These comprehensive RBSE Class 11 Home Science Notes Chapter 2 स्वयं को समझना will give a brief overview of all the concepts.
→ मुझे 'मैं' कौन बनाता है?
→ स्वयं क्या है?
'स्वयं' की अनुभूति का अर्थ है-यह अनुभव करना कि हम कौन हैं और कौनसी बातें हमें अन्य लोगों से भिन्न बनाती हैं। किशोरावस्था के दौरान हम अपने बारे में सबसे अधिक सोचना शुरू कर देते हैं कि हम कौन हैं, 'मुझे 'अन्य' से भिन्न कौनसी बातें बनाती हैं? इस अवस्था में किसी अन्य अवस्था की तुलना में हम 'स्वयं' को परिभाषित करने की अधिक कोशिश करते हैं।
→ स्वयं शब्द का अर्थ:
'स्वयं' शब्द का अर्थ उनके अनुभवों, विचारों, सोच तथा अनुभूतियों का सम्पूर्ण रूप है जो स्वयं के विषय में है। यह एक विशिष्ट ढंग है, जिससे हम 'स्वयं' को परिभाषित करते हैं। यह विचार कि हम 'स्वयं' हम हैं, यह 'स्वयं' की धारणा की ही अभिव्यक्ति है।
→ स्व-संकल्पना तथा स्वाभिमान:
→ पहचान क्या होती है?
हममें से अधिकांश व्यक्ति अपने पूरे जीवन में निरन्तरता और एकरूपता का भाव बनाए रख सकते हैं चाहे उनके जीवन में दशकों से कितने भी बदलाव और निरन्तरता में विघ्न आए हों। दूसरे शब्दों में, हमारे अंदर पहचान की एक अनुभूति होती है, एक ऐसी अनुभूति जिसे हम पूरे जीवन साथ लेकर चलते हैं। ठीक इसी प्रकार हम स्वयं के मामले में व्यक्तिगत पहचान और सामाजिक पहचान के बारे में बात कर सकते हैं। यथा
निष्कर्षतः कह सकते हैं कि 'स्वयं' अपनी प्रकृति में बहुआयामी होता है। व्यक्ति के शिशु से किशोरावस्था में विकसित होने के दौरान इस 'स्वयं' में भी बदलाव आते हैं।
→ स्वयं का विकास एवं विशेषताएँ
जैसे-जैसे व्यक्ति बड़ा होता है, उसके 'स्वयं' का भी निर्माण तथा विकास होता जाता है। 'स्वयं' का विकास शैशवकाल, प्रारंभिक बाल्यावस्था, मध्यम बाल्यावस्था और किशोरावस्था के दौरान होता है। यथा
(1) शैशवकाल के दौरान स्वयं-'स्वयं' की भावना शैशवकाल के दौरान क्रमिक रूप से उत्पन्न होती है और लगभग 18 महीने की आयु तक स्वयं की छवि की पहचान होने लगती है। दूसरे वर्ष की दूसरी छ:माही में, शिशु व्यक्तिगत सर्वनामों-'मैं', 'मुझे' और 'मेरा' का उपयोग करने लगता है। वह किसी व्यक्ति अथवा वस्तु पर अधिकार जताने, अपने बारे में अथवा जो कार्य वह कर रहा है उसे बताने अथवा अपने अनुभवों को बताने के लिए इनका उपयोग करता है। इस समय तक शिशु स्वयं को तस्वीर एवं आईने में भी पहचानने लगता है।
(2) प्रारम्भिक बाल्यावस्था के दौरान स्वयं-चूँकि 3 वर्ष के होने तक बच्चे प्रायः धाराप्रवाह बोलने लगते हैं। हम उन्हें 'स्वयं' के बारे में बातचीत में शामिल कर शाब्दिक साधनों का उपयोग कर सकते हैं।
बच्चों के स्वयं' की समझ की मुख्य विशेषताएँ
(3) मध्य बाल्यावस्था के दौरान स्वत्व-इस अवधि में बच्चे का स्वयं-मूल्यांकन अधिक जटिल हो जाता है। इस बढ़ती हुई जटिलता की विशेषता बताने वाले पाँच महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हैं। यथा
(4) किशोरावस्था के दौरान 'स्वयं:
किशोरावस्था में स्वयं की समझ अत्यधिक जटिल हो जाती है। स्वयं' की पहचान के विकास हेतु किशोरावस्था को एक नाजुक समय के रूप में देखा जाता है।
पहचान के विकास हेतु किशोरावस्था महत्वपूर्ण क्यों है?
एरिक्सन के अनुसार, पहचान की भावना का विकास करना अर्थात् किशोरावस्था के दौरान स्वयं को संतोषजनक रूप में दर्शाना एक मुख्य कार्य है। किशोरावस्था पहचान के विकास हेतु महत्वपूर्ण अवस्था है क्योंकि इस समय स्वयं के विकास पर ध्यान अधिक केंद्रित रहता है। किशोरावस्था 'स्वयं' की पहचान बनाने के संदर्भ में कठिन समय होता है। किशोरावस्था 'स्वयं' की पहचान बनाने के संदर्भ में कठिन समय होता है। इसके तीन मुख्य कारण हैं
→ किशोरावस्था में स्वयं की भावना की विशेषताएँकिशोरावस्था में स्वयं की भावना की अग्र विशेषताएँ हैं
→ पहचान पर प्रभाव-स्व-बोध का विकास हम कैसे करते हैं?
परिचय:
आप अपने अनुभवों से अपने बारे में जो सीखते हैं तथा अन्य लोग आपको आपके बारे में क्या बताते हैं? उसके परिणामस्वरूप 'स्वयं' का विकास होता है। प्रत्येक व्यक्ति के चारों ओर सम्बन्धों का एक जाल हैयह सम्बन्ध परिवार, विद्यालय, कार्यस्थल और समुदाय में होते हैं। आपके आस-पास के लोगों की बातचीत के परिणामस्वरूप और आपके कार्यों के माध्यम से स्व-बोध का विकास होता है। इस प्रकार बहुत से लोग आपके स्वयं के विकास में सहायक होते हैं। स्वयं का बोध जन्म से आप में नहीं होता लेकिन आप इसे सृजित करते हैं और आपके विकास के साथ-साथ इसका भी विकास होता जाता है।
→ स्व-बोध का विकास आरम्भिक वर्षों में कैसे होता है?
→ स्व-बोध और पहचान की भावना विकसित करना
हममें से प्रत्येक की पहचान भिन्न होती है क्योंकि
→ पहचान के निर्माण पर पड़ने वाले प्रभाव
(1) जैविक और शारीरिक परिवर्तन:
यौवनावस्था के दौरान लड़कियों और लड़कों में होने वाले परिवर्तन
लड़कियाँ
लड़के
(2) सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ:
पहचान निर्माण की प्रक्रिया पर शारीरिक और सामाजिक परिवर्तनों का प्रभाव सांस्कृतिक, सामाजिक तथा पारिवारिक संदर्भो में भिन्न-भिन्न होता है। यथा
(i) सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ-अधिकांश पश्चिमी संस्कृतियों (जैसे-अमेरिका और ब्रिटेन) में किशोरों से पूर्णतः आत्मनिर्भर होने की अपेक्षा की जाती है। जबकि भारतीय संदर्भ में अधिकांश किशोर अपने माता-पिता पर काफी | हद तक निर्भर होते हैं जैसा कि उनसे अपेक्षा भी की जाती है और परिवार हमेशा उन पर नियंत्रण बनाए रखते हैं। एक पारम्परिक भारतीय समाज में यौवनारम्भ के साथ ही लड़कियों पर कई प्रतिबंध लग जाते हैं जबकि लड़के पहले की तरह ही स्वतंत्र होते हैं । उदाहरण के लिए एक किशोर लड़की से विवाह के बारे में उसकी राय पूछने पर वह यह कहती कि "मैं चाहूँगी कि मेरे माता-पिता मेरी शादी तय करें" की बजाय कहेगी कि, "हमारे परिवार में | माता-पिता शादी तय करते हैं।"
(ii) पारिवारिक संदर्भ-किशोरों के पहचान निर्माण को उन पारिवारिक सम्बन्धों से प्रोत्साहन मिलता है जहाँ स्वयं की राय बनाने हेतु प्रोत्साहित किया जाता है और जहाँ परिवार के सदस्यों में सुरक्षित सम्बन्ध होते हैं। इसके कारण किशोर को अपने बढ़ते हुए सामाजिक दायरे को जानने के लिए एक सुरक्षित आधार मिलता है। यह भी पाया गया है कि सुदृढ़ और स्नेहमय पालन-पोषण से पहचान का स्वस्थ विकास होता है। अभिभावक अक्सर बच्चे की प्रशंसा करते हैं, उसके कार्यकलापों के प्रति उत्साह दिखाते हैं, उसकी भावनाओं के प्रति संवेदनपूर्ण ढंग से प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं और उसके व्यक्तित्व और उसकी राय को समझते हैं। तथापि ऐसे माता-पिता दृढ़ अनुशासन वाले होते हैं। इस प्रकार के पालन-पोषण से बच्चों में स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता आती है।
(iii) मित्रमंडली-इसके साथ ही किशोरावस्था में बालक को अपनी मित्र मंडली के सहयोग और स्वीकार्यता की भी अत्यधिक आवश्यकता होती है। मित्रों का प्रभाव सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही हो सकता है।
(3) भावात्मक परिवर्तन:
किशोर विकास के दौरान कई भावात्मक परिवर्तनों का अनुभव करता है। इनमें से कई परिवर्तन किशोर में हो रहे जैविक और शारीरिक परिवर्तनों के कारण होते हैं। किशोर अपने शारीरिक रूप को लेकर अधिक चिंतामग्न रहते हैं। फिर भी शारीरिक परिवर्तनों के प्रति सभी किशोर अलग-अलग तरीके से प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। शारीरिक विकास के प्रति गर्व अथवा सहज भाव रखने से किशोरों के स्व-बोध पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। दूसरी ओर, यदि किशोर इस बात से कि वह कैसा दिखाई देता है? आवश्यकता से अधिक असंतुष्ट है तो वह अपने व्यक्तित्व के अन्य पहलुओं, जैसे-कार्य, पढ़ाई आदि पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाता है।
(4) संज्ञानात्मक परिवर्तन: