Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Hindi अपठित बोध अपठित पद्यांश Questions and Answers, Notes Pdf.
The questions presented in the RBSE Solutions for Class 12 Hindi are solved in a detailed manner. Get the accurate RBSE Solutions for Class 12 all subjects will help students to have a deeper understanding of the concepts. Students can access the class 12 hindi chapter 4 question answer and deep explanations provided by our experts.
अपठित काव्यांश से आशय :
'अपठित' का अर्थ है - बिना पढ़ा हुआ। काव्य का कोई अंश (टुकड़ा) जिसको हमने पहले कभी पढ़ा न हो, अपठित काव्यांश अथवा पद्यांश कहलाता है। सामान्यतः कोई भी ऐसा काव्यांश जो अध्ययन के लिए हमारे पाठ्यक्रम में निर्धारित नहीं होता, अपठित काव्यांश माना जाता है।
अपठित काव्यांश को हल करने के लिए उसका भावार्थ ग्रहण करना आवश्यक है। किसी पद्य को पढ़कर उसका अर्थ समझना अर्थ-ग्रहण कहा जाता है। अपठित पद्यांश को पढ़कर उसका मूल भाव समझना चाहिए। उसके प्रत्येक शब्द का अर्थ जानना आवश्यक नहीं है।
अपठित काव्यांश को हल करते समय ध्यान देने योग्य बातें -
प्रश्न :
निम्नलिखित पद्यांश को पढ़कर उसके नीचे लिखे हुए प्रश्नों के उचित उत्तर दीजिए -
1. धर्मराज! यह भूमि किसी की, नहीं क्रीत है दासी।
है जन्मना समान परस्पर, इसके सभी निवासी।
है सबको अधिकार मृत्तिका पोषक-रस पीने का।
विविध अभावों से अशंक होकर जग में जीने का।
सबको मुक्त प्रकाश चाहिए, सबको मुक्त समीरण
बाधा रहित विकास, मुक्त आशंकाओं से जीवन।
उद्भिज नभ चाहते सभी नर, मुक्त गगन में
अपना चरम विकास ढूँढ़ना, किसी प्रकार भुवन में।
न्यायोचित सुख सुलभ नहीं, जब तक मानव-मानव को
चैंन कहाँ धरती पर तब तक, शांति कहाँ इस भव को
जब तक मनुज-मनुज का यह, सुख भाग नहीं सम होगा।
शमित न होगा कोलाहल, संघर्ष नहीं कम होगा।
ब्रह्मा से कुछ लिखा भाग्य में, मनुज नहीं लाया है।
अपना सुख उसने अपने, भुज-बल से ही पाया है।
ब्रह्मा का अभिलेख पढ़ा करते निरुद्यमी प्राणी
धोते वीर कुअंक भाल का, बहा भ्रुवों का पानी।
भाग्यवाद आवरण पाप का, और शस्त्र शोषण का
जिससे रखता दबा एक जन, भाग दूसरे जन का।
एक, मनुज संचित करता है, अर्थ पाप के बल से
और भोगता उसे दूसरा, भाग्यवाद के छल से।
प्रश्न :
(क) प्रस्तुत पद्यांश में किसको सम्बोधित किया गया है?
(ख) धरती का पोषक रस पीने का अधिकारी कौन है?
(ग) यदि धरती पर मनुष्य को न्यायोचित अधिकार नहीं मिलते तो क्या होता है?
(घ) भाग्यवाद का छल किसे कहा गया है? इस पद्यांश में किस रस की व्यंजना हुई है? उसका स्थायीभाव भी लिखिए।
(ङ) प्रस्तुत पद्यांश की भाषा-शैली की विशेषताएँ बताइए।
(च) 'न्यायोचित सुख सुलभ नहीं' में अलंकार बताइए।
उत्तर :
(क) प्रस्तुत पद्यांश में धर्मराज युधिष्ठिर को सम्बोधित किया गया है।
(ख) धरती का पोषक रस पीने का अधिकार सभी को है। धरती पर जन्म लेने वाले सभी प्राणियों को धरती से उत्पन्न वस्तुओं का आनंद लेने का अधिकार है। सबको प्रकाश, वायु और निर्बाध विकास पाने का हक है।
(ग) जब धरती पर मनुष्य को न्यायोचित अधिकार नहीं मिलते तो पृथ्वी पर शांति नहीं रह पाती। लोग उनको पाने के लिए लड़ाई-झगड़ा करते हैं और वातावरण अशांत हो जाता है।
(घ) इस पद्यांश में वीर रस की व्यंजना हुई है। इसका स्थायी भाव 'उत्साह' है।
(ङ) प्रस्तुत पद्यांश की भाषा तत्सम शब्दावली युक्त साहित्यिक खड़ी बोली हिन्दी है। इसकी शैली उपदेशात्मक है।
(च) 'न्यायोचित सुख सुलभ नहीं' में 'स' वर्ण की आवृत्ति होने के कारण अनुप्रास अलंकार है।
2. मैं सहज मानिनी रही, सरल क्षत्राणी,
इस कारण सीखी नहीं दैन्य यह वाणी।।
पर महा दीन हो गया आज मन मेरा,
भावज्ञ, सहेजा तुम्ही भाव-धन मेरा।
समुचित ही मुझको विश्व-घृणा ने घेरा,
यों ही तुम वन को गये, देव सुरपुर को,
मैं बैठी ही रह गई लिये इस उर को।
बुझ गई पिता की चिता भरत-भुजधारी,
प्रस्ताव मात्र में जहाँ, अधैर्य अँधेरा।
पितृभूमि आज भी तप्त तथापि तुम्हारी।
अनुशासन ही था मुझे अभी तक आता
भय और शोक सब दूर उड़ाओ उसका,
चलकर सुचरित, फिर हृदय जुड़ाओ उसका।
हो तुम्हीं भरत के राज्य, स्वराज्य सम्भालो,
मैं पाल सकी न स्वधर्म, उसे तुम पालो।
स्वामी को जीते जी न दे सकी सुख मैं,
मरकर तो उनको दिखा सकूँ यह मुख मैं।
समझाता कौन सशान्ति मुझे भ्रम मेरा?
मर मिटना भी है एक हमारी क्रीड़ा,
पर भरत-वाक्य है- सहूँ विश्व की व्रीड़ा।
जीवन-नाटक का अन्त कठिन है मेरा,
करती है तुमसे विनय आज यह माता।
प्रश्न :
(क) क्षत्राणी की क्या विशेषताएँ बताई गई हैं?
(ख) भरत की माता कैकेयी की राम से क्या शिकायत है?
(ग) आज अयोध्या की क्या अवस्था है?
(घ) प्रस्तुत काव्यांश में किस शैली का प्रयोग हुआ है?
(ङ) उपर्युक्त पद्यांश में कैकेयी के व्यक्तित्व का कौन-सा स्वरूप व्यक्त हुआ है?
(च) उपर्युक्त पद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(क) क्षत्राणी स्वभाव से मानिनी होती है तथा उसकी वाणी में कोमलता तथा कर्णप्रियता का अभाव होता है।
(ख) भरत की माता कैकेयी की राम से शिकायत है कि वह चपचाप वन में चले गए और कैकेयी को उसकी भल और भ्रम के बारे में नहीं समझाया।
(ग) आज राम की पितृभूमि अयोध्या दुःखी है। लोग भयभीत हैं तथा शोकग्रस्त हैं।
(घ) प्रस्तुत काव्यांश में संवाद शैली तथा सम्बोधन शैली का प्रयोग हुआ है।
(ङ) उपर्युक्त पद्यांश में कैकेयी के व्यक्तित्व, की दीनता व्यक्त हुई है। भरत से अपने कार्य का समर्थन न पाकर वह अत्यन्त दीन हो गई है।
(च) उपर्युक्त पद्यांश का उचित शीर्षक है- 'कैकेयी का पश्चाताप'।
3. मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूँ।
जानता हूँ, इस जगत में,
फूल की है आयु कितनी
और यौवन की उभरती,
साँस में है वायु कितनी।
इसलिए आकाश का विस्तार,
एक तारा चाहता हूँ।
मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूँ।
प्रश्न-चिह्नों में उठी हैं,
भाग्य सागर की हिलोरें,
आँसुओं से रहित होंगी
क्या नयन की नमित कोरें?
जो तुम्हें कर दे द्रवित
वह अश्रुधारा चाहता हूँ।
मै तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूँ।
जोड़कर कण-कण कृपण
आकाश के तारे सजाए।
जो कि उज्ज्वल है सही,
पर क्या किसी के काम आए?
प्राण ! मैं तो मार्गदर्शक सारा चाहता हूँ।
मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूँ।
यह उठा कैसा प्रभंजन
जुड़ गईं जैसे दिशाएँ।
एक तरणी, एक नाविक
और कितनी आपदाएँ?
क्या कहूँ मैंझधार में भी
मैं किनारा चाहता हूँ।
प्रश्न :
(क) कवि किंससे तथा क्या चाहता है?
(ख) कवि को जीवन की किस वास्तविकता का ज्ञान है?
(ग) प्रस्तुत काव्यांश की रचना किस छंद में हुई है?
(घ) कवि की एकमात्र इच्छा क्या है?
(ङ) 'मँझधार' शब्द का क्या अर्थ है? कवि मँझधार में क्या चाहता है?
(च) 'प्रभंजन' उठने से कवि किस संकट में फंस गया है?
उत्तर :
(क) कवि ईश्वर की दया चाहता है। कवि ईश्वर से याचना करता है कि वह उसे अपनी दया का वरदान मौन रूप में देता रहे।
(ख) कवि को जीवन का यथार्थ पता है। वह जानता है कि जीवन फूल के समान कोमल और क्षणभंगुर है। जीवन में यौवन की अवस्था भी लम्बी नहीं है। वह जल्दी ही समाप्त हो जाता है।
(ग) प्रस्तुत काव्यांश की रचना गीत छन्द में हुई है। यह गीतिकाव्य है।
(घ) कवि अनेक सुन्दर वस्तुओं का संग्रह नहीं चाहता है। वह चाहता है कि उसे ऐसी एक वस्तु प्राप्त हो जो परहित के काम आ सके।
(ङ) .....
(च) ...
4. साक्षी है इतिहास, हमी पहले जागे हैं,
जाग्रत सब हो रहे हमारे ही आगे हैं।
शत्रु हमारे कहाँ नहीं भय से भागे हैं?
कायरता से कहाँ प्राण हमने त्यागे हैं?
हैं हमीं प्रकम्पित कर चुके, सुरपति तक का भी हृदय।
फिर एक बार हे विश्व!
तुम, गाओ भारत की विजय।।
कहाँ प्रकाशित नहीं रहा है तेज़ हमारा,
दलित कर चुके शत्रु सदा हम पैरों द्वारा।
तुम्ही बताओ कौन नहीं जो हमसे हारा,
पर शरणागत हुआ कहाँ, कब हमें न प्यारा?
बस युद्ध मात्र को छोड़कर कहाँ नहीं हैं म सदय।
फिर एक बार हे विश्व! तुम गाओ भारत की विजय।
प्रश्न :
(क) 'हमी पहले जागे हैं'- पंक्ति में 'हमी' शब्द का अर्थ क्या है तथा जागने का क्या तात्पर्य है?
(ख) 'जाग्रत सब हो रहे हमारे ही आगे हैं'- में निहित भाव को माद कीजिए।
(ग) “शत्रु हमारे....त्यागे हैं."-पंक्तियों में भारतीयों के किस गुण का उल्लेख हुआ है?
(घ) 'शत्रु हमारे कहाँ नहीं भय से भागे हैं' में अलंकार बताइए।
(ङ) इस काव्यांश में किस रस का वर्णन है? रस तथा उसके स्थायीभाव का नाम लिखिए।
(च) प्रस्तुत काव्यांश में कौन-सा काव्य-गुण है?
उत्तर :
(क) 'हमी पहले जागे हैं' में 'हमी' अर्थात हम ही सर्वनाम है जो भारतवासियों के लिए प्रयुक्त हुआ है। जागने का तात्पर्य है- शिक्षित तथा ज्ञानसम्पन्न होना। संसार में भारत के रहने वाले ही सर्वप्रथम सुशिक्षित, ज्ञानवान् और सभ्य बने थे।
(ख) 'जाग्रत सब हो रहे हमारे ही आगे हैं' का भाव यह कि ज्ञान और सभ्यता पहले भारत में उदित हुई। सर्वप्रथम भारतीय सभ्य बने, तदुपरान्त उन्होंने शेष विश्व को सभ्यता का पाठ पढ़ाया।
(ग) 'शत्रु हमारे......त्यागे हैं,'- इन पंक्तियों में भारतीयों की वीरता, निर्भीकता तथा पराक्रम आदि गुणों का वर्णन है। भारतीय कायर नहीं हैं।
(घ) 'शत्रु हमारे कहाँ नहीं भय से भागे हैं'- में 'भ' वर्ण की आवृत्ति होने से अनुप्रास अलंकार है।
(ङ) इस काव्यांश में वीर रस का वर्णन है। इस रस का स्थायीभाव 'उत्साह' है।
(च) प्रस्तुत पंक्तियों मे 'ओज' नामक काव्य-गुण है।
5. विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी
मरो, परन्तु यों मरो कि याद जो करें सभी।
हुई न यो सुमृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए,
मरा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए।
यही पशु-प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरें।
उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती,
अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे?
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती,
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में भरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
क्षुधात रंतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,
तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी।
उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया।।
सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर-चर्म भी दिया।
उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
प्रश्न :
(क) कवि ने पाठकों को क्या सोचकर मृत्यु से न डरने की सलाह दी है?
(ख) 'सुमृत्यु' का तात्पर्य क्या है?
(ग) कवि ने पशु-प्रवृत्ति किसको बताया है?
(घ) इस काव्यांश में पंक्तियों के अन्त में बखानती, मानती, कूजती तथा पूजती शब्दों के आने से छन्द की क्या विशेषता प्रकट होती है?
(ङ) 'मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे' पंक्ति में कवि ने क्या प्रेरणा दी है?
(च) 'अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे'- का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
(क) कवि ने बताया है कि शरीर नाशवान है। मनुष्य यह विचार कर ले कि वह अमर नहीं है अतः मृत्यु अवश्यंभावी है तो उससे डरना कैसा ?
(ख) 'सुमृत्यु' का अर्थ है- अच्छी या प्रशंसनीय मृत्यु। मृत्यु तो मृत्यु है वह अच्छी बुरी नहीं होती। सुमृत्यु का तात्पर्य यह है कि मनुष्य जीवन में परहित के कार्य करता हुआ मरे तो उसकी मृत्यु को सुमृत्यु कहा जा सकता है।
(ग) पशु केवल अपना हित देखता है, वह स्वार्थ जानता है। अपना भाग छोड़कर दूसरे को देना वह नहीं जानता। इसी को पशुता कहते हैं। यही पश-प्रवृत्तिई। जो मनुष्य स्वार्थी होता है उसमें मानव-वृत्ति नहीं पशु-प्रवृत्ति ही प्रधान होती है।
(घ) इस काव्यांश की पंक्तियों के अन्त में बखानती, मानती, कूजती, तथा पूजती शब्द आए हैं। इनके आने से यह छंद तुकान्त हो गया है।
(ङ) 'मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे'- पंक्ति में कवि ने दूसरों की भलाई के लिए अपना स्वार्थ छोड़ने तथा त्याग करने की प्रेरणा दी है। स्वार्थ त्याग कैमरहित का ध्यान रखकर कार्य करने वाला ही सच्चा मनुष्य होता है।
(च) इस पंक्ति का आशय यह है कि आत्मा अजर-अमर है। आत्मा कभी मरती नहीं। मृत्यु तो शरीर की होती है। उसमें स्थित अमर जीवात्मा को मृत्यु से भयभीत होने का कोई कारण नहीं है।
6. सोने चाँदी से नहीं किन्तु -
तुमने मिट्टी से किया प्यार।
हे ग्राम-देवता! नमस्कार।
जन-कोलाहल से दूर
एकाकी सिमटा-सा निवास,
रवि-शशि का उतना नहीं
कि जितना प्राणों का होता प्रकाश,
श्रम-वैभव के बल पर करते हो
जड़ में चेतन का विकास,
दानों-दानों से फूट रहे
सौ-सौ दानों के हरे हास,
यह है न पसीने की धारा
यह गंगा की है धवल धार,
हे ग्राम-देवता! नमस्कार!
तुम जन-मन के अधिनायक हो
'तुम हँसो कि फूले-फले देश
आओ, सिंहासन पर बैठो कहीं
यह राज्य तुम्हारा है अशेष।
उर्वरा भूमि के नये खेत के
नये धान्य से सजे देश,
तुम भू पर रहकर भूमि-भार
धारण करते हो मनुज-शेष
अपनी कविता से आज तुम्हारी
विमल आरती लूँ उतार!
हे ग्राम-देवता ! नमस्कार!
प्रश्न :
(क) इस पद्यांश में कवि ने किसको ग्राम-देवता कहा है?
(ख) किसान किससे प्रेम करता है तथा किससे नहीं?
(ग) किसान के निवास स्थान की क्या विशेषता है?
(घ) कवि किसान से क्या चाहता है?
(ङ) यह है न पसीने की धारा/यह गंगा की है धवल धार'- में अलंकार बताइए।
(च) 'तुम भू पर रहकर भूमि-भार धारण करते हो मनुज-शेष' पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए। 'मनुज-शेष'
में कौन-सा अलंकार है।
उत्तर :
(क) कवि ने इस पद्यांश में किसान को ग्राम-देवता कहकर उसको नमस्कार किया है।
(ख) किसान को सोने-चाँदी से प्रेम नहीं होता। वह अपने खेतों की मिट्टी से प्यार करता है।
(ग) किसान का निवास स्थान शांत स्थान में बना है। वहाँ लोगों का शोरगुल नहीं होता। वहाँ अन्य मकानं नहीं हैं। केवल किसान का छोटा-सा एक ही मकान है।
(घ) कवि किसान को जनता के मन का शासक मानता है। उसकी सम्पन्नता से ही देश को सच्ची सम्पन्नता मिलेगी। किसान प्रसन्न होगा तभी देश प्रसन्न होगा। कवि चाहता है कि किसान इस देश के सिंहासन पर बैठे और इसको सुखी और समृद्ध बनाए।
(ङ) 'यह है न पसीने की धारो। यह गंगा की है धवल धार' में अपहनुति अलंकार है। यहाँ पसीने की धार का" निषेध करके गंगा की स्थापना की गई है।
(च) 'तुम भू पर रहकर भूमि-भार धारण करते हो मनुज-शेष' इस पंक्ति में कवि ने शेषनाग द्वारा अपने फण पर पृथ्वी को उठाने की पौराणिक मान्यता की ओर संकेत किया है। जिस प्रकार शेषनाग अपने फण पर भूमि का भार धारण किए हुए है। उसी प्रकार किसान पृथ्वी पर रहकर भी उसका भार धारण करता है। 'मनुज-शेष' में रूपक अलंकार है।
7. फूल से बोली कली "क्यों व्यस्त मुरझाने में है,
फ़ायदा क्या गंध औ' मकरंद बिखराने में है?
तने अपनी उम्र क्यों वातावरण में घोल दी,
मनमोहक मकरंद की पंखुड़ियाँ क्यों खोल दी।.
तू स्वयं को बाँटता है जिस घड़ी से है खिला,
किन्तु इस उपकार के बदले में तुझको क्या मिला?
मुझे देखो मेरी सब खुशबू मुझी में बंद है,
मेरी सुन्दरता है अक्षय, अनछुआ मकरंद है।
फूल उस नादान की वाचालता पर चुप रहा,
फिर स्वयं को देखकर भोली कली से ये कहा
जिन्दगी सिद्धांत की सीमाओं में बँटती नहीं,
ये वो पूँजी है जो व्यय से बढ़ती है, घटती नहीं।
चार दिन की जिन्दगी खुद को जिए तो क्या जिए?
बात तो तब है कि जब मर जाएँ औरों के लिए,
प्यार के व्यापार का क्रम अन्यथा होता नहीं,
वह कभी पाता नहीं है जो कभी खोता नहीं।
प्रश्न :
(क) फूल क्या कर रहा है?
(ख) कली फूल से क्या कहती है?
(ग) 'तूने अपनी उम्र क्यों वातावरण में घोल दी'-का आशय प्रकट कीजिए।
(घ) कवि के अनुसार आदर्श जीवन कैसा होता है?
(ङ) "वह कभी पाता नहीं है जो कभी खोता नहीं'- इस पंक्ति के आधार पर बताइए कि जीवन का सच्चा आनंद किस बात में है?
(च) इस काव्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(क) फूल अपनी सुगंध और मकरंद को दूसरों को दे रहा है। वह अपना जीवन दूसरों के हित में बिता रहा है।
(ख) कली का फूल से कहना है कि दूसरों के लिए अपना मकरंद और सुगंध देकर स्वयं मुरझाना कोई अच्छी बात नहीं
(ग) 'तूने अपनी उम्र को वातावरण में घोल दी'-का आशय यह है कि फूल ने अपना पूरा जीवन अपनी सुगंध से लोगों को आनंदित करने में बिता दिया है। अपना पूरा जीवन उसने दूसरों की भलाई में बिता दिया है। ...
(घ) कवि के अनुसार आदर्श जीवन परोपकार से परिपूर्ण होता है। दूसरों के हित और खुशी के लिए जीना ही आदर्श
जीवन है। स्वार्थ के लिए जीना कोई अच्छा जीवन नहीं होता।
(ङ) 'वह कभी पाता नहीं जो कभी खोता नहीं'- का आशय यह है कि जो व्यक्ति दूसरों के हित के लिए अपना हित और लाभ नहीं छोड़ता उसको जीवन का सच्चा सुख नहीं मिलता है।
(च) प्रस्तुत काव्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक है - "परोपकार ही जीवन है।"
8. काँधे धरी यह पालकी
है किस कन्हैयालाल की?
इस गाँव से उस गाँव तक
नंगे बदन, फेंटा क्रसे,
बारात किस की ढ़ो रहे?
किसकी कहारी में फंसे?
यह कर्ज पुश्तैनी अभी किस्तें हजारों साल की।
काँधे धरी यह पालकी है किस कन्हैयालाल की?
इस पाँव से उस पाँव पर,
ये पाँव बेवाई फटेः
काँधे धरा किसका महल?
हम नींव पर किस की डटे?
यह माल ढोते थक गई तकदीर खच्चर हाल की।
काँधे धरी यह पालकी है किस कन्हैयालाल की?
फिर एक दिन आँधी चली
ऐसी कि पर्दा उड़ गया।
अंदर न दुलहन थी न दूल्हा
एक कौवा उड़ गया...
तब भेद आकर यह खुला हमसे किसी ने चाल की
काँधे धरी यह पालकी लाला अशर्फीलाल की।
प्रश्न :
(क) प्रस्तुत काव्यांश में किसका वर्णन है?
(ख) कवि ने कहारों की निर्धनता तथा दीनता का चित्रण कैसे किया है?
(ग) 'यह कर्ज पुश्तैनी अभी किश्तें हजारों साल की'- पंक्ति में कवि ने किस सामाजिक कुरीति का वर्णन किया है?
(घ) पर्दा से ढकी पालकी में बैठा अशर्फीलाल कौन है? उसने कहारों से क्या चाल चली थी?
(ङ) 'काँधे धरी यह पालकी है किस कन्हैयालाल की'-में अलंकार बताइए।
(च) इस काव्यांश का सम्बन्ध हिन्दी काव्य की किस धारा से है?
उत्तर :
(क) प्रस्तुत काव्यांश में पालकी उठाने वाले कहारों का वर्णन है। ये कहार गरीबी और ऋण-ग्रस्तता से पीड़ित हैं।
(ख) कवि ने कहारों की निर्धनता और दीनता का चित्रण किया है। एक गाँव से दूसरे गाँव तक पालकी उठाकर लोगों को पहुँचाने वाले कहार नंगे शरीर हैं। उन्होंने कमर में कसकर फेंटा बाँध रखा है। वे नंगे पैर हैं तथा उनके पैरों में बिवाइयाँ फटी हुई हैं। वे वर्षों से निर्धनता की जंजीर में जकड़े हुए हैं।
(ग) “यह कर्ज पुश्तैनी अभी किश्तें हजारों साल की"-इस पंक्ति कवि ने कहारों की ऋणग्रस्तता की दशा का वर्णन किया है। उनके पूर्वज भी कर्जदार थे और वे भी कर्ज में डूबे हैं। उनका पूरा जीवन कर्ज चुकाने में ही बीत जाता है। इस पंक्ति सूदखोरों द्वारा किए गए शोषण की कुरीति का चित्रण है।
(घ) पर्दा हटने पर पता चला कि डोली में दुल्हन नहीं अशर्फीलाल अर्थात कहारों का शोषक सूदखोर बैठा है। यह सूदखोर विभिन्न तरीकों से उनका शोषण करता रहा है। वह कहारों की भलाई करने के बहाने उनको अपना कर्जदार बनाकर उनका उत्पीड़न करता रहा है।
(ङ) 'काँधे धरी यह पालकी है किस कन्हैयालाल की' में 'क' वर्ण की आवृत्ति हुई है। इस पंक्ति में अनुप्रास अलंकार है।
(च) इस काव्यांश का सम्बन्ध हिन्दी कविता की प्रगतिवादी विचारधारा से है।
9. अब भी कुछ लोगों के दिल में, नफरत अधिक, प्यार है कम
हम ज़ब होंगे बड़े घृणा का, नाम मिटाकर लेंगे दम।
हिंसा के विषमय प्रवाह में, कब तक और बहेगा देश।
जब हम होंगे बड़े देखना, नहीं रहेगा यह परिवेश।
भ्रष्टाचार जमाखोरी की आदत बहुत पुरानी है,
ये कुरीतियाँ मिटा हमें तो नई चेतनो लानी है।
एक घरौंदे जैसा आखिर कितना और ढहेगा देश,
जब हम होंगे बड़े देखना, ऐसा नहीं रहेगा देश।
इसकी बागडोर हाथों में, ज़रा हमारे आने दो,
थोड़ा सा बस पाँव हमारा, जीवन में टिक जाने दो।
हम खाते हैं शपथ, दुर्दशा कोई नहीं सहेगा देश,
घोर अभावों की ज्वाला में, कल से नहीं जलेगा देश।
प्रश्न :
(क) समाज में अभी तक लोगों के मन की क्या दशा है?
(ख) बच्चे बड़े होकर क्या करना चाहते हैं?
(ग) छंद के तुकान्त होने का क्या तात्पर्य है? यह छंद कैसा है?
(घ) बच्चे बड़े होने और सशक्त होने पर क्या करने की शपथ लेते हैं?
(ङ) वर्तमान भारतीय समाज के सामने कौन-कौन सी भीषण समस्यायें हैं?
(च) 'घोर अभावों की ज्वाला' में कौन-सा अलंकार है?
उत्तर :
(क) समाज में अभी तक लोगों के मन में सच्चा प्रेम उत्पन्न नहीं हुआ है। उनके मन में अभी तक प्रेम की अपेक्षा घृणा की भावना की ही प्रधानता है।
(ख) बच्चे देश को घृणा की भावना से दूर रखना चाहते हैं। वे देश के लोगों के मन से घृणा का नामोनिशान मिटा देना चाहते हैं।
(ग) जिस छंद की पंक्तियों के अन्त में समान ध्वनि वाले वर्ण होते हैं वह तुकान्त छंद होता है। इसमें पंक्तियों के अंत में कम, दम, देश, वेश, आदि शब्द होने से यह छन्द तुकान्त है।
(घ) बच्चे बड़े और शक्तिशाली होने पर देश को दुर्दशा से मुक्त करने की शपथ लेते हैं। वे कसम खाते हैं कि जब वे बड़े हो जायेंगे तो देश को निर्बलता और अक्षमता से मुक्त कराएँगे।
(ङ) वर्तमान भारतीय समाज के सामने अनेक भीषण समस्यायें हैं। मन में एक दूसरे के प्रति घृणा, हिंसा, भ्रष्टाचार, जमाखोरी और गरीबी तथा अभाव आदि समस्यायें भारत में व्याप्त हैं।
(च) 'घोर अभावों की ज्वाला में।' में रूपक अलंकार है।
10. चौड़ी सड़क गली पतली थी -
दिन का समय घनी बदली थी
रामदास उस दिन उदास था
अंत समय आ गया पास था
उसे बता यह दिया गया था उसकी हत्या होगी।
धीरे-धीरे चला अकेले
सोचा साथ किसी को ले ले
फिर रह गया, सड़क पर सब थे
सभी मौन थे सभी निहत्थे
सभी जानते थे यह उस दिन उसकी हत्या होगी।
खड़ा हुआ वह बीच सड़क पर
दोनों हाथ पेट पर रख कर
सधे कदम रख करके आए
लोग सिमट कर आँख गड़ाए
लगे देखने उसको जिसकी तय था हत्या होगी।
निकल गली से तब हत्यारा
आया उसने नाम पुकारा
हाथ तौलकर चाकू मारा।
छूटा लोहू का फव्वारा
कहा नहीं था उसने आखिर उसकी हत्या होगी?
प्रश्न :
(क) कविता की प्रथम दो पंक्तियों में किसका वर्णन है? कविता का प्रारम्भ इनके वर्णन से क्यों किया गया
(ख) उस दिन रामदास उदास क्यों था?
(ग) रामदास घर से किसके साथ चला?
(घ) इस कविता को किस साहित्यिक वाद से सम्बन्धित रचना मान सकते हैं?
(ङ) प्रस्तुत काव्यांश से सार्वजनिक स्थानों की सुरक्षा-व्यवस्था के बारे में क्या पता चलता है?
(च) इस काव्यांश में रामदास किसका प्रतीक है?
उत्तर :
(क) कविता की प्रथम दो पंक्तियों में स्थान (चौड़ी सड़क, पतली गली) तथा समय (घने बादल छाए दिन) का वर्णन है। कविता का प्रारम्भ इनसे होने का कारण है घटना के स्थल तथा समय के बारे में बताना।
(ख) उस दिन रामदास उदास था। उसे पता था कि उसका अन्तिम समय आ चुका है। उस दिन उसकी हत्या कर दी जायेगी।
(ग) रामदास घर से अकेला ही चला था। उसने सोचा कि वह किसी को अपने साथ ले ले परन्तु उसने इस विचार को छोड़ दिया। कुछ सोचकर वह अकेले ही चल पड़ा।
(घ) रामदास के शरीर से खून का फुहारा निकलने की बात से हम इस कविता को यथार्थवाद से सम्बन्धित काव्य रचना मान सकते हैं।
(ङ) प्रस्तुत काव्यांश से पता चलता है कि सार्वजनिक स्थानों पर सुरक्षा की व्यवस्था ठीक नहीं है। सड़क पर चलते लोगों का जीवन सुरक्षित नहीं है। हत्यारे लोगों को चुनौती देकर उनकी हत्या कर सकते हैं। सड़क पर उपस्थित लोग भी आतंक के कारण सहते रहते हैं।
(च) इस काव्यांश में रामदास उन साधारण लोगों का प्रतीक है, जो आतंक से त्रस्त और पीड़ित रहते हैं। सरकार का सुरक्षातंत्र भी आंतक और हिंसा से उनको बचा नहीं पाता।
11. भई सूरज जरा इस आदमी को जगाओ
भई पवन जरा इस आदमी को हिलाओ
यह आदमी जो सोया पड़ा है
जो सच से बेखबर
सपनों में खोया पड़ा है।
क्षिप्र तो वह है इसके कानों पर चिल्लाओ।
सूरज इसे जगाओ, पवन इसे हिलाओ वक्त पर जगाओ
नहीं तो जब बेवक्त जागेगा यह
तो जो आगे निकल गए हैं
उन्हें पाने, घबरा के भागेगा यह!
भागना अलग है'
क्षिप्र गति अलग है भई पंछी
जो सही क्षण में सजग है भई
सूरज! जरा इस आदमी को जगाओ!
पंछी इसके कानों पर चिल्लाओ।
प्रश्न :
(क) कवि किसको जगाना चाहता है?
(ख) कवि आदमी को जगाने के लिए किनसे कह रहा है?
(ग) बेवक्त जागने पर आदमी क्या करेगा?
(घ) इस काव्यांश में कवि क्या संदेश देना चाहता है?
(ङ) इस काव्यांश की रचना किस प्रकार के छंद में हुई है?
(च) स काव्यांश के केन्द्रीय भाव को व्यक्त करने वाली दो पंक्तियाँ छाँटकर लिखिए।
उत्तर :
(क) कवि अज्ञान और असावधानी की नींद में पड़े हुए आदमी को जगाना चाहता है।
(ख) कवि सोते हुए आदमी को जगाने के लिए सूरज, पवन और पक्षी से कह रहा है। पवन उसे हिलाकर और पक्षी उसके कान पर चिल्लाकर उसे जगा सकते हैं।
(ग) आदमी बेवक्त जागेगा और अपने आपको औरों से पीछे देखेगा तो वह तेज दौड़गा। अपने से आगे निकल गए लोगों को पकड़ने अर्थात उनके बराबर पहुँचने के लिए वह तेजी के साथ दौड़ेगा।
(घ) इस काव्यांश में कवि संदेश देना चाहता है कि जीवन में लक्ष्य और सफलता पाने के लिए मनुष्य को सजग और सतर्क रहना चाहिए। उसे केवल विचार ही नहीं करना चाहिए बल्कि कर्मशील भी होना चाहिए।
(ङ) इस काव्यांश की रचना मुक्त छंद में हुई है यद्यपि. इसकी कुछ पंक्तियाँ तुकान्त हैं।
(च) इस काव्यांश के केन्द्रीय भाव से सम्बन्धित पंक्तियाँ हैं-भागना अलग है, क्षिप्र गति अलग है क्षिप्र तो वह है, जो सही क्षण में सजग है।
12. नीड़ का निर्माण फिर-फिर
नेह का आह्वान फिर-फिर
वह उठी आँधी कि नभ में
छा गया सहसा अँधेरा,
धूलि धूसरित बादलों ने
भूमि को इस भौति घेरा,
रात-सा दिन हो गया फिर
रात आई और काली,
लग रहा था अब न होगा
इस निशा का फिर सवेरा,
रात के उत्पात-भय से
भीत जन-जन भीत कण-कण
किंतु प्राची से उषा की
मोहिनी मुस्कान फिर-फिर
नीड़ का निर्माण फिर-फिर
नेह का आह्वान फिर-फिर।
प्रश्न :
(क) 'नीड़ का निर्माण फिर-फिर' में कौन-सा अलंकार है ? .
(ख) बार-बार घोंसला बनाने की इच्छा से मनुष्य की किस भावना का पता चलता है?
(ग) आकाश में छाई आँधी का क्या परिणाम कवि ने चित्रित किया है?
(घ) प्रस्तुत काव्य पंक्तियों में कवि ने क्या संदेश दिया है?
(क) इस कविता की रचना किस शैली में हुई है ?
(च) 'कवि निराश और भयभीत है'-यह भाव किन पंक्तियों में व्यक्त हुआ है?
उत्तर :
(क) 'नीड़ का निर्माण' में अनुप्रास अलंकार तथा 'फिर-फिर' में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
(ख) बार-बार घोंसला बनाने की इच्छा से पता चलता है कि मनुष्य जीवन में आए संकटों से घबराता नहीं है। वह कठिनाइयों औरबाधाओं से हार न मानकर निरन्तर आगे बढ़ना चाहता है।
(ग) आकाश में आंधी छा गई है। इससे दिन में भी अँधेरा छा गया है।
(घ) प्रस्तुत पंक्तियों में मानव जीवन के इस सत्य का चित्रण हुआ है कि जीवन में सुख-दुःख, आशा-निराशा, जीत-हार आदि आते-जाते रहते हैं। दुःख, निराशा और पराजय सदा नहीं रहते। इन पंक्तियों में आशावाद का संदेश दिया गया है।
(ङ) इस कविता की रचना गीत शैली में हुई है। यह एक गेय रचना है।
(च) 'कवि निराश और भयभीत है'- यह भाव निम्नलिखित पंक्ति में व्यक्त हुआ है
'लग रहा था अब न होगा
इस निशा का फिर सवेरा।'
13. कविताओं में -
चिड़िया - फूल - पौधे
और मौसम का अब जिक्र नहीं होता
कविताओं में होते हैं
संवेदनहीन लोग
जो धन के बल पर
सच-झूठ को नकारते हुए
जीवन जी रहे हैं।
कविताएँ सदा सच बोलती हैं
और सजा दी हैं असंख्य पक्षियों की
कृत्रिम आकृतियाँ
कैलेंडर-पेन्टिंग्स के रूप में
जिन्हें देखकर
बच्चे पूछते होंगे
कैसे होते हैं
विशालकाय पेड़?
चिड़िया कैसे चहचहाती है?
आकाश इतना खाली क्यों है?
झूठ का भण्डा फोड़ती हैं
और सच यह है कि आज का मानव
छल से, बल से लूट रहा है,
उसने काट डाले हैं
सारे के सारे वन-उपवन
धरती का चप्पा-चप्पा
पट गया है भवनों से।
और लोगों ने ड्राइंग रूम में लगा दी है
बौना साइज़ प्रजातियाँ पौधों की
हवाएँ सहमी-सहमी हैं?
बादल क्यों नहीं बरसते?
मैं तुम्ही से पूछता हूँ।
तुम्हारे ड्राइंग-रूम की चिड़िया
पौधों की किस्में
प्लास्टिक के फूल
खोज पाएँगे इन सभी
प्रश्नों का समाधान?
प्रश्न :
(क) इस पद्यांश में आधुनिक कविता की किस विशेषता का उल्लेख है?
(ख) कविताओं में किनका वर्णन होता है? उनको संवेदनहीन क्यों कहा गया है?
(ग) कवि के अनुसार कविताओं में किसका वर्णन होता है तथा किसका नहीं?
(घ) वृक्षों को कौन नष्ट कर रहा है? वृक्षों और वन-उपवनों को नष्ट करने का क्या दुष्प्रभाव धरती पर पड़ा
(ङ) बच्चों की जिज्ञासा का समाधान किनके पास नहीं है तथा क्यों?
(च) 'हवाएँ सहमी-सहमी हैं' में कौन-सा अलंकार है?
उत्तर :
(क) कवि के विचार से अब कविताओं में पेड़-पौधों, फूलों, चिड़ियों आदि सम्बन्धी प्राकृतिक सुन्दरता का वर्णन नहीं होता। इस काव्यांश में प्रकृति की उपेक्षा और संवेदनहीनता का वर्णन है।
(ख) कविता में सच-झूठ की परवाह न करके धन के पीछे पागल हुए मनुष्यों का वर्णन होता है। इन मनुष्यों को कवि ने मानवीय संवेदना से हीन बताया है।
(ग) कवि ने बताया है कि कविता में सत्य का वर्णन होता है, उसमें झूठी बातों के लिए कोई स्थान नहीं होता है।
(घ) मनुष्य वृक्षों को नष्ट कर रहा है। वृक्षों और वन-उपवनों के नष्ट होने से पृथ्वी का वातावरण प्रदूषित हो गया है। समय पर वर्षा न होने से धरती शस्य श्यामला नहीं रही।
(ङ) ड्राइंग रूम में सजे बनावटी पौधे तथा पक्षियों की तस्वीरें बच्चों की जिज्ञासा का समाधान नहीं कर सकती हैं। जब बच्चे विशाल वृक्षों तथा सुन्दर पक्षियों को देखेंगे ही नहीं तो उनके बारे में जानेंगे भी नहीं।
(च) 'हवाएँ सहमी-सहमी हैं'- में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है। इसमें मानवीकरण अलंकार भी है।
14. कहे परिवेश-मैं धन्या, कहे यह देश-मैं धन्या,
कलेजा क्लेश से कंपित ये मैं हूँ देश की कन्या!
तुम्हारी चाकरी में नींद पूरी भी ना सोई मैं,
सवेरे द्वार तक आँगन बुहारा फिर रसोई में लगी,
बच्चे पठाए पाठशाला फिर टिफिन-सज्जा,
गई खुद काम पर आई नहीं तुमको तनिक लज्जा,
कि लौटी तो तुम्हे फिर चाहिए सेवा व्रती दासी,
तुम्हे क्या बोध, जीवन शोध, भूखी है कि वो प्यासी!
कहा है आज मैंने जो बराबर भी कहूँगी मैं
बराबर थी बराबर हूँ, बराबर ही रहूँगी मैं।
प्रकृति ने इस युगल छवि को मनोहारी बनाया है,
बराबर शक्ति देकर शीश भी अपना नवाया है।
मैं रचना हूँ चराचर की, मैं नारी हूँ बराबर की
नहीं क्यों तुम मुझे मेरा प्रतीक्षित मान देते हो
कृपाएँ ही लुटाते हो फ़कत अनुदान देते हो।
'ये मैं हैं देश की कन्या. बहन. पत्नी. जननि. जन्या।।
प्रश्न
(क) देश और परिवेश धेन्या किसे कहा गया है ? उसकी यथार्थ स्थिति क्या है।
(ख) इन काव्य-पंक्तियों में भारतीय महिला के किन दैनिक कार्यों का उल्लेख किया गया है?
(ग) 'गई खुद काम पर....सेवा व्रती दासी'-में पुरुषों की किस.मनोवृत्ति का वर्णन हुआ है ?
(घ) नारी को समाज में सम्मान न मिलकर क्या मिलता है?
(ङ) समाज में महिला के कौन-कौन से रूप हैं?
(च) इस काव्यांश में कौन-सा काव्य-गुण है?
उत्तर :
(क) देश और परिवेश धन्या महिलाओं को कहा गया है। यथार्थ स्थिति यह है कि महिलाओं को सम्मान और समानता प्राप्त नहीं है। वे क्लेश के कारण काँपती रहती हैं।
(ख) महिलाएँ दिनभर अनेक काम करती हैं। वे सबेरे उठकर घर की सफाई करती हैं, रसोई तैयार करती हैं, बच्चों को पाठशाला भेजती हैं, टिफिन तैयार करती हैं और स्वयं भी घर के बाहर काम पर जाती हैं। वे रात में पूरी नींद भी नहीं सो पाती।
(ग) 'गई खुद काम पर......सेवाव्रती दासी' में पुरुषों की नारी को अपनी दासी समझने की मनोवृत्ति की ओर संकेत
(घ) नारी समाज में समानता और सम्मान पाने की इच्छुक है।
उसे मान पाने की प्रतीक्षा है किन्तु उसे सम्मान के स्थान पर केवल पुरुषों की अनुकम्पा और अनुदान ही प्राप्त होता है।
(ङ) समाज में महिला के अनेक रूप हैं। वह कन्या है, माता है, बहन है, पत्नी है तथा पुत्री है।
(च) इस काव्यांश का काव्य-गुण 'ओज' है।
15. अरे! चाटते जूठे पत्ते जिस दिन देखा मैंने नर को
उस दिन सोचाः क्यों न लगा हूँ आज आग इस दुनिया भर को?
यह भी सोचाः क्यों न टेंटुआ घोटा जाय स्वयं जगपति का?
जिसने अपने ही स्वरूप को रूप दिया इस घृणित विकृति का।
जगपति कहाँ ? अरे, सदियों से वह तो हुआ राख की ढेरी:
वरना समता-संस्थापन में लग जाती क्या इतनी देरी?
छोड़ आसरा अलखशक्ति का, रे नर, स्वयं जगत्पति तू है;
तू यदि जूठे पत्ते चाटे, तो मुझे पर लानत है, थू है।
ओ भिखमंगे, अरे पराजित, ओ मजलूम, अरे चिर दोहित,
तू अखण्ड भंडार शक्ति का, जाग अरे निद्रा-सम्मोहित,
प्राणों को तड़पाने वाली हुंकारों से जल-थल भर दे,
अनाचार के अम्बारों में अपना ज्वलित पलीता भर दे।
भूखा देख तुझे गर उमड़े आँसू नयेनों में जग-जन के
तो तू कह देः नहीं चाहिए हमको रोने वाले जनखे;
तेरी भूख, असंस्कृति तेरी, यदि न उभाड़ सके क्रोधानल,
तो फिर समझूगा कि हो गई सारी दुनिया कायर, निर्बल।
प्रश्न :
(क) कवि संसार में आग लगाने की बात क्यों सोचता है?
(ख) कवि ईश्वर से किस बात को लेकर नाराज है?
(ग) संसार में मानव-मानव में समानता की स्थापना न हो पाने का दोषी कवि ने किसको माना है?
(घ) कवि के मत में दुनिया कब कायर और निर्बल मानी जायगी?
(ङ) 'अनाचार के अम्बारों में अपना ज्वलित पलीता भर दे' में अलंकार लिखिए।
(च) प्रस्तुत कविता हिन्दी के किस 'वाद' के अन्तर्गत आती है?
उत्तर :
(क) कवि ने मनुष्य को दूसरों के झूठे पत्ते चाटते देखा तो उसे संसार की व्यवस्था के प्रति आक्रोश हो गया और उसने संसार में आग लगा देने का विचार किया।
(ख) कवि का मानना है कि मनुष्य ईश्वर की ही प्रतिकृति है। वह ईश्वर के ही समान है। अपने रूप को ऐसा भद्दा रूप प्रदान करने के कारण कवि ईश्वर से नाराज है।
(ग) कवि संसार में मानव-समानता की स्थापना न होने का दोषी ईश्वर के न होने को मानता है। यदि ईश्वर होता तो संसार में ऐसी असमानता हो ही नहीं सकती थी।
(घ) कवि की दृष्टि में यदि लोगों को भूख से व्याकुल तथा असंस्कृत और अशिक्षित देखकर भी लोगों के मन में क्रोध की भावना पैदा नहीं होगी तो वह समझेगा कि यह संसार कायर और निर्बल है।
(ङ) 'अनाचार के......भर दे' में अनुप्रास अलंकार है।
(च) प्रस्तुत कविता हिन्दी काव्य के प्रगतिवाद के.अन्तर्गत आती है।
16. किस भाँति जीना चाहिए किस भाँति मरना चाहिए,
सो सब हमें निज पूर्वजों से याद करना चाहिए।
पग-चिह्न उनके नियमपूर्वक खोज लेना चाहिए,
निज पूर्व गौरव-दीप को बझने न देना चाहिए।
आओ मिलें सब देश-बांधव हार बनकर देश के.
साधक बनें सब प्रेम से सुख शान्तिमय उद्देश्य के।।
क्या साम्प्रदायिक भेद से है ऐक्य मिट सकता, अहो,
बनती नहीं क्या एक माला विविध सुमनों की कहो।।
प्राचीन हो कि नवीन, छोड़ो रूढ़ियाँ जो हों बुरी,
बनकर विवेकी तुम दिखालो हंस जैसी चातुरी।
प्राचीन बातें ही भली हैं-यह विचार अलीक है,
जैसी अवस्था हो जहाँ, वैसी व्यवस्था ठीक है।।
मुख से न होकर चित्त से देशानुरागी हो सदा,
है सब स्वदेशी बंधु, उनके दुःखभागी हो सदा।
प्रश्न :
(क) कवि पूर्वजों से क्या सीखने कह रहा है?
(ख) कवि किसको खोजने के लिए कह रहा है?
(ग) कवि ने पूर्वजों के गौरव के लिए क्या करने को प्रेरित किया है?
(घ) 'गौरव-दीप' में कौन-सा अलंकार है?
(ङ) इस पद्य में कौन-सा काव्य-गुण है?
(च) कवि ने इस काव्यांश में देश-प्रेम का संदेश किस काव्य-रचना शैली में दिया है?
उत्तर :
(क) कवि कह रहा है कि हमें अपने पूर्वजों से सीखना चाहिए कि जीवन में किस तरह जीना तथा किस तरह मरना चाहिए।
(ख) कवि पूर्वजों के पद-चिह्नों को खोजने के लिए कह रहा है। पूर्वजों के पद चिह्नों की खोज का आशय है उनके द्वारा जीवन में किए गए कार्य।
(ग) कवि ने कहा है कि पूर्वजों के गौरव का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए तथा उसको सुरक्षित बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए।
(घ) 'गौरव-दीप' में रूपक अलंकार है।
(ङ) इस पद्यांश में 'ओज' नामक काव्य-गुण है।
(च) कवि ने इस काव्यांश में उपदेशात्मक शैली में स्वदेश-प्रेम का संदेश दिया है।
17. जीवन में वह था एक कुसुम,
थे उस पर नित्य निछावर तुम,
वह सूख गया तो सूखे गया,
मधुवन की छाती को देखो
सूखी इसकी कितनी कलियाँ,
मुरझाई कितनी वल्लरियाँ;
जो मुरझाई फिर कहाँ खिली,
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है?
जो बीत गई सो बात गई।
जीवन में मधु का प्याला था,
तुमने, तन-मन दे डाला था।
वह टूट गया तो टूट गया,
मदिरालय का आँगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं,
' गिर मिट्टी में मिल जाते हैं।
जो गिरते हैं कब उठते हैं?
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है?
जो बीत गई सो. बात गई।
प्रश्न :
(क) 'जीवन में था एक कुसुम' में कवि ने कुसुम शब्द का प्रयोग किसके लिए किया है?
(ख) मधुवन किस बात पर शोर नहीं मचाता?
(ग) 'जो बीत गई सो बात गई'- कहकर कवि ने क्या संदेश दिया है?
(घ) इस काव्यांश में किस शैली का प्रयोग हुआ है?
(ङ) 'थे उस पर नित्य निछावर तुम' में कौन-सा अलंकार है?
(च) इस पद्यांश से संसार की नश्वरता को प्रकट करने वाली चार पंक्तियाँ छाँटकर लिखिए।
उत्तर :
(क) यह कविता व्यक्तिगत तत्वों पर आधारित है। जीवन में था एक कुसुम' में कुसुम शब्द का प्रयोग कवि की दिवंगत पत्नी के लिए किया गया है।
(ख) मधुवन अर्थात् बाग में अनेक पादप तथा लताएँ होती हैं। अनेक लताएँ सूख जाती हैं, फूल मुरझा जाते हैं, परन्तु बाग इस पर रोता-धोता नहीं है।
(ग) 'जो बीत गई सो बात गई'- कहकर कवि ने पुरानी और बीती बातों पर दुःखी होना छोड़कर व वर्तमान स्थितियों में जीवित रहने का संदेश दिया है। इसमें संदेश है-बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेइ।
(घ) इस काव्यांश में कवि ने गीत-शैली का प्रयोग किया है।
(ङ) 'थे उस पर नित्य निछावर तुम'-में अनुप्रास अलंकार का प्रयोग हुआ है।
(च) इस पद्यांश में संसार की नश्वरता को व्यक्त करने वाली पंक्तियाँ निम्नलिखित हैं
मदिरालय का आँगन देखो।
कितने प्याले हिल जाते हैं,
गिर मिट्टी ने मिल जाते हैं
जो गिरते हैं; कब उठते हैं?
18. यह हार एक विराम है।
जीवन महासंग्राम है
तिल-तिल मिटूगा पर दया की भीख मैं लूँगा नहीं
वरदान माँगूगा नहीं।
स्मृति सुखद प्रहरों के लिए
अपने खंडहरों के लिए
यह जान लो कि मैं विश्व की संपत्ति चाहूँगा नहीं।
वरदान माँगूगा नहीं।
क्या हार में, क्या जीत में
किंचित् नहीं भयभीत मैं
संघर्ष-पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही
वरदान माँगूंगा नहीं।
लघुता न अब मेरी छुओ
तुम हो महान बने रहो
अपने हृदय की वेदना मैं व्यर्थ त्यागूंगा नहीं
वरदान माँगूगा नहीं।
चाहे हृदय को ताप दो
चाहे मुझे अभिशाप दो
कुछ भी करो कर्तव्यपथ से किन्तु भागूंगा नहीं
वरदान मागूंगा नहीं।
प्रश्न :
(क) कविन जीवन को महासंग्राम क्यों माना है। इस संग्राम में हुई हार के बारे में उसका क्या मत है?
(ग) हर और जीत की दशा में कवि क्या करना चाहता है?
(घ) कवि ने जीवन के अच्छे और बुरे समय को किन प्रतीकों के द्वारा व्यंजित किया है?
(ङ) संघर्ष पथ में कौन-सा अलंकार है?
(च) इस काव्यांश के लिए एक उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(क) मनुष्य का जीवन अनेक संकटों तथा विघ्न-बाधाओं से संघर्ष करते हुए बीतता है। कवि ने इस कारण जीवन को एक महासंग्राम माना है। इस संग्राम में हुई हार को कवि ने हार नहीं माना। जीवन के संघर्ष में यह हार एक अल्पकाल के विराम के समान है।
(ख) कवि अपना जीवन निरन्तर बाधाओं और समस्याओं के साथ संघर्ष करते हुएं व्यतीत करना चाहता है। वह हार मानना नहीं चाहता तथा किसी से सहायता की भीख भी माँगना नहीं चाहता।
(ग) हार और जीत में कवि तटस्थ तथा अविचलित रहना चाहता है। वह हारने से नहीं डरता। वह हार या जीत-जो मिले उसे स्वीकार करने को तैयार है।
(घ) कवि ने जीवन के अच्छे समय को 'सुखद प्रहर' तथा बुरे समय को 'खण्डहर' आदि प्रतीकों द्वारा व्यक्त किया है।
(ङ) 'संघर्ष पथ' में रूपक अलंकार है।
(च) काव्यांश के लिए उचित शीर्षक है "जीवन का महासंग्राम।"
19. आज बचपन का कोमल गात
जरा का पीला पात!
चार दिन सुखद चाँदनी रात
और फिर अंधकार, अज्ञात!
शिशिर-सा झर नयनों का नीर.
झुलस देता गालों के फूल!
प्रणय का चुम्बन छोड़ अधीर
अधर जाते.अधरों को भूल!
मृदुल होंठों का हिमजल हास
उड़ा जाता नि:श्वास समीर,
सरल भौहों का शरदाकाश
घेर लेते घन, घिर गम्भीर!
शून्य साँसों का विधुर वियोग
छुड़ाता अधर मधुर संयोग,
मिलन के पल केवल दो चार,
विरह के कल्प अपार !
अरे वे अपलक चार नयन
आठ आँसू रोते निरुपाय,
उठे रोंओं के आलिंगन
कसक उठते काँटों-से हाय!
प्रश्न :
(क) बचपन में शरीर कैसा होता है? वह वृद्धावस्था में कैसा हो जाता है?
(ख) संसार में सुख और दुःख में किसकी बहुलता है?
(ग) बचपन और वृद्धावस्था तथा सुख और दुःख के आने-जाने का वर्णन करके कवि प्रकृति के किस नियम के बारे में बता रहा है? .
(घ) उपर्युक्त पद्यांश से छाँटकर रूपक अलंकार के दो उदाहरण लिखिए।
(ङ) उपर्युक्त पद्यांश की भाषा-शैली कैसी है?
(च) प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने प्रकृति के किस स्वरूप का वर्णन किया है?
उत्तर :
(क) बचपन में शरीर कोमल होता है। वह वृद्धावस्था में पीला पड़ जाता है।
(ख) संसार में सुख कम तथा दुःख अधिक समय तक रहने वाला है।
(ग) बचपन और वृद्धावस्था तथा सुख और दुःख के आने-जाने के वर्णन द्वारा प्रकृति के परिवर्तनशील होने के बारे में बताया गया है।
(घ) उपर्युक्त काव्यांश में रूपक अलंकार का प्रयोग हुआ है। दो उदाहरण हैं - (1) गालों के फूल, (2) हिमजल हास।
(ङ) उपर्युक्त पद्यांश की भाषा संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दावली युक्त है। इसमें चार दिन की चाँदनी फिर अँधेरी रात' तथा बादल घिरना, आठ आँसू रोना इत्यादि मुहावरों का साहित्यिक भाषा में प्रयोग किया गया है। शैली लाक्षणिक तथा संकेतात्मक है।
(च) प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने प्रकृति के कठोर एवं रौद्र स्वरूप का दर्शन किया है।
20. देखकर बाधा विविध, बहु विघ्न घबराते नहीं।
रह भरोसे भाग के, दुःख भोग पछताते नहीं।
काम कितना ही कठिन हो, किन्तु उकताते नहीं।
भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं।
हो गए इक आन में, उनके बुरे दिन भी भले।
सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले-फले।
पर्वतों को काटकर सड़कें बना देते हैं वे।
सैकड़ों मरुभूमि में नदियाँ बहा देते हैं वे।
गर्भ में जलराशि के बेड़ा चला देते हैं वे।
जंगलों में भी महा मंगल रचा देते हैं वे।
भेद नभ-तल का उन्होंने है बहुत बतला दिया।
है उन्होंने ही निकाली तार की सारी क्रिया।।
व्योम को छूते हुए दुर्गम पहाड़ों के शिखर।
वे घने जंगल जहाँ रहता है तम आठों प्रहर।
गर्जती जलराशि की उठती हुई ऊँची लहर।
आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लहर।
ये कँपा सकते कभी, जिनके कलेजे को नहीं।
भूलकर भी वे कभी, नाकाम रहते हैं नहीं।
प्रश्न
(क) जीवन में आने वाली विघ्न-बाधाओं से न घबराने का क्या परिणाम होता है?
(ख) भाग्य के भरोसे रहने वालों को क्या दुष्परिणाम भोगना पड़ता है?
(ग) कर्मशील पुरुष पर्वतों तथा रेगिस्तान में क्या चमत्कार करते हैं?
(घ) उपर्युक्त पद्यांश का शीर्षक लिखिए।
(ङ) प्रस्तुत पद्यांश की भाषा कैसी है?
(च) 'जंगलों में भी महामंगल' में क्या काव्यात्मक विशेषता है?
उत्तर :
(क) जीवन में आने वाली विघ्न-बाधाओं से न घबराने का परिणाम होता है- निश्चित सफलता। ऐसा व्यक्ति अपने जीवन में कभी असफल नहीं होता।
(ख) भाग्य के भरोसे रहने वाले जीवन में सफल नहीं होते और पीछे अपने कार्यों पर पछताते हैं।
(ग) कर्मशील पुरुष पर्वतों को काटकर सड़कें बना देते हैं तथा सूखे रेगिस्तान में नदियाँ बहा देते हैं।
(घ) उपर्युक्त पद्यांश का शीर्षक-'कर्मठ पुरुष' है।
(ङ) प्रस्तुत पद्यांश की भाषा सरल बोलचाल के शब्दों से युक्त तथा प्रवाहपूर्ण है। वह भावानुकूल तथा सुबोध है। भाषा मुहावरेदार है।
(च) 'जंगलों में भी महामंगल' में-पद-मैत्री की सुन्दरेता दर्शनीय है।
21. है बहुत बरसी धरित्री पर अमृत धार,
आज की दुनिया विचित्र, नवीन,
पर नहीं अब तक सुशीतल हो सका संसार।
प्रकृति पर सर्वत्र है विजयी पुरुष आसीन।
भोग-लिप्सा आज भी लहरा रही उद्दाम,
हैं बंधे नर के करों में वारि, विद्युत भाप,
बह रहीं असहाय नर की भावना निष्काम।
हुक्म पर चढ़ता-उतरता है पवन का ताप।
भीष्म हों अथवा युधिष्ठिर, या कि हों भगवान,
हैं नहीं बाकी कहीं व्यवधान,
बुद्ध हों कि अशोक, गांधी हो कि ईसु महान,
लाँघ सकता नर सरित, गिरि सिन्धु एक समान।
सिर झुका सबको सभी को श्रेष्ठ निज से मान,
शीश पर आदेश कर अवधार्य,
मात्र वाचिक ही उन्हें देता हुआ सम्मान,
प्रकृति के सब तत्व करते हैं मनुज के कार्य।
दग्ध कर पर को, स्वयं भी भोगता दुख-दाह,
मानते हैं हुक्म मानव का महा वरुणेश,
जा रहा मानव चला अब भी पुरानी राह।
और करता शब्दगुण अम्बर वहन संदेश।
प्रश्न :
(क) धरती पर अमृत की धारा बरसने से क्या आशय है?
(ख) मनुष्य के मन में आज भी क्या विकार विद्यमान है?
(ग) 'वाचिक ही उन्हें देता हुआ सम्मान' का क्या आशय है?
(घ) 'वारि, विद्युत भाप' में कौन-सा अलंकार है?
(ङ) उपर्युक्त पद्यांश का शीर्षक लिखिए।
(च) उपर्युक्त पद्यांश में किस रस का चित्रण है?
उत्तर :
(क) धरती पर अमृत की धारा बरसने से आशय यह है कि अनेक महापुरुषों तथा देवताओं ने पृथ्वीवासियों को उत्तम आध्यात्मिक उपदेश दिए हैं तथा संयम सिखाया है।
(ख) मनुष्य के मन में आज भी विषय-वासना तथा भोगलिप्सा विद्यमान है।
(ग) वाचिक देता हुआ सम्मान का आशय यह है कि मनुष्य महापुरुषों, देवी-देवताओं तथा अवतारों का सम्मान मौखिक रूप से ही करता है, सच्चे मन से उनका सम्मान नहीं करता।
(घ) 'वारि, विद्युत भाप' में अनुप्रास अलंकार है।
(ङ) उपर्युक्त पद्यांश का शीर्षक है-नवयुग का मनुष्य।
(च) उपर्युक्त पद्यांश में वीर रस का चित्रण है।
22. चारु चन्द्र की चंचल किरणें, खेल रही हैं जल-थल में।
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है, अवनि और अम्बर तल में।।
पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से।
मानो झूम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से।।
पंचवटी की छाया में है, सुन्दर पर्ण-कुटीर बना।
उसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर, धीर-वीर निर्भीक मना।।
जाग रहा यह कौन धनुर्धर, जबकि भुवन भर सोता है।
भोगी कुसुमायुध योगी-सा बना दृष्टिगत होता है।।
किस व्रत में है व्रती वीर यह, निद्रा का यों त्याग किए।
राजभोग्य के योग्य विपिन में, बैठा आज विराग लिए।।
बना हुआ है प्रहरी जिसका, उस कुटीर में क्या धन है।
जिसकी रक्षा में रत इसका तन है, मन है, जीवन है।।
मर्त्यलोक 'मालिन्य मेटने, स्वामि-संग जो आई है।
तीन लौंक की लक्ष्मी ने यह, कुटी आज अपनाई है।।
वीर-वंश की लाज यही है, फिर क्यों चीर न हो प्रहरी।
विजन देश है, निशा शेष है, निशाचरी माया ठहरी।।
कोई पास न रहने पर भी, जन-मन मौन नहीं रहता।
आप आपकी सुनता है वह, आप आपसे है कहता।।
बीच-बीच में इधर-उधर निज, दृष्टि डालकर मोदमयी।
मन ही मन बातें करता है, धीर धनुर्धर नयी नयी।।
क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा?
है स्वच्छन्द-समन्द, गन्धवह, निरानन्द है कौन दिशा?।
बन्द नहीं अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप।
पर कितने एकान्त भाव से, कितने शान्त और चुपचाप।।
प्रश्न :
(क) पर्ण कुटीर कहाँ बना हुआ है?
(ख) कुटीर के सामने शिला पर बैठा कौन जाग रहा है?
(ग) इस कुटिया के अन्दर कौन है?
(घ) 'क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा' में किसका वर्णन है?
(ङ) इस पद्यांश से पदमैत्री का एक उदाहरण दीजिए।
(च) इस काव्यांश की काव्य-शैली कैसी है?
उत्तर :
(क) पर्ण कुटीर पंचवटी की छाया में बना हुआ है।
(ख) कुटीर के सामने शिला पर बैठे धनुर्धर लक्ष्मण जाग रहे हैं।
(ग) इस कुटिया के अन्दर राम की पत्नी सीता विश्राम कर रही हैं।
(घ) 'क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा'- में प्रकृति की सुन्दरता का वर्णन है।
(ङ) इस पद्यांश में देश है......शेष है' में पद-मैत्री है।
(च) इस काव्यांश में सजीव चित्रात्मक काव्य-शैली का प्रयोग हुआ है।
23. आज की शाम
जो बाजार जा रहे हैं
उनसे मेरा अनुरोध है
एक छोटा-सा अनुरोध
क्यों न ऐसा हो कि आज शाम
हम अपने थैले और डोलचियाँ
और सीधे धान की मंजरियों तक चलें।
चावल जरूरी है
जरूरी है आटा दाल नमक पुदीना
पर क्यों न ऐसा हो कि आज शाम
हम सीधे वहीं पहुँचे
एक दम वहीं
जहाँ चावल
बिना दुभाषिये के रख दें एक तरफ
दाना बनने से पहले
सुगंध की पीड़ा से छटपटा रहा हो
उचित यही होगा
कि हम शुरू में ही
आमने-सामने
बिना दुभाषिये के
सीधे उस सुगंध से
बातचीत करें
यह रक्त के लिए अच्छा है
अच्छा है भूख के लिए
नींद के लिए
कैसा रहे
बाजार न आए बीच में।
प्रश्न :
(क) कवि ने किससे तथा क्या अनुरोध किया हैं?
(ख) कवि अनुरोध करते हुए कहाँ जाने को कह रहा है?
(ग) कवि सीधे बाजोर न जाने के लिए क्यों कह रहा है?
(घ) उपर्युक्त पद्यांश की रचना किस छन्द में हुई है?
(ङ) 'सुगंध की पीड़ा से छटपटा रहा हो'-इस पंक्ति में निहित काव्य-सौन्दर्य को स्पष्ट कीजिए।
(च) सुगंध से बातचीत करने का क्या आशय है?
उत्तर :
(क) कवि ने ग्राहकों से अनुरोध किया है कि वे अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ सीधे उनका उत्पादन करने वालों से ही खरीदें।
(ख) कवि अनुरोध करते हुए उनसे कह रहा है कि वे सीधे खेतों में किसानों के पास जायें जहाँ ये वस्तुएँ पैदा होती हैं।
(ग) कवि लोगों से बाजार न जाने के लिए इसलिए कह रहा है कि बाजार उत्पादक तथा उपभोक्ता के मध्य बिचौलिए की भूमिका निभाता है तथा उसका शोषण करता है।
(घ) उपर्युक्त पद्यांश की रचना मात्रा और वर्ण के बन्धन से मुक्त होने के कारण जिस छन्द में हुई है उसे मुक्त छन्द कहा जाता है।
(ङ) सुगंध की पीड़ा से छटपटाने में लक्षणा,शब्द-शक्ति का प्रयोग हुआ है। यहाँ चावल के दानों के पकने पर उनसे उठने वाली सुगन्ध का वर्णन किया गया है।
(च) 'सुगन्ध' किसान का प्रतीक है। कवि चाहता है कि शोषण से बचने के लिए उपभोक्ता सीधे किसान से उसके उत्पाद खरीदें।
24. तपस्वी! क्यों इतने हो क्लांत,
वेदना का यह कैसा वेग?
आह! तुम कितने अधिक हताश
बताओ यह कैसा उद्वेग?
विकसता सुख का नवल प्रभात,
एक परदा यह झीना नील
दुःख की पिछली रजनी बीच
'मधुर मारुत से ये उच्छ्वास;
छिपाये है जिसमें सुख गात।
जिसे तुम समझे हो अभिशाप,
जगत की ज्वालाओं का मूलः
ईश का वह 'रहस्य वरदान
कभी मत इसको जाओ भूल।'
लगे कहने मनु सहित विषादः
अधिक उत्साह तरंग अबाध
उठाते मानस में सविलास।
किंतु जीवन कितना निरुपाय!
लिया है देख नहीं संदेह;
निराशा है जिसका परिणाम
सफलता का वह कल्पित गेह।"
प्रश्न :
(क) मनु के मन की दशा कैसी थी?
(ख) सबेरा कब होता है?
(ग) दुःख को किसके समान बताया गया है? दुःख के पीछे क्या छिपा है?
(घ) 'दुःख की पिछली रजनी' में कौन-सा अलंकार है।
(ङ) उपर्युक्त पद्यांश में किस काव्य-गुण का प्रयोग हुआ है?
(च) प्रस्तुत काव्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(क) मनु का मन विषादग्रस्त तथा निराश था।
(ख) पिछली रात बीतने पर सबेरा अवश्य होता है।
(ग) दुःख को पतले नीले पर्दे के समान बताया गया है। इसके पीछे सुख का चेहरा छिपा हुआ है।
(घ) 'दुःख की पिछली रजनी' में रूपक अलंकार है।
(ङ) उपर्युक्त पद्यांश में 'माधुर्य' नामक काव्य-गुण का प्रयोग है।
(च) प्रस्तुत काव्यांश का उचित शीर्षक है-विषादग्रस्त मनु।
25. उरके चरखे में कात सूक्ष्म
युग-युग का विषय-जनित विषाद,
गुंजित कर दिया गगन जग का
भर तुमने आत्मा का निनाद।
रँग-रंग खद्दर के सूत्रों में,
नव जीवन आशा, स्पृहाहलाद,
मानवी कला के सूत्रधार!
हर लिया यन्त्र कौशल प्रवाद!
साम्राज्यवाद था कंस, बन्दिनी
मानवता, पशु-बलाक्रान्त,
श्रृंखला-दासता, प्रहरी बहु
निर्मम शासन-पद शक्ति-भ्रान्त,
कारागृह में दे दिव्य जन्म
मानव आत्मा को मुक्त, कान्त,
जन-शोषण की बढ़ती यमुना
तुमने की नत, पद-प्रणत शान्त!
कारा थी संस्कृति विगत, भित्ति,
बहु धर्म-जाति-गति रूप-नाम,
बन्दी जग-जीवन, भू विभक्त
विज्ञान-मूढ़ जन प्रकृति-काम,
आये तुम मुक्त पुरुष, कहने
मिथ्या जड़ बन्धन, सत्य राम,
नानृतं जयति सत्यं मा भै,
जय ज्ञान-ज्योति, तुमको प्रणाम!
प्रश्न :
(क) मानवी कला का सूत्रधार कौन है?
(ख) मानवी कला से यहाँ किस ओर संकेत है?
(ग) 'यन्त्र कौशल प्रवाद' का क्या आशय है?
(घ) कवि ने यहाँ ज्ञान-ज्योति तथा मुक्त पुरुष कहकर किसको सम्बोधित किया है?
(ङ) महात्मा गाँधी ने क्या उपदेश दिया था?
(च) प्रस्तुत काव्यांश की भाषा कैसी है?
उत्तर :
(क) महात्मा गाँधी मानवी कला के सूत्रधार हैं।
(ख) खादी का ताना तथा उससे रंग-बिरंगे वस्त्र बनाना मानवी कला है। मनुष्य के हाथों से बुने होने के कारण खादी को मानवी कला कहा गया है।
(ग) यह बात प्रसिद्ध है कि मशीनों से अच्छा तथा जल्दी काम होता है। गाँधी जी की खादी ने इस बात को असत्य सिद्ध कर दिया।
(घ) कवि ने यहाँ, 'ज्ञान-ज्योति' तथा 'मुक्त पुरुष' कहकर महात्मा गाँधी जी को सम्बोधित किया है।
(ङ) महात्मा गाँधी का उपदेश था-'नानृत जयति सत्यं मा भै'। इसका अर्थ है कि विजय सत्य की होती है असत्य की नहीं अत: डरो मत।
(ज) प्रस्तुत काव्यांश की भाषा तत्सम शब्दावली से युक्त तथा साहित्यिक है परन्तु वह भावानुकूल और सुबोध है।
26. विचार लो कि मर्त्य हो, न मृत्यु से डरो कभी,
मरो परन्तु यों मरो कि याद तो करें सभी।
हुई न यों सुमृत्यु तो वृक्षा मरे वृथा जिये,
मरा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए।
यही पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे।
मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लि, मरे।
उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती,
उसी उदार से धरा कृतार्थभाव मानती,
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती,
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती,
अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे।
मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे।
सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है यही,
वशीकृता सदैव ही बनी हुई स्वयं मही।
विरुद्धवाद बुद्ध का दया-प्रवाह से बहा,
विनीत लोकवर्ग क्या न सामने झुका रहा?
अहा वही उदार है परोपकार जो करे।
मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे।
मनुष्य मात्र बन्धु है, यही बड़ा विवेक है,
पुराण पुरुष स्वयं पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद हैं।
परन्तु अंतरैक्य में, प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बन्धु ही न बन्धु की व्यथा हरे।
मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे।
प्रश्न :
(क) सुमृत्यु का क्या तात्पर्य है?
(ख) पशु प्रवृत्ति क्या होती है?
(ग) मनुष्य होने के लिए क्या गुण आवश्यक हैं?
(घ) 'उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती' में अलंकार लिखिए।
(ङ) उपर्युक्त पद्यांश की प्रेरणा क्या है?
(च) उपर्युक्त रचना पर अपने युग का क्या प्रभाव है?
उत्तर :
(क) किसी सत्कर्म को करते हुए मरने को सुमृत्यु कहा गया है। इस प्रकार मृत्यु का वरण करने वालों को लोग सदा आदर से याद करते हैं।
(ख) केवल अपनी ही चिन्ता करना अर्थात् स्वार्थी होना ही पशु प्रवृत्ति है। पशु केवल अपने ही चरने की चिन्ता करता है, दूसरों की नहीं।
(ग) मनुष्य होने के लिए त्याग, बलिदान तथा परोपकार आदि गुण होने आवश्यक हैं।
(घ) “उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती" में 'उ', 'स' तथा 'क' वर्गों की आवृत्ति होने से अनुप्रास अलंकार
(ङ) उपर्युक्त पद्यांश में कवि ने धर्म-जाति के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में भेदभाव करने को अनुचित माना है तथा 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की प्रेरणा दी है।
(च) उपर्युक्त रचना महात्मा गाँधी जी के युग की है। इस पर गाँधीवादी विचारों का प्रभाव स्पष्ट है।
27. कौन है अंकुश, इसे मैं भी नहीं पहचानता हूँ।
पर सरोवर के किनारे कंठ में जो जल रही है,
उस तृषा उस वेदना को जानता हूँ।
सिंधु सा उद्दाम अपरंपार मेरा बल कहाँ है?
गूंजता जिस शक्ति का सर्वत्र जयजयकार,
उस अटल संकल्प का संबल कहाँ है?
यह शिला-सा वक्ष ये चट्टान सी मेरी भुजाएँ,
सूर्य के आलोक से दीपित, समुन्नत भाल;
मेरे प्राण का सागर अगम उताल, उच्छल है।
सामने टिकतें नहीं वनराज, पर्वत डोलते हैं,
काँपता है कुंडली मारे समय का व्याल,
मेरी बाँह में मारुत, गरुड़ गजराज का बल है।
मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं,
उर्वशी! अपने समय का सूर्य हूँ मैं।
अंध तम के भालं पर पावक जलाता हूँ,
बादलों के सीस पर स्यन्दन चलाता हूँ।
पर, न जाने, बात क्या है?
'इन्द्र का आयुध पुरुष जो झेल सकता है,
सिंह से बाँहें मिला कर.खेल सकता है,
फूल के आगे वही असहाय हो जाता है,
शक्ति के रहते हुए निरुपाय हो जाता है।
विद्ध हो जाता सहज बंकिम नयन के बाण से,
जीत लेती रूपसी नारी उसे मधुर मुस्कान से।
प्रश्न :
(क) अंकुश का क्या अर्थ है?
(ख) 'पर सरोवर...जानता हूँ' का प्रतीकार्थ क्या है?
(ग) महाराज पुरुरवा ने अपनी शक्ति के बारे में क्या बताया है?
(घ) पुरुरवा किस बात से आश्चर्यचकित है?
(ङ) सुन्दर स्त्री पराक्रमी पुरुष को कैसे जीतती है?
(च) प्रस्तुत काव्यांश में किस शब्द शक्ति का प्रयोग हुआ है?
उत्तर :
(क) अंकुश हाथी को नियंत्रण में रखने के लिए प्रयोग में आने वाला एक यंत्र है। यहाँ इसका अर्थ है नियंत्रण।
(ख) महाराज पुरुरवा अत्यन्त शक्तिशाली हैं। उन पर किसी का नियंत्रण नहीं है परन्तु सुन्दरी उर्वशी को अपने सामने देखकर और उसे पाने की इच्छा होने पर भी वह अपने बल का प्रयोग करके उसे प्राप्त नहीं कर रहे। यह इसी तरह है जैसे कोई सरोवर के किनारे पर बैठा हो और उसके पानी से अपनी प्यास न बुझा रहा हो।
(ग) महाराज पुरुरवा ने बताया है कि उसकी शक्ति अपार है। उसका शिला-सा वक्ष है, चट्टान-सी बाँहें हैं तथा माथा सूर्य के समान चमकीला है।
(घ) पुरुरवा को आश्चर्य होता है कि उसकी अपार शक्ति उर्वशी के अनुपम सौन्दर्य के सामने प्रभावहीन हो गई है।
(ङ) सुन्दर स्त्री किसी पराक्रमी वीर पुरुष को केवल अपनी वक्र दृष्टि तथा मधुर मुस्कान से जीत लेती है।
(च) प्रस्तुत पद्यांश में लक्षणा शब्द-शक्ति का प्रयोग हुआ है।
28. मेरा वेतन ऐसे रानी
जैसे गरम तवे पर पानी
एक कसेली कैन्टीन से
थकन उदासी का नाता है।
वेतन के दिन-सा निश्चित ही
पहला बिल इसका आता है
हर उधार की रीत उम्र-सी
जो पाई है सो लौटानी।
दफ्तर से घर तक फैले हैं
ऋणदाता के गरम तकाजे
ओछी फटी हुई चादर में
एक ढा तो दूजी लाजे
कर्जा लेकर कर्ज चुकाना
अंगारों से आग बुझानी।
फीस ड्रैस कापियाँ किताबें
आँगन में आवाजें अनगिन
जरूरतों से बोझिल उठता
जरूरतों में ढल जाता दिन
अस्पताल के किसी वार्ड से
घर में सारी उम्र बितानी।
प्रश्न :
(क) किसी कर्मचारी का वेतन किस प्रकार का होता है?
(ख) कर्मचारी को पहला बिल किसको चुकाना पड़ता है तथा क्यों?
(ग) उधार लेने के सम्बन्ध में क्या नियम प्रचलित है?
(घ) कर्मचारी का दिन किस प्रकार व्यतीत होता है?
(ङ) घर की तुलना अस्पताल के वार्ड से क्यों की गई है?
(च) 'कर्जा लेकर कर्ज चुकाना अंगारों से आग बुझानी।' में कौन-सा अलंकार है?
उत्तर :
(क) किसी कर्मचारी का वेतन उसकी आवश्यकताओं की तुलना में बहुत कम होता है तथ जल्दी ही समाप्त हो जाता है।
(ख) कर्मचारी को पहला बिल चाय की कैण्टीन का चुकाना होता है। कर्मचारी अपनी थकान तथा उदासी बार-बार चाय पीकर दूर करता है।
(ग) उधार के सम्बन्ध में नियम यह है कि उधार का धन उसी प्रकार लौटाना अनिवार्य होता है जिस प्रकार उम्र पूरी होने पर मनुष्य का मरना अटल होता है।
(घ) कर्मचारी का दिन आवश्यकताओं को पूरा करने में ही बीत जाता है। सुबह से शाम तक वह अपने परिवार की
जरूरतें पूरी करने में लगा रहता है।
(ङ) गम्भीर रोगी को अस्पताल के वार्ड में रखा जाता है तथा उपचार के दौरान ही उसकी मृत्यु हो जाती है। अस्पताल र में यही समानता है कि बेचारा कर्मचारी घर की समस्याओं को हल करते-करते ही अन्त में दम तोड़ देता
(च) 'कर्जा लेकर कर्ज चुकाना अंगारों से आग बुझानी।' इस काव्यांश में 'दृष्टान्त' अलंकार है।
29. पोत अगणित इन तरंगों ने
डूबाए मानता मैं,
पार भी पहुँचे बहुत से
बात यह भी जानता मैं,
किन्तु होता सत्य यदि यह
भी, सभी जलयान डूबे,
पार जाने की प्रतिज्ञा
आज बरबस ठानता मैं,
मानवों के भाग्य-निर्णायक
सितारो! दो दुआएँ;
नाव, नाविक, फैर ले आ,
है नहीं कुछ काम इसका,
आज लहरों से उलझने को
आज लहरों में निमन्त्रण।
डूबता मैं, किन्तु उतराता
सदा व्यक्तित्व मेरा,
हों युवक डूबे भले ही
है कभी डूबा न यौवन!
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमन्त्रण!
आ रही प्राची क्षितिज से
खींचने वाली सदाएँ
प्राप्त हो उस पार भी इस
पार-सा चाहे अँधेरा
प्राप्त हो युग की उषा
चाहे लुटाती नव किरण-धन।
तीर पर कैसे रुकूँ मैं, फड़कती हैं भुजाएँ;
प्रश्न :
(क) पोत किसका प्रतीक है?
(ख) कवि किस बात को जानता है?
(ग) यदि सभी जलयान डूब जाते तब भी कवि क्या करता?
(घ) उपर्युक्त काव्यांश में प्रयुक्त छंद की विशेषता क्या है?
(ङ) उपर्युक्त काव्यांश की भाषा कैसी है?
(च) 'युग की उषा' और नव किरण-धन' में अलंकार बताइए।
उत्तर :
(क) 'पोत' संसार सागर में संघर्षरत मानव का प्रतीक है।
(ख) कवि जानता है कि लहरों से टकराकर कुछ पोत डूब जाते हैं परन्तु सभी पोत नहीं डूबते। कुछ उस पार भी पहुँचते हैं।
(ग) यदि यह सत्य होता कि सभी जलयान पानी में डूब जाते हैं, तब भी कवि उस पार जाने की प्रतिज्ञा करता।
(घ) उपर्युक्त काव्यांश गेय है। उसमें गीति छन्द का प्रयोग हुआ है। लय तथा. प्रवाह ही गीत की प्रमुख विशेषता होती
(ङ) उपर्युक्त काव्यांश में कवि ने सरल तथा प्रवाहपूर्ण खड़ी बोली का प्रयोग किया है। शब्द सुबोध हैं। तत्सम शब्दावली के साथ 'सितारो, दुआएँ, सदाएँ आदि प्रचलित अन्य भाषाओं के शब्दों को भी अपनाया गया है।
(च) 'युग की उषा' और 'नव-किरण-धन' में रूपक अलंकार है।
30. इस धरती के प्यार भरे आँगन में तुम सब
एक पिता की संतानों-से रह सकते हो
जैसे मेरी एक देह पर
भाँति-भाँति के मस्त परिंदे राग सुनाते।
उगने वाली कोमल कोंपल-से मुस्काते
'चिकने हरियल पत्तों-सी तालियाँ बजाते
उमर पूरी कर पीले पड़ पड़ कर झरते
बिना किसी भी भेद भाव के
सुख दुःख सब हिलमिल कर सहते
तुम भी वैसे रह सकते हो।
मेरे वृक्षवंश को आपस में लड़ता
कभी न देखा होगा तुमने
नफरत करता, कट कट मरता
नहीं कभी भी देखा होगा।
गजब लोग हो तुम
आपस में आए दिन यों जहर उगलते
दंगे कर बस्तियाँ जलाते
बसे बसाये निरपराध परिवार
खून में क्यों नहलाते?
दे दे कर धर्म की दुहाई
जंगल का मुखिया मैं हूँ, मुझको देखो!
मैं सुखद शान्ति साकार तुम्हारा वृक्षमित्र हूँ।
मुझे न काटो।
प्रश्न :
(क) मस्त पक्षी कहाँ रहकर राग सुनाते हैं?
(ख) वृक्ष ने अपने को किसका मित्र बताया है तथा क्यों?
(ग) वृक्ष ने मनुष्यों से क्या निवेदन किया है?
(घ) 'उगने वाली कोमल कोंपल-से' अलंकार बताइए।
(ङ) उपर्युक्त काव्यांश की भाषा की क्या विशेषताएँ है?
(च) कवि ने उपर्युक्त पद्यांश में क्या संदेश दिया है?
उत्तर :
(क) मस्त पक्षी वृक्षों पर रहते हैं.तथा प्रसन्नतापूर्वक राग सुनाते हैं अर्थात् चहचहाते हैं।
(ख) वृक्ष ने अपने को मनुष्यों का मित्र बताया है क्योंकि वृक्षों के कारण हरियाली और छाया रहती है, वातावरण शुद्ध रहता है, ताप से रक्षा होती है।
(ग) वृक्ष ने मनुष्यों से निवेदन किया है कि वह उसे काटें नहीं।
(घ) 'उगने वाली कोमल कोंपल से' उपमा अलंकार है। कोमल कोपल में अनुप्रास अलंकार भी है।
(ङ) उपर्युक्त काव्यांश की भाषा सरल तथा प्रवाहपूर्ण है। उसमें सुबोध शब्दों में कवि ने अपनी बात कही है। भाषा भावानुकूल है।
(च) कवि ने उपर्युक्त पद्यांश में मिल-जुलकर रहने का संदेश दिया है तथा आपस में घृणा करने और हिंसापूर्ण आचरण न करने की सलाह दी है।