These comprehensive RBSE Class 11 Home Science Notes Chapter 10 विविध संदर्भो में सरोकार और आवश्यकताएँ will give a brief overview of all the concepts.
→ पोषण, स्वास्थ्य और स्वास्थ्य विज्ञान
परिचय:
हर व्यक्ति स्वस्थ बने रहने का अनुभव और अच्छी जिंदगी जीना चाहता है। वर्ष 1948 में मानव अधिकारों की विश्वव्यापी घोषणा के अनुसार, "हर व्यक्ति को अपने परिवार के लिए आहार की पर्याप्तता के साथसाथ उनके स्वास्थ्य तथा कल्याण के लिए अच्छा जीवन स्तर पाने का अधिकार है।
→ स्वास्थ्य की परिभाषा:
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) के अनुसार, "वह स्थिति जिसमें मनुष्य मानसिक, शारीरिक तथा सामाजिक रूप से पूर्णतः स्वस्थ रहता है। मनुष्य में रोगों का अभाव होने का मतलब उसका स्वस्थ होना नहीं है।"
→ रोग का अर्थ:
शारीरिक स्वास्थ्य की क्षति, शरीर के किसी भाग या अंग के कार्य में परिवर्तन/विघटन/विक्षिप्तता, जो सामान्य कार्य करने में बाधा डाले और पूर्ण रूप से स्वस्थ न रहने दे।
→ स्वास्थ्य और इसके आयाम
(i) सामाजिक स्वास्थ्य-इसका आशय व्यक्तियों और समाज के स्वास्थ्य से है। जब हम किसी समाज से जुड़ते हैं तो इसका आशय उस समाज से होता है जिसमें सभी नागरिकों को अच्छे स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य वस्तुओं तथा सेवाओं को उपलब्ध करने के समान अवसर और पहुँच प्राप्त हो। आजकल सामाजिक स्वास्थ्य पर बल देने का महत्व बढ़ रहा है क्योंकि वैज्ञानिक अध्ययन दर्शाते हैं कि जो लोग सामाजिक रूप से अच्छी तरह तालमेल बनाए रखते हैं वे लंबे समय तक जीते हैं और बीमारी से भी जल्दी राहत पा लेते हैं। सामाजिक स्वास्थ्य से जुड़े कुछ सामाजिक निर्धारक है
(ii) मानसिक स्वास्थ्य-इसका आशय भावात्मक तथा मनोवैज्ञानिक स्वस्थता से है। जिस व्यक्ति ने स्वस्थता की अनुभूति को अनुभव किया है, वह अपनी संज्ञानात्मक तथा भावात्मक क्षमताओं का उपयोग कर सकता है, समाज में सुचारु रूप से कार्य कर सकता है और दैनिक सामान्य जरूरतों को पूरा कर सकता है।
(iii) शारीरिक स्वास्थ्य-स्वास्थ्य के इस पहलू में शारीरिक तंदुरुस्ती और शरीर की क्रियाएँ एवं क्षमताएँ शामिल हैं। शारीरिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति सामान्य गतिविधियाँ कर सकता है, असाधारण रूप से थकान महसूस नहीं करता तथा उसमें संक्रमण और रोग के प्रति पर्याप्त प्रतिरोधक शक्ति होती है।
→ स्वास्थ्य देखभाल-स्वास्थ्य की देखभाल में वे सभी विभिन्न सेवाएँ शामिल हैं जो स्वास्थ्य को संवर्द्धित करने, बनाए रखने, मॉनिटरिंग करने या पुनः स्थापित करने के उद्देश्य से स्वास्थ्य सेवाओं के एजेंटों या व्यवसायियों द्वारा व्यक्तियों अथवा समुदायों को उपलब्ध कराई जाती हैं। इस प्रकार स्वास्थ्य की देखभाल में निवारक, संवर्द्धक तथा चिकित्सकीय देखभाल शामिल हैं। स्वास्थ्य देखभाल तीन स्तरों पर उपलब्ध कराई जाती है-प्राथमिक देखभाल, द्वितीयक देखभाल और तृतीयक देखभाल स्तर।
→ स्वास्थ्य के सूचक-स्वास्थ्य के आकलन के लिए कई सूचकों का प्रयोग किया जाता है। इनके अन्तर्गत मृत्युदर, रुग्णता (बीमारी/रोग), अशक्तता दर, पोषण स्तर, स्वास्थ्य देखभाल वितरण, उपयोग, परिवेश, स्वास्थ्य नीति, जीवन की गुणवत्ता आदि के सूचक शामिल हैं।
→ पोषण और स्वास्थ्य-पोषण और स्वास्थ्य के बीच घनिष्ठ पारस्परिक सम्बन्ध है। पोषण का सम्बन्ध |
शरीर के अंगों व ऊतकों की संरचना एवं कार्य के रखरखाव तथा शरीर की वृद्धि और विकास के साथ है। जबकि | किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य की स्थिति उसकी पोषक तत्वों की आवश्यकताओं और आहार ग्रहण को निर्धारित करती है।
→ पोषक तत्व-भोजन में 50 से अधिक पोषक तत्व होते हैं। मानव शरीर के लिए अपेक्षित मात्राओं के आधार पर पोषक तत्वों को मोटे तौर पर वृहत् पोषक और सूक्ष्म पोषक में वर्गीकृत किया गया है। वृहत् पोषक तत्वों में सामान्यतः वसा, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट तथा रेशे आते हैं। सूक्ष्म पोषक तत्वों में खनिज जैसे लौह तत्व, जिंक, सिलेनियम और विभिन्न विटामिन, वसा-विलेय तथा जल-विलेय शामिल हैं।
→ अच्छा स्वास्थ्य और पोषण कैसे सहायक तथा लाभप्रद होता है?
अच्छे स्वास्थ्य वाले लोग प्रायः अधिक प्रसन्नचित्त होते हैं और दूसरों से अधिक कार्य कर सकते हैं। स्वस्थ माता-पिता अपने बच्चों की अच्छी देखभाल कर पाते हैं और स्वस्थ बच्चे प्रायः खुश रहते हैं तथा पढ़ाई में अच्छा परिणाम देते हैं। इस प्रकार, जब कोई स्वस्थ होता है तब वह अपने लिए अधिक रचनाशील होता है और समुदाय स्तर पर गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग ले सकता है। अतः यह स्पष्ट है कि यदि व्यक्ति का स्वास्थ्य और पोषण बेहतर है तो वह समाज का उत्पादक, मिलनसार एवं सहयोगी सदस्य बन सकता है।
→ कुपोषण क्या है?
जब पोषक तत्वों का अंतर्ग्रहण शरीर द्वारा अपेक्षित मात्रा से कम हो, या अपेक्षा से अधिक हो, तो उसका परिणाम कुपोषण होता है। कुपोषण अतिपोषण का रूप भी ले सकता है और अल्पपोषण का भी। किशोरों में कुपोषण का अत्यंत महत्वपूर्ण कारण आहार के गलत विकल्प के प्रति अभिरुचि या संयोजन हो सकता है।
→ पोषणात्मक स्वस्थता को प्रभावित करने वाले कारक-विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार चार मुख्य कारक हैं जो पोषणात्मक स्वस्थता को प्रभावित करते हैं। ये निम्नलिखित हैं
→ पोषण सम्बन्धी समस्याएँ और उनके परिणाम-हमारे देश की जनता में अनेक पोषण-सम्बन्धी समस्याएँ पायी जाती हैं। यथा
→ स्वास्थ्य विज्ञान और स्वच्छता-रोग की रोकथाम तथा नियंत्रण के लिए आंतरिक और बाह्य दोनों कारकों पर ध्यान दिया जाना चाहिए जो विभिन्न रोगों के साथ जुड़े हुए हैं। इन कारकों में स्वास्थ्य विज्ञान तथा स्वच्छता, पोषण तथा प्रतिरक्षण प्रमुख हैं।
स्वास्थ्य विज्ञान प्रमुखतः दो पहलुओं से सम्बन्धित होते हैं-निजी और पर्यावरणी। स्वास्थ्य भोजन सहित मुख्यतः सामाजिक परिवेश, जीवन शैली तथा व्यवहार पर निर्भर करता है। यह स्वच्छता से भी घनिष्ठतः सम्बन्धित होता है। स्वास्थ्य के सिद्धांतों का समुचित रूप से पालन न करने से अनेक संक्रमण तथा कृमिग्रसन हो सकते हैं।
→ कार्य, कार्यकर्ता और कार्यस्थल
(1) परिचय-हम सभी प्रतिदिन घंटों काम करते हैं-बच्चे पढ़ते हैं तथा अन्य जरूरी काम करते हैं, माता-पिता आजीविका अर्जित करते हैं और घर को चलाते हैं। इष्टतम निष्पादन के लिए जरूरी है कि कार्य को परिवेश, कार्यस्थल जहाँ वह निष्पादित किया जाता है और कार्यकर्ताओं के संदर्भ में समझा जाए। यह जानकारी काम के लिए प्रयुक्त ऊर्जा और बिताए गए समय को कम करने में सहायक होती है। इससे काम की दक्षता बढ़ती है। साथ ही, थकान और स्वास्थ्य की अन्य समस्याओं से भी बचाव होगा। अतः यह जरूरी है कि कार्यकर्ता को असुविधाजनक कार्यस्थल पर काम करने के लिए मजबूर करने के बजाय कार्य का वातावरण स्वस्थ बनाया जाए।
(2) कार्य-कार्य को कुछ करने या बनाने के लिए निर्देशित गतिविधि के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, यानी जो कुछ बनाने या करने के लिए दिया जाए। किसी काम को करने या पूरा करने के लिए स्वयं को शारीरिक और/या मानसिक रूप से गतिविधि से संलग्न करना कार्य है। किसी विद्यार्थी के संदर्भ में, कार्य का प्रमुख रूप से यही अर्थ है कि ज्ञान प्राप्त करने के लिए अध्ययन किया जाए। कार्य में अनेक छोटे-बड़े कार्य या उप-कार्य शामिल होते हैं, जो वांछित लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायक होते हैं। किन्तु कार्यों और उपकार्यों को निर्धारित करने से पहले लक्ष्यों के बारे में स्पष्ट होना आवश्यक है।
(3) कार्यकर्ता-कार्यकर्ता वह व्यक्ति होता है जो उत्पाद के परिणाम प्राप्त करने के लिए किसी विशिष्ट काम या गतिविधि को निष्पादित करता है। एक विद्यार्थी का अपने स्कूल का काम करना और गृहिणी द्वारा घर की सफाई करना 'कार्यकर्ता' के उदाहरण हैं।
किए गए कार्य के पहलू-किसी व्यक्ति द्वारा किए गए किसी भी कार्य में निम्नलिखित पहलू निहित होते हैं
(4) कार्यस्थल-यह वह स्थान है जहाँ कोई कार्यकर्ता किसी काम को निष्पादित करते हुए कार्य करता है। कार्यस्थल के कुछ उदाहरण हैं-स्कूल, अध्ययन कक्ष, रसोई आदि। प्रत्येक कार्यस्थल कार्यकर्ता और कार्य दोनों को ध्यान में रखकर डिजाइन किया जाना चाहिए ताकि कम-से-कम ऊर्जा खर्च करते हुए कार्य को सुविधापूर्वक, सुचारु ढंग से और कुशलतापूर्वक निष्पादित किया जा सके।
कार्यस्थल के घटक-कार्यस्थल के निम्नलिखित प्रमुख घटक हैं
(i) भौतिक और रासायनिक पर्यावरण-कार्यस्थल में विशिष्ट रूप से अनेक भौतिक और रासायनिक पर्यावरण कारक होते हैं, जो कि निम्नलिखित हैं
(ii) कार्य-धरातल:
→ संसाधन उपलब्धता और प्रबंधन
(1) परिचय:
(2) समय प्रबंधन:
→ आपका समय-प्रबंधन कितना अच्छा है?
हममें से अधिकांश के पास अपनी सभी गतिविधियाँ पूरी करने के लिए दिन में कभी पर्याप्त समय नहीं होता।
→ समय और गतिविधि योजना के विविध चरण
→ कारगर समय-प्रबंधन के लिए सुझाव
→ समय प्रबंधन की स्थितियाँ-निम्नलिखित स्थितियाँ समय के प्रभावी प्रबंधन में मदद करती है
इसका उद्देश्य होता है-समय-ऊर्जा की निर्दिष्ट मात्रा में अधिकाधिक काम का निष्पादन या निर्धारित काम को पूरा करने के लिए समय या ऊर्जा या दोनों की मात्रा घटाना या बढ़ाना। ऐसे परिवर्तन के लिए ये स्तर महत्त्वपूर्ण हैं
→ स्थान प्रबंधन-स्थान प्रबंधन में शामिल है-स्थान का नियोजन, योजनानुसार उसकी व्यवस्था, उसके उपयोग के अनुसार योजना का क्रियान्वयन और कार्यकारिता तथा सौंदर्यबोध की दृष्टि से उसका मूल्यांकन। सुप्रबंधित स्थान न केवल काम करते समय आराम देता है, बल्कि आकर्षक भी दिखता है।
(i) स्थान और घर-घर में प्रायः विशिष्ट क्षेत्र निर्धारित किए जाते हैं। अधिकांश शहरी मध्यवर्गीय घरों में एक बैठक, एक या उससे अधिक शयनकक्ष, रसोईघर, भंडारघर, स्नानागार, शौचालय और बरामदा/आँगन (ऐच्छिक) होते हैं। इसके अलावा कुछ घरों में अतिरिक्त कमरे भी हो सकते हैं, जैसे-भोजन कक्ष, अध्ययन कक्ष, मनोरंजन कक्ष,
शृंगार कक्ष, अतिथि कक्ष, बाल कक्ष, गैराज (स्कूटर या कार के लिए), सीढ़ियाँ, गलियारे, पूजा-घर, बगीचा, बालकनी आदि।
(ii) स्थान नियोजन के सिद्धांत
→ अधिगम, शिक्षा और विस्तार
(1) अधिगम-अधिगम (सीखना) की हमारे जीवन में एक बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। यह हमारे ज्ञान, बोध और व्यवहार का आधार है। हम पैदा होते ही सीखना शुरू कर देते हैं। भ्रूण माता की कोख में भी सीखता है अर्थात् सीखना जीवन के साथ ही शुरू हो जाता है। अतः अनुभव के परिणामस्वरूप नया व्यवहार प्राप्त करना या पहले वाले व्यवहार में सुधार करना अथवा उसे छोड़ देना अधिगम कहलाता है।
अधिगम की प्रक्रिया में तीन मुख्य घटक होते हैं- सीखने वाला, जिसके व्यवहार में बदलाव आता है।
अधिगम के प्रकार-अधिगम पाँच प्रकार से हो सकता है
(2) शिक्षा-शिक्षा हमारे भौतिक, भावात्मक, संज्ञानात्मक और इंद्रियातीत अनुभवों के माध्यम से हमें संसार का बोध कराती है। यह मानवों की अंतःशक्ति को प्रकट करने में भी मदद करती है। शिक्षा विभिन्न रूपों में हो सकती है, औपचारिक भी और अनौपचारिक भी। बीसवीं सदी के एक भारतीय दार्शनिक श्री अरविंद के अनुसार, शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मानव मन तथा आत्मा की शक्तियों का निर्माण है| यह ज्ञान तथा इच्छा का प्रोत्साहन है और ज्ञान, चरित्र एवं संस्कृति को प्रयोग करने की शक्ति है।
→ शिक्षा और परिवार
हर औपचारिक शिक्षा में विषयवस्तु होती है जिसे पाठ्यक्रम कहते हैं। शिक्षा के विभिन्न चरणों के दौरान, प्राथमिक से तृतीयक तक, अनेक पाठ तथा विषय होते हैं जो हमें परिवार के बारे में बताते हैं। किसी प्राथमिक कक्षा में अपना पहला निबंध लिखने तथा परिवार का चित्र बनाने से शुरू करके आप परिवार की व्यापक संकल्पना बनाने लगते हैं।
इसके अतिरिक्त सामाजिक अध्ययन पाठ्यक्रम के अनेक पहलुओं ने भी संसार में परिवार की विविधता के बारे में जानकारी उपलब्ध कराई। समाज विज्ञान और अब मानव पारिस्थितिकी तथा परिवार विज्ञान जैसे विषय इस क्षेत्र में आपके ज्ञान को और बढ़ाते हैं। इस प्रकार, हमें पता चलता है कि शहरी, ग्रामीण तथा आदिवासी परिवार अलगअलग होते हैं, जिनकी ज़रूरतें और अनुभव अलग-अलग होते हैं।
→ शिक्षा और स्कूल
औपचारिक शिक्षा उपलब्ध कराने में विद्यालय एक महत्वपूर्ण संस्था है। देश के अनेक भागों में, विद्यालय-पूर्व समूह को भी औपचारिक विद्यालय के साथ जोड़ दिया गया है। साथ ही, यह भी सम्भव है कि कोई छात्र अनौपचारिक शिक्षा ले।
(क) औपचारिक शिक्षा-यह पढ़ाने और सीखने की एक सुव्यवस्थित प्रणाली है। इसका उत्तरदायित्व वे संस्थाएँ लेती हैं जो सरकार द्वारा या मान्यता प्राप्त गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा चलाई जाती हैं। इस प्रकार विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, तकनीकी और व्यावसायिक संस्थाएँ औपचारिक शिक्षा देती हैं। शिक्षा की सभी औपचारिक संस्थाओं की कुछ सामान्य विशेषताएँ होती हैं। यथा
(ख) अनौपचारिक शिक्षा-भारत में ऐसे अनेक बच्चे हैं जो कई कारणों से स्कूल नहीं जा पाते। फिर ऐसे वयस्क भी हैं जो बचपन में स्कूल नहीं जा पाए या अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर पाए। अनौपचारिक शिक्षा की प्रणाली इन शिशुओं को शिक्षा प्राप्त करने का अवसर उपलब्ध कराती है। बेसहारा तथा कामकाजी बच्चों के लिए अनौपचारिक केंद्र हैं और वयस्कों के लिए प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम हैं। शिक्षा का लक्ष्य यहाँ भी ज्ञान प्राप्त करना और कुशलता विकसित करना है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ हैं
→ शिक्षा, समुदाय और समाज
बच्चों, युवाओं तथा पर्यटकों को जो शिक्षा मिलती है, उसे अंततः हमारे इर्द-गिर्द समुदाय के और समग्र समाज के विकास में मदद करनी चाहिए। ज्ञान प्राप्ति, निजी विकास और शिक्षा में प्रक्रियाओं के माध्यम से व्यक्ति कौशल | अर्जन करते हैं जो उन्हें राष्ट्र निर्माण में और वैश्विक स्तर पर मानव विकास में योगदान करने की शक्ति देते हैं।
→ विस्तार-शिक्षा और विस्तार में गहन सम्बन्ध है। आज अनुसंधान, प्रशिक्षण दृष्टिकोण, संचार एवं प्रौद्योगिकी, गैर सरकारी संगठन आंदोलन तथा सरकारी हस्तक्षेप के माध्यम से विस्तारण, राष्ट्रीय विकास का एक साधन बन गया है।
→ विस्तार और विस्तार शिक्षा
→ विस्तार शिक्षा के सिद्धांत
→ विस्तार अध्ययन विधियाँ-विस्तार कार्य में निम्नांकित विधियों का प्रयोग किया जाता है
→ कुछ ग्रामीण रोजगार उत्पादन तथा अन्य योजनाएँ
ग्रामीण तथा शहरी दोनों क्षेत्रों में लोगों के जीवन की गुणवत्ता सुधारने के लिए सरकार द्वारा अनेक योजनाएँ बनाई गई हैं। जैसे
→ भारत की वस्त्र परंपराएँ
(1) परिचय-मानव 20,000 वर्ष पूर्व भी वस्त्र बनाने की कला जानता था। प्राचीन साहित्य के संदर्भो में गुफाओं तथा भवनों में दीवारों पर चित्रकारी से भी हमें उनके बारे में जानकारी मिलती है। वस्त्र सामग्रियों ने प्राचीन काल से मानवों को मोहित किया है, ये सभ्यता का अनिवार्य अंग रही हैं। सभी प्राचीन सभ्यताओं के लोगों ने अपने प्रदेश में उपलब्ध कच्ची सामग्री के उपयोग के लिए तकनीकें एवं प्रौद्योगिकियाँ विकसित की थीं। उन्होंने स्वयं अपने विशिष्ट डिजाइनों की रचना की और अलंकृत डिजाइनों वाले उत्पाद पैदा किए।
(2) भारत में ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य-भारत में परिष्कृत वस्त्रों का उत्पादन उतना ही प्राचीन है, जितनी भारतीय सभ्यता। भारत में बुनाई सबसे पुरानी कला है और महीन कपड़े के उत्पाद बहुत पुराने समय से बनाए जाते रहे हैं। भारत में सूत की कताई, बुनाई, रंगाई और कशीदाकारी की परम्पराएँ कम से कम 5000 वर्ष पुरानी हैं। कपड़े के टुकड़े और टेरा-कोटा तकले तथा कांस्य की सूइयाँ भी, जो मोहनजोदड़ो में खुदाई के स्थल पर मिली हैं। प्राचीन साहित्य (ग्रीक और लैटिन) में सूत, रेशम तथा ऊन से बनाए गए भारतीय कपड़ों की उत्कृष्टता की प्रशंसा के उल्लेख मिलते हैं। लगभग 15वीं शताब्दी से ही भारत वस्त्रों का सबसे बड़ा निर्यातक था। यूरोपीय राष्ट्रों द्वारा विभिन्न ईस्ट इंडिया कंपनियों की स्थापना भारत में वस्त्र व्यापार के साथ सम्बन्धित थी।
(3) तीन मुख्य रेशे-पारम्परिक रूप से भारतीय कपड़े का उत्पादन तीन मुख्य प्राकृतिक रेशों के साथ जुड़ा हुआ है-कपास, रेशम और ऊन। यथा
(i) कपास-भारत कपास का घर है। कपास की खेती और बुनाई में उसका प्रयोग प्रागैतिहासिक काल से विदित है। कपास का चलन भारत से सारे संसार में फैल गया। ढाका (बांग्लादेश) में सबसे बारीक कपड़ा 'मलमल खास' या 'शाही मस्लिन' बनाया गया। जामदानी' या बंगाल तथा उत्तर भारत के भागों के कपास के उपयोग से पारम्परिक रूप से बुनी जाने वाली अलंकृत मलमल भारतीय बुराई का सर्वोत्तम ब्रोकेड उत्पाद है।
सूती कपड़ा बनाने में निपुणता के अतिरिक्त, भारत की सर्वोच्च वस्त्र उपलब्धि चटकीले पक्के रंगों के साथ सूती कपड़े में पैटर्न बनाने की थी। यूरोपीय फ़ैशन तथा बाजार में भारतीय छींट (छपाई और चित्रकारी वाला सूती कपड़ा) ने क्रांति ला दी थी। भारतीय शिल्पकार संसार के सर्वोत्तम रंगरेज़ थे। सूत की बुनाई सारे भारत में अब भी होती है। विविध उत्पाद अलग-अलग डिज़ाइनों तथा रंगों में बनाया जाता
(ii) रेशम-भारत में रेशम के कपड़े प्राचीन काल से बनाए जाते हैं। वैसे तो रेशम का मूल चीन में था, परंतु कुछ रेशम का प्रयोग भारत में भी किया गया। भारतीय तथा चीनी रेशम में भेद किया गया है। रेशम के बुनाई केंद्र राज्यों
की राजधानियों, तीर्थ स्थलों और व्यापार केंद्रों के निकट विकसित हुए। बुनकरों के प्रयास से अनेक नए केंद्र विकसित और स्थापित हुए। विभिन्न प्रदेशों में रेशम की बुनाई की विशिष्ट शैलियाँ हैं।
भारत में रेशम के केन्द्र
(iii) ऊन-ऊन का विकास शीतल प्रदेशों के साथ जुड़ा हुआ है। जैसे-लद्दाख की पहाड़ियाँ, जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल की पहाड़ियाँ, कुछ उत्तर-पूर्वी राज्य, पंजाब, राजस्थान और मध्य तथा पश्चिम भारत के कुछ स्थान। ऊन के सबसे पुराने संदर्भ में पहाड़ी बकरियों और कुछ हिरण जैसे जानवरों से प्राप्त बहुत बारीक बाल का उल्लेख है। इसके अतिरिक्त भेड़ तथा अन्य जानवरों (खरगोशों तथा ऊँटों) के बाल भी प्रयुक्त किए जाते हैं। सर्वोत्तम शालें पश्मीना और शाहतूस-पहाड़ी बकरियों के बालों से बनाई गईं। बाद में, शालों पर कशीदाकारी भी की जाने लगी। हिमाचल प्रदेश की शालें व कुल्लू घाटी के पट्ट और तेहरू काफी प्रसिद्ध हैं।
(4) रंगाई-भारत में रंगाई का इतिहास बहुत पुराना है। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से पहले रंग केवल प्राकृतिक स्रोतों, जैसे-पादपों की जड़, छाल, पत्ते, फूल और बीज आदि से लिए जाते थे। कुछ कीटों तथा खनिजों से भी रंग मिलता था। भारतीयों को रंगों के रसायन, पक्के रंग की विशिष्टता तथा विख्यात वस्तुओं के उत्पादन में रंग के अनुप्रयोग की तकनीकों का गहरा ज्ञान था।
→ रंगरोधी रंगाई वाले वस्त्र
रंग के साथ डिजाइन बनाने का सबसे पुराना रूप रंगरोधी रंगाई है। रोध की सामग्री धागा, कपड़े के टुकड़े या मृदा तथा मोम जैसे पदार्थ हो सकते हैं, जो भौतिक प्रतिरोध करते हैं। रोध की सबसे अधिक प्रचलित विधि धागे से बाँधने की है। भारत में बनाए जाने वाले टाई एंड डाई कपड़ों की दो विधियाँ हैं-फेब्रिक टाई एंड डाई और धागा टाई एंड डाई। दोनों ही मामलों में जिस भाग पर डिज़ाइन बनाना हो, उसके चारों ओर कस कर धागा लपेट कर बाँध देते हैं और रंगते हैं। रंगाई प्रक्रिया के दौरान, बंधा हुआ अंश अपना मूल रंग बनाए रखता है।
→ कपड़ा टाई एंड डाई:
बंधनी, चुनरी, लहरिया आदि कुछ वस्त्र हैं जिनमें कपड़े को बुनने के बाद टाई-डाई द्वारा पैटर्न बनाए जाते हैं।
→ धागा टाई एंड डाई:
यह एक जटिल प्रक्रिया है। इन्हें इकत कपड़े कहते हैं। यदि केवल एक ही धागे अर्थात् केवल ताने या बाने के धागे की टाई रंगाई की गई हो तो उसे एक एकल इकत कहते हैं; यदि दोनों धागों को इस प्रकार रंगा गया हो तो यह संयुक्त इकत कहलाता है।
(5) कशीदाकारी-सूई या सूई जैसे औज़ारों का प्रयोग करके रेशम, सूत, स्वर्ण या चाँदी के धागों से कपड़ों की सतह को अलंकृत करने की कला कशीदाकारी है। कशीदाकारी सारे देश में प्रचलित थी क्योंकि यह
कशीदाकारी को सामान्यतः एक घरेलू हस्तशिल्प माना जाता है। यह एक ऐसा व्यवसाय है जिसे महिलाएं अपने खाली समय के दौरान मुख्यतः परिधान या घरेलू प्रयोग की वस्तुओं को अलंकृत करने या सजाने के लिए करती हैं। फिर भी, कशीदाकारियाँ देश के भीतर और संसार के विभिन्न भागों में भी व्यापार की वस्तुएँ बन गई हैं।
→ कशीदाकारी की प्रमुख शैलियाँ:
भारत में कशीदाकारी की कुछ प्रमुख शैलयाँ निम्नलिखित हैं
→ गुजरात के कशीदे की बहुत समृद्ध परंपरा है:
गुजरात मूलतः खानाबदोश जनजातियों का प्रदेश रहा है, जो विभिन्न संस्कृतियों के डिजाइनों तथा तकनीकों के सम्मिश्रण के लिए प्रख्यात है। यहाँ कसीदे का प्रयोग जीवन के सभी पहलुओं के लिए किया जाता है। अनेक कशीदों को जनजातियों के नाम से जाना जाता है-महाजन, राबरी, मोचीभारत, कन्बीभारत और सिंधी। गुजरात तथा राजस्थान की सीमा में निकटता है। राजस्थान में भी जनजातीय आबादी है। अतः उनका कशीदा समान शैली का है।
चंबा रुमाल-हिमाचल प्रदेश में चंबा के पूर्व पहाड़ी राज्य के 'चंबा रुमाल' मुख्य उपहारों की ट्रे को ढकने के लिए बनाए जाते थे। रुमालों पर पहाड़ी चित्रकारी की जाती थी, बहिरेखा में रनिंग स्टिच का प्रयोग तथा भराई में डार्क स्टिच का प्रयोग होता था।
निष्कर्ष-भारत में सुंदर-सुंदर वस्त्र मिलते हैं, जिन्हें उनके सौंदर्य तथा दस्तकारी के लिए विश्व भर में मान्यता मिली है। भारत में प्रचलित कला के समसामयिक रूप को समृद्धि और विविधता का श्रेय बहुत हद तक इसकी मिट्टी पर असंख्य सांस्कृतिक वंशों के सह-अस्तित्व को जाता है। भारतीय वस्तुओं की लगभग सभी परंपराएँ बनी हुई हैं। नए डिजाइनों के विकास ने युगों पुरानी परम्पराओं को केवल समृद्ध किया है।