These comprehensive RBSE Class 12 Drawing Notes Chapter 1 पांडुलिपि चित्रकला की परंपरा will give a brief overview of all the concepts.
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→ विष्णुधर्मोत्तर पुराण का 'चित्रसूत्र' अध्याय भारतीय चित्रकला का स्रोत:
→ पाण्डुलिपि चित्रकला:
चित्रों के उस बड़े भाग को सही तरीके से पाण्डुलिपि चित्रकला कहा जाता है जब कवि की कविता या गीत, जो महाकाव्यों, विभिन्न सिद्धान्तों, साहित्यिक कविताओं या संगीत के हस्तलिखित पाठों से लिये गए हैं, को चित्रों के रूप में अनुवादित किया जाता है तथा कवि की उस शब्दावली को सुन्दर तथा स्पष्ट हस्तलिपि में उस चित्र के सबसे ऊँचे एक बॉक्स जैसे भाग में सीमांकित कर दर्शाया जाता है। कभी-कभी यह लिखित शब्दावली कला कार्य के सामने नहीं वरन् पृष्ठ भाग में लिखी जाती थी।
पाण्डुलिपि चित्रों को सिद्धान्ततः विषयवस्तु के समूह के रूप में माना गया है (प्रत्येक समूह के विभिन्न प्रकार के अलग कई चित्र या ग्रन्थ समाहित हैं)। चित्र का प्रत्येक जिल्द समानान्तर अध्याय रखता है जिसे या तो चित्र के ऊपरी हिस्से में या इसके पृष्ठ में विशिष्ट स्थान पर उकेरा गया है । इस प्रकार से प्रत्येक समूह में रामायण या भागवत पुराण, या महाभारत, या गीत गोविन्द, रागमाला इत्यादि के चित्रों के अनुसार समूह है। प्रत्येक समूह को कपड़े के एक टुकड़े में लपेटकर राजा या संरक्षक के पुस्तकालय में एक बण्डल के रूप में संचित किया हुआ है।
→ कॉलफॅन (पुष्पिका) पृष्ठ (Colophon Page):
→ लघु चित्र
→ चित्रों के इतिहास का पुनर्निर्माण (Reconstructing the history of Paintings):
चित्रों के इतिहास का पुनर्निर्माण एक अभूतपूर्व कार्य है। वहाँ पर कुछ तिथिवार समूह हैं जिनकी बिना । तिथि के समूहों से तुलना करते हैं। अगर इन सभी को क्रमानुसार व्यवस्थित किया जाए तो इनके बीच कुछ खाली स्थान रह जाते हैं जहाँ पर कोई केवल चित्रांकन गतिविधि के प्रकार को देख सकता है, जो उस समय पनपा था।
अगर इन विषयों को अलग हटकर देखा जाए तो जिल्द के अन्तर्गत खुले हुए चित्र मूल-जिल्द के भाग नहीं हैं और इन्हें विभिन्न अजायबघरों या निजी संग्रहों में बाँट दिया गया है। जिन चित्रों ने समय की सतह को बनाये रखा है अर्थात् जिन पर तिथि पड़ी हुई और पुनः निर्धारित समय सीमा को चुनौती दे रहे हैं और वे विद्वानों को इतिहास के क्रम को संशोधित करने और पुनः परिभाषित करने को विवश करते हैं। इस प्रकाश में, शैली और अन्य परिस्थितिजन्य गवाहों के आधार पर चित्रों के बिना तिथि के समूहों को परिकल्पना की समयबद्धता के अनुसार उत्तरदायी माना गया है।
→ पश्चिमी भारतीय चित्र शैली (Western Indian School of Painting):
चित्रकला के कार्य जो कि भारत के पश्चिमी भाग में बड़े रूप में पनपे हैं, उसमें पश्चिमी भारतीय चित्र शैली का प्रमुख केन्द्र गुजरात है, इसमें अन्य केन्द्रों के रूप में राजस्थान का दक्षिणी भाग और मध्य भारत का पश्चिमी भाग भी हैं। इसमें गुजरात के कुछ प्रमुख बन्दरगाहों की उपस्थिति के साथ, इन क्षेत्रों से गुजरने वाले व्यावसायिक मार्गों का एक जाल है जिसमें वहाँ के स्थानीय शक्तिशाली सरदार, सौदागर और व्यापारी व्यापार से अर्जित अपनी धन-सम्पदा और समृद्धि के कारण कला के संरक्षक बन गये थे। व्यापारी वर्गों में मुख्यतः जैन समुदाय के प्रतिनिधि होते थे जो कि जैन सम्प्रदाय से सम्बन्धित विषयवस्तु की कला के महत्त्वपूर्ण संरक्षक बने थे।
→ जैन चित्र शैली (Jain School of Painting)
(1) कल्पसूत्र (Kalpasutra):
जैन परम्परा में कल्पसूत्र को सर्वाधिक चित्रांकन वाला ग्रंथ माना गया है। इसके एक भाग में 24 तीर्थंकरों के जीवन से घटनाओं को गाते हुए बताया है जो कि उनके जन्म से लेकर मोक्ष तक उद्धृत हैं जो कि कलाकारों को उनकी जीवन की गाथा पर चित्र बनाने हेतु सामग्री उपलब्ध कराता है। पाँच प्रमुख घटनाएँ जिन्हें विस्तृत रूप में बताया गया है, वे हैं-अवधारणा, जन्म, त्याग, प्रबोधन और प्रथम उपदेश और कल्पसूत्र के अधिकांश भागों में तीर्थंकरों के जीवन एवं उनसे सम्बन्धित घटनाओं से मोक्ष।
(2) कालकाचार्यकथा (Kalakacharyakatha):
अन्य दूसरे चित्रित ग्रन्थों में प्रमुख हैंकालकाचार्यकथा और संग्रहिणी सूत्र । कालकाचार्य ग्रंथ आचार्य कालक की कथा का वर्णन है। कालक अपनी अपहृत बहन जो कि एक जैन साध्वी थी को एक दुष्ट राजा से बचाने के अभियान पर था। यह हमें कालक की बहुत से सिहरन पैदा कर देने वाली और साहसी घटनाओं के बारे में बताता है, जैसे-अपनी बहन का पता लगाने हेतु जमीन का शुद्धिकरण करना, अपनी जादुई शक्तियों का प्रदर्शन करना, अन्य राजाओं से सम्बन्ध बनाना और आखिर में दुष्ट राजा से लड़ना।
(3) संग्रहिणी सूत्र (Sangrahini Sutra):
संग्रहिणी सूत्र एक ब्रह्माण्डव्यापी ग्रंथ है जिसे 12वीं शताब्दी में लिखा गया था। इसमें ब्रह्माण्ड के ढाँचे एवं अन्तरिक्ष के मापन की अवधारणाएँ विद्यमान हैं । जैनियों के द्वारा असंख्य रूप से इन सभी ग्रंथों की प्रतियाँ लिखी गईं। इनमें या तो कम या बहुत दरियादिली से चित्रों को बनाया गया। इस प्रकार से एक विशिष्ट चित्र या पृष्ठ को कई भागों में विभक्त किया गया जिसमें मूल पाठ को लिखने एवं जो लिखा गया है उसका चित्रण करने हेतु स्थान प्रदान किया गया। केन्द्र में धागे से समस्त पृष्ठों को एक साथ बाँधने हेतु एक छोटा छिद्र बनाया गया। इन्हें सुरक्षित करने के उद्देश्य से लकड़ी के आवरण से ढका जाता था जिसे 'पटलिस' के नाम से पुकारा जाता है जो पाण्डुलिपि के सबसे ऊपर एवं पैंदे में लगाया जाता था।
(4) उत्तरध्यान सूत्र (Uttaradhyana Sutra):
उत्तरध्यान सूत्र में महावीर स्वामी की शिक्षाएँ लिखी हुई हैं जो एक साधु के द्वारा किए जाने वाले व्यवहार के बारे में बताती हैं।
ताड़ की पत्तियों पर चित्रित जैन चित्र-प्रारम्भिक जैन चित्र कागज के आगमन से पूर्व ताड़ की पत्तियों पर पारम्परिक रूप से की जाती थीं। कागज 14वीं शताब्दी में आया था और भारत के पश्चिमी क्षेत्र से सबसे पुरानी ताड़ के पत्तों की सुरक्षित रखी जा सकी पाण्डुलिपि 11वीं शताब्दी की है। ताड़ की पत्तियों पर चित्रकारी करने से पूर्व उनका ठीक प्रकार से रखरखाव किया जाता था एवं एक तीखी सुलेख लिखने वाली लेखनी से शब्दों को लिखा जाता था।
ताड़ की पत्तियों के संकरे एवं छोटे स्थान के कारण प्रारम्भिक रूप से चित्रकारियाँ 'पटलिस' तक ही सीमित थीं जिन पर उदारतापूर्वक तेज चमकीले रंगों में देवी और देवताओं के चित्र बनाये जाते थे और जैन आचार्यों के जीवन से सम्बन्धित घटनाओं का चित्रण किया जाता था।
→ जैन चित्र शैली की विभिन्न विशेषताएँ:
जैन चित्रों ने चित्रकला की एक सरल एवं योजनाबद्ध भाषा का विकास किया। यह प्रायः विभिन्न प्रकार की घटनाओं को अपने अन्दर समाहित करने के लिए विभिन्न भागों के मध्य जगह प्रदान कर देती थी। किसी ने यह ध्यान से देखा कि वहाँ चटकीले रंगों हेतु लग्न और वस्त्रों के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन करने हेतु रुचि उत्पन्न की। रचना में पतली रेखाएँ पहले से ही प्रभुत्व लिए हुए हैं एवं चेहरे को त्रिआयामी बनाने के प्रयास में एक अतिरिक्त आँख आगे की ओर जोड़ी गई हैं। जहाँ पर यह चित्रकारियाँ की गई हैं वहाँ की स्थापत्य कला के तत्व जैसे सुलतान के काल के मकबरे और ऊँचे गुम्बदों को बताते हैं वे गुजरात, माण्डु, जौनपुर, पाटन के साथ अन्य क्षेत्रों में सुल्तान की राजनीतिक उपस्थिति का संकेत देते हैं । वस्त्र के परदों के और दीवार पर टंगे चित्रों की कई स्वदेशी विशेषताएँ और स्थानीय सांस्कृतिक जीवन शैली के प्रभाव दृष्टिगोचर होते हैं। इसी तरह फर्नीचर, वेशभूषा एवं अन्य उपयोगी वस्तुओं में भी यह प्रभाव दिखता है।
भू-भाग की विशेषताएँ केवल सुंझावात्मक हैं और सामान्यतः इन्हें विस्तृत रूप में नहीं दिखाया गया है। जैन चित्रकला के लिए लगभग 1350-1450 का लगभग सौ वर्षों की अवधि सर्वाधिक रचनात्मक अवधि प्रतीत होती है। अगर देखा जाए तो मुख्य घटना के जिल्द के हाशिये पर बने चित्रों में मुख्य प्रतिनिधित्व करने वाले चित्र बदलकर आकर्षक रूप से चित्रित किए गए भू-भाग, नृत्य करते हुए कलाकारों का चित्रण, संगीतकारों द्वारा विभिन्न वाद्य यंत्रों को बजाते हुए का चित्रण किया गया है।
इन चित्रों में अपने संरक्षकों की सामाजिक प्रतिष्ठा एवं धन सम्पदा को इंगित करती, अत्यधिक रूप से स्वर्ण | का उपयोग करते हुए मूल्यवान नीले रंग के पत्थर का प्रयोग किया गया है। इन चित्रों में धर्म से ऊपर उठकर जैन समुदाय हेतु तीर्थीपत, मण्डल और पंथनिरपेक्ष, धर्म-विधान से रहित कथाओं के चित्र भी बनाए गए हैं।
→ व्यापारियों के अतिरिक्त सामन्तों के मध्य चित्र परम्परा:
धनी व्यापारियों एवं समर्पित धार्मिक व्यक्तियों द्वारा संरक्षित जैन चित्रकला के अतिरिक्त, सामन्तों के मध्य चित्रों की एक समानान्तर परम्परा भी विद्यमान रही है। 15वीं और 16वीं शताब्दियों के उत्तरार्द्ध के दौरान जिसने धर्मनिरपेक्ष, धार्मिक तथा साहित्यिक विषयवस्तुओं पर बने चित्रों को अपने आवरण में लपेटा था। यह परम्परागत चित्र-शैली राजस्थान के दरबारी शैली के निर्माण और मुगल प्रभाव के मिश्रण से पूर्व का प्रतिनिधित्व भी करती है।
→ स्वदेशी चित्रकला शैली:
हिन्दू और जैन विषयों को चित्रित करने के अतिरिक्त कुछ अन्य चित्रों द्वारा महापुराण, चारूपंचशिखा, महाभारत का आरण्यक पर्व, भागवत पुराण, गीत गोविन्द आदि का चित्रण भी किया गया है। इस समयावधि और चित्र-शैली को जिसे मुगल पूर्व या राजस्थानी चित्रकारी के पूर्व की चित्रकला के रूप में भी बताया गया है, 'स्वदेशी चित्रकला शैली' के नाम से जाना जाता है।
→ विशिष्ट कलात्मक विशेषताएँ (Distinctive stylistic features):
इस काल और चित्रों की शैली के साथ विशिष्ट कलात्मक विशेषताओं का विकास इस दौरान हुआ था। वस्त्रों की पारदर्शिता को चित्रित करती एक विशेष प्रकार की आकृति का उद्भव हुआ-इसमें नायिका के सिर पर ओढ़नी गुब्बारे के आकार में फूलती हुई थी जिसके किनारे सख्त और ढलवां स्वरूप में थे। स्थापत्य कला सन्दर्भात्मक एवं सुझावात्मक थी। जल जीवों को चित्रित करती और विशेष तरीकों से क्षितिज, वनस्पति, जीव इत्यादि को चित्रित करती विभिन्न प्रकार की छाया रेखा का उद्भव हुआ। यह सभी औपचारिक तत्व राजस्थानी चित्रकारी के तरीकों को प्रदर्शित करती 17वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध को व्यक्त कर रही थी।
उत्तर, पूर्व और पश्चिम में कई क्षेत्र मध्य एशिया की कई सल्तनत वंशों के शासन को 20वीं शताब्दी के अन्त तक ले आई, प्रभाव का एक अन्य प्रवाह जो पर्शिया, टर्की और अफगानिस्तान से प्रसारित होते मुख्य भूमि तक पहुँच गया और मालवा, गुजरात, जौनपुर और अन्य केन्द्रों की संरक्षित चित्रकारियों में दृष्टिगोचर होने लगा था। कुछ मध्य एशियाई कलाकार जो कि वहाँ के स्थानीय कलाकारों के साथ इन दरबारों में कार्य करते थे, इसके प्रभाव स्वरूप स्वदेशी कला के तरीकों के साथ पारसी कला की विशेषताएँ आपस में मिल गईं एवं एक नवीन कला का प्रादुर्भाव हुआ जिसे सल्तनत काल की चित्रकारी का नवीन नाम दिया गया। यह कला की एक शैली का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें स्वदेशी चित्र-शैली पर पारसी कला की संकर किस्म का प्रभाव है। यह स्वदेशी विशेषता के साथ इसमें रुचिपूर्णता से पारसी तत्व या पूर्व में वर्णित विशेषताएँ मिल गईं। इन विशेषताओं में रंगों की पटिया, मुख की आकृति, साज-सज्जा युक्त विवरण के साथ सरलीकृत भूभाग इत्यादि शामिल हैं।
→ 'निमतनामा' पुस्तक में चित्रित चित्र:
'निमतनामा' नामक पुस्तक इस शैली का सर्वाधिक प्रतिनिधित्व करने वाला उदाहरण है जिसे नासिर शाह खिलजी (1500-1510) के शासनकाल के दौरान माण्डु में चित्रित किया गया था। यह खाना बनाने की विधि की पुस्तक है जिसका एक भाग शिकार करने, औषधियाँ, शृंगार प्रसाधन, सुगन्ध को बनाने के तरीकों और उनके प्रयोगों के दिशा-निर्देशों पर आधारित है। . सूफी विचारों से ओत-प्रोत कहानियाँ और लौरचन्दा के चित्र इस शैली में लोगों द्वारा सराहे गये।
→ पाल चित्र शैली (Pala School of Painting):