Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Hindi Anivarya Vyakaran अलंकार Questions and Answers, Notes Pdf.
'अलंकार' शब्द 'अलं' और 'कार' इन दो शब्दों से मिलकर बना है। 'अलं' का अर्थ शोभा तथा 'कार' का अर्थ करने वाला, अर्थात् 'शोभा करने वाला' है। अलंकार को आभूषण भी कहते हैं, जो कि शरीर की सुन्दरता बढ़ाते हैं। इसी प्रकार काव्य की शोभा बढ़ाने वाले जो तत्त्व होते हैं, उन्हें अलंकार कहा जाता है। काव्यशास्त्र के आचार्य दण्डी ने कहा-"काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते"। अर्थात् काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्त्व ही अलंकार हैं
परिभाषा - काव्य में निहित भावों को उत्कृष्ट शब्दों एवं अर्थ में गूंथने या व्यक्त करने का जो सरस, सुन्दर और
चमत्कारी ढंग होता है, उसे ही अलंकार कहते हैं।
आचार्य दण्डी के अनुसार शब्दगत या अर्थगत या उभयगत चमत्कार द्वारा काव्य के सौन्दर्य को बढ़ाने वाले तत्त्व को अलंकार कहते हैं।
काव्य में अलंकार का महत्त्व - काव्य के विविध अंग या तत्त्व होते हैं, उनमें शब्द, अर्थ, रस, गुण, रीति या शैली, दोष, व्यंग्य आदि की गणना की जाती है। अलंकार काव्य का अस्थिर धर्म या अनित्य बाहरी तत्त्व माना जाता है। जिस प्रकार कोई नायिका जन्मजात सौन्दर्ययुक्त है, तो उसे शरीर को सजाने के लिए आभूषणों (अलंकारों) की उतनी जरूरत नहीं रहती है। इसी प्रकार यदि काव्य रस, ध्वनि या भाव की मार्मिक व्यंजना से परिपूर्ण है, तो उसके लिए अलंकारों के प्रयोग की आवश्यकता नहीं रहती है। उस दशा में अलंकार काव्य का अस्थिर या अनित्य धर्म माना गया है।
लेकिन मानव सौन्दर्यप्रेमी प्राणी है। वह प्रत्येक रचना में सुन्दरता देखना चाहता है। इसी कारण प्रत्येक कवि या अपनी रचनाओं को सुन्दर बनाने के लिए अलंकारों का प्रयोग करते हैं। अलंकारों (गहनों) को धारण करने से स्त्री का शारीरिक-सौन्दर्य बढ़ जाता है। इसी प्रकार अलंकारों के प्रयोग से काव्य में चमत्कार या सौन्दर्य की वृद्धि होती है। राजशेखर के अनुसार, "अलंकार वेदार्थ के उपकारक हैं, क्योंकि इनके बिना वेदार्थ की अवगति नहीं हो सकती।" वेदव्यास के अनुसार, "अलंकार रहित सरस्वती विधवा के समान मन को उल्लसित नहीं करती।" अतः काव्य में अलंकारों का विशेष महत्त्व है।
अलंकारों के भेद - काव्य में अलंकार कहीं पर शब्दों के द्वारा, कहीं पर अर्थ के द्वारा और कहीं पर शब्द-अर्थ (दोनों) के द्वारा सौन्दर्य या चमत्कार उत्पन्न करते हैं। इस कारण अलंकारों के मुख्य तीन प्रकार माने जाते हैं -
1. शब्दालंकार
2. अर्थालंकार और
3. उभयालंकार।
1. शब्दालंकार - केवल शब्दों या वर्गों के सुन्दर प्रयोग से काव्य का सौन्दर्य बढ़ जाने पर उसे शब्दालंकार कहते हैं। जैसे -
"तरनि-तनूजा-तट-तमाल-तरुवर बहु छाये।"
इसमें 'त' वर्ण की आवृत्ति होने से चमत्कार तथा ध्वनि-सौन्दर्य आ गया है।
शब्दालंकारों में अनुप्रास, यमक, श्लेष, वक्रोक्ति आदि की गणना की जाती है।
2. अर्थालंकार-जब काव्य में अर्थगत सौन्दर्य का समावेश रहता है, तब उसमें अर्थालंकार माना जाता है। जैसे -
"चरण-सरोज पखारन लागा।"
इसमें चरण पर सरोज (कमल) का आरोप करने से अर्थगत सुन्दरता आ गई है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अर्थालंकार माने गये हैं।
3. उभयालंकार - जहाँ शब्द और अर्थ दोनों ही काव्य का सौन्दर्य बढ़ाते हैं, उसे उभयालंकार कहते हैं। श्लेष को उभयालंकार माना जाता है। परन्तु कभी-कभी एक ही वाक्य में शब्दगत और अर्थगत दोनों अलंकार रहते हैं। जैसे "कजरारी अँखियान में, कजरा. री न लखात"। उक्त पंक्ति में 'कजरारी' और 'कजरा री' शब्दों में शब्दालंकार का सौन्दर्य विद्यमान है तो कजरारी आँखों में काजल दिखाई नहीं पड़ रहा है, इस अर्थ से अर्थ-सौन्दर्य के कारण अर्थालंकार का सौन्दर्य भी है।
विशेष - पाठ्यक्रम में जितने अलंकार रखे गये हैं, यहाँ उनके ही लक्षण, भेद तथा उदाहरण दिये जा रहे हैं।
अनुप्रास :
लक्षण - जहाँ एक या अनेक वर्ण दो या दो से अधिक बार एक ही क्रम में रखे जाते हैं, अर्थात् वर्णों की आवृत्ति होती है, भले ही उनमें स्वरों की समानता न हो, तो वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है। जैसे -
"भगवान् भक्तों की भयंकर भूरि भीति भगाइये।"
इसमें 'भ' वर्ण अनेक बार आया है, इसलिए अनुप्रास अलंकार है। दूसरा उदाहरण -
1. "तरनि-तनूजा-तट-तमाल-तरुवर बहु छाये।"
इसमें 'त' वर्ण की आवृत्ति होने से अनुप्रास अलंकार है।
2. "सघन कुंज छाया सुखद, सीतल सुरभि समीर।"
इसमें 'स' वर्ण की आवृत्ति होने से काव्य-सौन्दर्य की वृद्धि हुई है। अतः अनुप्रास अलंकार है।
अनुप्रास के भेद - वर्णों की आवृत्ति के आधार पर अनुप्रास के चार भेद माने जाते हैं -
(क) छेकानुप्रास - जहाँ कोई वर्ण दो बार आए, अर्थात् वर्ण की एक ही बार आवृत्ति हो, जैसे -
"कानन कठिन, भयंकर भारी।"
इसमें 'क' व 'भ' वर्ण की एक ही बार आवृत्ति हुई है।
(ख) वृत्त्यनुप्रास - जहाँ वर्ण दो से अधिक बार आए, जैसे -
"विरति विवेक, विमल विज्ञाना।"
इसमें 'व' वर्ण की आवृत्ति एक से अधिक बार हुई है।
(ग) श्रुत्यनुप्रास - जहाँ एक ही उच्चारण-स्थान वाले अधिक वर्ण हों, जैसे -
"तुलसीदास सीदत निस-दिन देखत तुम्हारि निठुराई।"
इसमें 'त', 'स' आदि वर्ण एक ही उच्चारण-स्थान अर्थात् 'दन्त्य' वर्ण हैं, इनकी आवृत्ति हुई है।
(घ) अन्त्यनुप्रास-छन्द के अन्त में स्वरों की आवृत्ति हो, जैसे -
"तज प्राणों का मोह आज सब मिल कर आओ।
मातृ-भूमि के लिए बन्धुवर! अलख जगाओ॥"
इसमें छन्द के चरणों के अन्त में समान स्वरों की आवृत्ति हुई है।
विशेष - कुछ विद्वान् लाटानुप्रास नामक एक भेद और भी मानते हैं। जब काव्य में शब्दों अथवा वाक्यांशों की आवृत्ति होती हैपरन्तु उनके शाब्दिक अर्थ में कोई अन्तर नहीं रहता है, लेकिन अन्वय-भेद करने पर तात्पर्य बदल जाता है, तब लाटानुप्रास अलंकार होता है। यथा -
"वे घर हैं वन ही सदा, जहँ है बन्धु-वियोग।
वे घर हैं वन ही सदा, जहँ नहिं बन्धु-वियोग॥"
इस छन्द में वाक्यांशों की आवृत्ति हुई है, केवल चौथे चरण में नहिं' का प्रयोग होने से तात्पर्य बदल गया है।
यमक :
लक्षण - जहाँ कोई शब्द या शब्दांश बार-बार आये, किन्तु प्रत्येक बार अर्थ समान हो या भिन्न हो, वहाँ यमक अलंकार होता है। जैसे
"गुनी गुनी सब के कहे, निगुनी गुनी न होत।
सुन्यौ कहूँ तरु अरक तें, अरक समानु उदोत॥"
इसमें 'गुनी' शब्द की एक ही अर्थ में आवृत्ति हुई है, परन्तु 'अरक' शब्द एक बार 'आकडे के पौधे के लिए तथा दूसरी बार 'सूर्य' के लिए आया है। इसमें शब्दावृत्ति से यमक अलंकार है।
यमक अलंकार में कभी-कभी पूरा शब्द दुबारा न आकर उसका कुछ अंश उसी क्रम से दुबारा आता है, उस अवस्था में भी वह यमक अलंकार ही होता है। इस दृष्टि से यमक के दो भेद होते हैं - (1) अभंग यमक, और (2) सभंग यमक।
1. अभंग यमक-इसमें पूरे शब्दों की आवृत्ति होती है -
"कनक-कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय।
वा पाये बौराय जग, या खाये बौराय॥"
"तीन बेर खाती थीं वो तीन बेर खाती हैं।
नगन जड़ाती थीं वो नगन जड़ाती हैं॥"
"तुम तारे तेते नभ में न तारे हैं।"
[(1) तारे = उद्धार करना (2) तारे = तारागण]
2. सभंग यमक - जहाँ शब्दांश की आवृत्ति पूर्वक्रम के अनुसार होती है, परन्तु शब्द को तोड़कर आवृत्ति देखी जाती है -
"कुमोदिनी मानस-मोदिनी कहीं।"
"मचलते चलते हो तुम वृथा।"
इस उदाहरण में 'कुमोदिनी' पद से 'मोदिनी' की बाद वाले 'मोदिनी' से तथा 'मचलते' पद से 'चलते' की बाद वाले 'चलते' से आवृत्ति पदों को तोड़ने से हुई है। इसलिए यह सभंग पद यमक है।
अन्य उदाहरण -
"तौ पर बारौं उरबसी, सुनि राधिके सुजान।
तू मोहन के उर बसी, है उरबसी समान॥"
इसमें 'उरबसी' (उर्वशी) और 'उर बसी' में पद को तोड़कर आवृत्ति की गई है।
सभंग यमक में कोई शब्द सार्थक और कोई शब्द निरर्थक हो सकता है, पर स्वर-व्यंजन की आवृत्ति सदा उसी क्रम से होती है।
श्लेष :
लक्षण - जब वाक्य में एक शब्द केवल एक ही बार आए और उस शब्द के दो या अधिक अर्थ निकलें, तब श्लेष अलंकार होता है। जैसे -
"पानी गए न ऊबरे, मोती, मानस, चून।" यहाँ 'पानी' शब्द में श्लेष है, क्योंकि मोती के सन्दर्भ में पानी का अर्थ चमक है, मनुष्य के सन्दर्भ में पानी का अर्थ इज्जत है, इसी प्रकार चूने के सन्दर्भ में पानी का अर्थ जल है। इस प्रकार विभिन्न सन्दर्भो में 'पानी' एक ही शब्द का अनेक अर्थों में प्रयोग किया गया है।
उदाहरण
"विमलाम्बरा रजनी वधू, अभिसारिका सी जा रही।"
यहाँ पर 'विमलाम्बरा' शब्द के दो भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। रजनी के सन्दर्भ में 'विमलाम्बरा' शब्द का अर्थ 'स्वच्छ आकाश' है। अभिसारिका के सन्दर्भ में 'विमलाम्बरा' शब्द का अर्थ 'स्वच्छ वस्त्रों वाली' है अतः यहाँ श्लेष अलंकार है।
श्लेष के भेद-शब्द के अर्थ को ग्रहण करने की दृष्टि से इसके दो भेद हो जाते हैं - (1) अभंग श्लेष, और (2) सभंग श्लेष।
1. अभंग श्लेष-जहाँ शब्द के टुकड़े किए बिना ही उससे कई अर्थ निकलें वहाँ 'अभंग श्लेष' होता है; जैसे -
"बलिहारी नृप कूप की गुण बिन बूंद न देइ।"
इसमें 'गुण' शब्द में श्लेष है। 'गुण' शब्द के यहाँ दो अर्थ लिए गए हैं-गुण (नृप के पक्ष में) और रस्सी (कूप के पक्ष में)।
अन्य उदाहरण -
"सुबरन को ढूँढत फिरै, कवि, कामी अरु चोर।" इसमें 'सुबरन' शब्द में श्लेष है, इसके सुन्दर अक्षर (कवि के साथ), सुन्दर रूप (कामी के साथ) और सोना (चोर के साथ) अर्थ लिया गया है।
2. सभंग श्लेष-जहाँ शब्द के टुकड़े करने से एक से अधिक अर्थ निकलें, वहाँ सभंग श्लेष होता है; जैसे
"अजौं तर्योना ही रह्यौ, श्रुति सेवत. इक अंग।" यहाँ 'तौना' में सभंग श्लेष है। एक पक्ष में 'तर्योना' का अर्थ कान का आभूषण (कर्णफूल) है और दूसरे पक्ष में 'तर्योना' का अर्थ-तरा नहीं अर्थात् निष्कृष्ट जीव है। दूसरा अर्थ 'तर्यो + ना' खण्ड करने पर ही प्राप्त होता है।
अन्य उदाहरण -
"को घरि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर।"
इसमें वृषभानु + जा (पदभंग करने पर) = राधा तथा वृषभ + अनुजा = गाय अर्थ निकलता है। इसी प्रकार हलधर का बलराम व बैल अर्थ निकल रहा है।
उपमा :
लक्षण - जहाँ दो भिन्न पदार्थों की किसी समान गुण (धर्म) के कारण तुलना की जाती है, वहाँ उपमा अलंकार होता है। दूसरे शब्दों में जहाँ उपमेय को किसी गुण, धर्म के आधार पर उपमान के समान होना बताया जाए, वहाँ उपमा अलंकार होता है। उपमा के वाचक शब्द हैं-समान, सा, सदृश, सरिस आदि। जैसे -
"चन्द्रमा-सा कान्तिमय, मुख रूपदर्शन है तुम्हारा।"
यहाँ सुन्दरी के मुख-सौन्दर्य के उत्कर्ष का वर्णन हुआ है। मुख की समानता सौन्दर्य के प्रसिद्ध उपमान चन्द्रमा से होने के कारण उपमा अलंकार है।
उपमा के अंग - उपमा के निम्न चार अंग होते हैं -
विशेष - अलंकारशास्त्र में उपमेय को 'प्रस्तुत' या 'विषय' भी कहा जाता है और उपमान को 'अप्रस्तुत' या 'विषयी' भी कहते हैं।
उदाहरण - 'कमल-सदृश कोमल हाथों ने' यहाँ पर 'हाथ' उपमेय, 'कमल' उपमान, 'कोमल' साधारण धर्म, 'सुदृश' वाचक शब्द है, अतः उपमा अलंकार है।
उपमा के भेद - सभी अंगों का प्रयोग करने से,अथवा किसी एक-दो अंगों का प्रयोग न करने से उपमा के दो भेद हो जाते हैं - (1) पूर्णोपमा, और (2) लुप्तोपना।
1. पूर्णोपमा - जहाँ उपमा के पूर्वोक्त चारों अंगों का स्पष्ट रूप से कथन किया गया हो, वहाँ पूर्णोपमा होती है; जैसे
"राम लखन सीता सहित, सोहत पर्ण-निकेत।
जिमि बस बासव अमरपुर, सची जयन्त समेत॥"
यहाँ उपमा के चारों अंगों का स्पष्ट रूप से प्रयोग किया गया है -
राम, सीता और लक्ष्मण - उपमेय।
बासव (इन्द्र), सची और जयन्त - उपमान।
सोहत - साधारण धर्म।
जिमि - उपमावाचक।
2. लुप्तोपमा-जहाँ उपमा के चारों अंगों में से कुछ अंग लुप्त हों (स्पष्ट रूप से कथन न किये हों), वहाँ लुप्तोपमा होती है। लुप्तोपमा में कभी-कभी दो या तीन अंग भी लुप्त हो जाते हैं; जैसे -
लक्षण - जहाँ उपमेय पर उपमान का आरोप किया जाए अथवा जहाँ उपमेय और उपमान को एक ही मान लिया जाए, वहाँ रूपक अलंकार होता है।
आरोप का आशय प्रस्तुत (उपमेय) से अप्रस्तुत (उपमान) का अभेद (एकरूपता) दिखाना है। इसलिए आरोप में प्रायः अभेद दिखाया जाता है। जैसे -
"चरण-कमल बन्दौं हरि राई"-इसमें चरणों पर कमल का आरोप किया गया है। परन्तु आरोप कभी भेद सहित भी होता है; जैसे -
"माया दीपक नर पतंग, भ्रमि-भ्रमि इवै पड़न्त।"
उदाहरण -
'शशि-मुख पर घूघट डाले अंचल में दीप छिपाये।' यहाँ पर 'मुख' उपमेय में 'शशि' उपमान का अभेद आरोप होने से रूपक अलंकार है।
रूपक अलंकार के तीन भेद :
"अम्बर-पनघट में डुबो रही तारा-घट ऊषा नागरी।" इस उदाहरण में अम्बर का पनघट से अभेद बताया गया है। ऊषा पर सुन्दरी नारी का और पनघट में घड़े भरने की क्रिया का, अम्बर में तारों के डूबने पर आरोप किया गया है।
अन्य उदाहरण
"ऊधो! मेरा हृदयतल था एक उद्यान न्यारा,
शोभा देती अमित उसमें कल्पना क्यारियाँ थीं।"
इस उदाहरण में 'हृदयतल' उपमेय और 'उद्यान' उपमान में अभेदता दिखाकर 'कल्पना' एवं 'क्यारियाँ' से अंगों सहित आरोप किया गया है।
2. निरंगरूपक - निरंगरूपक शुद्ध रूपक है, जहाँ केवल उपमेय पर ही उपमान का आरोप किया जाता है, अंगों का ही नहीं; जैसे -
"अवधेस के बालक चारि सदा।
'तुलसी' मन-मन्दिर में बिहरै ॥"
इस उदाहरण में मन (उपमेय) पर मन्दिर (उपमान) का आरोप हुआ है और उनके अंगों का उल्लेख नहीं हुआ है। अतः यहाँ निरंगरूपक है।
अन्य उदाहरण-
"चरण-कमल मृदु मंजु तुम्हारे।"
इसमें 'चरण' पर 'कमल' का आरोप हुआ है, उपमान-उपमेय - अंगों का आरोप नहीं हुआ है।
3. परम्परित रूपक - जहाँ एक रूपक दूसरे का कारण हो, अर्थात् दो रूपक एक-साथ आते हों, एक रूपक मुख्य रूप में और दूसरा गौण रूप में; जैसे -
"बढ़त-बढ़त सम्पत्ति - सलिल, मन-सरोज बढ़ि जाय।"
यहाँ 'मन' को 'सरोज' मानने का कारण 'सम्पत्ति' को 'सलिल' मानना है, इसी प्रकार -
"राम-कथा सुन्दर करतारी। संशय-विहग उड़ावन हारी।"
इसमें 'संशय' पर 'विहग' का आरोप इसलिए किया गया है कि राम-कथा को करतारी (हाथ की ताली) मान लिया गया है।
उत्प्रेक्षा:
लक्षण - जहाँ उपमेय और उपमान में भेद होते हुए भी उपमेय में उपमान की सम्भावना व्यक्त की जाए, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। मानो, जानो, मनु, जनु, ज्यों, मनहुँ दूव इत्यादि उत्प्रेक्षावाचक शब्द हैं।
जैसे - 'लट-लटकनि मनु मत्त मधुपगन मादक मदहिं पिए।'
उपर्युक्त पंक्ति में लट-लटकनि' में उपमान 'मत्त मधुपगन' की सम्भावना व्यक्त की गई है, और 'मनु' शब्द आने से यहाँ पर उत्प्रेक्षा अलंकार है।
उत्प्रेक्षा के तीन भेद :
1. वस्तूत्प्रेक्षा-जहाँ एक वस्तु अर्थात् उपमेय में दूसरी वस्तु अर्थात् उपमान की सम्भावना की जाए, वहाँ वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार होता है; जैसे -
(i) "लता-भवन ते प्रगट भे, तेहि अवसर दोउ भाई।
निकसे जनु जुग विमल विधु, जलद पटल बिलगाई॥"
इसमें लता-भवन में 'जलद-पटल' और दोउ भाई में 'जुगल विधु' (जुड़वाँ चन्द्र) की सम्भावना का वर्णन किया गया है। इसमें 'जनु' शब्द द्वारा सम्भावना व्यक्त की गई है। इसमें वस्तूत्प्रेक्षा है।
(ii) "सोहत ओढ़े पीत पट, स्याम सलौने गात।
मनो नीलमणि सैल पर, आतप पर्यो प्रभात ॥"
यहाँ पीताम्बर पहने हुए श्रीकृष्ण के श्याम शरीर (उपमेय) में नीलमणि के पर्वत (उपमान) पर प्रात:कालीन धूप पड़ने की सम्भावना की गई है।
2. हेतूत्प्रेक्षा - जहाँ अहेतु में हेतु की सम्भावना की जाए, वहाँ हेतूत्प्रेक्षा अलंकार होता है, अर्थात् जो जिसका कारण न हो उसे बलपूर्वक कारण मान लिया जाए; जैसे -
(i) "मनो कठिन आँगन चली, ताते राते पाँय।"
सुकुमार स्त्रियों के चरण स्वभाव से ही लाल होते हैं। यहाँ कवि उनके लाल होने का कारण कठिन आँगन पर चलना सम्भावित करता है, जो वास्तव में कारण या हेतु नहीं है। अन्य उदाहरण -
(ii) "मनु ससि भरि अनुराग, जमुना जल लोटत डोलै।"
3. फलोत्प्रेक्षा - अफल में फल की सम्भावना करने पर फलोत्प्रेक्षा कहते हैं; जैसे -
(i) "मानहु विधि तन अच्छ छवि, स्वच्छ राखिबे काज।
दृग-पग पोंछन को किए, भूषण पायंदाज॥"
पुरुषों की दृष्टि को पोंछने के लिए भूषण पायंदाज का काम नहीं करते हैं, स्त्रियाँ तो स्वभावतः पायजेब धारण करती हैं, परन्तु यहाँ इस फल के लिए इनकी सम्भावना मात्र करने से फलोत्प्रेक्षा है।
(ii) "स्वर्णशालियों की कलमें थीं
दूर-दूर तक फैल रहीं।
शरद-इन्दिरा के मन्दिर की
मानो कोई गैल रही॥"
इसमें धान की पकी हुई बालियों की कतार पर शरत्कालीन लक्ष्मी (शोभा) के मन्दिर में जाने वाली पगडण्डी की सम्भावना की गई है।
उदाहरण:
लक्षण - जहाँ सामान्य रूप से कही गई बात को स्पष्ट करने के लिए कोई विशेष बात या जग-प्रसिद्ध उदाहरण दिया जाता है, वहाँ पर उदाहरण अलंकार होता है। जैसे -
"मन मलीन तन सुन्दर कैसे। विष-रसभरा कनक घट जैसे॥"
अर्थात् मन मलिन होने पर सुन्दर शरीर का महत्त्व क्षीण हो जाता है, जैसे सोने के घड़े में मदिरा या विषरस भरा होने से स्वर्ण-घट का महत्त्व घट जाता है।
उदाहरण अलंकार में ज्यों, जैसे, जिमि, यथा, इव आदि तुलनावाचक शब्दों का प्रयोग होता है। अगर इन वाचक शब्दों का प्रयोग नहीं होवे तो उदाहरण अलंकार नहीं होकर वहाँ दृष्टान्त अलंकार होता है।
अन्य उदाहरण -
1. जो पावै अति उच्च पद, ताको पतन निदान।
ज्यों तपि-तपि मध्याह्न लौं, असत होत है भान॥
यहाँ पर उच्च पद प्राप्त करके निम्न पद पर आने के सामान्य कथन को सूर्य का उदाहरण देकर स्पष्ट किया है। जिस प्रकार सूर्य दोपहर में अत्यधिक तप कर सायंकाल को अस्त हो जाता है। ज्यों' तुलनावाचक शब्द का प्रयोग हुआ
2. "ज्यों रहीम रस होत है, उपकारी के संग।
बाँटन वारे को लगै ज्यों मेहन्दी को रंग॥"
3. "बूंद अघात सहें गिरि कैसे?
खल के वचन सन्त सह जैसे॥"
विरोधाभास :
लक्षण - जहाँ वास्तविक विरोध न हो, किन्तु अर्थ करने पर विरोध-सा जान पड़ता हो, वहाँ विरोधाभास अलंकार होता है, जैसे -
"सुधि आये सुधि जाय।"
अर्थात् प्रियतम की सुधि (याद) आने पर सुधि अर्थात् सुध-बुध या चेतना चली जाती है। यहाँ सुधि आने पर सुधि चली जाती है-ऐसा कहने से विरोध-सा प्रतीत हो रहा है, परन्तु अर्थ करने पर वास्तविक विरोध नहीं है।
अन्य उदाहरण -
1. "या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोय।
ज्यौं ज्यौं बूड़े स्याम रंग, त्यौं-त्यौं उज्ज्वल होय॥"
2. "विषमय यह गोदावरी, अमृतन के फल देत।
केसव जीवन हार को, असेस दुःख हर लेत॥"
इन दोनों उदाहरणों में 'श्याम रंग में डूबकर उज्ज्वल होना' तथा 'विष से अमृत-फल पानन' विरोध-सा प्रतीत हो रहा है, परन्तु अर्थ करने पर 'मन पवित्र होना' तथा 'सांसारिक कष्टों से मुक्त होना' में वास्तविक विरोध नहीं रहता है।
अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न -
अतिलघूत्तरात्मक/लघूत्तरात्मक प्रश्न -
प्रश्न 1.
कागा काको धन हरै, कोयल काको देय।
मीठा शब्द सुनाय के, जग अपनो करि लेय॥
इसमें कौन-सा अलंकार है? उसकी परिभाषा भी लिखिए।
उत्तर :
इसमें अनुप्रास अलंकार है, क्योंकि इसमें 'क' और 'य' वर्ण की आवृत्ति हुई है।
परिभाषा - जहाँ एक या अनेक वर्ण की आवृत्ति होती है, अर्थात् किसी वर्ण का एकाधिक बार क्रमानुसार प्रयोग होता है, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है
प्रश्न 2.
'सघन कुंज छाया सुखद, सीतल सुरभि समीर। इस पंक्ति में कौन-सा अलंकार है? बताइये।
उत्तर :
इस पंक्ति में 'स' वर्ण की अनेक बार आवृत्ति हुई है, इस कारण इसमें वृत्यानुप्रास अलंकार है।
प्रश्न 3.
'गरुड़ को दावा जैसे नाग के समूह पर, दावा नागजूह पर सिंह सिरताज को। इसमें कौन-सा अलंकार है? परिभाषा भी लिखिए।
उत्तर :
इसमें उदाहरण अलंकार है।
परिभाषा - जहाँ सामान्य रूप से कही गई बात को विशेष बात से स्पष्ट करने के लिए उदाहरण दिया जाता है, वहाँ पर उदाहरण अलंकार होता है।
उदाहरण अलंकार में ज्यों, जिमि, जैसे, यथा, इव आदि तुलनात्मक शब्दों का प्रयोग किया जाता है।
प्रश्न 4.
मनहुँ नील माट तें काढ़े लै जमुना जाय पखारे।
ता गुन स्याम भई कालिन्दी सूर..............॥
इन पंक्तियों में कौन-सा अलंकार है ? लक्षण भी लिखिए।
उत्तर :
इन पंक्तियों में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
लक्षण-जहाँ उपमेय और उपमान में भेद होते हुए भी उपमेय में उपमान की सम्भावना की जावे, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। मानो, मनहुँ, जानो, जनु आदि इसके वाचक शब्द होते हैं।
प्रश्न 5.
सोहत ओ पीत-पट, स्याम सलौने गात।
मनौ नीलमनि सैल पर, आतपु परयौ प्रभात॥
इस दोहे में कौन-सा अलंकार है? बताइये।
उत्तर :
इस दोहे में उत्प्रेक्षा अलंकार है, क्योंकि साँवले श्रीकृष्ण के पीत-पट ओढ़े शरीर पर नीलमणि-पर्वत तथा प्रभात की पीली आभा पड़ने की सम्भावना की गयी है और 'मनौ' शब्द का प्रयोग किया है।
प्रश्न 6.
'मैं स्नेह-सुरा का पान किया करता हूँ।' इस पंक्ति में कौन-सा अलंकार है? लक्षण भी लिखिए।
उत्तर :
इस पंक्ति में रूपक अलंकार है, क्योंकि इसमें स्नेह पर सुरा का आरोप किया गया है।
लक्षण - जहाँ उपमेय पर उपमान का अभेदात्मक आरोप किया जावे, अर्थात् दोनों को एक ही मान लिया जावे, वहाँ रूपक अलंकार होता है।
प्रश्न 7.
'तेज तम-अंस पर कान्ह जिमि कंस पर,
त्यों मलेच्छ-बंस पर सेर सिबराज हैं।
इस अवतरण में मुख्य अलंकार कौन-सा है? लक्षण भी लिखिए।
उत्तर :
इसमें मुख्य रूप से उपमा अलंकार है।
लक्षण-जहाँ पर दो भिन्न पदार्थों की किसी समान गुण या धर्म के आधार पर तुलना की जाती है, वहाँ उपमा अलंकार होता है। इसमें वीरता एवं शौर्य गुण के कारण शिवाजी के तेज की कृष्ण एवं सिंह से तुलना की गई है।
प्रश्न 8.
निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकारों के नाम लिखिए
(क) मारिये आसा साँपनी, जिन डसिया संसार।
(ख) तुलसी भलो सुसंग तें, पोच कुसंगति सोइ।
(ग) काली घणी कुरूप, कस्तूरी काँटा तुलै।
(घ) सुनतहिं जोग लगत ऐसी अलि! ज्यों करुई ककरी।
(ङ) दीन सबन को लखत हैं, दीनहिं लखें न कोय।
उत्तर :
(क) रूपक
(ख) अनुप्रास
(ग) अनुप्रास
(घ) उदाहरण
(ङ) यमक।
प्रश्न 9.
निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकारों के नाम लिखिए
(क) जा तन की झाँई परै, स्याम हरित दुति होइ।
(ख) ज्यों-ज्यौँ बूडै स्याम रंग, त्यौं-त्यौं उज्जलु होइ।
(ग) तारा सौं तरनि धूरिधारा में लगत जिमि।
(घ) प्रातः नभ था बहुत नीला शंख जैसे।
(ङ) बात की चूड़ी मर गई।
उत्तर :
(क) श्लेष
(ख) विरोधाभास
(ग) उपमा, अनुप्रास
(घ) उपमा
(ङ) रूपक।
प्रश्न 10.
निम्नलिखित में प्रयुक्त अलंकार और उसका लक्षण लिखिए
"माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर। .. कर का मनका डारि दे, मन. का मनका फेर ॥".
उत्तर :
इसमें यमक अलंकार है, क्योंकि इसमें 'मनका' शब्द की अभंग और सभंग रूप में आवृत्ति हुई है। जहाँ ... कोई शब्द या शब्दांश की आवृत्ति सार्थक या निरर्थक रूप में हो, वहाँ यमक अलंकार होता है।
प्रश्न 11.
"हँसने लगे तब हरि अहा! पूर्णेन्दु-सा मुख खिल गया।"
इसमें कौनसा अलंकार है? लक्षण लिखिए।
उत्तर :
इसमें उपमा अलंकार है।
लक्षण - जहाँ उपमेय को किसी गुण, धर्म आदि के आधार पर उपमान के समान बताया जावे, वहाँ उपमा अलंकार होता है। यहाँ पर उपमेय 'मुख' को उपमान चन्द्रमा के समान बताया है।
प्रश्न 12.
निम्नलिखित में प्रयुक्त अलंकार का नाम लिखते हुए उसका लक्षण लिखिए -
नगन जड़ाती थीं वे नगन जड़ाती हैं।
उत्तर :
इसमें यमक अलंकार है। जहाँ कोई शब्द या शब्दांश बार-बार आये, किन्तु प्रत्येक बार उसका अर्थ भिन्न हो, सार्थक या निरर्थक हो, वहाँ यमक अलंकार होता है।
प्रश्न 13.
सोहत ओढ़े पीत पट, स्याम सलोने गात।.
मनहुँ नीलमनि सैल पर, आतप पर्यो प्रभात॥
इसमें कौन-सा अलंकार है और क्यों?
उत्तर :
इसमें उत्प्रेक्षा अलंकार है। जहाँ उपमेय में उपमान की सम्भावना व्यक्त की जावे, अर्थात् उपमान का सम्भावनात्मक वर्णन हो, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है और 'मनहुँ' उत्प्रेक्षावाचक शब्द का प्रयोग किया है।
प्रश्न 14.
निम्नलिखित में प्रयुक्त अलंकार का नाम लिखते हुए उसका लक्षण लिखिए
उदित उदयगिरि मंच पर, रघुवर बाल पतंग।
विकसे संत सरोज सब, हरषे लोचन भुंग॥
उत्तर :
इसमें उपमा अलंकार है। जहाँ पर उपमेय एवं उपमान की सादृश्य-शोभा का वर्णन होता है, वहाँ पर उपमा अलंकार होता है।
प्रश्न 15.
निकसे जन जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाय।
इसमें कौनसा अलंकार है? उसका लक्षण व संगति भी लिखिए।
उत्तर :
इसमें उत्प्रेक्षा अलंकार है। जहाँ उपमेय और उपमान में भेद होते हुए भी उपमेय में उपमान की सम्भावना का वर्णन हो, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।
इसमें राम - लक्ष्मण के लता-मण्डप से निकलने का वर्णन 'बिमल-बिधु' उपमान से सम्भावना रूप में किया गया है। 'जनु' उत्प्रेक्षावाचक है।
प्रश्न 16.
निम्नलिखित वाक्यों में प्रयुक्त अलंकारों का नाम बताते हुए उनके लक्षण लिखिए -
(i) “मोर मुकुट की चन्द्रकनि, त्यों राजत नन्दनन्द।
मनु ससि सेखर को अकस, किए सेखर सतचन्द॥"
(ii) "तीन बेर खाती थीं वे तीन बेर खाती हैं।"
उत्तर :
(i) इसमें उत्प्रेक्षा अलंकार है। जहाँ उपमान और उपमेय में भेद होते हुए भी उपमेय में उपमान की संभावना की जाए, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।
(ii) इसमें यमक अलंकार है, जब कोई शब्द या शब्दांश बार-बार आवे, परन्तु हर बार अर्थ भिन्न रहे, तब वहाँ
प्रश्न 17.
निम्नलिखित वाक्य में प्रयुक्त अलंकार का नाम बताते हुए उसका लक्षण लिखिए -
'पानी गये न ऊबरे मोती मानुष चून।'
उत्तर :
इसमें 'पानी' शब्द श्लिष्ट होने से श्लेष अलंकार है। वाक्य में एक शब्द एक ही बार आवे और उस शब्द के दो या दो से अधिक अर्थ निकलें, तो उसे श्लेष अलंकार कहते हैं।
प्रश्न 18.
'माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवै पड़न्त।'
इसमें कौनसा अलंकार है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
इसमें रूपक अलंकार है। जहाँ उपमेय पर उपमान का आरोप किया जावे, अथवा उपमेय और उपमान को एक ही माना जावे, उसे रूपक अलंकार कहते हैं।
इसमें माया पर दीपक और नर पर पतंगे का आरोप किया गया है।
प्रश्न 19.
यमक और श्लेष अलंकारों का अन्तर सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
यमक अलंकार में शब्दों या शब्दांशों की उसी क्रम में आवृत्ति होती है। जैसे-"कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय।" इसमें 'कनक' शब्द की आवृत्ति भिन्न अर्थ में हुई है।
श्लेष अलंकार में शब्द एक बार ही आता है, परन्तु उसके दो-तीन अर्थ निकलते हैं; जैसे-"पानी गये न ऊबरे मोती मानुष चून।" इसमें पानी' शब्द का मोती के साथ चमक, मनुष्य के साथ इज्जत और चून के साथ जल अर्थ है। अतः अनेकार्थ शब्द के प्रयोग से श्लेष अलंकार होता है।
अन्तर - यमक में शब्द या शब्दांशों की आवृत्ति होती है, जबकि श्लेष में शब्द एक ही रहता है तथा उसके अनेक अर्थ निकलते हैं।
प्रश्न 20.
उदाहरण अलंकार किसे कहते हैं? सोदाहरण समझाइए।
उत्तर :
जहाँ एक बात कहकर उसके उदाहरण के रूप में दूसरी बात कही जाए और दोनों की उपमावाचक शब्द, जैसे-ज्यों, मिस आदि से जोड़ दिया जाए वहाँ उदाहरण अलंकार होता है।
जैसे-"मन मलीन तन सुन्दर कैसे। विष-रसभरा कनक घट जैसे।।"
अर्थात् मन मलिन होने पर सुन्दर शरीर का महत्त्व क्षीण हो जाता है, जैसे सोने के घड़े में मदिरा या विषरस भरा होने से स्वर्ण-घट का महत्त्व घट जाता है।
प्रश्न 21.
यमक और श्लेष अलंकारों का एक-एक उदाहरण लिखिए।
उत्तर :
यमक-कनक-कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय।
श्लेष-पानी गये न ऊबरे मोती मानुष चून।
प्रश्न 22.
अनुप्रास और यमक अलंकारों में सोदाहरण अन्तर बताइए।
उत्तर :
अनुप्रास अलंकार में केवल वर्णों की आवृत्ति होती है, अर्थात् एक-दो वर्णों का दो बार या दो से अधिक बार प्रयोग होता है। जैसे-"कानन कठिन, भयंकर भारी।" इसमें 'क', 'न' और 'भ' वर्ण की आवृत्ति हुई है।
यमक भी अनुप्रास की तरह शब्दालंकार है। इसमें शब्दों या शब्दांशों की आवृत्ति होती है तथा आवृत्त शब्दों का अर्थ भिन्न रहता है। जैसे-"उरबसी मेरे हृदय की, उरबसी तुम पर निछावर।" इसमें 'उरबसी' शब्द की आवृत्ति भिन्न अर्थ में हुई है।
प्रश्न 23.
सभंग श्लेष और अभंग श्लेष में अन्तर बताइये।
उत्तर :
श्लेष के दो भेद होते हैं-सभंग और अभंग श्लेष। सभंग श्लेष में शब्द के टुकड़े करके एक से अधिक अर्थ निकलते हैं, जैसे
"बहुरि सक्र बिनवऊं ते ही। संतत सुरानीक हित जेही॥" इसमें 'सुरानीक' शब्द के दो अर्थ बनते हैं -
1. सुरा + नीक = अच्छी शराब और
2. सुर + अनीक = देवों की सेना।
इसमें एक ही शब्द के टुकड़े करने से दो अर्थ निकलते हैं।
अभंग श्लेष में शब्द के टुकड़े नहीं किये जाते हैं, जैसे - "पानी गये न ऊबरे मोती मानुष चून।" इसमें पानी शब्द के तीन अर्थ निकलते हैं।
प्रश्न 24.
उपमा और रूपक अलंकार को उदाहरण सहित समझाइए।
उत्तर :
उपमा में दो पदार्थों की समान गुण के कारण तुलना की जाती है तथा उपमान, उपमेय, साधारण धर्म व वाचक पद का पृथक् प्रयोग किया जाता है।
जैसे - "मुख मयंक सम मंजु मनोहर।"
रूपक में उपमेय उपमान का रूप धारण कर लेता है, अर्थात् उपमान और उपमेय को एक मान लिया जाता है, अर्थात् उपमेय पर उपमान का आरोप किया जाता है।
जैसे - "अम्बर-पनघट में डुबो रही तारा-घट ऊषा-नागरी।"
प्रश्न 25.
उत्प्रेक्षा अलंकार का लक्षण एवं उसके भेद बताइए।
उत्तर :
लक्षण - जहाँ उपमान और उपमेय में भेद होते हुए भी उपमेय में उपमान की सम्भावना की जाये, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है; जैसे -
उन्नत हिमालय से धवल यह सुरसरी यों टूटती।
मानो पयोधर से धरा के दुग्ध धारा छूटती॥
इसमें हिमालय को उन्नत पयोधर (स्तन) और गंगा की धवल धारा को दूध की धारा मान लिया गया है।
मानो पयोधर से धरा के दुग्ध धारा छूटती॥
इसमें हिमालय को उन्नत पयोधर (स्तन) और गंगा की धवल धारा को दूध की धारा मान लिया गया है।
उत्प्रेक्षा के भेद - इसके तीन भेद होते हैं - (1) वस्तूत्प्रेक्षा, (2) हेतूत्प्रेक्षा और (3) फलोत्प्रेक्षा। वस्तु की सम्भावना करने पर वस्तूत्प्रेक्षा, अहेतु में हेतु (कारण) की सम्भावना करने पर हेतूत्प्रेक्षा और अफल में फल की सम्भावना करने पर फलोत्प्रेक्षा अलंकार होता है।
प्रश्न 26.
या अनुरागी चित्त की गति समुझै नहिं कोय।
ज्यों-ज्यों बूडै स्याम रंग त्यों-त्यों उज्ज्वल होय॥
उपर्युक्त काव्य पंक्तियों में कौनसा अलंकार है, समझाइए।
उत्तर :
इसमें विरोधाभास अलंकार है। क्योंकि श्याम रंग (काले रंग) में डबकर उज्ज्वल (सफेद) होना अथे विरोधी-सा प्रतीत हो रहा है। परन्तु अर्थ की संगति लगाने पर कृष्ण-प्रेम से मन के पवित्र होने का आशय व्यक्त हो रहा है।
प्रश्न 27.
विरोधाभास अलंकार को उदाहरण सहित समझाइए।
उत्तर :
जहाँ पर वास्तव में विरोध न होते हुए भी वर्णन में विरोध का आभास हो, वहाँ विरोधाभास अलंकार होता है। उदाहरण
विसमय यह गोदावरी, अमृतन के फल देत।
केसव जीवन हार को, असेस दुख हर लेत।।
प्रस्तुत पंक्तियों में गोदावरी को विसमय बताया गया है, जो विरोध प्रकट करता है। परन्तु विस का अर्थ 'जल' प्रकट होने पर विरोध समाप्त हो जाता है। अतः विरोधाभास अलंकार है।
प्रश्न 28.
"अजौं तरयौना ही रह्यो, श्रुति सेवत इक अंग।
नाक बास बेसरि लह्यो बसि मुकुतन के संग॥"
उपर्युक्त दोहे में कौनसा अलंकार है और क्यों?
उत्तर :
उपर्युक्त दोहे में सभंग श्लेष अलंकार है। क्योंकि एक पक्ष में 'तरयौना' का अर्थ कान का आभूषण (कर्णफूल) है और दूसरे पक्ष में 'तरयौना' का अर्थ तरा नहीं अर्थात् निष्कृष्ट जीव है, दूसरा अर्थ 'तरयौ + ना' खण्ड करने पर ही प्राप्त होता है।
प्रश्न 29.
'गरुड़ को दावा जैसे नाग के समूह पर,
दावा नागजूह पर सिंह सिरताज को।'
इसमें कौनसा अलंकार है और क्यों?
उत्तर :
इसमें उदाहरण अलंकार है। क्योंकि इसमें शिवाजी के द्वारा शत्रुओं पर आक्रमण करने में गरुड़ के द्वारा सों पर आक्रमण करने का तुलनात्मक वर्णन किया गया है।
प्रश्न 30.
"तौ पर वारौ उरबसी, सुनि राधिके सुजान।
तू मोहन के उर बसी, है उरबसी समान॥"
इसमें कौनसा अलंकार है और क्यों?
उत्तर :
इसमें यमक अलंकार है क्योंकि इसमें 'उरबसी' शब्द का प्रयोग आवृत्ति रूप में हुआ है तथा उरबसी, व उर बसी व उरबसी में अर्थगत भिन्नता भी है।
प्रश्न 31.
"मैं स्नेह-सुरा का पान किया करता हूँ।"
इस पंक्ति में कौनसा अलंकार है? लक्षण व संगति लिखिए।
उत्तर :
इसमें रूपक अलंकार है।
लक्षण - जहाँ उपमेय को उपमान का रूप दिया जावे और दोनों में अभेदारोप हो, वहाँ रूपक अलंकार होता है। उक्त पंक्ति में 'स्नेह' पर 'सुरा' का आरोप अभेद रूप में करने से रूपक अलंकार है।