थी।
→ इब्न बतूता एक जिद्दी (हठी) यात्री था जिसने उत्तरी अफ्रीका, पश्चिम एशिया, मध्य एशिया के कुछ भाग (संभवतः रूस भी), भारतीय उपमहाद्वीप और चीन की यात्रा की। जब वह अपने निवास स्थान मोरक्को (पश्चिमी अफ्रीका) वापस आया तब स्थानीय शासक ने उसकी कहानियों को दर्ज करने का निर्देश दिया।
→ अल बिरूनी तथा इब्न बतूता के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए 1400 ई. से 1800 ई. के मध्य कई लेखकों ने भारत की यात्रा की। इन लेखकों में अब्दुर रज्जाक समरकंदी (1440 के दशक में दक्षिण भारत की यात्रा), महमूद वली बल्खी (1620 के दशक में व्यापक स्तर पर यात्रा) तथा शेख अली हाजिन (1740 के दशक में उत्तर भारत की यात्रा) प्रमुख हैं।
→ भारत में पुर्तगालियों का लगभग 1500 ई. में आगमन हुआ जिसके बाद बहुत-से पुर्तगालियों ने भारतीय सामाजिक रीति-रिवाजों तथा धार्मिक प्रथाओं पर विस्तृत वृत्तान्त लिखे। वहीं जेसुइट रॉबर्टो नोबिली ने भारतीय ग्रन्थों का यूरोपीय भाषा में अनुवाद किया।
→ प्रसिद्ध यूरोपीय लेखक दुआर्ते बरबोसा ने दक्षिण भारत में व्यापार तथा समाज का एक विस्तृत विवरण लिखा।
→ 1600 ई. बाद डच, अंग्रेज और फ्रांसीसी यात्री बड़ी संख्या में भारत की यात्रा पर आने लगे। भारत की व्यापारिक स्थितियों से अत्यन्त प्रभावित होकर फ्रांस के जौहरी ज्यौं-बेप्टिस्ट तैवर्नियर ने कम-से-कम छह बार भारत की यात्रा की जिसने ईरान और ऑटोमन साम्राज्य से भारत की तुलना की। वहीं इटली के चिकित्सक मनूकी भारत में ही बस गए और वापस यूरोप गए ही नहीं।
→ फ्रांस्वा बर्नियर, फ्रांस का निवासी था जो एक चिकित्सक, राजनीतिक, दार्शनिक एवं इतिहासकार था।
→ फ्रांस्वा बर्नियर लगभग 12 वर्षों (1656-1668) तक भारत में रहा। इस अवधि में वह मुगल साम्राज्य के साथ निकटता से जुड़ा रहा।
→ बर्नियर ने भारत की स्थिति को यूरोप में हुए विकास की तुलना में दयनीय बताया। उसने अपनी प्रमुख कृति फ्रांस के शासक लुई सोलहवें को समर्पित की।
→ बर्नियर की कृतियाँ फ्रांस में 1670-71 में प्रकाशित हुईं तथा अगले पाँच वर्षों में ही इनका अनुवाद अंग्रेजी, डच, जर्मन और इतालवी भाषाओं में हुआ।
→ यूरोपीय यात्रियों के वृत्तान्तों ने उनकी पुस्तकों के प्रकाशन तथा प्रसार के जरिए भारत की एक छवि सृजित करने में सहायता की। हालांकि शेख इतिसमुददीन और मिर्जा अबु तालिब जैसे भारतीयों ने 1750 के बाद जब यूरोप की यात्रा की तो वे यूरोपीय लोगों की भारतीय समाज की छवि से अवगत हुए। तत्पश्चात उन्होंने तथ्यों की अपनी अलग व्याख्या के जरिए इसे प्रभावित करने की कोशिश की।
→ अल बिरूनी को भारतीय समाज को समझने में अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ा जिनमें संस्कृत भाषा की कठिनाई, धार्मिक अवस्थाओं व प्रथाओं में भिन्नता, अभिमान आदि प्रमुख थीं।
→ अल बिरूनी ने भारतीय विचारों को समझने के लिए वेदों, पुराणों, भगवद्गीता, मनुस्मृति, पतंजलि की कृतियों आदि का उपयोग किया।
→ जाति व्यवस्था से सम्बन्धित अपने विवरण में अल बिरूनी ने भारत की ब्राह्मणवादी व्यवस्था के सिद्धान्तों को स्वीकार तो किया, परन्तु अपवित्रता के सिद्धान्त को मानने से इंकार कर दिया।
→ अल बिरूनी के अनुसार यदि कोई वस्तु अपवित्र हो भी जाती है तो वह अपनी खोई हुई पवित्रता को प्राप्त करने का प्रयास करती है और सफल भी हो जाती है।
→ अल बिरूनी के अनुसार जाति-व्यवस्था में सम्मिलित अपवित्रता की अवधारणा प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है।
→ जाति-व्यवस्था के विषय में अल बिरूनी का विवरण पूर्ण रूप से संस्कृत ग्रन्थों के अध्ययन से प्रभावित था जिनमें ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था को स्थापित करने वाले नियमों का प्रतिपादन किया गया था, परन्तु वास्तविक जीवन में यह व्यवस्था इतनी कठोर नहीं थी। उदाहरण के तौर पर, अंत्यज नामक श्रेणियों के लोग किसानों और जमींदारों द्वारा प्रायः सामाजिक प्रताड़ना का शिकार होते थे लेकिन फिर भी ये आर्थिक तन्त्र में सम्मिलित होते थे।
→ 14वीं शताब्दी में इब्न बतूता की भारत यात्रा के समय सम्पूर्ण विश्व एक वैश्विक संचार प्रणाली का भाग बन चुका था जो पूर्व में चीन से लेकर पश्चिम में उत्तर-पश्चिमी अफ्रीका तक फैला हुआ था।
→ अपनी इन क्षेत्रों की यात्रा के दौरान इब्न बतूता ने पवित्र पूजा-स्थलों को देखा, विद्वानों और शासकों के साथ समय बिताया एवं कई बार.काज़ी के पद पर भी रहा और शहरी केन्द्रों की विश्ववादी संस्कृति का उपभोग किया जहाँ अरबी, फारसी, तुर्की और अन्य भाषाएँ बोलने वाले लोग विचारों, सूचनाओं और उपाख्यानों को आपस में साझा करते थे। इब्न बतूता ने नारियल और पान का चित्रण बहुत ही रोचक ढंग से किया है। इन दोनों वानस्पतिक उपजों से उसकी पुस्तक के पाठक पूर्णतः अपरिचित थे।
→ इब्न बतूता के अनुसार भारतीय उपमहाद्वीप के नगर समृद्ध थे जिनमें में सभी सुविधाएँ उपलब्ध थीं। अधिकांश नगरों में घनी आबादी, मोड़दार सड़कें एवं चमक-दमक वाले बाजार थे जिनमें विविध प्रकार की वस्तुएँ उपलब्ध रहती थीं।
→ इब्न बतूता के अनुसार दिल्ली बहुत बड़ा शहर, बड़ी आबादी के साथ भारत में सबसे बड़ा था लेकिन महाराष्ट्र का दौलताबाद भी कम नहीं था जो आकार में दिल्ली को चुनौती देता था।
→ बाजार केवल आर्थिक विनिमय के स्थान ही नहीं थे, बल्कि ये सामाजिक एवं आर्थिक गतिविधियों के केन्द्र भी थे। अधिकतर बाजारों में एक मस्जिद और एक मन्दिर होता था जिनमें से कुछ में नर्तकों, संगीतकारों और गायकों के सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए स्थान तक चिह्नित थे।
→ इब्न बतूता के अनुसार भारतीय कृषि बहुत अधिक उन्नत थी जिसका कारण मिट्टी का उपजाऊपन था। किसान वर्ष में दो बार फसलें प्राप्त करते थे।
→ भारतीय माल की मध्य एवं दक्षिण-पूर्व एशिया में बहुत माँग थी जिससे शिल्पकारों एवं व्यापारियों को बहुत अधिक लाभ होता था। भारतीय कपड़ों में विशेषकर सूती कपड़े, मलमल, रेशम, ज़री एवं साटन की अत्यधिक माँग थी। महीन मलमल की कई किस्में इतनी अधिक महँगी होती थी कि उन्हें केवल अत्यधिक धनी लोग ही खरीद सकते थे।
→ इब्न बतूता के अनुसार व्यापारियों को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य पर्याप्त उपाय करता था। लगभग सभी व्यापारिक मार्गों पर सरायें एवं विश्राम गृह स्थापित किए गए थे। इब्न बतूता ने उस समय में प्रचलित अनूठी डाक-प्रणाली का भी वर्णन किया है। वह भारत की डाक प्रणाली की कार्यकुशलता देखकर चकित रह गया। इससे व्यापारियों के लिए न केवल लम्बी दूरी तक सूचनाएँ भेजी जा सकती थीं बल्कि अल्प सूचना पर माल भी भेजा जा सकता था।
→ डाक-प्रणाली इतनी अधिक कुशल थी कि जहाँ सिन्ध से दिल्ली की यात्रा में पचास दिन लग जाते थे, वहीं गुप्तचरों की खबरें सुल्तान तक मात्र पाँच दिनों में ही पहुँच जाती थीं।
→ इब्न बतूता के वर्णन में उसकी अपनी कोई पूर्वनिर्मित धारणा नहीं थी। उसने उस प्रत्येक वस्तु का वर्णन किया है जिसने उसे प्रभावित किया। इसके विपरीत बर्नियर के सोचने-समझने और लेखन का ढंग एक पूर्वनिर्मित अवधारणा पर आधारित था।
→ बर्नियर ने भारत में जो कुछ भी देखा उसकी तुलना वह यूरोप से करना चाहता था। वह सदैव यूरोप को भारत की तुलना में श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयत्न करता रहा। उसका भारत के सम्बन्ध में वर्णन पक्षपात पर आधारित था।
→ बर्नियर ने अपनी यात्राओं के अनुभवों पर आधारित एक पुस्तक 'ट्रैवल्स इन द मुगल एम्पायर' की रचना की जो उसके गहन प्रेक्षण, आलोचनात्मक अन्तर्दृष्टि एवं गहन चिन्तन के लिए उल्लेखनीय है। बर्नियर ने अपने ग्रन्थ में मुगलों के इतिहास को एक प्रकार के वैश्विक ढाँचे में ढालने का प्रयास किया तथा मुगलकालीन भारत की तुलना तत्कालीन यूरोप से की व प्रायः यूरोप की श्रेष्ठता को दर्शाया।
→ बर्नियर के अनुसार भारत और यूरोप के मध्य मूल भिन्नताओं में से एक, भारत में निजी स्वामित्व का अभाव था। उसका निजी स्वामित्व के गुणों में बहुत अधिक विश्वास था, इसलिए उसने भूमि पर राज्य के स्वामित्व को राज्य व उसके निवासियों के लिए हानिकारक माना।
→ बर्नियर के अनुसार भूमि पर राजकीय स्वामित्व के कारण भू-धारक अपने बच्चों को भूमि नहीं दे सकते थे। इसलिए वे उत्पादन के स्तर को बनाए रखने एवं उसमें वृद्धि करने का कोई प्रयास नहीं करते थे।
→ भूमि पर निजी स्वामित्व न होने के कारण शासक वर्ग को छोड़कर शेष समाज के सभी वर्गों के जीवन-स्तर में लगातार पतन की स्थिति उत्पन्न हुई।
→ 17वीं शताब्दी के आरम्भिक दशकों में उपमहाद्वीप की यात्रा करने वाला डच यात्री पेलसर्ट भी लोगों में व्यापक गरीबी देखकर अचंभित था। लोगों की इस दशा के लिए राज्य को उत्तरदायी ठहराते हुए उसने कहा, "कृषकों को इतना ज्यादा निचोड़ा जाता है कि उनके पास पेट भरने के लिए सूखी रोटी भी मुश्किल से बचती है।"
→ बर्नियर के अनुसार भारतीय समाज दरिद्र लोगों के समरूप जनसमूह से बना जिसे एक बहुत अमीर और शक्तिशाली शासक वर्ग अपने अधीन रखता है। वह कहता है, “भारत में मध्य की स्थिति के लोग नहीं है।"
→ बर्नियर ने मुगल साम्राज्य का नकारात्मक चित्रण प्रस्तुत किया जिसके अनुसार मुगल साम्राज्य का राजा 'भिखारियों और क्रूर लोगों का राजा' था। इसके शहर ध्वस्त हो चुके थे तथा खराब वायु से दूषित थे तथा खेत झाड़ीदार व घातक दलदल से अटे हुए थे। इन सबका एकमात्र कारण भूमि पर राज्य का स्वामित्व होना था।
→ बर्नियर के विवरणों ने मॉन्टेस्क्यू व कार्ल मार्क्स जैसे दार्शनिकों के विचारों को बहुत प्रभावित किया।
→ फ्रांसीसी दार्शनिक मॉन्टेस्क्यू ने बर्नियर के वृत्तान्त का प्रयोग प्रायः निरंकुशवाद के सिद्धान्त को विकसित करने में किया जिसके अनुसार पूर्वी एशिया में शासक अपनी प्रजा पर अपने प्रभुत्व का निर्बाध रूप से उपयोग करते थे। प्रजा की स्थिति अच्छी नहीं थी तथा प्रजा को दासता व गरीबी की हालत में जीवन-यापन करना पड़ता था।
→ 19वीं शताब्दी में कार्ल मार्क्स' ने इस विचार को एशियाई उत्पादन शैली के सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत किया जिसके अनुसार भारत तथा अन्य एशियाई देशों में उपनिवेशवाद से पहले अधिशेष का अधिग्रहण राज्य द्वारा होता था। इससे एक ऐसे समाज का उदय हुआ, जो बड़ी संख्या में स्वायत्त एवं समतावादी ग्रामीण समुदायों से निर्मित था।
→ बर्नियर द्वारा किया गया भारतीय ग्रामीण समाज का चित्रण वास्तविकताओं से बहुत अधिक दूर था। वास्तव में 16वीं व 17वीं शताब्दी में ग्रामीण समाज में बड़ी मात्रा में सामाजिक एवं आर्थिक विभिन्नताएँ देखने को मिलती हैं। समाज चार वर्गों में विभाजित था, बड़े जमींदार, बड़े किसान एवं अस्पृश्य भूमिहीन श्रमिक। इसके अतिरिक्त एक वर्ग छोटी जोत वाले किसानों का था, जो बड़ी कठिनाई से अपने जीवन-यापन लायक ही उत्पादन कर पाता था।
→ बर्नियर के अनुसार मुगल राज्य की निरंकुशता के कारण भारत की आर्थिक और सामाजिक स्थिति विकासशील न होकर पतनोन्मुख थी, लेकिन दूसरी तरफ बर्नियर का यह भी मत था कि सम्पूर्ण विश्व से बहुमूल्य धातुएँ भारत में आती थीं। यहाँ के शिल्पकारों द्वारा उत्पादित वस्तुएँ विदेशों को सोने व चाँदी के बदले निर्यात की जाती थीं जिससे भारत की समृद्ध व्यापारिक प्रणाली का भी पता चलता है। बर्नियर नगरों की दशा का वर्णन करते हुए भी अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त न हो सका।
→ भारत के नगरों में 17वीं शताब्दी में जनसंख्या का अनुपात यूरोप के नगरों से कहीं अधिक था फिर भी बर्नियर ने मुगलकालीन शहरों को 'शिविर नगर' की संज्ञा दी जो अपने अस्तित्व के लिए राजकीय संरक्षण पर निर्भर थे, हालांकि वास्तविकता इसके विपरीत थी। मुगल काल में सभी प्रकार के नगर विकसित अवस्था में थे; जैसे कि उत्पादन केन्द्र, व्यापारिक नगर, बन्दरगाह नगर, धार्मिक केन्द्र, तीर्थ स्थान आदि।
→ मुगलकाल में व्यापारी आपस में मजबूत सामुदायिक अथवा बन्धुत्व के सम्बन्धों से जुड़े होते थे और अपनी जाति तथा व्यावसायिक संस्थाओं के माध्यम से संगठित रहते थे। पश्चिमी भारत में ऐसे समूहों को 'महाजन' कहा जाता था और उनके मुखिया को 'सेठ'।
→ मुगलकाल में अहमदाबाद जैसे नगरों में सभी महाजनों का सामूहिक प्रतिनिधित्व व्यापारिक समुदाय का मुखिया करता था, जिसे नगर-सेठ के नाम से जाना जाता था, जबकि अन्य शहरी समूहों में चिकित्सक (हकीम या वैद्य), अध्यापक (पंडित या मुल्ला), अधिवक्ता (वकील), चित्रकार, वास्तुविद, संगीतकार तथा सुलेखक जैसे व्यावसायिक वर्ग सम्मिलित थे।
→ इस काल में बाजारों में दास अन्य वस्तुओं की तरह खुलेआम बिकते थे और नियमित रूप से भेंट में भी दिए जाते थे। जब इब्न बतूता सिन्ध पहुँचा तो उसने भी सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक को भेंट में देने के लिए घोड़े, ऊँट एवं दास खरीदे थे तथा मुल्तान के गवर्नर को उसने भेंट के तौर पर किशमिश और बादाम के साथ एक दास व घोड़ा दिया।
→ इब्न बतूता के अनुसार नसीरूद्दीन नाम के धर्मोपदेशक के उपदेशों से खुश होकर मुहम्मद बिन तुगलक ने उसे इनाम स्वरूप एक लाख टका (मुद्रा) और दो सौ दास' प्रदान किए। इन्न बतूता के अनुसार दासों में बहुत अधिक विभिन्नताएँ थीं। सुल्तान की सेवा में कार्यरत कुछ दासियाँ गायन और संगीत में निपुण थीं।
→ इब्न बतूता के अनुसार सुल्तान अपने अमीरों पर निगरानी रखने के लिए भी दासियों को नियुक्त करता था।
→ दासों को आमतौर पर घर के कार्यों के लिए काम में लाया जाता था। पालकी या डोले में पुरुषों तथा महिलाओं को ले जाने के लिए इन दासों की सेवा मुख्य रूप से ली जाती थी। हालांकि घरेलू कार्य करने वाले इन दासों (विशेषतया दासी) की कीमत बहुत कम होती थी।
→ सम्भवतः बर्नियर एकमात्र ऐसा इतिहासकार था जो राजकीय कारखानों की कार्य प्रणाली का विस्तृत विवरण प्रदान करता है।
→ बर्नियर ने सती-प्रथा का वर्णन बहुत ही मार्मिक ढंग से किया था। सती-प्रथा समकालीन यूरोपीय यात्रियों के लिए भारत में महिलाओं के प्रति किया जाने वाला एक आश्चर्यजनक व्यवहार था।
→ इस काल के विवरणों से स्पष्ट होता है कि महिलाएँ केवल घर की चारदीवारी में ही कैद नहीं रहती थीं, बल्कि वे कृषि एवं व्यापारिक गतिविधियों में भी भाग लेती थीं। वे कभी-कभी वाणिज्यिक विवादों को अदालत के समक्ष भी ले जाती थीं।
→ वृत्तान्त - विवरण।
→ कीमिया - रासायनिक क्रिया, रसायन, जिसमें कृत्रिम सोना बनाने की क्रिया होती है।
→ किताब-उल-हिन्द - अल बिरूनी द्वारा लिखी गयी पुस्तक।
→ हिन्दू - यह शब्द लगभग छठी से पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व में प्रयोग होने वाला एक प्राचीन फारसी शब्द है जिसका प्रयोग सिन्धु नदी के पूर्व के क्षेत्र के लिए किया जाता था। अरबी व्यक्तियों ने फारसी शब्द का प्रचलन बनाये रखा तथा इस क्षेत्र को अल-हिन्द तथा यहाँ के नागरिकों को हिन्दू कहा।
→ रिला - इब्न बतूता द्वारा लिखी गयी पुस्तक। उसने यह पुस्तक अपनी भारत यात्रा के उपरान्त 1354 ई. में मोरक्को में लिखी।
→ काजी - न्याय की व्यवस्था करने वाला अधिकारी (न्यायाधीश)।
→ दन्तकथा - वह बात जो परम्परा से लोग सुनते आए हों, पर जिसके ठीक होने का कोई प्रमाण न हो।
→ देहली - मध्यकालीन विदेशी यात्रियों द्वारा अपने ग्रन्थों में प्रायः दिल्ली को देहली नाम से उद्धृत किया गया था।
→ प्राच्य निरंकुशवाद - फ्रांसीसी दार्शनिक मॉन्टेस्क्यू द्वारा दिया गया सिद्धान्त। मॉन्टेस्क्यू ने बर्नियर के वृत्तान्त का प्रयोग अपने इस सिद्धान्त को विकसित करने में किया।
→ उपनिवेश - एक देश द्वारा अपने अधीन किया गया अन्य देश।
→ उपनिवेशवाद - उपनिवेशों को अपने अधीन रखने का सिद्धान्त।
→ बलाहार - बर्नियर के अनुसार भारत में भूमिविहीन श्रमिक को बलाहार कहते थे।
→ शिविर-नगर - मुगलकालीन शहरों को बर्नियर ने शिविर-शहर कहा है, जिसका आशय ऐसे नगरों से था जो अपने अस्तित्व के लिए राजकीय शिविरों पर आश्रित थे।
→ महाजन - बर्नियर के अनुसार पश्चिमी भारत मे चूत व्यापारी समुदाय को महाजन कहा जाता था।
→ सेठ - पश्चिमी भारत के महाजन-व्यापारी समुदाय के मुखिया को सेठ कहा जाता था।
→ नगर सेठ - अहमदाबाद जैसे शहरी केन्द्रों में समस्त महाजनों का सामूहिक प्रतिनिधित्व व्यापारिक समुदाय के मुखिया द्वारा होता था जिसे 'नगर सेठ' कहा जाता था।
→ सती - वह महिला जो विधवा होने पर तुरन्त अपने पति के शव के साथ स्वेच्छा से अथवा जबरन जीवित ही जला दी जाती थी।
→ अध्याय में दी गईं महत्वपूर्ण तिथियाँ एवं सम्बन्धित घटनाएँ
काल तथा क |
घटमा/विवरण |
1. 973 ई. |
आधुनिक उज्बेकिस्तान के ख्वारिज्म में अल बिरूनी का जन्म। |
2. 1017 ई. |
सुल्तान महमूद का ख्वारिज्म पर आक्रमण तथा अल बिरूनी सहित वहाँ के कई विद्वानों एवं कवियों को अपने साथ अपनी राजधानी गज़नी लाना। |
3. 1048 ई. |
अल बिरूनी की मृत्यु। |
4. 1254 1323 ई. |
इटली के नाविक मार्कोपोलो का जीवनकाल। |
5. 1304 |
77 ई. मोरक्को के इब्न बतूता का जीवनकाल। |
6. 1333 ई. |
इब्न बतूता का स्थल मार्ग से सिन्ध पहुँचना। |
7. 1342 ई. |
सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के आदेश पर इब्न बतूता मंगोल शासक के पास सुल्तान के दूत के रूप में चीन गया। |
8. 1413 - 82 ई. |
समरकंद के राजनयिक अब्द उल रज्जाक का जीवनकाल। |
9. 1466 - 72 ई. |
रूस के यात्री अफानासी निकितिच निकितिन की भारत यात्रा की अवधि। |
10. 1518 ई. |
पुर्तगाली यात्री दूरते बारबोसा ने भारत की यात्रा की। |
11. 1521 ई. |
पुर्तगाली दूरते बारबोसा की मृत्यु। |
12. 1562 ई. |
तुर्की के यात्री सयदी अली रेइस की मृत्यु। |
13. 1536 - 1600 ई. |
स्पेन के अंतोनियो मानसेरेते का जीवनकाल । |
14. 1600 - 1667 ई. |
इंग्लैण्ड के यात्री पीटर मंडी का जीवनकाल। |
15. 1605 - 89 ई. |
फ्रांसीसी यात्री ज्यौं बैप्टिस्ट तैवर्नियर का जीवनकाल। |
16. 1620 - 1688 ई. |
फ्रांसीसी यात्री फ्रांस्वा बर्नियर का जीवन काल। |
17. 1626 ई. |
31 ई. बल्ख के महमूद वली बलखी द्वारा भारत में बिताया गया समय। |