Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Hindi अपठित बोध अपठित गद्यांश Questions and Answers, Notes Pdf.
अपठित गद्यांश से आशय :
अपठित शब्द 'पठ्' धातु में 'इत' प्रत्यय तथा 'अ' उपसर्ग जोड़ने से बना है। 'पठ्' धातु का अर्थ है—पढ़ना। 'अ' उपसर्ग लगने से विरुद्धार्थी अथवा विलोम शब्द बनता है। 'पठित' का अर्थ है पढ़ा हुआ तथा 'अपठित' का अर्थ बिना पढ़ा हुआ है। इस प्रकार गद्य का कोई ऐसा अंश (टुकड़ा) जो हमने पहले न पढ़ा हो, अपठित गद्यांश कहा जायेगा। सामान्यतः पाठ्यक्रम में निर्धारित गद्य से बाहर के प्रत्येक गद्यांश को अपठित गद्यांश माना जाता है।
अपठित गद्यांश के अन्त में दिए गए प्रश्नों का उत्तर देने से पूर्व उसका अर्थ जानना आवश्यक है। किसी अपठित गद्यांश को पढ़कर उसका अर्थ समझना अर्थग्रहण कहा जाता है। अपठित गद्यांश का सामान्य अर्थ जानना ही जरूरी है। यह आवश्यक नहीं है कि उसके प्रत्येक शब्द का अर्थ जाना जाय। किसी भी अवतरण को दो-तीन बार पढ़ने से उसका अर्थ समझ में आ जाता है।
अपठित गद्यांश को हल करते समय ध्यान देने योग्य बातें -
प्रश्न :
निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्न के उत्तर दीजिए -
1. वास्तव में मनुष्य स्वयं का देख नहीं पाता। उसके नेत्र दूसरों के चरित्र को देखते हैं, उसका हृदय दूसरों के दोषों को अनभव करता है। उसकी वाणी दसरों के अवगणों का विश्लेषण कर सकती है, किंत उसका अपना चरित्र, उसके अपने दोष एवम् उसके अवगुण, मिथ्याभिमान और आत्मगौरव के काले आवरण में इस प्रकार प्रच्छन्न रहते हैं कि जीवनपर्यंत उसे दृष्टिगोचर ही नहीं हो पाते। इसीलिए मनुष्य स्वयं को सर्वगुण-संपन्न देवता समझ बैठता है। व्यक्ति स्वयं के द्वारा जितना छला जाता है उतना किसी अन्य के द्वारा नहीं।
आत्मविश्लेषण कोई सहज़ कार्य नहीं। इसके लिए उदारता, सहनशीलता एवम् महानता की आवश्यकता होती है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि आत्म विश्लेषण मनुष्य कर ही नहीं सकता। अपने गुणों-अवगुणों की अनुभूति मनुष्य को सदैव रहती है। अपने दोषों से वह हर पल अवगत रहता है, किन्तु अपने दोषों को मानने के लिए तैयार न रहना ही उसकी दुर्बलता होती है और यही उसे आत्म-विश्लेषण की क्षमता नहीं दे पाती। उसमें इतनी उदारता और हृदय की विशालता ही नहीं होती कि वह अपने दोषों को स्वयं देखकर ठीक कर सके। इसके विपरीत पर निंदा एवम् पर दोष दर्शन में अपना कुछ नहीं बिगड़ना, उल्टे मनुष्य आनन्द अनुभव करता है, परंतु आत्मविश्लेषण करके अपने दोष देखने से मनुष्य के अहंकार को चोट पहुँचती है।
प्रश्न :
(क) 'वास्तव में मनुष्य स्वयं को देख नहीं पाता' इस वाक्य का आशय प्रकट कीजिए।
(ख) मनुष्य द्वारा दूसरों के अवगुण देखने तथा अपने अवगुणों को न देख पाने के पीछे क्या कारण है?
(ग) मनुष्य को अपने बारे में क्या भ्रम हो जाता है?
(घ) मनुष्य किसके द्वारा छला जाता है तथा क्यों?
(ङ) आत्म-विश्लेषण किसको कहते हैं?
(च) उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(क) वास्तव में मनुष्य स्वयं को देख नहीं पाता। इस वाक्य में मनुष्य के स्वभाव का वर्णन है। मनुष्य पर छिद्रान्वेषी होता है। उसे दूसरों के दुर्गुण तो दिखाई देते हैं परन्तु अपने दुर्गुण नहीं। स्वयं को देख न पाने का आशय है अपनी कमियों पर ध्यान न देना। वह दूसरों के दोषों को देखता है, उनके बारे में बातें करता है, उनको ही अनुभव करता है।
(ख) मनुष्य दूसरों के अवगुण तो देखता है परन्तु अपने अवगुण नहीं देख पाता। इसका कारण यह है कि उसमें आत्म-गौरव का भाव होता है। वह स्वयं को सर्वगण सम्पन्न तथा दोषरहित मानता है। उसका यही अभिमान उसे अपने दर्गणों की ओर ध्यान नहीं देने देता।
(ग) मनुष्य को यह भ्रम होता है कि वह सर्वथा दोष रहित है, वह सर्वगुण सम्पन्न देवता है।
(घ) मनुष्य अपने गुण-अवगुणों पर विचार न कर पाने तथा स्वयं को सर्वगुण सम्पन्न मानने के कारण अपने द्वारा ही छला जाता है।
(ङ) अपने दोषों और गुणों पर तटस्थ भाव से सोचने-विचारने तथा उनको स्वीकार करने को आत्म-विश्लेषण कहते हैं। इसमें अवगुणों को स्वीकार कर उनसे मुक्त होना तथा सद्गुणों का संवर्धन भी आता है।
(च) उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक है - "मनुष्य के लिए आत्म-विश्लेषण की आवश्यकता।"
2. नेतागिरी का लोभ नि:संदेह मनुष्य को पतित बनाता जा रहा है। सारा संसार नेतृत्व की अभिलाषा का शिकार होता जा रहा है। भाषण, गर्जन, तिकड़म और छल, झूठे वायदों और धोखे की कसमों से सारा सार्वजनिक वातावरण कोलाहलपूर्ण हो गया है। जहाँ देखो वहीं नेताजी नजर आएंगे। लगता यह है कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति अब नेता बनना चाहता है भले ही उसका कोई अनुगमन करने वाला न हो। जब मनुष्य ठान लेता है कि उसे अपने क्षेत्र में आगे बढ़ना है तब साध्य का आकर्षण उसके भीतर प्रबल हो उठता है और साधन की महत्ता गौण हो जाती है।
साधन की महिमा समझने वाला व्यक्ति गलत मार्ग से चलकर आगे आना नहीं चाहेगा और नेतृत्व का लोगे आना नहीं चाहेगा और नेतत्व का लोभ साधन की महिमा को कम करता है। वास्तव में व्यक्ति को अग्रसर होने की आकांक्षा रखना अस्वाभाविक नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति जीवन में आगे बढ़ना चाहता है, बढ़ना चाहिए, तभी विश्व में विकास हो सकेगा, मानव-समाज उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हो सकेगा। किंतु आगे बढ़ने की आकांक्षा रखने वाले व्यक्ति को इतना अवश्य देख लेना चाहिए कि स्वयं को आगे बढ़ाने के प्रयत्न में वह उन मूल्यों को तो नहीं कुचल रहा है, जो किसी मनुष्य के वैयक्तिक विकास में कई गुणा मूल्यवान होते हैं।
प्रश्न :
(क) आज मनुष्य का पतन किस कारण हो रहा है?
(ख) “जहाँ देखो वहीं नेताजी नज़र आएँगे" का आशय प्रकट कीजिए।
(ग) वातावरण को प्रदूषित करने में नेताओं का क्या हाथ है?
(घ) अनुयायी की आवश्यकता किसलिए होती है? इस सम्बन्ध में भारत के नेताओं की क्या दशा है?
(ङ) साध्य का आकर्षण बढ़ने पर मनुष्य क्या करता है?
(च) इस गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(क) आज मनुष्य का पतन नेता बनने के लालच के कारण हो रहा है। आज प्रत्येक मनुष्य नेता बनकर अनुचित तरीके से धन और सम्मान पाना चाहता है।
(ख) आज प्रत्येक व्यक्ति में नेता बनने की अभिलाषा है। चाहे कोई उसका अनुयायी न हो परन्तु हर व्यक्ति नेतागीरी का प्रदर्शन करता है। सड़कों पर और दफ्तरों में उचित-अनुचित व्यवहार करते और प्रत्येक बात का विरोध करने वाले लोग जगह-जगह देखे जा सकते हैं।
(ग) तथाकथित नेताओं के चरित्र तथा कार्य समाज के हित में नहीं होते। उनके विवेकहीन भाषण, तेज आवाज में बोलना, लोगों-से झूठे वायदे करना, झूठी कसमें खाना, छल-कपट का आचरण करना, अनुचित तरीकों से काम करना आदि समाज के वातावरण को दूषित करते हैं।
(घ) नेतृत्व किसी अनुयायी समाज या वर्ग का किया जाता है। बिना किसी अनुयायी अथवा. अनुगमन करने वाले के कोई नेता नहीं बन सकता। भारत में अधिकांश नेता ऐसे ही हैं जिनका कोई अनुयायी ही नहीं है।
(ङ) साध्य का आकर्षण जब बढ़ता है तो साधक उसे पाना चाहता है तथा उसे प्राप्त करने के लिए वह कैसा भी .. साधन अपनाता है। वह साधन के पवित्र या अपवित्र होने का विचार नहीं करता।
(च) गद्यांश का उचित शीर्षक है "सद्गुण और नेता"।
3. संसार में अमरता ऐसे ही लोगों को मिलती है जो अपने पीछे कुछ आदर्श छोड़ जाते हैं। बहुधा देखा गया है कि ऐसे व्यक्ति सम्पन्न परिवार में बहुत कम पैदा होते हैं। अधिकांश ऐसे लोगों का जन्म मध्यम वर्ग के घरों में या गरीब परिवारों में ही होता है। इस तरह उनका पालन-पोषण साधारण परिवार में होता है और वे सादा जीवन बिताने के आदी हो जाते हैं। - मनुष्य में विनय, उदारता, सहिष्णुता और साहस आदि चारित्रिक गुणों का विकास अत्यावश्यक है। इन गुणों का प्रभाव उसके जीवन पर पड़ता है। ये गुण व्यक्ति के जीवन को अहंकारहीन और सरल बनाते हैं। सादगी का विचारों से घनिष्ठ सम्बन्ध है।
सादा जीवन व्यतीत करना चाहिए और अपने विचारों को उच्च बनाए रखना चाहिए। व्यक्ति की सच्ची पहचान उसके विचारों और करनी से होती है। मनुष्य के विचार उसके आचरण पर प्रभाव डालते हैं और उसके विवेक को जाग्रत रखते हैं। विवेकशील व्यक्ति ही अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखता है। उन्हें अपने ऊपर हावी नहीं होने देता। सादा जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति को कभी हतप्रभ होकर अपने आत्मसम्मान पर आँच नहीं आने देनी चाहिए। सादगी मनुष्य के चरित्र का अंग है, वह बाहरी चीज नहीं है। महात्मा गाँधी सादा जीवन पसन्द करते थे और हाथ के कते और बुने खद्दर के मामूली वस्त्र पहनते थे, किन्तु अपने उच्च विचारों के कारण वे संसार में वंदनीय हो गए।
प्रश्न :
(क) संसार में अमर कौन हो पाते हैं?
(ख) अमरता पाने वालों का जन्म कैसे परिवार में होता है ?
(ग) अमरता पाने वालों को कैसा जीवन बिताने की आदत होती है?
(घ) मनुष्य पर किन गुणों का प्रभाव जीवन-भर पड़ता है?
(ङ) सादा जीवन बिताने की आदत मनुष्य में कैसे पैदा होती है?
(च) प्रस्तत गद्यांश का एक उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(क) संसार में अमरता उन लोगों को प्राप्त होती है, जो देश और समाज के हित के काम करते हैं तथा अपने पीछे कुछ आदर्श छोड़ जाते हैं।
(ख) यह देखा गया है कि अमरता प्राप्त करने वाले व्यक्ति सम्पन्न परिवार में पैदा नहीं होते। उनका जन्म मध्यम वर्ग के घरों में या गरीब परिवारों में होता है।
(ग) साधारण तथा गरीब परिवार में जन्म लेने के कारण अमरता पाने वाले मनुष्यों को सादा जीवन बिताने की आदत होती है।
(घ) विनम्रता, उदारता, सहिष्णुता, साहस इत्यादि वे गुण हैं जिनका प्रभाव किसी मनुष्य पर जीवन-भर पड़ता है। ये
गुण मनुष्य को अहंकार-मुक्त तथा सरल बनाते हैं।
(ङ) साधारण परिवार में पैदा होने वालों को सादा जीवन बिताने का अवसर मिलता है और उनको सादा जीवन बिताने की आदत बन जाती है।
(च) गद्यांश का उचित शीर्षक "महापुरुषों का जीवन"।
4. बातचीत का भी एक विशेष प्रकार का आनंद होता है। जिनको इस आनंद को भोगने की आदत पड़ जाती है, वे इसके लिए अपना खाना-पीना तक छोड़ देते हैं, अपना नुकसान कर बैठते हैं, लेकिन बातचीत से प्राप्त आनंद को नहीं छोड़ते। जिनसे केवल पत्र-व्यवहार है, कभी एक बार भी साक्षात्कार नहीं हुआ, उन्हें अपने प्रेमी से बात करने की अत्यधिक लालसा होती है। अपने मन के भावों का दूसरों के सम्मुख प्रकट करने और दूसरों के अभिप्राय को स्वयं ग्रहण करने का एकमात्र साधन शब्द ही है।
बेन जानसन का यह कथन उचित प्रतीत होता है कि बोलने से ही मनुष्य के रूप का साक्षात्कार होता है। बातचीत की सीमा दो से लेकर वहाँ तक रखी जा सकती है जहाँ वह जमात, मीटिंग या सभा न समझ ली जाए। एडीसन का मत है कि असल बातचीत सिर्फ दो में हो सकती है। जब दो से तीन हुए तब वह दो की बात कोसों दूर चली जाती है। चार से अधिक की बातचीत केवल राम रमौवल कहलाती है, इसलिए जब दो आदमी परस्पर बैठे बातें कर रहे हों और तीसरा वहाँ आ जाए तो उसे मूर्ख और अज्ञानी समझते हैं। इस बातचीत के अनेक भेद हैं। दो बुड्ढों की बातचीत प्रायः जमाने की शिकायत पर हुआ करती है। नौजवानों की बातचीत का विषय जोश, उत्साह, नई उमंग, नया होसला आदि होता है।
प्रश्न :
(क) बातचीत से लोगों को क्या प्राप्त होता है?
(ख) बातचीत से प्राप्त आनन्द के लिए लोग क्या-क्या करते हैं?
(ग) अपने प्रेमी के साथ बातें करने की लालसा किनमें अधिक होती है?
(घ) मन के भावों के आदान-प्रदान का एकमात्र साधन क्या है?
(ङ) बातचीत के विषय में बेन जानसन का क्या कहना है?
(च) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(क) बातचीत से लोगों को एक विशेष प्रकार का आनन्द प्राप्त होता है।
(ख) बातचीत से आनन्द प्राप्त करने के लिए वे खाना-पीना तक छोड़ देते हैं, अपने अन्य जरूरी काम भी छोड़ देते हैं .. परन्तु बातचीत का आनन्द नहीं छोड़ना चाहते हैं।
(ग) जिन प्रेमियों ने एक-दूसरे को देखा तक न हो जिनकी प्रेम केवल पत्र-व्यवहार पर ही आधारित हो, उनके मन में एक-दूसरे से मिलकर बातचीत करने की प्रबल इच्छा होती है।
(घ) अपने मन के भावों के आदान-प्रदान का एकमात्र साधन शब्द हैं। शब्दों के द्वारा हम अपनी बात दूसरों को बता सकते हैं तथा दसरों के विचारों को जान सकते हैं।
(ङ) बेन जानसन का कहना है कि बातचीत से ही मनुष्य के रूप का साक्षात्कार होता है। कोई मनुष्य कैसा है, यह बात उससे बातें करने के बाद ही पता चलती है।
(च) इस गद्यांश का उचित शीर्षक है "बत रस" अथवा "बातचीत का आनन्द।"
5. स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् हमारी सरकार का ध्यान इस ओर गया और 1952 में स्पष्ट वन-नीति बनाई गई। वनों के उन्मूलन को रोकने के लिए, उजड़ रहे वनों को फिर से लगाने का और देश के चप्पे-चप्पे पर वृक्ष लगाने का व्यापक कार्यक्रम बनाया गया। इसी कार्यक्रम के अंतर्गत वन-महोत्सव आता है। हम जानते हैं कि हमारे देश में अधिकतर वर्षा मानसून हवाओं के चलने पर जुलाई-अगस्त में होती है। इसलिए ये दो लगाने की दृष्टि से अधिक अनकल हैं। नम हवाओं के आलिंगन से वे शीघ्र लहलहा उठते हैं। पर्याप्त वर्षा हो जाने के बाद तैयार पौधों को उखाड़कर खाली जगह पर लगाने का काम पूरे देश में आरंभ हो जाता है, जो 15-20 दिनों तक बहुत जोर-शोर से चलता है। इस अवधि में करोड़ों पौधे लगा दिए जाते हैं पर उनमें से एक तिहाई पौधे भी पनपकर वृक्ष - नहीं बन पाते क्योंकि वे पौधे ईश्वर के भरोसे छोड़ दिए जाते हैं।
पौधों व वृक्षों की इस उपेक्षा का कारण कदाचित उनके महत्त्व की अनभिज्ञता है। वे ईंधन, फर्नीचर, कागज़ आदि जुटाते हैं। लेकिन वे हमारी इनसे भी अधिक सहायता करते हैं। हम ईंधन, फर्नीचर आदि में अन्य कृत्रिम वस्तुओं का प्रयोग कर सकते हैं पर वृक्षों के बिना वायु-प्रदूषण दूर नहीं हो सकता। हम जो साँस छोड़ते हैं उसमें कार्बन डाई ऑक्साइड Co<sub>2</sub> होता है। पेड़-पौधे ही साँस द्वारा कार्बन डाई आक्साइड को ऑक्सीजन में बदलते हैं।
प्रश्न :
(क) सरकार ने स्पष्ट वन-नीति कब बनाई?
(ख) "वन महोत्सव" किस कार्यक्रम के अन्तर्गत आयोजित होता है?
(ग) नए वृक्ष लगाने के लिए कौन-से महीने अनुकूल होते हैं तथा क्यों?
(घ) नम हवाओं का पेड़-पौधों पर क्या प्रभाव होता है?
(ङ) वृक्षारोपण अवधि के करोड़ों पौधों में एक तिहाई पौधों के ही पनपकर वृक्ष बनने के पीछे क्या कारण हैं?
(च) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
सरकार ने स्पष्ट वन-नीति सन् 1952 में भारत के स्वाधीन होने के उपरान्त बनाई। कुछ गलत। फिर सही और गलत का फैसला कैसे हो? रूढ़िवादी लोग पुरानी परिपाटी पर चलना उचित समझते हैं, लेकिन ऐसा करने से विकास का रास्ता रुक जाता है। कहा भी जाता है कि सपूत अपनी राह स्वयं बनाते हैं। हर मनुष्य यही चाहता है कि वह बिना किसी कठिनाई के सुरक्षित जीवन जिए। जब भूचाल या अन्य कोई प्राकृतिक आपदा आती है तो हम देखते हैं कि कुछ लोग चमत्कारिक रूप से बच जाते हैं। यह बचाने वाली कोई अदृश्य शक्ति है, जो हर किसी के साथ कहीं न कहीं विद्यमान है, उसके रहते डरने की कोई जरूरत नहीं है।
(क) भय से मनुष्य को क्या लाभ होता है?
(ख) भय से मनुष्य को किस प्रकार हानि होती है?
(ग) अपने काम के विषय में मनुष्य को क्या डर रहता है?
(घ) किसी के काम के विषय में लोगों को दो कौन-सी राय होती हैं?
(ङ) रूढ़िवादी लोगों की दृष्टि में कौन-सा काम अच्छा होता है?
(च) पुरानी परिपाटी पर चलने से क्या हानि होती है?
छ) आशय स्पष्ट कीजिए "सपूत अपनी राय स्वयं बनाते हैं?"
(ज) लेखक के मत में मनुष्य को डरते रहने की जरूरत क्यों नहीं है? .
(झ) “यह बचाने वाली कोई अदृश्य शक्ति है, जो हर किसी के साथ कहीं-न-कहीं विद्यमान है" इस वाक्य से सरल वाक्य बनाइए।
(ञ) इस गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
6. जीवन तीन तरह का होता है। पहला परोपकारी जीवन, दूसरा सामान्य जीवन और अपकारी जीवन। इसे उत्तम, मध्यम और अधम जीवन भी कहा जा सकता है। उत्तम जीवन उनका होता है जिन्हें दूसरों का उपकार करने में सुख का अनुभव होता है। इसे यज्ञीय जीवन भी कहा जाता है। यही दैवत्वपूर्ण जीवन है। इस जीवन का आधार यज्ञ होता है। शास्त्र में यज्ञ उसे कहा गया है जिससे प्राणीमात्र का हित होता है।
यानी जिन कर्मों से समाज में सुख, ऐश्वर्य और प्रगति में बढ़ोत्तरी होती है। चारों वेदों में कहा गया है कि सत्कर्मों पर ही धरती टिकी हुई है। अतः यदि पृथ्वी को बचाना है तो श्रेष्ठ कर्मों की तरफ समाज को लगातार प्रेरित करने के लिए कार्य करना चाहिए। सामान्य जीवन वह होता है जो परंपरा के मुताबिक चलता है, कोई बहुत ऊँची समाजोत्थान की भावना नहीं होती है। अपकारी जीवन को राक्षसी जीवन कहा जाता है। इस तरह के . जीवन से ही समाज में सभी तरह की समस्याएँ पैदा होती हैं।
यदि इस धरती को समस्याओं और हिंसा से मुक्त कराना है तो दैवत्वपूर्ण जीवन की तरफ विश्व और समाज को चलना पड़ेगा। सत्कर्म तभी किए जा सकते हैं, जब हम सोच-विचार कर कर्म करेंगे। जितना हम प्राणी हित के लिए संकल्पित होंगे, उतना हमारा बौद्धिक और आत्मिक उत्थान होगा। हमारे अन्दर मनुष्यता के भाव लगातार बढ़ते जाएँगे। प्रेम, दया, करुणा, अहिंसा, सत्य और सद्भावना की प्रकृति लगातार बढ़ती जाएगी। ये सारे सद्गुण ही जीवन यज्ञ को सफल बनाने के लिए जरूरी माने जाएँगे।
(क) जीवन कितने प्रकार का होता है?
(ख) परोपकारियों का जीवन कैसा होता है?
(ग) यज्ञीय जीवन किसको कहा गया है तथा क्यों?
(घ) शास्त्रों में यज्ञ किसको कहा गया है?
(ङ) पृथ्वी की रक्षा के लिए क्या करना आवश्यक है?
(च) सामान्य जीवन की क्या विशेषता होती है?
(छ) अपकारी जीवन का दूसरा नाम क्या है? इस जीवन की क्या विशेषता है
(ज) सत्कर्म करने से पूर्व क्या करना जरूरी है?
(झ) सरल वाक्य में बदलकर लिखिए-"यदि इस धरती को समस्याओं और हिंसा से मुक्त कराना है, दैवत्वपूर्ण जीवन की तरफ विश्व और समाज को चलना पड़ेगा।"
(अ) इस गद्यांश का एक उचित शीर्षक लिखिए।
7. आज व्यक्तिगत चित्त और लोकचित्त दोनों को सुभावित करने की आवश्यकता है। आज के युग की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए जो जीवन के मूल्य और पुरुषार्थ के उद्देश्य तथा लक्ष्य निर्धारित होते हैं उन्हीं के अनुकूल चित को सुभावित करना चाहिए। एशिया के सब देश आज राष्ट्रीयता और जनतंत्र की भावना से प्रभावित हो रहे हैं। ये ही शक्तियाँ इन देशों के आचार-विचार को निश्चित करती हैं। आज इनका कार्य सर्वत्र देखा जाता है; किन्त कुछ प्रतिगामी शक्तियाँ पुराने युग की प्रतिनिधि बनाकर इन नवीन शक्तियों के विकास की गति को रोकती हैं और हमारे जीवन को अवरुद्ध करती हैं।
ये शक्तियाँ युगधर्म के विरुद्ध खड़ी हुई हैं और जीवन-प्रवाहे को अतीत की ओर लौटना चाहती हैं और उसी को पुण्यतीर्थ कल्पित कर जीवन की अविच्छिन्न धारा से हमको पृथक करना चाहती हैं। प्रत्येक व्यक्ति और राष्ट्र को इन शक्तियों को पहचानना चाहिए और उनका विरोध करना चाहिए। विज्ञान ने कई शक्तियों को उन्मुक्त किया है। उन्होंने मानव को एक नया स्वप्न दिया है और उसके सम्मुख नये आदर्श, नए प्रतीक और लक्ष्य रखे हैं। अन्तर्राष्ट्रीयता के नये साधन और उपकरण प्रस्तुत हो रहे हैं। एक भावना सकल विश्व को व्याप्त करना चाहती है और एक नये सामंजस्य की ओर संसार बढ़ रहा है। ये शक्तियाँ सफल होकर रहेगी, क्योंकि वे युग की माँग को पूरा करना चाहती हैं।
प्रश्न :
(क) व्यक्तिगत चित्त और लोकचित्त से क्या आशय है ?
(ख) चित्त को सुभावित करने का क्या तात्पर्य है ?
(ग) मन को सुन्दर भावों से युक्त बनाना क्यों आवश्यक है ?
(घ) आज एशिया के देश किससे प्रभावित हो रहे हैं ?
(ङ) प्रतिगामी शक्तियाँ किनको कहते हैं ?
(च) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक बताइए।
उत्तर:
(क) व्यक्तिगत चित्त का अर्थ है व्यक्ति की अपनी विचारधारा तथा लोकचित्त का तात्पर्य है समाज में सर्वमान्य अथवा बहुमान्य विचार।
(ख) चित को सुभावित करने का आशय यह है कि लोगों के विचारों एवं सामाजिक सोच को उदार तथा प्रगतिशील बनाना चाहिए।
(ग) आज के समय की कुछ आवश्यकतायें तथा आकांक्षायें हैं : उनको प्राप्त करना ही जीवन का लक्ष्य है। लोगों के तथा समाज के विचारों को उनके अनुकूल बनाने के लिए उनमें सुन्दर भावों को भरना जरूरी है।
(घ) एशिया के सभी देश आज जनतंत्र तथा राष्ट्रीयता की भावना से प्रभावित हो रहे हैं।
(ङ) जो शीक्तयाँ व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के समयानुकूल विकास का विरोध करती हैं, समय के अनुसार होने वाले परिवर्तन को स्वीकार नहीं करती तथा पुरानी अनुपयोगी बातों से चिपकी रहती हैं, उनको प्रतिगामी शक्तियाँ कहते हैं।
(च) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उचित शीर्षक है-'विश्वव्यापी नवजागरण'।
8. साहित्यिकार बहुधा अपने देशकाल से प्रभावित होता है। जब कोई लहर देश में उठती है, तो साहित्यकार के लिए उससे अविचलित रहना असंभव हो जाता है। उसकी विशाल आत्मा अपने देश-बन्धुओं के कष्टों से विकल हो उठती है और इस तीव्र विकलता में वह रो उठता है; पर उसके रुदन में भी व्यापकता होती है। वह स्वदेश का होकर भी सार्वभौमिक रहता है। 'टाम काका की कुटिया' गुलामी की प्रथा से व्यथित हृदय की रचना है; पर आज उस प्रथा के उठ जाने पर भी उसमें वह व्यापकता है कि हम लोग भी उसे पढ़कर मुग्ध हो जाते हैं। सच्चा साहित्य कभी पुराना नहीं होता।
वह सदा नया बना रहता है। दर्शन और विज्ञान समय की गति के अनुसार बदलते रहते हैं; पर साहित्य तो हृदय की वस्तु है और मानव हृदय में तब्दीलियाँ नहीं होती। हर्ष और विस्मय, क्रोध और द्वेष, आशा और भय, आज़ भी हमारे मन पर उसी तरह अधिकृत हैं, जैसे आदि कवि वाल्मीकि के समय में थे और कदाचित अनन्त तक रहेंगे। रामायण के समय का समय अब नहीं है, महाभारत का समय भी अतीत हो गया, पर ये ग्रन्थ अभी तक नये हैं।
साहित्य ही सच्चा इतिहास है क्योंकि उसमें अपने देश और काल का जैसा चित्र होता है, वैसा कोरे इतिहास में नहीं हो सकता। घटनाओं की तालिका इतिहास नहीं है और न राजाओं की लड़ाइयाँ ही इतिहास है। इतिहास जीवन के विभिन्न अंगों की प्रगति का नाम है और जीवन पर साहित्य से अधिक प्रकाश और कौन वस्तु डाल सकती है क्योंकि साहित्य अपने देशकाल का प्रतिबिम्ब होता है।
प्रश्न :
(क) साहित्यकार किस बात से प्रभावित होता है ?
(ख) देशकाल का क्या तात्पर्य है ?
(ग) साहित्यकार के रुदन में व्यापकता होने का क्या आशय है ?
(घ) कारण स्पष्ट कीजिए-"सच्चा साहित्य कभी पुराना नहीं होता वह सदा नयो बना रहता है।"
(ङ) हर्ष, विस्मय, क्रोध, द्वेष, आशा, भय इत्यादि कैसे मनोविकार हैं ?
(च) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(क) साहित्यकार बहुधा अपने देशकाल से प्रभावित होता है।
(ख) 'देश' का अर्थ स्थान तथा 'काल' का अर्थ समय है। लेखक के जीवन में घटने वाली बातें उसके लेखन को प्रभावित करती हैं। लेखन पर स्थान तथा समय के इसी पड़ने वाले प्रभाव को देशकाल कहते हैं।
(ग) साहित्यकार अपने देशबन्धुओं के कष्ट से व्याकुल होता है। वह रो उठता है। उसका यह रुदन व्यापक होता है, क्योंकि साहित्यकार का स्वदेश प्रेम विश्व प्रेम का ही पर्याय होता है।
(घ) सच्चे साहित्य का प्रभाव समय तथा स्थान की सीमा नहीं मानता। देशकाल का बन्धन तोड़कर वह सदा देशों को आकर्षित करता रहता है। इसी कारण वह सदा नया रहता है, कभी पुराना नहीं होता।
(ङ) हर्ष, विस्मय, क्रोध, द्वेष, आशा, भय इत्यादि स्थायी मनोविकार हैं। ये वाल्मीकि के समय में भी लोगों के हृदय में उठते थे, आज भी उठते हैं और भविष्य में भी उठते रहेंगे।
(च) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक है - देशकाल और साहित्य'।
9. साहित्यिक ज्ञान के खोखलेपन के साथ, जिसको मैं प्रायः प्रकट नहीं होने देता, मुझमें नैतिक गाम्भीर्य का अभाव रहा है। यद्यपि परहित के धर्म का उचित से कम मात्रा में ही पालन कर सका हूँ, तथापि पर-पीड़न की अधमाई से यथासम्भव बचता रहता हूँ, मुझमें कमजोरियाँ रहीं किन्तु मैंने उन कमजोरियों को कमजोरियाँ ही कहा। यद्यपि मैंने महात्मा गाँधी की भाँति उनका उद्घाटन नहीं किया फिर भी उनको किसी भव्य आचरण के नीचे छिपाने का प्रयत्न भी किया।
अपनी कमजोरियों के ज्ञान ने मुझे दूसरों की कमजोरियों के प्रति उदार बनाया। दूसरे पक्ष को मैंने सदा मान लिया। अपनी भूल को स्वीकार करने के लिए सदा तैयार रहा। इसी कारण मैं दूसरों के वैर-विरोध से बचा रहा, यद्यपि कभी-कभी ऐसी बात सुनने को मिल गई "दूसरों के प्रति अपराध कर उनका नुकसान कर, क्षमा माँगने से क्या लाभ ? यह तो जता मारकर दशाले से पोंछने की नीति हुई।" दूसरे के किये हुए उपकारों का मैं प्रत्युपकार तो नहीं कर सका, पर अपने उपकारी के लिए यही शुभ-कामना करता रहा कि वह ऐसी परिस्थिति में न आये कि उसको मेरे प्रत्युपकार की जरूरत पड़े और मैं भी आलस्य का सुखद धर्म त्यागकर कष्ट में प., किन्तु मैंने उपकार के बदले अपकार करने की चेष्टा भी नहीं की और न कभी उपकारी का कृतघ्न ही हुआ। मेरे विरोधियों द्वारा किया हुआ अपकार मेरे हृदय से पानी की लकीर की भाँति सहज में तो विलीन नहीं हो गया, किन्तु वह पत्थर की लकीर नहीं बना।
प्रश्न :
(क) लेखक ने अपनी किन दो कमियों का वर्णन किया है?
(ख) 'परहित' और 'परपीड़न' के बारे में लेखक ने क्या कहा है ?
(ग) अपनी कमजोरियों को जानने से लेखक को क्या लाभ हुआ ?
(घ) दूसरों के विरोध से बचने का उपाय इस गद्यांश के आधार पर लिखिए।
(ङ) जूता मारकर दुशाले से पोंछने का क्या तात्पर्य है ?
(च) इस गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(क) लेखक ने अपनी दो कमियों के बारे में बताया है। पहली है, साहित्यिक ज्ञान का खोखलापन तथा दूसरी है नैतिक गम्भीरता की कमी।
(ख) लेखक ने कहा है कि वह परहित के कार्य तो कम ही कर सका है परन्तु उसने दूसरों को पीड़ा पहुँचाने के कार्यों से जहाँ तक हो सका, बचने का प्रयास किया है।
(ग) अपनी कमजोरियों को जानने से लेखक को यह लाभ हुआ कि उसने दूसरों की कमजोरियों के प्रति उदारता दिखाई।
(घ) दूसरे पक्ष की बातों को मानना तथा अपनी भूलों की क्षमा याचना करने से अनावश्यक बैर-विरोध से बचा जा सकता है।
(ङ) जूते मारकर दुशाले से पोंछने का अर्थ हैं - पहले किसी का अपमान करना, उसको बुरा-भला कहना और अपने इस दुव्यवहार के लिए क्षमा याचना करना।
(च) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक है- 'मेरी असफलतायें'।
10. परीक्षा की तैयारी के साथ ही रहन-सहन में और अधिक सादगी लाने की कोशिश शुरू की। मैंने देखा कि अभी मेरी सादगी अपने कुटुम्ब की गरीबी से मेल नहीं खाती। भाई की तंगदस्ती और उनकी उदारता को सोचकर मन खिन्न हो उठा। आठ और पन्द्रह पौंड मासिक खर्च करने वालों को तो छात्रवृत्तियाँ मिलती थीं। अपने से अधिक सादगी से रहने वाले भी मुझे दिखाई देते थे। ऐसे बहुत-से गरीब विद्यार्थियों से मेरा परिचय हो गया था। एक गरीब विद्यार्थी लंदन के 'कंगाल-मुहाल' में दो शिलिंग प्रति सप्ताह किराये पर एक कमरा लेकर रहता था और लोकार्ट की सस्ती कोको की दुकान में दो पेनी का कोको और रोटी खाकर गुजर करता था।
उसका मुकाबला करने की तो मुझमें हिम्मत न थी, पर यह देखा कि मैं अवश्य दो के बजाय एक कमरे में गुजर कर सकता हूँ और आधा खाना अपने आप भी पका सकता हूँ। इस तरह चार या पाँच पौंड माहवार में रह सकता हूँ। सादा रहन-सहन पर मैंने किताबें भी पढ़ी थीं। दो कमरे छोड़े और आठ शिलिंग प्रति सप्ताह पर एक कमरा लिया। एक अँगीठी खरीदी और सवेरे का खाना हाथ से पकाना शुरू कर दिया। पकाने में मुश्किल से बीस मिनट लगते थे। जई का दलिया और कोको के लिए पानी उबालने में और लगने ही कितने ? दोपहर को बाहर खा लेता और शाम को फिर कोको बनाकर रोटी के साथ लेता। यह मेरा अधिक-से-अधिक पढ़ाई का समय था। जीवन सादा हो जाने से समय अधिक बचा। दूसरी बार इम्तहान में बैठने पर पास हो गया।
प्रश्न :
(क) इस गद्यांश में किन दो कोशिशों के बारे में बताया गया है ?
(ख) "अभी मेरी सादगी अपने कुटुम्ब की गरीबी से मेल नहीं खाती" का क्या आशय है ?
(ग) गाँधीजी का मन क्यों खिन्न हो उठा ?
(घ) आठ और पन्द्रह पौंड मासिक खर्च उठा सकते थे ?
(ङ) गाँधी किसका मुकाबला नहीं कर सकते थे?
(च) प्रस्तुत गद्यांश का शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(क) इस गद्यांश में बताया गया है कि लेखक ने दो कोशिशें की (1) परीक्षा में पास होने की तथा (2) अपने रहन-सहन में सादगी लाने की।
(ख) अभी मेरी सादगी अपने कुटुम्ब की गरीबी से मेल नहीं खाती। इस वाक्य का आशय है कि लेखक का परिवार गरीब था और उसका सादा रहन-सहन भी बहुत खर्चीला था।
(ग) गाँधी के भाई का हाथ तंग था परन्तु उनको खर्च के लिए उदारतापूर्वक पैसे भेजता था। यह देखकर गाँधी जी का मन खिन्न हो उठा।
(घ) आठ और पन्द्रह पौंड मासिक खर्च बे ही उठा पाते थे, जिनको छात्रवृत्तियाँ मिलती थीं।
(ङ) एक गरीब विद्यार्थी। वह लंदन के कंगाल मुहाल में दो शिलिंग प्रति सप्ताह के किराये के कमरे में रहता था तथा लोकार्ट की सस्ती कोको की दुकान में दो पेनी का कोको और रोटी खाकर गुजारा करता था। मितव्ययता में उसका मुकाबला करने की शक्ति गाँधीजी में नहीं थी।
(च) प्रस्तुत गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक है.'गाँधीजी की सादगी।'
11. बचपन में मेलों में जाने की अजीब उमंग थी, उछाह था। साथ में देख-रेख के लिए लोग जाते थे, पर मन में यही होता था कि कब उनको झांसा देकर आगे निकल जाएँ और अपने हमउम्र साथियों के साथ स्वतंत्र विचरें, अपार सागर में उमंग की छोटी-सी नाव लेकर खो जाने का भय हो और उस भय में भी एक न्योता हो कि खोकर देखें कि खोना कैसा होता है। घर में लुका-छिपी के खेल में छिपना मुश्किल होता है, कहीं ओट नहीं मिलती और भीड़ से बड़ी कोई ओट नहीं होती, भीड़ से बड़ा कोई भय भी नहीं होता। अपने आदमी भी भीड़ में पराये हो जाते हैं।
कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि भीड़ में। आदमी गिर जाता है तो कोई अपना ही कुचलकर चल देता है क्योंकि उस समय वह आदमी होता ही नहीं, भीड़ होती है। भीड़ कई प्रकार की होती है। एक भीड़ होती है रेलयात्रा की जिसमें आदमी स्थान के लिये लड़ता-झगड़ता है, फिर थोड़ी ही देर में जाने कितने जन्मान्तर का परिचय जग जाता है, बिछुड़ते हुए भावुक हो जाता है। एक भीड़ होती है ऐसे जुलूस की जिसमें उमंग ही उमंग होती है, एक अंग दूसरी के लिये एक प्रेरक होती है, वह भीड़ अब स्वाधीन भारत में नहीं दिखायी पड़ती। ऐसे भी जुलूस होते हैं जहाँ भीड़, भाड़े के आदमियों की होती है, जिन्हें पता ही नहीं होता कि हम किसलिये जुलूस में शरीक हैं। वहाँ बुलवाये गये नारे होते हैं, मन में वादा की गई धनराशि की चिंता होती है। वहाँ उमंग नहीं होती, उमंग का परिहास होता है।
प्रश्न :
(क) बचपन में लेखक को किस बात का उत्साह रहता था?
(ख) वह किनको झांसा देकर भाग जाना चाहता था ?
(ग) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
(इ) आशय प्रकट कीजिये-'भी
(ई) ओट नहीं होती।'
(ङ) भीड़ के मनोविज्ञान का वर्णन उक्त अंश के आधार पर कीजिए। .
(च) "वहाँ उमंग नहीं होती, उमंग का परिहास होता है।" इस कथन को स्पष्ट करके समझाइये।
उत्तर :
(क) बचपन में लेखक को मेलों में जाने का भारी उत्साह रहता था।
(ख) कुछ लोग लेखक के साथ उसकी देख-रेख के लिए भेजे जाते थे। वह उनको झाँसा देकर भाग जाना चाहता था।
(ग) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक 'भीड़ का मनोविज्ञान' हो सकता है।
(घ) भीड़ से बड़ी कोई ओट नहीं होती। भीड़ में छिपने के लिए बहुत जगह होती है। भीड़ में छिपे किसी व्यक्ति को पहचानकर पकड़ना सरल नहीं होता।
(ङ) भीड़ में अपने भी पराये हो जाते हैं। भीड़ में कोई किसी को नहीं पहचानता। भीड़ में छिपना सरल होता है। भीड़ में यदि कोई मनुष्य धक्का खाकर गिर जाता है तो कोई अपना ही उसे कुचलकर आगे बढ़ जाता है। भीड़ केवल भीड़ होती है, भीड़ आदमी नहीं होती।
(च) भाड़े पर एकत्र किए गए लोगों की भीड़ को अपना तय भाड़ा पाने की ही चिन्ता होती है। उनके मन में जुलूस में शामिल होने की उमंग नहीं होती। वे जुलूस से सच्चे मन से जुड़े हुए नहीं होते। उनका जुलूस में शामिल होना एक तरह का मजाक होता है।
12. हमारी संस्कृति के मूल अंगों पर प्रकाश डाला जा चुका है। भारत में विभिन्न जातियों के पारस्परिक सम्पर्क में आने से संस्कृति की समस्या कुछ जटिल हो गयी। पुराने जमाने में द्रविड़ और आर्य-संस्कृति का समन्वय बहुत उत्तम रीति से हो गया था। इस समय मुस्लिम और अंग्रेजी संस्कृतियों का मेल हुआ है। हम इन संस्कृतियों से अछूते नहीं रह सकते हैं। इन संस्कृतियों में से हम कितना छोड़ें, यह हमारे सामने बड़ी समस्या है। अपनी भारतीय संस्कृति को तिलांजलि देकर इनको अपनाना आत्महत्या होगी।
भारतीय संस्कृति की समन्वय-शीलता यहाँ भी अपेक्षित है किन्तु समन्वय में अपना न खो बैठना चाहिए। दूसरी संस्कृतियों के जो अंग हमारी संस्कृति में अविरोध रूप से अपनाए जा सकें उनके द्वारा अपनी संस्कृति को सम्पन्न बनाना आपत्तिजनक नहीं। अपनी-अपनी संस्कृति की बातें चाहें अच्छी हों या बुरी, चाहे दूसरों की संस्कृति से म्ल खाती हों या न खाती हों, उनसे लज्जित होने की कोई बात नहीं।
प्रश्न
(क) प्राचीन भारत में किन दो संस्कृतियों का समन्वय हआ था ?
(ख) वर्तमान में किन दो संस्कृतियों के समन्वय की समस्या है ?
(ग) मुस्लिम तथा अंग्रेजी संस्कृतियों के साथ समन्वय में कठिनाई क्या है ?
(घ) मुस्लिम तथा अंग्रेजी संस्कृतियों से समन्वय करते समय क्या दृष्टिकोण अपनाना चाहिए ?
(ङ) लेखक किसको लज्जा का विषय नहीं मानता ?
(च) उपर्युक्त गद्यांश का एक चित शीर्षक बताइए।
उत्तर-
(क) प्राचीन भारत में दो संस्कृतियों का समन्वय हुआ था। ये संस्कृतियाँ थीं -उत्तर की आर्य संस्कृति तथा दक्षिण की द्रविड़ संस्कृति।
(ख) वर्तमान में भारत का अंग्रेजों तथा मुसलमानों की संस्कृतियों से सम्पर्क हुआ है। इनके प्रभाव से बचना संभव नहीं। है। इन दोनों संस्कृतियों के साथ समन्वय की प्रक्रिया अभी पूरी नहीं हुई है। यह अभी भी समस्या बनी हुई है।
(ग) समन्वय की प्रक्रिया में किसी संस्कृति की सभी बातों को नहीं अपनाया जा सकता। समस्या यह है कि अंग्रेजों तथा मुसलमानों की संस्कृतियों की कितनी तथा कौन-सी बातें छोड़ी जायें और कौन-सी 'ग्रहण की जायें।
(घ) मुस्लिम तथा अंग्रेजी संस्कृतियों के साथ समन्वय करते समय हमें सजग रहना चाहिए। भारतीय संस्कृति को त्यागकर इनको ग्रहण करना आत्महत्या होगी। इन संस्कृतियों की उन्हीं बातों को ग्रहण करना चाहिए जो भारतीय संस्कृति में अविरोध-भाव से अपनाई जा सकें और भारतीय संस्कृति की समृद्धि को बढ़ाने वाली हों।
(ङ) अपनी संस्कृति की उन बातों पर लज्जित होने की कोई जरूरत नहीं है तो दूसरों की संस्कृति से मेल नहीं खाती। वे बातें चाहे अच्छी हों अथवा बुरी हमें उन पर लज्जा नहीं आनी चाहिए।
(च) गद्यांश का उचित शीर्षक "भारतीय संस्कृति की समस्याएँ" हैं।
13. देश-प्रेम है क्या ? प्रेम ही तो है। इस प्रेम का आलंबन क्या है ? सारा देश अर्थात् मनुष्य, पशु, पक्षी, नदी, नाले, वन, पर्वत सहित सारी भूमि। यह प्रेम किस प्रकार का है ? यह साहचर्यगत प्रेम है। जिनके बीच हम रहते हैं, जिन्हें बराबर आँखों से देखते हैं, जिनकी बातें बराबर सुनते रहते हैं, जिनका हमारा हर घड़ी का साथ रहता है; सारांश यह है कि जिनके सान्निध्य का हमें अभ्यास पड़ जाता है, उनके प्रति लोभ या राग हो सकता है। देश-प्रेम आदि वास्तव में यह अंत:करण का कोई भाव है तो यही हो सकता है। यदि यह नहीं तो वह कोरी बकवास या किसी और भाव के संकेत के लिए गढ़ा हुआ शब्द है।
यदि किसी को अपने देश से सचमुच प्रेम है तो उसे अपने देश के मनुष्य, पशु, पक्षी, लता, गुल्म, पेड़, पत्ते, वन, पर्वत, नदी, निर्झर आदि सबसे प्रेम होगा, वह सबको चाह भरी दृष्टि से देखेगा, वह सबकी सुध करके विदेश में आँसू बहाएगा। जो यह भी नहीं जानते कि कोयल किस चिड़िया का नाम है, जो यह भी नहीं सुनते कि चातक कहाँ चिल्लाता है, जो यह भी आँख भर नहीं देखते कि आम प्रणय-सौरभपूर्ण मंजरियों से कैसे लदे हुए हैं, जो यह भी नहीं झाँकते कि किसानों के झोंपड़ों के भीतर क्या हो रहा है, वे यदि दस बने-ठने मित्रों के बीच प्रत्येक भारतवासी की औसत आमदनी का परता बताकर देश-प्रेम का दावा करें तो उनसे पूछना चाहिए कि भाइयो ! बिना रूप-परिचय का यह प्रेम कैसा ? जिसके दुःख-सुख के तुम कभी साक्षी नहीं हुए, उन्हें तुम सुखी देखना चाहते हो, यह कैसे समझें ? उनसे कोसों दूर बैठे-बैठे, पड़े-पड़े या खड़े-खड़े तुम विलायती बोली में अर्थशास्त्र की दुहाई दिया करो, पर प्रेम का नाम उसके साथ न घसीटो।
प्रश्न :
(क) देश-प्रेम का आलंबन क्या है ?
(ख) साहचर्यगत प्रेम किसको कहते हैं ?
(ग) देश-प्रेम को साहचर्यगत प्रेम क्यों बताया गया है ?
(घ) देश से सच्चा प्रेम करने वाला किससे प्रेम करता है ?
(ङ) देश के पशु-पक्षी तथा वनस्पति से अपरिचित व्यक्ति का देश-प्रेम कैसा होता है ?
(च) उपर्युक्त गद्यांश का कोई उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(क) देश प्रेम का आलम्बन समस्त देश है। देश से सम्बन्धित सभी वस्तुएँ भूमि, पर्वत, नदी-नाले, पेड़ गौधे, पशु-पक्षी तथा मनुष्य भी इसका आलम्बन हैं।
(ख) जिन लोगों, प्राणियों, स्थानों और वस्तुओं को हम प्रतिदिन देखते हैं और जिनके सानिध्य में रहते हैं, उनके प्रति प्रेम की माप ही साहचर्यगत प्रेम है।(ग) देश-प्रेम को साहचर्यगत प्रेम कहा गया है। वह देश की भूमि, वहाँ के नदी-पर्वत, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों तथा मनुष्यों के सानिध्य में रहने के कारण उत्पन्न होता है। साथ रहने के कारण उत्पन्न होने के कारण इसको साहचर्यगत प्रेम कहा गया है।
(घ) देश से सच्चा प्रेम करने वाला देश से सम्बन्धित प्रत्येक मनुष्य, जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, नदी-पर्वत, स्थान आदि से प्रेम करता है। वह देश की प्रकृति और पशु-पक्षियों की मोहकता से आकर्षित होता है। वह वहाँ के निवासियों के दुखः-दर्द से प्रभावित होता है।
(ङ) यदि कोई व्यक्ति देश के पश-पक्षियों के बारे में नहीं जानता, कोयल और चातक की बोली को नहीं पहचानता, मंजरियों से लदे आम की सुगन्ध से आकर्षित नहीं होता, वह देश के निवासियों की औसत आमदनी की चर्चा करने मात्र से देशप्रेमी नहीं हो जाता। उसका देश-प्रेम रूप-परिचय से विहीन दिखावटी प्रेम होता है।
(च) उपर्युक्त गद्यांश का उचिो शीर्षक है - "सच्चा देश-प्रेम"।
14. सरल भाषा के दो अर्थ हो सकते हैं। एक यह है कि भाषा हजार-पाँव सौ शब्दों तक सीमित कर दी जाए, जो प्रथम बेसिक इंगलिश के सम्बन्ध में किया गया है। दूसरा अर्थ है कि भाषा सरल हो और बहुजन समुदाय की समझ में आए। मैंने मालवीय जी की हिन्दी सुनी है। उससे ज्यादा सरल और आसान हिन्दुस्तानी मैंने नहीं सुनी। उनके शब्द ज्यादातर दो या तीन अक्षर के होते थे। अगर उनकी भाषा को इस कसौटी पर कसा जाए कि उसमें अरबी अथवा अंग्रेजी से उपजे कितने शब्द होते थे, तो वह बड़ी कड़ी भाषा थी। लेकिन यह ना .मझ कसौटी होगी।
बहुजन समुदाय और शायद मुसलमानों की भी समझ के लायक जितनी वह भाषा थी, उससे ज्यादा और कोई नहीं। आखिर रहीम और जायसी मुसलमान थे या नहीं। - रेडियो के समाचार में मुझे एक बार दो शब्द बार-बार सुनने को मिले, 'फैक्टरी' और 'बिल'। 'रेडियो' का इस्तेमाल मैंने जानबूझकर किया है, न कि रेडिओ। जब भारतीय विद्वान् और सरकारी लोग अन्तर्राष्ट्रीय शब्दों की बात करते हैं, तब वे भूल जाते हैं कि इन शब्दों के अनेक रूप हैं। वे अंग्रेजी रूप को ही अन्तर्राष्ट्रीय रूप मान बैठे हैं, जो बड़ी ना-समझी है।
प्रश्न :
(क) भाषा को सरल किस प्रकार बनाया जा सकता है ?
(ख) मालवीय जी की हिन्दी किस प्रकार की थी ?
(ग) लेखक ने नासमझ की कसौटी किसको कहा है ?
(घ) बहुजन समाज तथा मुसलमानों की समझ के लिए मालवीय की भाषा कैसी थी?
(ङ) अन्तर्राष्ट्रीय शब्दों के किाने रूप हैं ?
(च) उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(क) 'भाषा को सरल बनाने के लिए उसके शब्द भण्डार को हजार-पाँच सौ शब्दों तक सीमित किया जा सकता है परन्तु यह अव्यावहारिक है। सही उपाय यह है कि भाषा का स्वरूप ऐसा बनाया जाय कि वह इतनी सरल हो कि बहुसंख्यक भाषा-भाषी जन उसे आसानी से समझ सकें।
(ख) मालवीय जी की हिन्दी अत्यन्त सरल थी। उसमें ज्यादातर दो-तीन अक्षरों वाले शब्द होते थे। उसमें अरबी और अंग्रेजी के प्रचलित शब्द भी होते थे।
(ग) यदि यह देखा जाय कि मालवीय जी की भाषा में अरबी, अंग्रेजी आदि के कितने शब्द होते थे और इस आधार पर उसकी परीक्षा की जाय कि वह सरल भाषा थी या नहीं, तो यह नासमझ की कसौटी होगी। वीय जी की भाषा बहजन समाज और मसलमानों को भी आसानी से समझ में आने वाली थी। अधिकांश लोग उसे सरलता से समझ लेते थे।
(ङ) अन्तर्राष्ट्रीय शब्दों के अनेक रूप होते हैं। केवल अंग्रेजी भाषा के शब्दों को ही अन्तर्राष्ट्रीय मान लेना बहुत बड़ी भूल है।
(च) उपयुक्त गद्यांश का शीर्षक 'सरल भाषा की शब्दावली'।
15. कुम्भ का मुख्य प्रदर्शन साधुओं का गंगा स्नान है। ये साधु अपने-अपने पन्थ का जुलूस बनाकर एक निश्चित क्रम से ब्रह्मकुण्ड में स्नान करने जाते हैं। इन जुलूसों को साही या स्याही कहते हैं, ये स्याहियाँ देखने लायक होती हैं। इनमें बाजे होते हैं, हाथी होते हैं, घोड़े होते हैं, पालकियाँ होती हैं, चाँदी के भाले-बल्लम और पंखे होते हैं। हाथियों पर चाँदी की अम्बारियाँ-हौद और मखमल की जरी-जड़ी में होती हैं। ये पुराने राजाओं की सवारियों से किसी बात में कम नहीं होती और इन्हें देखकर नवयुग के पत्रकार को अपने स पूछना पड़ता है : 'युग की जिस धारा में हमारे देश के राजा तिनकों से भी सस्ते बह गये, उसमें धर्म के राजा कब तक टिके रहेंगे ?'
प्रश्न बड़ा बेधक है, पर इसका उत्तर उस दिन मिला, जिस दिन साधुसम्राट जगद्गुरु शंकराचार्य का जुलूस निकला। आगे-आगे दो बाजे, इसके बाद चाँदी-सोने के भाले-बल्लम और मखमली पंखे और तब चाँदी की अम्बारी में विराजमान जगद्गुरु; पीछे हजारों संन्यासी।
यह अम्बारी इतनी विशाल और बोझिल कि हाथी की कमर पर पड़े तो वह अपने कन्धे पर पुढे साधने को विवश हो, पर आज यह बाहर मानवीय कन्धों पर प्रतिष्ठितं और ये कन्धे न भक्तों के, न शिष्यों के, कुछ रुपयों पर लाये गये मजदूर मानवों के, जिनकी देह फटे-मैले वस्त्रों में ढंकी हुई, हाँ नंगे नहीं दीखते तो ढंकी हुई ही, पैर नंगे और मैं देखा रहा हूँ कि ये बारह दीन मानव पिसे जा रहे हैं, भीड़ से भी और बोझ से भी।
प्रश्न :
(क) कुम्भ में मुख्यतः क्या दिखाई देता है ?
(ख) साध गंगा स्नान किस तरह करते है
(ग) स्याही किसे कहते हैं ?
(घ) स्याहियों में क्या देखने योग्य होता है ?
(ङ) जगद्गुरु शंकराचार्य का जुलूस कैसा था ?
(च) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
(क) कुम्भ में मुख्य रूप से साधुओं द्वारा गंगा-स्नान का ही प्रदर्शन होता है।
(ख) साधु अपने-अपने पंथ का जुलूस बनाकर निश्चित क्रम से ब्रह्मकुण्ड में स्नान करते हैं।
(ग) गंगा-स्नान के लिए जाने वाले साधुओं के जुलूसों को साही अथवा स्याही कहा जाता है।
(घ) स्याहियों में बाजे होते हैं। उनमें हाथी, घोड़े, पालकियाँ तथा चाँदी के भाले-बल्लम और पंखे होते हैं। हाथियों पर चाँदी की अम्बारियाँ और जरी के काम वाली मखमल की झूलें होती हैं। ये पुराने राजाओं की सवारी के समान होती हैं।
(ङ) जगद्गुरु शंकराचार्य के जुलूस में आगे दो बाजे थे। इसके बाद सोने-चाँदी के भाले-बल्लम तथा मखमल के पंखे थे। बाद में चाँदी की अम्बारी में जगद्गुरु विराजमान थे। उनके पीछे हजारों साधु-संन्यासी चल रहे थे।
(च) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक है। 'धर्म का आडंबर'।
16. मेरा मन पूछता है-किस ओर ? मनुष्य किस ओर बढ़ रहा है ? पशुता की ओर या मनुष्यता की ओर, अस्त्र बढ़ाने की ओर या अस्त्र काटने की ओर ? मेरी निर्बोध बालिका ने मानो मनुष्य-जाति से ही प्रश्न किया है—जानते हो, नाखून क्यों बढ़ते हैं ? यह हमारी पशुता के अवशेष हैं। मैं भी पूछता हूँ-जानते हो, ये अस्त्र-शस्त्र क्यों बढ़ रहे हैं ? ये हमारी पशुता की निशानी हैं। भारतीय भाषाओं में प्रायः ही अंग्रेजी के 'इण्डिपेण्डेन्स' शब्द का समानार्थक शब्द नहीं व्यवहत होता। 15 अगस्त को जब अंग्रेजी भाषा के पत्र ‘इण्डिपेण्डेन्स' की घोषणा कर रहे थे, देशी भाषा के पत्र 'स्वाधीनता दिवस' की चर्चा कर रहे थे। 'इण्डिपेण्डेन्स' का अर्थ है- अनधीनता या किसी की अधीनता का अभाव पर 'स्वाधीनता' शब्द का अर्थ है अपने ही अधीन रहना। अंग्रेजी में कहना हो, तो 'सेल्फडिपेण्डेन्स' कह सकते हैं।
प्रश्न :
(क) लेखक अपने मन में मनुष्य के बारे में क्या सोच रहा है ?
(ख) नाखून और अस्त्र-शस्त्रों में क्या समानता है ?
(ग) नाखूनों का और अस्त्रों का बढ़ना मनुष्य की किस प्रवृत्ति का सूचक है ?
(घ) हिन्दी में 'इण्डिपेण्डन्स' शब्द का समानार्थी शब्द क्या है ?
(ङ) स्वाधीनता और 'इण्डिपेण्डेन्स' में क्या भेद है ?
(च) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक बताइए।
उत्तर :
(क) लेखक अपने मन में प्रश्न कर रहा है कि मनुष्य किस ओर बढ़ रहा है ? मनुष्य की ओर या पशुता की ओर ?
(ख) नाखून सूचित करते हैं कि मनुष्य पहले असभ्य और जंगली था। अस्त्र-शस्त्रों से पता चलता है कि वह अभी भी जंगली है और सभ्य नहीं हुआ है।
(ग) नाखूनों और अस्त्रों का बढ़ना मनुष्य की पशु-प्रवृत्ति को सूचित करता है।
(घ) हिन्दी में 'इण्डिपेण्डेन्स' का समानार्थी शब्द है - 'अनधीनता'।
(ङ) स्वाधीनता का अर्थ है-अपने अधीन होना, किसी भी कार्य पर अपना ही नियंत्रण होना। अंग्रेजी भाषा के 'इण्डिपेण्डेन्स' का अर्थ है-अनधीनता अर्थात् किसी के अधीन न होना। यह शब्द नियंत्रण से मुक्ति का सूचक है।
(च) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक है-'मानवता और आत्मसंयम'।
17. जिन्दगी के असली मजे उनके लिए नहीं हैं, जो फूलों की छाँह के नीचे खेलते और सोते हैं बल्कि फूलों की छाँह के नीचे अगर जीवन का कोई स्वाद छिपा है, तो वह भी उन्हीं के लिए है, जो दूर रेगिस्तान से आ रहे हैं, जिनका कण्ठ सूखा हुआ, ओंठ फटे हुए और सारा बदन पसीने से तर है। पानी में जो अमृत वाला तत्त्व है, उसे वह जानता है जो धूप में सूख चुका है, वह नहीं जो रेगिस्तान में कभी पड़ा ही नहीं है।
सुख देने वाली चीजें पहले भी थी और अब भी हैं, फर्क यह है कि जो सुखों का मूल्य पहले चुकाते हैं और उनके मजे बाद में लेते हैं, उन्हें स्वाद अधिक मिलता है। जिन्हें आराम आसानी से मिल जाता है, उनके लिए आराम ही मौत है। जो लोग पाँव भीगने के खौफ से पानी से बचते रहते हैं, समुद्र में डूब जाने का खतरा उन्हीं के लिए है। लहरों में तैरने का जिन्हें अभ्यास है, वे मोती लेकर बाहर आएँगे।
प्रश्न :
(क) फूलों की छाँह के नीचे खेलने और सोने का क्या तात्पर्य है ?
(ख) रेगिस्तान में यात्रा करने से क्या कष्ट होता है ?
(ग) जिन्दगी का मजा कौन उठा सकता है ?
(घ) सुख देने वाली चीजों से अधिक सुख किनको मिलता है ?
(ङ) पानी में स्थित अमृत वाले तत्व को कौन पहचानता है ?
(च) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(क) फूलों की छाँह के नीचे खेलने और सोने का तात्पर्य सुखी तथा आरामतलब जीवन व्यतीत करने से तथा श्रम से बचने से है।
(ख) रेगिस्तान की यात्रा करने वाले को कष्ट उठाना पड़ता है। उसका गला सूख जाता है और होंठ फट जाते हैं। उसका पूरा शरीर पसीने से लथपथ हो जाता है। वह गर्मी और प्यास से बेचैन हो जाता है।
(ग) कठोर श्रम करने वाले तथा कठिनाइयों से जूझने वाले ही जिन्दगी का असली मजा उठा सकते हैं।
(घ) सुख देने वाली चीजें सुख तो देती हैं परन्तु जो पहले कष्ट उठा चुका होता है उसको उन चीजों से ज्यादा सुख मिलता है।
(ङ) पानी में स्थित अमृत तत्त्व को वही पहचानते हैं, जिसने धूप की तपिश झेली है तथा रेगिस्तान की गर्मी को देखा
(च) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक-'सच्चा जीवन' है।
18. भिन्न-भिन्न भाषाओं के भीतर बहने वाली हमारी भावधारा एक. है तथा हम प्रायः एक ही तरह के विचारों तथा कथा-वस्तुओं को लेकर अपनी-अपनी बोली में साहित्य-रचना करते हैं। रामायण और महाभारत को लेकर भारत की प्रायः सभी भाषाओं के बीच अद्भुत एकता मिलेगी, क्योंकि ये दोनों काव्य सबके उपजीव रहे हैं। इसके सिवाय संस्कृत और प्राकृत में भारत का जो साहित्य लिखा गया था, उसका प्रभाव भी सभी भाषाओं की जड़ में काम कर रहा है।
विचारों की एकता जाति की सबसे बड़ी एकता होती है। अतएव, भारतीय जनता की एकता के असली आधार भारतीय दर्शन और साहित्य हैं जो अनेक भाषाओं में लिखे जाने पर भी, अन्त में जाकर एक ही साबित होते हैं। हमारी एकता का दूसरा प्रमाण यह है कि उत्तर या दक्षिण, चाहे जहाँ भी चले जायें, आपको जगह-जगह पर एक ही संस्कृति के मन्दिर दिखायी देंगे। दोनों एक धर्म के अनुयायी और संस्कृति की एक ही विरासत के भागीदार हैं। उन्होंने देश की आजादी के लिए एक होकर लड़ाई लड़ी और आज उनकी पार्लमेन्ट और प्रशासन-विधान भी एक हैं।
प्रश्न :
(क) भारत की भिन्न-भिन्न भाषाओं में किस प्रकार की एकता है ?
(ख) रामायण और महाभारत का भारत की भाषाओं पर क्या प्रभाव है ?
(ग) “विचारों की एकता जाति की सबसे बड़ी एकता होती है" इस पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
(घ) भारतीय दर्शन और साहित्य की क्या विशेषता है?
(ङ) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
(च) भारत की स्वाधीनता के बाद उत्तर तथा दक्षिण के भारतीयों की एकता को किससे शक्ति प्राप्त हुई है ?
उत्तर :
(क) भारत की अनेक भाषायें हैं। इन भिन्न-भिन्न भाषाओं में एक ही तरह के विचारों तथा कथावस्तु को लेकर साहित्य रचा गया है। सभी में भावों की एक ही धारा प्रवाहित है।
(ख) रामायण तथा महाभारत का प्रभाव भारत की प्रत्येक भाषा तथा उसके साहित्य पर है। उनका साहित्य इन महाकाव्यों से प्रेरित है।
(ग) भारत की भाषाओं में रचे गये साहित्य में समान विचार हैं। भारतीय दर्शन भी एक जैसी बातें कहते हैं। जब विचार समान और एक होते हैं तो जाति की एकता और मजबूत हो जाती है।
(घ) भारतीय दर्शन साहित्य में उत्तर-दक्षिण का भेदभाव नहीं है। उनमें विचारों और विश्वासों की समानता तथा एकता पाई जाती है।
(ङ) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक होगा भारतीय एकता।
(च) भारत की स्वाधीनता के बाद उत्तर भारतीय तथा दक्षिण भारतीय लोगों की एकता को भारत के शासन विधान तथा संसद के एक ही होने से शक्ति प्राप्त हुई है।
19. साहस की जिंदगी सबसे बड़ी जिंदगी होती है। ऐसी जिंदगी की सबसे बड़ी पहचान यह है कि वह बिल्कुल निडर, बिल्कुल बेखौफ़ होती है। साहसी मनुष्य की पहली पहचान यह है कि वह इस बात की चिंता नहीं करता कि तमाशा देखने वाले लोग उसके बारे में क्या सोच रहे हैं। जनमत की उपेक्षा करके जीने वाला आदमी दुनिया की असली ताकत होता है और मनुष्य को प्रकाश भी उसी आदमी से मिलता है। अड़ोस-पड़ोस को देखकर चलना, यह साधारण जीव का काम है।
क्रांति करने वाले अपने उद्देश्य की तुलना न तो पड़ोसी के उद्देश्य से करते हैं और न अपनी चाल को ही पड़ोसी की चाल देखकर मद्धिम बनाते हैं। साहसी मनुष्य उन सपनों में भी रस लेता है जिन सपनों का कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं है। साहसी मनुष्य सपने उधार नहीं लेता, पर वह अपने विचारों में रमा हुआ अपनी ही किताब पढ़ता है। अर्नाल्ड बेनेट ने एक जगह लिखा है कि जो आदमी यह महसूस करता है कि किसी महान निश्चय के समय वह साहस से काम नहीं ले सका, जिंदगी की चुनौती को कबूल नहीं कर सका, वह सुखी नहीं हो सकता।
प्रश्न :
(क) सबसे बड़ी जिन्दगी कौन-सी होती है ? उसकी पहचान क्या है ?
(ख) “जनमत की उपेक्षा करके जीने वाला आदमी दुनिया की असली ताकत होता है। इस कथन को स्पष्ट करके समझाइए।
(ग) साधारण मनुष्य क्या करते हैं ?
(घ) क्रान्ति करने वालों का जीवन कैसा होता है तथा वे क्या करते हैं ?
(ङ) अव्यावहारिक सपनों में रस लेने का तात्पर्य क्या है ?
(च) इस गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(क) साहस की जिंदगी सबसे बड़ी जिंदगी होती है। निडर और बेखौफ होना ही उसकी पहचान है।
(ख) जो आदमी अपना मार्ग स्वयं बनाता है, उसे दूसरों के बताए रास्ते पर चलना ठीक नहीं लगता। संसार के लोग एक-दूसरे के पिछलग्गू होते हैं। इस कारण दुनिया को भेड़चाल कहते हैं। लोक प्रचलित मान्यताओं पर ध्यान न देकर अपने विवेक से नवीन विचारों और मान्यताओं को बनाने और अपनाने वाला मनुष्य ही संसार का मार्गदर्शन करता है। संसार को सच्ची शक्ति ऐसे ही महापुरुषों से प्राप्त होती है।
(ग) साधारण मनुष्य अपने देश और समाज में प्रचलित मान्यताओं के अनुसार ही चलते हैं। वे अपने पास-पड़ोस का अनुकरण करते हैं। नवीन विचारों को अपनाने और नवीन रास्ते पर चलने का साहस उनमें नहीं होता।
(घ) क्रान्ति करने वालों का जीवन पुराने विचारों को छोड़कर नवीन विचारों का सृजन करने वाला होता है। वे यह नहीं देखते कि उसके पड़ोसी किस उद्देश्य के लिए तथा कैसे काम करते हैं। वे अपना लक्ष्य तथा कार्यपद्धति स्वयं निश्चित करते हैं। वे दूसरों की ओर नहीं देखते, अपने. ही तरीके से काम करते हैं।
(ङ) साहसी व्यक्ति अपनी हिम्मत से उन कार्यों को भी करता है जो समाज द्वारा व्यावहारिक नहीं माने जाते। वह व्यावहारिकता से परे एक आदर्शवादी मनुष्य होता है।
(च) इस गद्यांश का उचित शीर्षक है. "साहसपूर्ण जीवन।"
20. भीष्म ने कभी बचपन में पिता की गलत आकांक्षाओं की तृप्ति के लिए भीषण प्रतिज्ञा की थी-वह आजीवन विवाह नहीं करेंगे। अर्थात् इस संभावना को ही नष्ट कर देंगे कि उनके पुत्र होगा और वह या उसकी संतान कुरुवंश के सिंहासन पर दावा करेगी। प्रतिज्ञा सचमुच भीषण थी। कहते हैं कि इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही वह देवव्रत से 'भीष्म' बने। यद्यपि चित्रवीर्य और विचित्रवीर्य तक तो कौरव-रक्त रह गया था तथापि बाद में वास्तविक कौरव-रक्त समाप्त हो गया, केवल कानूनी कौरव वंश चलता रहा। जीवन के अंतिम दिनों में इतिहास-मर्मज्ञ भीष्म को यह बात क्या खली नहीं होगी ?
भीष्म को अगर यह बात नहीं खली तो और भी बुरा हुआ। परशुराम चाहे ज्ञान-विज्ञान की जानकारी का बोझ ढोने में भीष्म के समकक्ष न रहे हों, पर सीधी बात को सीधा समझने में निश्चय ही वह उनसे बहुत आगे थे। वह भी ब्रह्मचारी थे बालब्रह्मचारी। भीष्म जब अपने निर्वीर्य भाइयों के लिए कन्याहरण कर लाए और एक कन्या को अविवाहित करने के बाध्य किया, तब उन्होंने भीष्म के इस अशोभन कार्य को क्षमा नहीं किया। समझाने-बुझाने तक ही नहीं रुके, लड़ाई में की। पर भीष्म अपनी प्रतिज्ञा के शब्दों से चिपटे ही रहे। वह भविष्य नहीं देख सके, वह लोक कल्याण को नहीं सम्म सके। फलत: अपहृता अपमानित कन्या जल मरी।
प्रश्न :
(क) देवव्रत को भीष्म कहकर क्यों पुकारा गया ?
(ख) भीष्म ने क्या प्रतिज्ञा की थी?
(ग) भीष्म ने भीषण प्रतिज्ञा क्यों की थी ?
(घ) चित्रवीर्य और विचित्रवीर्य कौन थे ?
(ङ) भीष्म तथा परशुराम में गुणों सम्बन्धी क्या अन्तर था ?
(च) प्रस्तुत गद्यांश के लिए एक उचित शीर्षक सुझाइए।
उत्तर :
(क) देवव्रत ने भीषण प्रतिज्ञा की थी कि उस पर जीवनपर्यन्त अडिग रहे थे। प्रतिज्ञा की भीषणता के कारण वह भीष्म कहलाये।
(ख) भीष्म ने प्रतिज्ञा की थी कि वह जीवन में कभी विवाह नहीं करेंगे, आजीवन अविवाहित रहेंगे और इस स्भावना को ही मिटा देंगे कि उनका पुत्र या उसकी संतान कुरुवंश के सिंहासन पर बैठने का दावा करेगी।
(ग) भीष्म ने आजीवन अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा की थी। उनके पिता धीवर कन्या मत्स्यगंधा पर आसक्त हो गए थे। मत्स्यगंधा का पिता चाहता था कि उसके दोहित्र ही कुरुवंश के सिंहासन के अधिकारी हों। तब भीष्म ने अविवाहित हने की प्रतिज्ञा उसको संतुष्ट करने के लिए की थी। वह विवाह नहीं करेंगे तो न उनके पुत्र का कोई पुत्र ही होगा। वह स्वयं भी राजसिंहासन पर दावा नहीं करेंगे।
(घ) चित्रवीर्य और विचित्रवीर्य मत्स्यगंधा के गर्भ से जन्म लेने वाले महाराज शांतनु के पुत्र थे। वे भीष्म के संतेले भाई थे। .
(ङ) भीष्म ज्ञान-विज्ञान पर अधिकार रखते थे परन्तु लोकहित की सीधी बात उनकी समझ से बाहर थी। परशुराम लोकहित की सीधी-सच्ची बात को सरलता से समझ लेते थे। यद्यपि उनको ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में महारत हासित नहीं थी। दोनों ही बालब्रह्मचारी थे।
(च) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक है 'भीष्म की भीषण भूल'।
21. तुम्हें क्या करना चाहिए, इसका ठीक-ठीक उत्तर तुम्हीं को देना होगा, दूसरा कोई नहीं दे सकत। कैसा भी विश्वास- पात्र मित्र हो, तुम्हारे इस काम को वह अपने ऊपर नहीं ले सकता। हम अनुभवी लोगों की बातों को आदर के साथ सुनें, बुद्धिमानों की सलाह को कृतज्ञतापूर्वक मानें, पर इस बात को निश्चित समझकर कि हमारे कामों से ही हमारा उत्थान अथवा पतन होगा। हमें अपने विचार और निर्णय की स्वतंत्रता को दृढ़तापूर्वक बनाए रखना चाहिए।
जिस पुरुष की दृष्टि सदा नीची रहती है, उसका सिर कभी ऊपर न होगा। नीची दृष्टि रखने से यद्यपि रास्ते पर रहेंगे, पर इस बात को नदेखेंगे कि यह रास्ता कहाँ ले जाता है। चित्त की स्वतंत्रता का मतलब चेष्टा की कठोरता या प्रकृति की उग्रता नहीं है। आने व्यवहार में कोमल रहों और अपने उद्देश्यों को उच्च रखो, इस प्रकार नम्र और उच्चाशय दोनों बनो। अपने मन को कभी मरा हुआ न रखो। जो मनुष्य अपना लक्ष्य जितनी ही ऊपर रखता है, उतना ही उसका तीर ऊपर जाता है।
संसार में ऐसे-ऐसे दृढ़ चित्त मनुष्य हो गए हैं जिन्होंने मरते दम तक सत्य की टेक नहीं छोड़ी, अपनी आत्मा के विरुद्ध कोई काम नहीं किया। राजा हरिश्चंद्र के ऊपर इतनी इतनी विपत्तियाँ आईं, पर उन्होंने अपना सत्य नहीं छोड़ा। उनकी प्रतिज्ञा यही रही-
चंद्र टरै, सूरज टरै, टरै जगत व्यवहार।
पै दृढ़ श्री हरिश्चंद्र कौ, टरै न सत्य विचार।।
प्रश्न :
(क) मनुष्य के कर्तव्य-कर्म के निर्धारण में कौन सहायक होता है ?
(ख) 'अपने मन को कभी मरा हुआ मत रखो' का आशय क्या है ?
(ग) मन की स्वतंत्रता का क्या तात्पर्य है ?
(घ) लक्ष्य ऊँचा रखने से मनुष्य को क्या लाभ होता है ?
(ङ) राजा हरिश्चन्द्र ने जीवनभर किस प्रतिज्ञा का पालन किया था ?
(च) उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(क) अपने कर्तव्य-कर्म का निर्धारण मनुष्य को स्वयं करना होता है। वह मित्रों तथा अन्य लोगों से मंत्रणा कर सत्ता है, अनुभवी लोगों की बातों को सादर सुन सकता है परन्तु उसको क्या करना है, यह निर्णय उसको स्वयं ही करना होते है।
(ख) 'अपने मन को कभी मरा हुआ मत समझो'। इस पंक्ति का आशय है कि हमको अपने आपको कभी निर्बल, अयोय या असमर्थ नहीं समझना चाहिए। हमारा मन हमारा सच्चा मार्गदर्शक होता है। हमें निराश और निरुत्साहित नहीं होना चाहिए। आशा, उत्साह और पराक्रम से ही सफलता मिलती है।
(ग) मन की स्वतंत्रता का अर्थ दूसरों पर निर्भर न रहकर स्वयं ही सोच-विचार कर निर्णय करना है। इसका यह अर्थ नहीं है कि हम दूसरों की सलाह का निरादर करें, उनके साथ कठोर व्यवहार करें और हमारे कार्यों से अविनय झलके।
(घ) लक्ष्य ऊँचा रखने से मनुष्य को जीवन में सफलता मिलने की संभावना अधिक होती है। वह अपने ऊँचे लक्ष्य को पाने के लिए कठोर परिश्रम करता है तथा लगन से काम करता है। परिणामस्वरूप वह जीवन में आगे बढ़ता है।
(क) राजा हरिश्चन्द्र ने सत्य पर दृढ़ रहने की प्रतिज्ञा की थी। उनकी प्रतिज्ञा थी कि सूर्य और चन्द्रमा अपना मार्ग भटक सकते है परन्तु हरिश्चन्द्र सत्य पर अटल रहने की अपनी प्रतिज्ञा से पीछे नहीं हटेंगे।
(च) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उचित शीर्षक - 'आत्म-निर्भरता' है।
22. ज्ञान राशि के संचिन कोष ही का नाम साहित्य है। सब तरह के भावों को प्रकट करने की योग्यता रखने वाली और निदौत होने पर भी, यदि कोई भाषा अपना निज का साहित्य नहीं रखती तो वह, रूपवती भिखारिन की तरह, कदापि आदरणीय नहीं हो सकती। उसकी शोभा, उसकी श्रीसम्पन्नता, उसी मान-मर्यादा उसके साहित्य पर ही अवलम्बित रहती है। जाति विशेष के उत्कर्षापकर्षक का, उसके उच्चनीय भावों का, उसके धार्मिक विचारों और सामाजिक संघटन का उसके ऐतिहासिक घटनाचक्रों और राजनैतिक स्थितियों का प्रतिबिंब देखने को यदि कहीं मिल सकता है तो उसके ग्रंथ साहित्य ही में मिल सकता है।
सामाजिक शक्ति या सजीवता, सामाजिक अशक्ति या निर्जीवता और सामाजिक सभ्यता तथा असभ्यता का निर्णायद एकमात्र साहित्य है। जातियों की क्षमता और सजीवता यदि कहीं प्रत्यक्ष देखने को मिल सकती है तो उसके साहित्यरूपी आईने में ही मिल सकती है। इस आईने के सामने जाते ही हमें यह तत्काल मालूम हो जाता है कि अमुक जाति की जीवनी-शक्ति इस समय कितनी या कैसी है और भूतकाल में कितनी और कैसी थी।
प्रश्न :
(क) साहित्य किस कहते हैं ?
(ख) निजी साहित्य से विहीन कोई भाषा की दशा कैसी होती है ?
(ग) किसी भाषा के साहित्य से किसी जाति के बारे में क्या पता चलता है ?
(घ) साहित्य किस बात का एकमात्र निर्णायक होता है ?
(ङ) साहित्य की तुलना आईने से करने का क्या कारण है ?
(च) इस गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(क) विभिन्न प्रकार के ज्ञान को संग्रह करने से जो कोष बनता है, उसी को साहित्य कहते हैं। अर्थात् विभिन्न प्रकार के ज्ञान का संग्रह ही साहित्य कहलाता है।
(ख) जिस भाषा का कोई अपना साहित्य नहीं होता, वह आदरणीय नहीं होती। वह एक ऐसी भिखारिन के समान होती है जो रूपवती तो है किन्तु निर्धन है। समाज में कोई उसका सम्मान नहीं करता।
(ग) किसी भाषा के साहित्य से उसको बोलने वाले लोगों के समाजे का पूरा परिचय मिलता है। किसी जाति के उत्थान-पत्तन, धार्मिक विचारों, सामाजिक संघटन, राजनैतिक और ऐतिहासिक घटनाओं आदि का पता उसके साहित्य से चलता है।
(घ) साहित्य किसी समाज के शक्तिशाली या अशक्त होने, सजीव अथवा निर्जीव होने, सभ्य या असभ्य होने आदि एकमात्र निर्णायक होता है।
(ङ) साहित्य की तुलना आईने से की गई है। आईने के सामने खड़े होकर हम अपने शरीर के सबल या दुर्बल, सुन्दर या असुन्दर होने आदि के बारे में जान लेते हैं। इसी प्रकार किसी जाति के साहित्य को पढ़कर उसकी सक्षमता, सजीवता और जीवनी-शक्ति के बारे में जाना जा सकता है।
(च) उपयुक्त शीर्षक - 'साहित्य की महत्ता।'
23. इसे चाहे स्वतंत्रता कहो, चाहे आत्मनिर्भरता कहो, चाहे स्वावलंबन कहो, जो कुछ कहो, यह वही भाव है जिससे मनुष्य और दास में भेद जान पड़ता है, यह वही भाव है जिसकी प्रेरणा से राम-लक्ष्मण ने घर से निकल बड़े-बड़े पराक्रमी वीरों पर विजय प्राप्त की, यह वही भाव है जिसकी प्रेरणा से हनुमान ने अकेले सीता की खोज की, यह वही भाव है, जिसकी प्रेरणा से कोलंबस ने अमेरिका समान बड़ा महाद्वीप ढूँढ़ा निकाला। चित्त की इसी वृत्ति के बल पर कुंभनदास ने अकबर के बुलाने पर फतेहपुर सीकरी जाने से इनकार किया और कहा था "मोको कहा सीकरी सों काम।"
इस चित्त-वृत्ति के बल पर मनुष्य इसलिए परिश्रम के साथ दिन काटता है और दरिद्रता के दुःख को झेलता है जिससे उसे ज्ञान के अमित भंडार में से थोड़ा-बहुत मिल जाए। इसी चित्त-वृत्ति के प्रभाव से हम प्रलोभनों का निवारण करके उन्हें सदा पददलित करते हैं, कुमंत्रणाओं का तिरस्कार करते हैं और शुद्ध चरित्र के लोगों से प्रेम और उनकी रक्षा करते हैं। इसी चित्त-वृत्ति के प्रभाव से युवा पुरुष कार्यालयों में शांत और सच्चे रह सकते हैं और उन लोगों की बातों में नहीं आ सकते, जो आप अपनी मर्यादा खोकर दूसरों को भी अपने साथ बुराई के गड्ढे में गिराना चाहते हैं।
इसी चित्त-वृत्ति के प्रताप से बड़े-बड़े लोग ऐसे समयों में भी, जबकि उनके साथियों ने उसका साथ छोड़ दिया है, अपने महत्त्वपूर्ण कार्यों में अग्रसर होते गए हैं और यह सिद्ध करने में समर्थ हुए हैं कि निपुण, उत्साही और परिश्रमी पुरुषों के लिए कोई अड़चन ऐसी नहीं, जो कहे कि "बस यहीं तक, और आगे न बढ़ना।" इसी चित्त-वृत्ति की दृढ़ता के सहारे दरिद्र लोग दरिद्रता और अनपढ़ लोग अज्ञता से निकलकर उन्नत हुए हैं तथा उद्योगी और अध्यवसायी लोगों ने अपनी समृद्धि का मार्ग निकाला है।
प्रश्न :
(क) मनुष्य और दास में भेद किससे पता चलता है ?
(ख) कुंभनदास कौन थे ? उन्होंने फतेहपुरसीकरी के मुगल शासक अकबर से क्या कहा था ?
(ग) मनुष्य अपने किस गुण के सहारे दरिद्रता का दुःख झेलता है ?
(घ) युवक कार्यालयों में अपनी सच्चाई और ईमानदारी की रक्षा किस प्रकार कर सकते हैं ?
(ङ) कार्य में अड़चनें आने पर भी कौन अपने कार्यों में सफलता पाता है ?
(च) प्रस्तुत गद्यांश के लिए उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(क) मनुष्य स्वतंत्र होता है। उसको अपने विचारों पर अधिकार होता है। वह अपने निर्णय के अनुसार कार्य करता है। दास भी होता तो मनुष्य ही है परन्तु वह पराधीन होता है तथा उसको किसी काम को अपनी इच्छानुसार करने का अधिकार नहीं होता।
(ख) कुंभनदास ब्रजभाषा के अष्टछाप के कवियों में से एक थे। वे भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त थे। बादशाह अकबर ने उनकी कीर्ति सुनकर उनको फतेहपुर सीकरी बुलाया था। कुंभनदास राज्याश्रित कवि बनना नहीं चाहते थे। इससे उनको ईश्वर-भजन में बाधा जान पड़ी और उन्होंने अकबर को कहला भे जा- मुझे सीकरी आने की क्या आवश्यकता है ? वहाँ आने पर मेरे जूते ही टूटेंगे और हरिभजन में बाधा पड़ेगी।
(ग) मनुष्य अपने स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता के गुण के सहारे दरिद्रता का दुख झेल लेता है।
(घ) युवक कार्यालयों में लगन से तथा अपने बल पर कार्य करें तथा किसी की बातों और प्रलोभनों में न आवे तो अपने स्वावलंबन के गुण के सहारे वे वहाँ ईमानदारी और सच्चाई की रक्षा कर सकते हैं।
(ङ) कार्यों में अड़चनें आना स्वाभाविक ही है परन्तु कार्य-कुशल, परिश्रमी और उत्साही लोग समस्त अड़चनों को दूर करते हुए अपने कार्यों में सफल होते हैं।
(च) प्रस्तुत गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक है-'स्वावलंबन का महत्व।
24. साधारणतः सत्य का अर्थ सच बोलना मात्र ही समझा जाता है, परंतु गाँधीजी ने व्यापक अर्थ में 'सत्य' शब्द का प्रयोग किया है। विचार में, वाणी में और आचार में उसका होना ही सत्य माना है। उनके विचार में जो सत्य को इस विशाल अर्थ में समझ ले उसके लिए जगत् में और कुछ जानना शेष नहीं रहता। परंतु इस सत्य को पाया कैसे जाए ? गाँधीजी ने इस संबंध में अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किए हैं-एक के लिए जो सत्य है, वह दूसरे के लिए असत्य.हो सकता है।
इसमें घबराने की बात नहीं है। जहाँ शुद्ध प्रयत्न है वहाँ भिन्न जान पड़ने वाले सब सत्य एक ही पेड़ के असंख्य भिन्न दिखाई देने वाले पत्तों के समान हैं। परमेश्वर ही क्या हर आदमी को भिन्न दिखाई नहीं देता ? फिर भी हम जानते हैं कि वह एक ही है। पर सत्य नाम ही परमेश्वर का है। सत्य की खोज के साथ तपश्चर्या होती है अर्थात् आत्मकष्ट-सहन की बात होती है, उसके पीछे मर मिटना होता है, अतः उसमें स्वार्थ की तो गंध तक भी नहीं होती। ऐसी निःस्वार्थ खोज में लगा हुआ आज तक कोई अत पर्यन्त गलत रास्ते पर नहीं गया।
ऐसी ही अहिंसा वह स्थल वस्तु नहीं है जो आज हमारी दृष्टि के सामने है। किसी को न मारना, इतना तो है ही। कुविचार मात्र हिंसा है, उतावली हिंसा है। मिथ्या भाषण हिंसा है। द्वेष हिंसा है। किसी का बुरा चाहना हिंसा है। जगत् के लिए जो आवश्यक वस्तु है, उस पर कब्जा रखना भी हिंसा है।
प्रश्न :
(क) सत्य का सामान्य और व्यापक अर्थ क्या है ?
(ख) सत्य के व्यापक अर्थ को जानने वाला गाँधीजी के मत में कैसा व्यक्ति होता है ?
(ग) “एक के लिए जो सत्य है, वह दूसरे के लिए असत्य हो सकता है"- यह कहने से गाँधीजी का तात्पर्य क्या है?
(घ) कौन-सी बातें गाँधीजी के अनुसार हिंसा के अन्तर्गत आती हैं ?
(ङ) सत्य की खोज में लगा हुआ व्यक्ति गलत रास्ते पर क्यों नहीं जाता?
(च) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(क) सत्य बोलना सत्य का सामान्य अर्थ है, परन्तु विचारों, बोली-बातचीत और व्यवहार में सत्य को स्थान देना उसका व्यापक अर्थ है।
(ख) सत्य के व्यापक अर्थ को जानने वाला मनुष्य गाँधीजी के मत में सब कुछ जान चुका होता है। उसे संसार में और कुछ जानना बाकी नहीं रहता।
(ग) एक के लिए जो सत्य है वह दूसरे के लिए असत्य हो सकता है। भिन्न दिखाई देने वाले सत्य के रूप एक ही वृक्ष के अनेक पत्तों के समान होते हैं। ईश्वर भी हर आदमी को अलग दिखाई देता है परन्तु वह है तो एक ही। सत्य भी परमेश्वर का नाम है। ___(घ) किसी को जान से मारना ही हिंसा नहीं है। गाँधी जी के अनुसार बुरे विचार, उतावलापन, मिथ्या भाषण, द्वेष, किसी का बुरा चाहना तथा जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं पर एकाधिकार भी हिंसा है।
(ङ) सत्य की खोज तपस्या है। इसमें परहित के लिए नि:स्वार्थ भाव से कष्ट सहना और त्याग करना होता है। जिसमें स्वार्थ का लेश मात्र भी न हो उसे खोज में लगा व्यक्ति गलत रास्ते पर नहीं जा सकता।
(च) उचित शीर्षक सत्य और अहिंसा।
25. हम जिस तरह भोजन करते हैं, गाछ-बिरछ भी उसी तरह भोजन करते हैं। हमारे दाँत हैं, कठोर चीज खा सकते हैं। नन्हें बच्चों के दाँत नहीं होते, वे केवल दूध पी सकते हैं। गाछ-बिरछ के भी दाँत नहीं होते, इसलिए वे केवल तरल द्रव्य या वायु से भोजन ग्रहण करते हैं। गाछ-बिरछ जड़ के द्वारा माटी से रसपान करते हैं। चीनी में पानी डालने पर चीनी गल जाती है। माटी में पानी डालने पर उसके भीतर बहुत-से द्रव्य गल जाते हैं। गाछ-बिरछ वे ही तमाम द्रव्य सोखते हैं। जड़ों को पानी न मिलने पर पेड़ का भोजन बंद हो जाता है; पेड़ मर जाता है।
खुर्दबीन से अत्यंत सूक्ष्म पदार्थ स्पष्टतया देखे जा सकते हैं। पेड़ की डाल अथवा जड़ का इस यंत्र द्वारा परीक्षण करके देखा जा सकता है कि पेड़ में हजारों-हजार 'नल हैं। इन्हीं सब नलों के द्वारा माटी से पेड़ के शरीर में रस का संचार होता है। इसके अलावा गाछ के पत्ते हवा से आहार ग्रहण करते हैं। पत्तों में अनगिनत छोटे-छोटे मुँह होते हैं। खुर्दबीन के जरिए अनगिनत मुँह पर अनगिनत होंठ देखे जा सकते हैं। जब आहार करने की जरूरत न हो तब दोनों होंठ बंद हो जाते हैं।
प्रश्न :
(क) वृक्ष भोजन किसके द्वारा ग्रहण करते हैं ?
(ख) पानी न मिलने पर वृक्ष क्यों मर जाता है ?
(ग) खुर्दबीन से क्या देखा जा सकता है ?
(घ) पेड़ में विद्यमान हजारों नलों की क्या उपयोगिता है ?
(ङ) आहार ग्रहण करने में वृक्ष के पत्तों का क्या योगदान है ?
(च) इस गद्यांश का चित शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(क) वृक्ष भोजन अपनी जड़ों के द्वारा ग्रहण करते हैं।
(ख) पानी में मिट्टी से निकलकर अनेक द्रव्य मिल जाते हैं जिन्हें पेड़ अपनी जड़ों द्वारा सोख लेते हैं। यही उनका भोजन है। पानी न मिलने पर वृक्ष को भोजन नहीं मिलता और वह मर जाता है।
(ग) खुर्दबीन से अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थों को स्पष्ट देखा जा सकता है।
(घ) पेड़ की डालियों तथा तने में हजारों नल होते हैं। इन नलों के द्वारा ही जड़ों द्वारा ग्रहण किया गया तरल भोजन वृक्ष के पत्तों तक पहुँचता है। ये नल भूमि से जल को सोखकर वृक्ष के विभिन्न अंगों तक पहुँचाने में उपयोगी हैं।
(ङ) वृक्ष के पत्तों में छोटे-छोटे अनगिनत मुँह होते हैं। मुँह पर अनगिनत होंठ भी होते हैं। इनके द्वारा वृक्ष सूर्य का प्रकाश ग्रहण करते हैं। जरूरत न होने पर दोनों होठ बन्द हो जाते हैं।
(च) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक 'गाछ-बिरछ का महत्व'।
26. जिन लेखों और विश्लेषणों को हम पढ़ते हैं, वे राजनीतिक तकाज़ों से लाभ-हानि का हिसाब लगाते हुए लिखे जाते हैं, इसलिए उनमें पक्षधरता भी होती है और पक्षधरता के अनुरूप अपर पक्ष के लिए व्यर्थता भी। इसे भजनमंडली के बीच का भजन कह सकते हैं। सांप्रदायिकता अर्थात् अपने संप्रदाय की हित-चिंता अच्छी बात है। यह अपनी व्यक्तिगत क्षुद्रता से आगे बढ़ने वाला पहला कदम है, इसके बिना मानव-मात्र की हित-चिंता, जो अभी तक मात्र एक ख़याल ही बना रह गया है, की ओर कदम नहीं बढ़ाए जा सकते। पहले कदम की कसौटी यह है कि वह दूसरे कदम के लिए रुकावट तो नहीं बन जाता।
बृहत्तर सरोकारों से लघुतर सरोकारों का अनमेल पड़ना उन्हें संकीर्ण ही नहीं बनता, अन्य हितों से टकराव की स्थिति में लाकर एक ऐसी पंगुता पैदा करता है जिसमें हमारी अपनी बाढ़ भी रुकती है और दूसरों की बाढ़ को रोकने में भी हम एक भूमिका पेश करने लगते हैं। धर्मों, संप्रदायों और यहाँ तक कि विचारधाराओं तक की सीमाएँ यहीं से पैदा होती हैं, जिनका आरंभ तो मानववादी तकाजों से होता है और अमल में वे मानवद्रोही ही नहीं हो जाते बल्कि उस सीमित समाज का भी अहित करते हैं जिसके हित की चिंता को सर्वोपरि मानकर ये चलते हैं।
प्रश्न :
(क) लेखों तथा विश्लेषणों में पक्षधरता होने का तात्पर्य क्या है ?
(ख) पक्षधरता से परिपूर्ण लेख किनके लिए सार्थक तथा किनके लिए व्यर्थ होते हैं ?
(ग) सांप्रदायिकता क्या है तथा उसकी क्या सामाजिक उपयोगिता है ?
(घ) सांप्रदायिकता दोषपूर्ण विचार कब बन जाती है ?
(ङ) दो सम्प्रदायों के हितों के टकराव का क्या दुष्परिणाम होता है ?
(च) इस गद्यांश का एक उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(क) लेखों और विश्लेषणों में पक्षधरता का आशय यह है कि वे एक पक्ष विशेषतः राजनैतिक लाभ-हानि को ध्यान में रखकर लिखे जाते हैं और उसी पक्ष. की पुष्टि करते हैं। उनमें दोनों पक्षों के साथ संतुलन का अभाव होता है।
(ख) पक्षधरता वाले लेख तथा विश्लेषण एकपक्षीय होने के कारण उसी के लिए सार्थक होते हैं जिसके पक्ष को ध्यान में रखकर लिखे जाते हैं। दूसरे पक्ष के लिए उनकी उपयोगिता नहीं होती। उसके लिए वे व्यर्थ होते हैं।
(ग) अपने सम्प्रदाय की हिंत-चिंता को साम्प्रदायिकता कहते हैं। इसकी सामाजिक उपयोगिता यही है कि इसमें समाज कें लाभ की बात पर विचार किया जाता है। समाज के हितार्थ उठाया गया यह एक अच्छा कदम है। यह मनुष्य को व्यक्तिगत . शुद्धता से ऊपर उठाता है। इसके बिना मानव-हित का विचार भी नहीं किया जा सकता।
(घ) जब साम्प्रदायिकता वृहत्तर हित-चिंता को त्यागकर क्षुद्र व्यक्ति हित-चिंता की ओर झुकती है तो उसमें संकीर्णता उत्पन्न हो जाती है और एक दोषपूर्ण विचार बन जाती है।
(ङ) दो सम्प्रदायों के टकराव का परिणाम यह होता है कि इससे दोनों सम्प्रदायों की बाढ़ रुक जाती है। दूसरे की बाढ़ को रोकने के प्रया
स से पहले की बाढ़ भी रुक जाती है।
(च) गद्यांश का उचित शीर्षक है - “साम्प्रदायिकता का स्वरूप।"
27. हिंदी या उर्दू साहित्य में थोड़ी-सी रुचि रखने वाला भी मुंशी प्रेमचंद को न जाने-ऐसा हो ही नहीं सकता, यह मेरा दृढ़ विश्वास है। सफलता के उच्च शिखरों को छूने के बावजूद प्रेमचंद बस प्रेमचंद थे। उनके स्वभाव में दिखावा या अहंकार ढूँढ़ने वालों को निराश ही होना पड़ेगा। प्रेमचंद का जीवन अनुशासित था। मुँह-अँधेरे उठ जाना उनकी आदत थी। करीब एक घंटे की सैर के बाद (जो प्रायः स्कूल परिसर में ही वे लगा लिया करते थे) वे अपने जरूरी काम सुबह-सवेरे ही निपटा लेते थे। अपने अधिकांश काम वे स्वयं करते।
उनका मानना था कि जिस आदमी का हथेली पर काम करने के छाले-गट्टे न हों उसे भोजन का अधिकार कैसे मिल सकता है ? प्रेमचंद कर्मठता के प्रतीक थे। घर में झाड़-बुहारी कर देना, पत्नी बीमार हो तो चूल्हा जला देना, बच्चों को दूध पिलाकर तैयार कर देना, अपने कपड़े स्वयं धोना आदि काम करने में भला कैसी शर्म। लिखने के लिए उन्हें प्रात:काल प्रिय था, पर दिन में भी जब अवसर मिले उन्हें मेज पर देखा जा सकता था। वे वक्त के बड़े पाबंद थे। वे समय पर स्कूल पहुँचकर बच्चों के सामने अपना आदर्श रखना चाहते थे। समय की बरबादी को वे सबसे बड़ा गुनाह मानते थे। उनका विचार था कि वक्त की पाबंदी न करने वाला इंसान तरक्की नहीं कर सकता।
प्रश्न :
(क) “मेरा यह दृढ़ विश्वास है" लेखक अपने किस दृढ़ विश्वास की बात कह रहा है ?
(ख) "सफलता के उच्च शिखरों को छूने के बावजूद प्रेमचंद बस प्रेमचंद थे" कहने का आशय क्या है ?
(ग) प्रेमचंद के स्वभाव और जीवन की क्या विशेषताएँ थीं ?
(घ) प्रेमचंद का शारीरिक श्रम के बारे में क्या विचार था ?
(ङ) प्रेमचंद किन कामों को करने में शर्म महसूस नहीं करते थे तथा क्यों ?
(च) इस गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(क) लेखक अपने इस दृढ़ विश्वास के बारे में बता रहा है कि हिन्दी अथवा उर्दू साहित्य में थोड़ी-सी भी रुचि रखने वाला व्यक्ति मुंशी प्रेमचंद को न जाने ऐसा हो ही नहीं सकता।
(ख) प्रेमचंद ने साहित्य क्षेत्र में उच्चतम सफलता प्राप्त की थी। वह उपन्यास तथा कहानी सम्राट कहे जाते हैं। परन्तु 'उनमें घमंड नहीं था। अपने नाम के अनुरूप वह प्रेम के चन्द्रमा थे और अपने सरल-शीतल व्यवहार से सबको सुख देते थे।
(ग) प्रेमचंद अहंकार से मुक्त थे। घमंड का लेश भी उनमें नहीं था। उनका जीवन अनुशासित था। वह समय के पाबन्द थे।
(घ) प्रेमचंद शारीरिक श्रम के पक्के समर्थक थे। उनका विचार था कि जिस मनुष्य के हाथों में शारीरिक परिश्रम करने के प्रमाणस्वरूप गट्टे-छाले न पड़े हों, उस मनुष्य को भोजन करने का अधिकार नहीं होता।
(ङ) प्रेमचंद शारीरिक श्रम करने में शर्म महसूस नहीं करते थे। घर में झाड़ लगाना, पत्नी के बीमार होने पर चूल्हा जला देना, बच्चों को दूध पिलाकर तैयार कर देना, अपने कपड़े स्वयं धोना आदि कार्य वे बिना शर्म-झिझक करते थे। अपना काम . करने में शर्म नहीं करते थे।
(च) गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक है.-"प्रेमचंद और उनका जीवन।"
28. मधुर वचन वह रसायन है जो पारस की भाँति लोहे को भी सोना बना देता है। मनुष्यों की तो बात ही क्या, शु-पक्षी भी उसके वश में हो, उसके साथ मित्रवत् व्यवहार करने लगते हैं। व्यक्ति का मधुर व्यवहार पाषाण-हृदयों को भी पिघला देता है। कहा भी गया है। "तुलसी मीठे.बचन ते, जग अपनो करि लेत।" निस्सन्देह मीठे वचन औषधि की भाँति श्रोता के मन की व्यथा, उसकी पीड़ा व वेदना को हर लेते हैं। मीठे वचन सभी को प्रिय लगते हैं।
कभी-कभी किसी मृदुभाषी के मधुर वचन घोर निराशा में डूबे व्यक्ति को आशा की किरण दिखा उसे उबार लेते हैं, उसमें जीवन-संचार कर देते हैं; उसे सान्त्वना और सहयोग देकर यह आश्वासन देते हैं कि वह व्यक्ति अकेला व असहाय नहीं, अपितु सारा समाज उसका अपना, उसके सुख-दुख का साथी है। किसी ने सच कहा है... .."मधुर वचन हैं औषधि, कटुक वचन हैं तीर।" मधुर वचन श्रोता को ही नहीं, बोलने वाले को भी शांति और सुख देते हैं। बोलने वाले के मन का अहंकार और दंभ सहज ही विनष्ट हो जाता है। उसका मन स्वच्छ और निर्मल बन जाता है।
प्रश्न :
(क) मधुर वचन और पारस में क्या समानता बताई गई है ?
(ख) मीठी बोली का मनुष्यों तथा पशु-पक्षियों पर क्या प्रभाव होता है ?
(ग) “तुलसी मीठे बचन ते, जगं अपनो करि लेत" का आशय क्या है ?
(घ) सुनने वाले पर मधुर वचनों का प्रभाव किस तरह पड़ता है ?
(ङ) “मधुर वचन श्रोता को ही नहीं, बोलने वाले को भी शांति और सुख देते हैं। इस कथन की पुष्टि - कीजिए।
(च) इस गद्यांश के लिए एक उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(क) पारस अपने सम्पर्क में आए लोहे को सोना बना देता है। मधुर वचन से मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी भी बोलने वाले के वश में हो जाते हैं तथा उसके मित्र बन जाते हैं।
(ख) मीठी बोली की मनुष्यों तथा पशु-पक्षियों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। वे मधुर भाषी व्यक्ति के अनुकूल हो जाते हैं तथा उसके साथ मित्र के समान व्यवहार करने लगते हैं।
(ग) 'तुलसी मीठे बचन ते जग अपनी करि लेत'का आशय यह है कि मधुर वचन बोलने वाला अपनी वाणी से संसार के सभी प्राणियों को अपना बना लेता है।
(घ) मीठे वचन औषधि के समान श्रोता के मन की पीड़ा को दूर कर देते हैं। उसकी निराशा दूर हो जाती है। उसका मन आशा से भर उठता है। मीठे वचन सुनकर उसको सान्त्वना और आश्वासन मिलता है। उसे विश्वास हो जाता है कि दुःख की घड़ी में वह अकेला नहीं है, समस्त समाज उसके साथ है।
(ङ) मधुर वचन श्रोता को तो सुख देते ही हैं, बोलने वाले को भी शांति और सुख प्रदान करते हैं। इनसे वक्ता का अहंकार मिट जाता है। उसका मन पवित्र और निर्मल हो जाता है। उसकी नम्रता, सदाचार और शिष्ट व्यवहार के कारण उसे समाज में सम्मान और यश प्राप्त होता है।
(च) गद्यांश का उचित शीर्षक 'मधुर वाणी की महत्ता'।
29. आधुनिक युग में व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों के कारण सौंदर्य को वस्तु या दृश्य में नहीं, देखने वाले की दृष्टि और उसकी सौंदर्य-चेतना में अवस्थित माना जाता है। अतः आज का कवि असुंदर में सुंदर, लघु में विराट या अचेतन में चेतन के दर्शन करता है। जीवन और जगत् का कोई भी विषय उसके लिए असुंदर नहीं है। वह मानवीय भावनाओं या काल्पनिक संसार पर ही नहीं, ठोस भौतिक-प्राकृतिक पदार्थों एवं मानव के साथ-साथ चींटी, छिपकली, चूहे, बिल्ली जैसे विषयों पर भी सहज भाव से रचना करता है। उसे तो कदम-कदम पर विषयों के चौराहे मिलते हैं और वह उन महाकाव्य रचने का आमंत्रण पाता है।
कविता यद्यपि उपदेश देने के लिए नहीं लिखी जाती, तथापि उसका एक उद्देश्य हमारे भावों-विचारों को उदात्त बनाना, उनमें परिष्कार कर उन्हें जनोपयोगी बनाना भी है। जीवन के घात-प्रतिघातों और मन की विविध उलझनों को कवि इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि पाठक को अनायास ही कुटिलता, क्रूरता, दंभ, नीचता जैसे दुर्गुणों से वितृष्णा हो जाती है और सद्गुणों के प्रति आकर्षण बढ़ जाता है। भावों और विचारों की उच्चता से काव्य में भी गरिमा आती है, क्योंकि सद्विचारों की अभिव्यक्ति स्वतः काव्य को ऊँचा उठा देती है। इसीलिए बहुधा महापुरुषों, जननायकों के जीवन को आधार बनाकर काव्य-रचना की जाती है।
प्रश्न :
(क) आधुनिक युग में सौंदर्य की स्थिति कहाँ मानी जाती है ?
(ख) आधुनिक युग में सौंदर्य की अवस्थिति में हुए परिवर्तन का कारण क्या है ?
(ग) आज का कवि सौंदर्य का दर्शन किन चीजों में करता है?
(घ) आज कवि किन विषयों पर रचना करता है ?
(ङ) “उसे तो कंदम-कदम पर विषयों के चौराहे मिलते हैं"- कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
(च) प्रस्तुत गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(क) आधुनिक युग में सौंदर्य की स्थिति वस्तु या दृश्य में नहीं, देखने वाले की दृष्टि और उसकी सौंदर्य चेतना में मानी जाती है।
(ख) आधुनिक युग में व्यक्तिकारी प्रवृत्तियों की वृद्धि होने के कारण सौंदर्य की अवस्थिति के विषय में भी परिवर्तन हुआ है।
(ग) आज का कवि सौंदर्य को प्रत्येक वस्तु में देखता है। वह असुन्दर में सुन्दर, लघु में विराट और अचेतन में चेतन के दर्शन करता है। जीवन और जगत का कोई भी विषय उसकी दृष्टि में असुन्दर नहीं है।
(घ) आज का कवि मानवीय भावनाओं, काल्पनिक विषयों तथा प्राकृतिक-भौतिक पदार्थों पर रचना करता है। मनुष्य के साथ ही वह चींटी, छिपकली, चूहे, बिल्ली जैसे साधारण विषयों पर भी कलम चलाता है।
(ङ) उसे तो कदम-कदम पर विषयों के चौराहे मिलते हैं...कथन का आशय यह है कि कवि के सामने विषयों का भण्डार खुला पड़ा है। रचना के लिए कवि को विषय की तलाश करने की कोई समस्या नहीं है। जैसे चौराहे पर पहुँचकर व्यक्ति किसी भी रास्ते पर जा सकता है, उसी प्रकार कवि.विभिन्न विषयों में से किसी भी विषय को रचना के लिए चुन सकता है।
(च) प्रस्तुत गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक-"काव्य-सौन्दर्य का पाठकों पर प्रभाव।"
30. भारतीय धर्मनीति के प्रणेता नैतिक मूल्यों के प्रति अधिक जागरूक थे। उनकी यह धारणा थी कि नैतिक मूल्यों का सा से पालन किए बिना किसी भी समाज की आर्थिक व सामाजिक प्रगति की नीतियाँ प्रभावी नहीं हो सकी। उन्होंने उच्चकोटि की जीवन-प्रणाली के निर्माण के लिए वेद की एक ऋचा के आधार पर कहा कि उत्कृष्ट जीवन-प्रणाली मनुष्य का विवेक-बुद्धि से तभी निर्मित होनी सम्भव है, जब 'सब लोगों के संकल्प, निश्चय, अभिप्राय समान हों; सबके हृदय में समानता की भव्य भावना जागरित हो और सब लोग पारस्परिक सहयोग से मनोनुकूल सभी कार्य करें।
चरित्र- निर्माण की जो दिशा नीतिकारों ने निर्धारित की, वह आज भी अपने मूल रूप में मानव के लिए कल्याणकारी है।' प्रायः यह देखा जाता है कि चरित्र और नैतिक मूल्यों की उपेक्षा, बाहु और उदर को संयत न रखने के कारण होती है। जो व्यक्ति इन तीनों पर नियंत्रण रखने में सफल हो जाता है, उसका चरित्र ऊँचा होता है। सभ्यता का विकास, आदर्श चरित्र से ही सम्भव है। जिस समाज में चरित्रवान व्यक्तियों का बाहुल्य है, वह समाज सभ्य होता है और वही उन्नत कहा जाता है।
प्रश्न :
(क) भारतीय धर्मनीति के प्रणेता किस विषय में जागरूक थे तथा क्यों ?
(ख) मनुष्य की विवेक-बुद्धि से किसका निर्माण होना संभव है ?
(ग) उत्कृष्ट जीवन-प्रणाली कैसे निर्मित हो सकती है ?
(घ) चरित्र को मानव जीवन की अमूल्य निधि क्यों कहा गया है ?
(ङ) चरित्र की उपेक्षा कब होती है ?
(च) उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
(क) भारतीय धर्मनीति के प्रणेता नैतिक मूल्यों के प्रति जागरूक थे क्योंकि इनके अभाव में समाज की आर्थिक तथा सामाजिक प्रगति प्रभावपूर्ण और नियंत्रित ढंग से नहीं होती।
(ख) मनुष्य की विवेक-बुद्धि से उच्चकोटि की जीवन प्रणाली का निर्माण संभव होता है।
(ग) जब समाज के सभी लोग एक समान संकल्प, निश्चय और अभिप्राय वाले होते हैं, सभी के मन में समानता की भव्य भावना जाग रही होती है तथा सभी मिल-जुलकर सब के हित के कार्य करते हैं तभी एक उत्कृष्ट जीवन-प्रणाली का विकास होता है।
(घ) चरित्र को मानव जीवन की अमूल्य निधि कहा गया है क्योंकि यह मानवीय गुण मनुष्य को पशु से अलग करके उससे श्रेष्ठ जीव की श्रेणी प्रदान करता है, उसे पशु से ऊँचा स्थान देता है।
(ङ) चरित्र की उपेक्षा तब होती है जब मनुष्य कटु और असंयत वाणी बोलता है, अपनी शारीरिक शक्ति का प्रयोग दूसरे निर्बल लोगों को दबाने में करता है तथा अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए दूसरों का शोषण करता है।
(च) इस गद्यांश का उचित शीर्षक "सभ्य समाज का आधार चरित्रवान नागरिक"।