Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Hindi अपठित बोध अपठित पद्यांश Questions and Answers, Notes Pdf.
The questions presented in the RBSE Solutions for Class 11 Hindi are solved in a detailed manner. Get the accurate RBSE Solutions for Class 11 all subjects will help students to have a deeper understanding of the concepts.
अपठित बोध -
अपठित गद्यांश एवं पद्यांश -
अपठित का अर्थ-'अ' का अर्थ है 'नहीं' और 'पठित' का अर्थ है-'पढ़ा हुआ' अर्थात् जो पढ़ा नहीं गया हो । प्रायः शब्द का अर्थ उल्टा करने के लिए उसके आगे 'अ' उपसर्ग लगा देते हैं । यहाँ 'पठित' शब्द से 'अपठित' शब्द का निर्माण 'अ' लगने के कारण हुआ है।
'अपठित' की परिभाषा गद्य एवं पद्य का वह अंश जो पहले कभी नहीं पढ़ा गया हो, 'अपठित' कहलाता है । दूसरे शब्दों में ऐसा उदाहरण जो पाठ्यक्रम में निर्धारित पुस्तकों से न लेकर किसी अन्य पुस्तक या भाषा-खण्ड से लिया गया हो, अपठित अंश माना जाता है।
'अपठित' का महत्व प्रायः विद्यार्थी पाठ्यक्रम में निर्धारित गद्य व पद्य अंशों को तो हृदयंगम कर लेते हैं, किन्तु जब उन्हें पाठ्यक्रम के अलावा अन्य अंश पढ़ने को मिलते हैं या पढ़ने पड़ते हैं तो उन्हें उन अंशों को समझने में परेशानी आती है । अतएव अपठित अंश के अध्ययन द्वारा विद्यार्थी सम्पूर्ण भाषा-अंशों के प्रति तो समझ विकसित करता ही है, साथ ही उसे नये-नये शब्दों को सीखने का भी अच्छा अवसर मिलता है । 'अपठित' अंश विद्यार्थियों में मौलिक लेखन की भी क्षमता उत्पन्न करता है।
निर्देश - अपठित अंशों पर प्रायः तीन प्रकार के प्रश्न पूछ जाते हैं -
(क) विषय-वस्तु का बोध, (ख) शीर्षक का चुनाव (ग) भाषिक संरचना। (क) विषय-वस्तु का बोध-इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर देते समय निम्न बिन्दुओं पर ध्यान देना चाहिए -
(ख) शीर्षक का चुनाव-शीर्षक का चयन करते समय निम्न बातों का ध्यान रखें
(ग) भाषिक संरचना - इस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर के लिए व्याकरण का ज्ञान आवश्यक है।
विशेष - पहले आप पूरे अवतरण को 2-3 बार पढ़कर उसके मर्म को समझने का प्रयास करें। तभी आप उक्त तीनों प्रकार के प्रश्नों के उत्तर सरलतापूर्वक दे पाएँगे। आपके अभ्यास के लिए कुछ अपठित अंश यहाँ दिए जा रहे हैं।
अपठित गद्यांश :
1. सम्पूर्ण सौरमण्डल में आज तक पृथ्वी ही ऐसा ज्ञात ग्रह है जहाँ जल का अपार भण्डार है। जल के बिना जीवन की कल्पना ही असम्भव है। जल ने ही पृथ्वी पर चर-अचर जीव जगत् को सम्भव बनाया है। मानव-शरीर में भी सर्वाधिक मात्रा जल की है। जल की कमी हो जाने पर जीवन के लाले पड़ जाते हैं और कृत्रिम उपायों से शरीर में उसकी पूर्ति करनी पड़ती है। स्वास्थ्य, पर्यावरण संतुलन तथा हमारी सुख-सुविधा, आमोद-प्रमोद और मनोरंजन भी जल से जुड़े हैं। घरों में कपड़े धोने, भोजन बनाने, स्नान करने और कूलर आदि चलाने में जल ही सहायक होता है।
कल्पना कीजिए कि पृथ्वी जल-विहीन हो जाय तो क्या दृश्य उपस्थित होगा ? सारा जीव जगत् - तड़प-तड़पकर दम तोड़ेगा। हमारी आकाश-गंगा का शायद एकमात्र दर्शनीय ग्रह यह पृथ्वी, सुनसान, कंकालों के ढेरों से युक्त पिण्ड बनकर रह.जाएगी। आज प्रकृति के इस नि:शुल्क उपहार पर संकट के बादल मँडरा रहे हैं। नगरों और महानगरों के अबाध विस्तार ने तथा औद्योगिकीकरण के उन्माद ने भूगर्भीय जल के मनमाने दोहन और अपव्यय को प्रोत्साहित किया है। भारत के अनेक प्रदेश, जिनमें राजस्थान भी सम्मिलित है, जल-स्तर के निरंतर गिरने से संकटग्रस्त हैं। जल की उपलब्धता निरंतर कम होती जा रही है। इस संकट के लिए मनुष्य ही प्रधान रूप से उत्तरदायी है।
प्रश्न :
उत्तर :
2. प्राचीन-काल में जब धर्म-मजहब समस्त जीवन को प्रभावित करता था, तब संस्कृति के बनाने में उसका भी हाथ था; किन्तु धर्म के अतिरिक्त अन्य कारण भी सांस्कृतिक-निर्माण में सहायक होते थे। आज मजहब का प्रभाव बहुत कम हो गया है। अन्य विचार जैसे राष्ट्रीयता आदि उसका स्थान ले रहे हैं।
राष्ट्रीयता की भावना तो मजहबों से ऊपर है। हमारे देश में दुर्भाग्य से लोग संस्कृति को धर्म से अलग नहीं करते हैं। इसका कारण अज्ञान और हमारी संकीर्णता है। हम पर्याप्त मात्रा में जागरूक नहीं हैं। हमको नहीं मालूम है कि कौन-कौन-सी शक्तियाँ काम कर रही हैं और इसका विवेचन भी ठीक से नहीं कर पाते कि कौन-सा मार्ग सही है? इतिहास बताता है कि वही देश पतनोन्मुख हैं जो युग-धर्म की उपेक्षा करते हैं और परिवर्तन के लिए तैयार नहीं हैं। परन्तु हम आज भी अपनी आँखें नहीं खोल पा रहे हैं।
परिवर्तन का यह अर्थ कदापि नहीं है कि अतीत की सर्वथा उपेक्षा की जाए। ऐसा हो भी नहीं सकता। अतीत के वे अंश जो उत्कृष्ट और जीवन-प्रद हैं उनकी तो रक्षा करनी ही है; किन्तु नये मूल्यों का हमको स्वागत करना होगा तथा वह आचार-विचार जो युग के लिए अनुपयुक्त और हानिकारक हैं, उनका परित्याग भी करना होगा।
प्रश्न :
उत्तर :
3. पड़ोस सामाजिक जीवन के ताने-बाने का महत्त्वपूर्ण आधार है। दरअसल पड़ोस जितना स्वाभाविक है, उतना ही सामाजिक-सुरक्षा के लिए तथा सामाजिक जीवन की समस्त आनंदपूर्ण गतिविधियों के लिए आवश्यक भी है। पड़ोसी का चुनाव हमारे हाथ में नहीं होता, इसलिए पड़ोसी के साथ कुछ न कुछ सामंजस्य तो बिठाना ही पड़ता है। हमारा पड़ोसी अमीर हो या गरीब, उसके साथ संबंध रखना सदैव हमारे हित में ही होता है। आकस्मिक आपदा व आवश्यकता के समय पड़ोसी ही सबसे अधिक विश्वस्त सहायक हो सकता है।
प्रायः जब भी पड़ोसी से खटपट होती है, तो इसलिए कि हम आवश्यकता से अधिक पड़ोसी के व्यक्तिगत अथवा पारिवारिक जीवन में हस्तक्षेप करने लगते हैं। पड़ोसी के साथ कभी-कभी तब भी अवरोध पैदा हो जाते हैं जब हम ससे अपेक्षा करने लगते हैं। ध्यान रखना चाहिए कि जब तक बहुत जरूरी न हो, पड़ोसी से कोई चीज माँगने की नौबत ही न आए। आपको परेशानी में पड़ा देख पड़ोसी खुद ही आगे आ जाएगा।
प्रश्न :
उत्तर :
4. चिरगाँव में समवेत मानस पाठ का कार्यक्रम चल रहा था। फादर कामिल बुल्के किसी काम से झाँसी से आए थे। उन्हें इसकी खबर लगी। संत बुल्के जी चिरगाँव रवाना हो गए। उनका हार्दिक स्वागत-सत्कार किया गया। परन्तु इस सबके बीच सभी भाइयों को एक चिन्ता थी, बुल्के जी को भोजन कैसे कराया जाए। परिवार की वैष्णव मान्यता थी - 'अतिथिदेवो भव।' अतः अतिथि को रसोई में भोजन कराया जाना चाहिए। लेकिन सबसे बड़े भाई रामकिशोर जी, जिन्हें सभी नन्ना कहते थे, वे अपने परहेज में दृढ़ थे। पारिवारिक मर्यादा ऐसी थी कि नन्ना से.. कौन कहे और कैसे कहे ? दद्दा बोले, "मुन्नी (महादेवी) तुम्हीं, नन्ना से कह देखो, शायद तुम्हारी बात वे सुनें।" मुझे भी साहस नहीं हो
रहा था। किसी तरह साहस बटोरकर नन्ना तक गयी।
"कैसे आयी मुन्नी ?"
"नन्ना ! वे फादर बुल्के आए हुए हैं ?"
"तो, आये तो हैं, यह तो मुझे भी मालूम है?" नन्ना ने पूछा।
"वे-वे-" मैं (महादेवी) हकलाने लगी। नन्ना मुक्त भाव से बोले - पगली, सन्त की कोई जाति नहीं होती। फादर कामिल बुल्के रसोई में मेरे साथ भोजन करेंगे।"
इतनी बड़ी कठिनाई इतनी सरलता से हल हो गयी। हम सबकी आँखों में एक आभार डबडबा आया। यह उस जमाने की बात है जब राष्ट्रीयता एक मूल्य थी, महज़ एक नारा नहीं।
प्रश्न :
उत्तर :
5. प्रत्येक व्यक्ति अपनी उन्नति और विकास चाहता है और यदि एक की उन्नति और विकास, दूसरे की उन्नति और विकास में बाधक हो, तो संघर्ष पैदा होता है और यह संघर्ष तभी दूर हो सकता है जब सबके विकास के पथ अहिंसा के हों। हमारी सारी संस्कृति का मूलाधार इसी अहिंसा तत्व पर स्थापित रहा है। जहाँ-जहाँ हमारे नैतिक सिद्धान्तों का वर्णन आया है, अहिंसा को ही उनमें मुख्य स्थान दिया गया है। अहिंसा का दूसरा नाम या दूसरा रूप त्याग है।
श्रुति कहती है- 'तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः। इसी के द्वारा हम व्यक्ति-व्यक्ति के बीच का विरोध, व्यक्ति और समाज के बीच का विरोध, समाज और समाज के बीच का विरोध, देश और देश के बीच के विरोध को मिटाना चाहते हैं। हमारी सारी नैतिक चेतना इसी तत्त्व से ओत-प्रोत है। इसलिए हमने भिन्न-भिन्न विचारधाराओं, धर्मों और सम्प्रदायों को स्वतंत्रतापूर्वक पनपने और भिन्न-भिन्न भाषाओं को विकसित और प्रस्फुटित होने दिया, भिन्न-भिन्न देशों की संस्कृतियों को अपने में मिलाया। देश और विदेश में एकसूत्रता, तलवार के जोर से नहीं, बल्कि प्रेम और सौहार्द्र से स्थापित की।
प्रश्न :
उत्तर :
6. आज की विचित्र शिक्षण-पद्धति के कारण जीवन के दो टुकड़े हो जाते हैं। आयु के पहले पन्द्रह-बीस बरस में आदमी जीने के झंझट में न पड़कर सिर्फ शिक्षा प्राप्त करे और बाद में शिक्षण को बस्ते में लपेटकर मरने तक जिए। - आज की शिक्षण-पद्धति का तो यह ढंग है कि अमुक वर्ष के बिल्कुल आखिरी दिन तक मनुष्य-जीवन के विषय में पूर्ण रूप-से गैर-जिम्मेदार रहे तो भी कोई हर्ज नहीं और आगामी वर्ष का पहला दिन निकले कि सारी जिम्मेदारी उठा लेने को तैयार हो जाना चाहिए। सम्पूर्ण गैर-जिम्मेदारी से सम्पूर्ण जिम्मेदारी में कूदना तो एक हनुमान-कूद हुई। ऐसी हनुमान कूद की कोशिश में हाथ-पैर टूट जाए तो क्या अचरज!
जिन्दगी की जिम्मेदारी कोई निरी मौत नहीं है और मौत ही कौन ऐसी बड़ी मौत है ? अनुभव के प्रभाव से यह 'हौआ' है। जीवन और मरण दोनों आनन्द की वस्तु होनी चाहिए। कारण, परमपिता ईश्वर ने हमें दोनों दिए हैं। उसने जीवन दु:खमय नहीं रचा; पर हमें जीवन में जीना आना चाहिए। कल्पना की क्या आवश्यकता है ? प्रत्यक्ष ही देखिए न ! हमारे लिए जो चीज जितनी जरूरी है उतनी ही सुलभता से मिलने का इंतजाम ईश्वर की ओर से है। पानी से हवा जरूरी है तो ईश्वर ने पानी से हवा को अधिक सुलभ किया है। पानी से अन्न की जरूरत कम होने की वजह से पाना प्राप्त करने की वनिस्बत अन्न प्राप्त करने में अधिक परिश्रम करना पड़ता है।
प्रश्न :
उत्तर :
7. जिन्दगी को मौत के पंजों से मुक्त कर उसे अमर बनाने के लिए आदमी ने पहाड़ काटा है। किस तरह इन्सान की खूबियों की कहानी सदियों के बाद आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचायी जाय, इसके लिए आदमी ने कितने ही उपाय सोचे और किये। उसने चट्टानों पर अपने संदेश खोदे, ताड़ों-से ऊँचे, धातुओं-से चिकने पत्थर के खम्भे खड़े किये, ताँबे और पीतल के पत्तरों पर अक्षरों के मोती बिखेरे और उसके जीवन-मरण की कहानी सदियों के चित्र उतारकर सरकती चली आयी, चली आ रही है, जो आज हमारी अमानत-विरासत बन गयी है।
आज से कोई सवा दो हजार साल पहले से ही हमारे देश में पहाड़ काटकर मंदिर बनाने की परिपाटी चल पड़ी थी। अजन्ता की गुफाएँ पहाड़ काटकर बनायी जाने वाली देश की सबसे प्राचीन गुफाओं में से हैं, जैसे एलोरा और एलीफैंटा की सबसे पिछले काल की। देश की गुफाओं या गुफा-मंदिरों में सबसे विख्यात गुफा-मंदिर अजन्ता के हैं, जिनकी दीवारों और छतों पर लिखे चित्र दुनिया के लिए नमूने बन गये हैं।
प्रश्न :
उत्तर :
8. कर्त्तव्य-पालन और सत्यता में बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध है। जो मनुष्य अपना कर्त्तव्य-पालन करता है वह अपने कामों और वचनों में सत्यता का बर्ताव भी रखता है। वह ठीक समय पर उचित रीति से अच्छे कामों को करता है। सत्यता ही एक ऐसी वस्तु है जिससे इस संसार में मनुष्य अपने कार्यों में सफलता पा सकता है। इसीलिए हम लोगों को अपने कार्यों में सत्यता को सबसे ऊँचा स्थान देना उचित है। झूठ की उत्पत्ति पाप, कुटिलता और कायरता के कारण होती है।
बहुत से लोग नीति और आवश्यकता के बहाने झूठ की बात करते हैं। वे कहते हैं कि इस समय इस बात को प्रकाशित न करना और दूसरी बात को बनाकर कहना, नीति के अनुसार, समयानुकूल और परम आवश्यक है। झूठ बोलना और कई रूपों में दिखाई पड़ता है। जैसे चुप रहना, किसी बात को बढ़ा-चढ़ा कर कहना, किसी बात को छिपाना, भेद बतलाना, झूठ-मूठ दूसरों के साथ हाँ में हाँ मिलाना, प्रतिज्ञा करके उसे पूरा न करना और सत्य को न बोलना इत्यादि। जबकि ऐसा करना धर्म के विरुद्ध है, तब ये सब बातें झूठ बोलने से किसी प्रकार कम नहीं है।
प्रश्न :
उत्तर :
9. हर राष्ट्र को अपने सामान्य काम-काज एवं राष्ट्रव्यापी व्यवहार के लिए किसी एक भाषा को अपनाना होता है। राष्ट्र की कोई एक भाषा स्वाभाविक विकास और विस्तार करती हुई अधिकांश जन-समूह के विचार-विनिमय और व्यवहार का माध्यम बन जाती है। इसी भाषा को वह राष्ट्र, राष्ट्रभाषा का दर्जा देकर, उस पर शासन की स्वीकृति की मुहर लगा देता है। हर राष्ट्र की प्रशासकीय-सुविधा तथा राष्ट्रीय एकता और गौरव के निमित्त एक राष्ट्रभाषा का होना परम आवश्यक होता है। सरकारी काम-काज की केन्द्रीय भाषा के रूप में यदि एक भाषा स्वीकृत न होगी तो प्रशासन में नित्य ही व्यावहारिक कठिनाइयाँ आयेंगी। अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में भी राष्ट्र की निजी भाषा का होना गौरव की बात होती है।
एक राष्ट्रभाषा के लिए सर्वप्रथम गुण है- उसकी 'व्यापकता'। राष्ट्र के अधिकांश जन-समुदाय द्वारा वह बोली तथा समझी जाती हो। दूसरा गुण है- 'उसकी समृद्धता'। वह संस्कृति, धर्म, दर्शन, साहित्य एवं विज्ञान आदि विषयों को अभिव्यक्त करने की सामथ्ये रखती हो। उसका शब्दकोष व्यापक और विशाल हो और उसमें समयानुकूल विकास की सामर्थ्य हो। यदि निष्पक्ष दृष्टि से विचार किया जाए तो हिन्दी को ये सभी योग्यताएँ प्राप्त हैं। अतः हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा होने की सभी योग्यताएँ रखती है।
प्रश्न :
उत्तर :
10. तीर्थ-। की संस्था अंततोगत्वा मातृ-भूमि के प्रति प्रेम की, श्रद्धा की अभिव्यक्ति है। यह देश की पूजा की लाक्षणिक रीति में से एक है। पितृ-भूमि के प्रति प्रेम ने अपने उत्साह की तीव्रता में सारे देश में हजारों तीर्थ-स्थानों को जन्. दिया है, जिससे उसका प्रत्येक भाग पवित्र और पूजा योग्य माना जाए। पूजा और यात्रा सिर्फ इसलिए नहीं की जाती कि वे धार्मिक व्यक्तियों और कार्यों से, साधुओं और विद्वानों के समागम से पवित्र हैं, बल्कि इसलिए भी की जाती है कि वे स्वयं सुन्दर स्थान हैं जो 'चिरस्थायी आनन्द' देने वाले हैं क्योंकि वे मंदिरों के नगर हैं और वास्तुकला और अन्य कलाओं से सम्पन्न हैं।
तीर्थ-यात्रा सार्वजनिक भावना की अभिव्यक्ति की हिन्दू रीति होने के अलावा, राष्ट्रीय-चरित्र पर एक और उल्लेखनीय प्रभाव पैदा करती है। यह न केवल देश के प्रति लोगों के प्रेम को पुष्ट करती और जीवित रखती है अपितु यह लोगों की भौगोलिक चेतना को भी बढ़ाती है, जो इसके न होने पर आवश्यक रूप से अपने प्रदेश या बस्ती तक संकुचित रखती। देश भर में बिखरे हुए बहुत से तीर्थ-स्थानों का परिणाम यह है कि लाखों अनपढ़ लोगों का भौगोलिक दृष्टिकोण विस्तृत हो जाता है और इस प्रकार उनकी अपने असली छोटे-से घर या जन्मस्थान की सीमाएँ स्वभावतः और स्वतः बढ़ जाती हैं और वह धीरे-धीरे उस सारे क्षेत्र को अपना देश मानना सीखते हैं। तीर्थ-यात्रा भौगोलिक-चेतना की सार्वजनिक शिक्षा का बड़ा उपयोगी साधन है।
प्रश्न :
उत्तर :
11. शब्द-शास्त्र में जो लोग निपुण होते हैं उनको कर्त्तव्य अकर्त्तव्य की हमेशा ही विवेचना करनी पड़ती है। कर्तव्यनिष्ठ लोगों को ऐसी दुविधा कभी परेशान नहीं कर पाती। कस्तूरबा के सामने उनका कर्त्तव्य किसी दीये के समान स्पष्ट था। कभी कोई चर्चा शुरू हो जाती तब 'मुझसे यही होगा' और 'यह नहीं होगा'-इन दो वाक्यों में ही अपना फैसला सुना देती।
आश्रम में कस्तूरबा हम लोगों के लिए माँ के समान थीं। सत्याग्रहाश्रम यानी तत्त्वनिष्ठ महात्माजी की संस्था थी। उग्रशासक मगनलाल भाई उसे चलाते थे। ऐसे स्थान पर अगर वात्सल्य की आर्द्रता हमें मिलती थी तो वह कस्तूरबा से ही। कई बार आश्रम के नियमों को ताक पर रख देतीं। आश्रम के बच्चों को जब भूख लगती थी तब नती थीं। नियम-निष्ठ लोगों ने बा के खिलाफ कई बार शिकायतें करके देखीं किन्तु महात्माजी को अंत में हार खाकर निर्णय देना पड़ा कि अपने नियम बा पर लागू नहीं होते।
प्रश्न :
उत्तर :
12. आजकल मनुष्य की सारी बातें धातु के ठीकरों पर ठहरा दी गयी हैं। सबकी टकटकी टके की ओर लगी हुई है। जो बातें पारस्परिक प्रेम की दृष्टि से, न्याय की दृष्टि से, धर्म की दृष्टि से की जाती थीं, वे भी रुपये-पैसे की दृष्टि से होने लगी हैं। पैसे से राजसम्मान की प्राप्ति, विद्या की प्राप्ति और न्याय तक की प्रति होती है। जिनके पास कुछ रुपया है वे बड़े-बड़े विद्यालयों में अपने लड़कों को भेज सकते हैं, न्यायालयों में फी कर अपने मुकदमे दाखिल कर सकते हैं और महँगे वकील-बैरिस्टर करके बढ़िया-खासा निर्णय करा सकते हैं।
उत भीरु और कायर होकर बहादुर कहला सकते हैं। राजधर्म, आचार्य-धर्म, वीर-धर्म सब पर सोने का पानी फिर गया, सब टकाधर्म हो गये। धन की पैठ मनुष्य के सब कार्य-क्षेत्रों में करा देने से, उसके प्रभाव को इतना अधिक विस्तृत कर देने से, जाति धर्म और क्षात्रधर्म दोनों का लोप हो गया - केवल वणिग्धर्म रह गया। व्यापारनीति, राजनीति का प्रधान अंग हो गयी है। बड़े-बड़े राज्य माल की बिक्री के लिए लड़ने वाले सौदागर हो गये हैं।
अब सदा एक देश दूसरे देश का चुपचाप दबे पाँव धन-हरण करने की ताक में रहता है। जब तक यह व्यापारोन्माद दूर न होगा तब तक इस पृथ्वी पर सुख-शान्ति न होगी। दूर यह तभी होगा, जब क्षात्रधर्म की संसार में फिर प्रतिष्ठा होगी। संसार में मनुष्य मात्र की समानवृत्ति कभी नहीं हो सकती। वृत्तियों की भिन्नता के बीच जो धर्म-मार्ग निकल सकेगा वही अधिक स्थाई होगा। जिसमें शिष्टों को आदर, दीनों पर दया, दुष्टों के दमन आदि जीवन के अनेक रूपों का सौंदर्य दिखाई पड़ेगा वही सर्वांगपूर्ण लोक-धर्म का मार्ग होगा।
प्रश्न :
उत्तर :
13. क्या कल होने वाले 'अग्नि' प्रक्षेपण में हम कामयाब रह पाएँगे? यह सवाल हम सबके दिमाग में घूम रहा था। लेकिन हममें से कोई भी उस चाँदनी रात. के सन्नाटे को तोड़ना नहीं चाहता था। अगले दिन सुबह सात बजकर दस मिनट पर 'अग्नि' को छोड़ा गया। यह पूरी तरह सफल प्रक्षेपण था। मिसाइल अपने निर्धारित पथ पर ही बढ़ी। उड़ान संबंधी सारे आँकड़े मिले। यह किसी दुःस्वप्न वाली रात के बाद खूबसूरत सुबह में जागने जैसा था। कई केन्द्रों पर एक साथ लगातार पाँच साल काम करने के बाद अब हम लॉन्च पैड तक पहुँचे थे। पिछले पाँच हफ्तों में हम कई कठोर अग्नि-परीक्षाओं से गुजरे थे। हम पर हर तरफ से यह सब रोक देने के लिए दबाव पड़ रहा था। यह मेरे (डॉ. कलाम के) जीवन का सबसे सुखद क्षण था।
आज की दुनिया में टेक्नोलॉजी में पिछड़ापन परतंत्रता की ओर ले जाता है। क्या इस पर हमें अपनी आजादी को समझौता करने की इजाजत दे देनी चाहिए ? इस चुनौती के खिलाफ अपने राष्ट्र की सुरक्षा एवं एकता को सुनिश्चित करना हमारा एक भारी कर्तव्य है। हमारे पूर्वजों ने देश की आजादी के लिए साम्राज्यवादी ताकतों से संघर्ष कर जो सच्ची आजादी हमें विरासत में सौंपी है, क्या हमें उसे नहीं बनाए रखना चाहिए ? जब हम टेक्नोलॉजी में पूरी तरह आत्म-निर्भर होंगे, सिर्फ तभी हम अपने देश को सुरक्षित रख पाएँगे।
प्रश्न :
उत्तर :
14. कर्म के मार्ग पर आनन्दपूर्वक चलता हुआ लोकोपकारी उत्साही मनुष्य यदि अन्तिम फल तक न भी पहुंचे तो भी उसकी दशा कर्म न करने वाले की अपेक्षा अधिकतर अवस्थाओं में अच्छी रहेगी; क्योंकि एक तो कर्म-काल में उसका जो जीवन बीता, वह सन्तोष या आनन्द में बीता। उसके उपरान्त फल की अप्राप्ति पर भी उसे यह पछतावा न रहा कि मैंने प्रयत्न नहीं किया। बुद्धि-द्वारा पूर्णरूप से निश्चित की हुई व्यापार-परम्परा का नाम ही प्रयत्न है।
कभी-कभी आनन्द का मूल विषय तो कुछ और रहता है, पर उस आनन्द के कारण एक ऐसी स्फूर्ति उत्पन्न होती है जो बहुत से कामों की ओर हर्ष के साथ अग्रसर करती है। इसी प्रसन्नता और तत्परता को देखकर लोग कहते हैं कि वे काम बड़े उत्साह से किये जा रहे हैं। यदि किसी मनुष्य को बहुत-सा लाभ हो जाता है या उसकी कोई बड़ी भारी कामना पूर्ण हो जाती है तो जो काम उसके सामने आते हैं उन सबको वह बड़े हर्ष और तत्परता के साथ करता है। उसके इस हर्ष और तत्परता को ही उत्साह कहते हैं।
प्रश्न :
उत्तर :
15. नमो मात्रे पृथिव्यै। नमो मात्रे पृथिव्यै। (माता पृथ्वी को प्रणाम है। माता पृथ्वी को प्रणाम है।) जन के हृदय में इस सूत्र का अनुभव ही राष्ट्रीयता की कुंजी है। इसी भावना से राष्ट्र-निर्माण के अंकुर उत्पन्न होते हैं। यह प्रणाम-भाव ही भूमि और जन का दृढ़ बन्धन है। जो जन पृथ्वी के साथ माता और पुत्र के सम्बन्ध को स्वीकार करता है, उसे ही पृथ्वी के वरदानों में भाग पाने का अधिकार है। माता के प्रति अनुराग और सेवा-भाव पुत्र का स्वाभाविक कर्तव्य है। माता अपने सब पुत्रों को समान भाव से चाहती है। इसी प्रकार पृथ्वी पर बसने वाले सब जन बराबर हैं।
उनमें ऊँच और नीच का भाव नहीं है। जो मातृ-भूमि के हृदय के साथ जुड़ा हुआ है वह समान अधिकार का भागी है। सभ्यता और रहन-सहन की दृष्टि से जन एक-दूसरे से आगे-पीछे हो सकते हैं, किन्तु इस कारण से मातृ-भूमि के साथ उनका जो सम्बन्ध है उसमें कोई भेद-भाव उत्पन्न नहीं हो सकता। पृथ्वी के विशाल प्रांगण में सब जातियों के लिये समान क्षेत्र है। समन्वय के मार्ग से भरपूर प्रगति और उन्नति करने का सबको एक जैसा अधिकार है।
किसी जन को पीछे छोड़कर राष्ट्र आगे नहीं बढ़ सकता। अतएव राष्ट्र के प्रत्येक अंग की सुध हमें लेनी होगी। राष्ट्र के शरीर के एक भाग में यदि अंधकार और निर्बलता का निवास है तो समग्र राष्ट्र का स्वास्थ्य उतने अंश में असमर्थ रहेगा। इस प्रकार समग्र राष्ट्र जागरण और प्रगति की एक जैसी उदार भावना से संचालित होना चाहिए।
प्रश्न :
उत्तर :
16. ईर्ष्या का यही अनोखा वरदान है कि जिस मनुष्य के हृदय में ईर्ष्या घर. बना लेती है वह उन चीजों से आनन्द नहीं उठाता जो उसके पास मौजूद हैं, बल्कि उन वस्तुओं से दुःख उठाता है जो दूसरों के पास हैं। वह अपनी तुलना दूसरों के साथ करता है और इस तुलना में अपने पक्ष के सभी अभाव उसके हृदय पर दंश मारते रहते हैं। दंश के इस दाह को भोगना कोई अच्छी बात नहीं है। मगर, ईर्ष्यालु मनुष्य करे भी तो क्या ?
आदत से लाचार होकर उसे यह वेदना भोगनी पड़ती है। अपने अभाव पर दिन-रात सोचते-सोचते वह सृष्टि की प्रक्रिया को भूलकर विनाश में लग जाता है और अपनी उन्नति के लिए कोशिश करना छोड़कर वह दूसरों को हानि पहुँचाने को ही अपना श्रेष्ठ कर्तव्य समझने लगता है। ईर्ष्या की बड़ी बेटी का नाम निन्दा है। जो व्यक्ति ईर्ष्यालु होता है वही बुरे किस्म का निन्दक भी होता है। दूसरों की निन्दा वह इसलिए करता है कि इस प्रकार, दूसरे लोग जनता अथवा मित्रों की आँखों से गिर जायेंगे और जो स्थान रिक्त होगा उस पर मैं अनायास ही बैठा दिया जाऊँगा।
प्रश्न :
उत्तर :
17. आजकल लोगों ने कविता और पद्य को एक ही चीज समझ रखा है। यह भ्रम है। किसी प्रभावोत्पादक और मनोरंजक लेखन, बात या भाषण का नाम कविता है और नियमानुसार तुली हुई पंक्तियों का नाम पद्य है। हाँ, एक बात जरूर है कि वह वजन और काफिये से अधिक चित्ताकर्षक हो जाती है, पर कविता के लिये ये बातें ऐसी हैं जैसे कि शरीर के लिये वस्त्राभरण। यदि कविता का प्रधान धर्म मनोरंजन और प्रभावोत्पादकता न हो तो उसका होना निष्फल ही समझना चाहिये। पद्य के लिए काफिये वगैरह की जरूरत है, कविता के लिए नहीं। कविता के लिए तो ये बातें एक प्रकार से उल्टी हानिकारक हैं। तुले हुए शब्दों में कविता करने और तुक, अनुप्रास आदि ढूँढने से कवियों के विचार-स्वातन्त्र्य में बड़ी बाधा आती है।
प्रश्न :
उत्तर :
18. साहित्य का आधार जीवन है। इसी नींव पर साहित्य की दीवार खड़ी होती है, उसकी अटारियाँ, मीनार और गुंबद बनते हैं, लेकिन बुनियाद मिट्टी के नीचे दबी पड़ी है। उसे देखने का भी जी नहीं चाहेगा। जीवन परमात्मा की सृष्टि है, इसलिए अनंत है, अबोध्य है, अगम्य है। साहित्य मनुष्य की सृष्टि है, इसलिए सुबोध है, सुगम है और मर्यादाओं से परिचित है। जीवन परमात्मा को अपने कामों का जवाबदेह है या नहीं, हमें मालूम नहीं लेकिन साहित्य तो मनुष्य के सामने जवाबदेह है। इसके लिए कानून है, जिनसे वह इधर-उधर नहीं हो सकता।
जीवन का उद्देश्य ही आनंद है। मनुष्य जीवनपर्यंत आनंद की ही खोज में लगा रहता है। किसी को वह रत्न द्रव्य में मिलता है, किसी को भरे-पूरे परिवार में, किसी को लंबे-चौड़े भवन में, किसी को ऐश्वर्य में। लेकिन साहित्य का आनंद इस आनंद से ऊँचा है, इससे पवित्र है, उसका आधार सुंदर और सत्य से मिलता है। उसी आनंद को दर्शाना, वही आनंद उत्पन्न करना साहित्य का उद्देश्य है। ऐश्वर्य या भोग के आनंद में ग्लानि छिपी होती है। उससे अरुचि भी हो सकती हैं, पश्चाताप भी हो सकता है पर सुंदर से जो आनंद प्राप्त होता है, व अखंड है, वह अमर है।
प्रश्न :
उत्तर :
19. समाज में सर्वाधिक साहस, सर्वाधिक ताकत यदि किसी के पास होती है तो, वह युवा वर्ग के पास ही होती है। लेकिन ताकत सदैव अग्नि के समान होती है और अग्नि के विश्व में दो ही प्राकृतिक रूप विद्यमान हैं। एक रूप तो यह कि अग्नि जला सकती है और इस कदर जला सकती है कि सारे विश्व को राख के ढेर में बदल दे और दूसरा रूप यह है कि अग्नि प्रकाश दे सकती है और इस कदर प्रकाशित कर सकती है कि सारे विश्व में अंधकार समाप्त कर दे। किन्तु मनुष्य एक बुद्धिमान प्राणी है जो अग्नि के इन दोनों रूपों का प्रयोग अपने हित के लिए करना जानता है।
यदि रोटी को बिना तवे की सहायता से सेंका जाए तो रोटी सिंक नहीं पाएगी, बल्कि जल जाएगी। जिस प्रकार मनुष्य को रोटी बनाने के लिए तवे की जरूरत पड़ती है, उसी प्रकार ताकत का इस्तेमाल करने के लिए संयम की आवश्यकता होती है। जिस प्रकार तवा रोटी को जलने से बचाता है, रोटी की पकने में मदद करता है, उसी प्रकार संयम ताकत का सही दिशा में प्रयोग करना सिखाता है। सृजन करने में मदद करता है। ताकत का आप जिस दिशा में प्रयोग करेंगे, यह उसी दिशा में रंग दिखाएगी। किन्तु इतना समझ लीजिए कि जिस प्रकार अग्नि को विनाशक बनाना आसान है, सृजनकर्ता बनाना कठिन है, उसी प्रकार ताकत के प्रयोग से विनाश करना आसान है लेकिन निर्माण करना अत्यंत मुश्किल।
प्रश्न :
1. युवा वर्ग की क्या विशेषता होती है ?
2. अग्नि के दो रूप कौन से हैं ?
3. लेखक ने तवे को किसके समान बताया है तथा क्यों ?
4. 'अत्यन्त' शब्द में सन्धि-विग्रह करके संधि का नाम लिखिए।
5. गद्यांश के लिए उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
1. युवा वर्ग की विशेषता यह है कि उसमें सर्वाधिक शक्ति और सर्वाधिक साहस होता है।
2. अग्नि के दो रूप हैं। एक रूप है जलाना-वह अपने सम्पर्क में आई वस्तु को जला देती है। उसका दूसरा रूप है-प्रकाश देना। वह अन्धकार मिटाकर प्रकाश फैलाती है।
3. लेखक ने तवे की तलना संयम से की है। 'तता' गो लना संयम से की है। 'तवा' रोटी को आग से जलने से बचाकर सिंकने में मदद करता है।
4. शब्द - अत्यन्त
विग्रह - अति + अन्त
सन्धि - यण सन्धि।
5. इस गद्यांश का उचित शीर्षक है-"शक्ति का संयमपूर्वक प्रयोग"।
20. अनुशासन किसी वर्ग या आयु विशेष के लोगों के लिए ही नहीं अपितु सभी के लिए ही परमावश्यक होता है। जिस जाति, देश और राष्ट्र में अनुशासन का अभाव होता है, वह अधिक समय तक अपना अस्तित्व बनाए नहीं रख सकता है। जो विद्यार्थी अपनी दिनचर्या निश्चित व्यवस्था में नहीं ढाल पाता, वह निरर्थक है क्योंकि विद्या ग्रहण करने में व्यवस्था ही सर्वोपरि है। अनुशासन का पालन करते हुए जो विद्यार्थी योगी की तरह विद्याध्ययन में जुट जाता है वही सफलता पाता है। अनुशासन के अभाव में विद्यार्थी का जीवन शून्य बन जाता है।
कुछ व्यवधानों के कारण विद्यार्थी अनुशासित नहीं रह पाता और अपना जीवन नष्ट कर लेता है। सर्वप्रथम बाधा है उसके मन की चंचलता। उसे अनुभव नहीं होता है, इसलिए गुरुजनों एँ तथा विद्यालयों के नियम, अभिभावकों की सलाह उसे कारागार के समान प्रतीत होते हैं। वह उनसे मुक्ति का मार्ग तलाशता रहता है। कर्तव्यों को तिलांजलि देकर केवल अधिकारों की माँग करता है। हर प्रकार से केवल अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए संर्घष पर उतारू हो जाता है और यहीं से उच्छंखलता और अनुशासनहीनता का जन्म होता है।
प्रश्न :
उत्तर :
21. हमारे देश को दो बातों की सबसे पहले और सबसे ज्यादा जरूरत है। एक शक्तिबोध और दूसरा सौंदर्यबोध। शक्तिबोध का अर्थ है-देश की शक्ति या सामर्थ्य का ज्ञान। दूसरे देशों की तुलना में अपने देश को हीन नहीं मानना चा इससे देश के शक्तिबोध को आघात पहुँचता है। सौंदर्यबोध का अर्थ है किसी भी रूप में कुरुचि की भावना को पनपने न देना। इधर-उधर कूड़ा फेंकने, गंदे शब्दों का प्रयोग, इधर की उधर लगाने, समय देकर न मिलना आदि से देश के सौंदर्य-बोध को आघात पहुँचता है। देश के शक्तिबोध को जगाने के लिए हमें चाहिए कि हम सदा दूसरे देशों की अपेक्षा अपने देश को श्रेष्ठ समझें। ऐसा न करने से देश के शक्तिबोध को आघात पहुँचता है। यह उदाहरण इस तथ्य की पुष्टि करता है-शल्य महाबली कर्ण का सारथी था। जब भी कर्ण अपने पक्ष की विजय की घोषणा करता, हुँकार भरता, वह अर्जुन की अजेयता का एक हल्का-सा उल्लेख कर देता। बार-बार इस उल्लेख ने कर्ण के सघन आत्मविश्वास में संदेह की तरेड़ डाल दी, जो उसके भावी पराजय की नींव रखने में सफल हो गई।
प्रश्न :
उत्तर :
22. मितव्ययता का अर्थ है-आय की अपेक्षा कम व्यय करना, आमदनी से कम खर्च करना। सभी लोगों की आय एक-सी नहीं होती न ही निश्चित होती है। आज कोई सौ कमाता है तो कल दस की भी उपलब्धि नहीं होती। आय निश्चित भी हो तब भी उसमें से कुछ न कुछ अवश्य बचाना चाहिए। जीवन में अनेक बार ऐसे अवसर आ जाते हैं, आकस्मिक दुर्घटनाएं हो जाती हैं। बहुत बार रोग और अन्य शारीरिक आपत्तियाँ आ घेरती हैं। यूँ भी संकट कभी कहकर नहीं आता। यदि पहले से मितव्ययता का आश्रय न लिया जाए तो मान-अपमान का कुछ ध्यान न रखकर इधर-उधर हाथ फैलाने पड़ते हैं। विपत्ति-काल में प्रायः अपने भी साथ छोड़ देते हैं। उस समय सहायता मिलनी कठिन हो जाती है। मिल भी जाए तो मनुष्य ऋण के बंधन में ऐसा जकड़ जाता है कि आयुपर्यंत अथवा पर्याप्त काल के लिए उससे मुक्त होना दुष्कर होता है। जो मितव्ययी नहीं होते, वे प्रायः दूसरों के कर्जदार रहते हैं। ऋण से बढ़कर कोई दुख और संकट नहीं है।
प्रश्न :
उत्तर :
23. आज कुछ छात्र अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी चला रहे हैं। अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चलाने का संबंध उन छात्रों सेहै जो अपना समय, अपने माता-पिता का पैसा और ज्ञान प्राप्त करने का स्वर्णिम अवसर खो रहे हैं। ऐसे छात्र जो समय, धन और मौका तीनों चीजों से हाथ धो रहे हैं, जीवन में दुःखी रहने का ही प्रबंध कर रहे हैं, क्योंकि इन तीनों चीजों का सदुपयोग ही मनुष्य को सुख प्रदान करता है। ऐसे छात्र पढ़ाई को हौआ मान बैठते हैं। जानते हैं उसका असल कारण क्या है ? असल कारण है पढ़ाई के प्रति अरुचि पैदा होना तथा अन्य भौतिक वस्तुओं, पदार्थों या किसी के प्रति अत्यधिक रुचि पैदा होना। आप जिस कार्य को शौक से, पूरी लगन से करना प्रारंभ करते हैं, उसमें आपको छोटी या बड़ी सफलता अवश्य मिलती है और जब सफलता मिलनी प्रारंभ होती है तो रुचि बढ़ने लगती है।
प्रश्न :
उत्तर :
24. आजकल महँगाई के दौर में व्यक्ति सीमित आय में महँगी-महँगी पुस्तकें लेकर नहीं पढ़ सकता, ऐसी स्थिति में पुस्तकालय उसके लिए वरदान साबित होते हैं। जो विद्यार्थी आर्थिक दृष्टि से कमजोर होते हैं, वे भी पुस्तकालय से पुस्तकें लेकर अध्ययन करते हैं। इसी कारण विद्यालयों तथा महाविद्यालयों में पुस्तकालय का प्रबंध किया जाता है। आज शिक्षा के प्रचार-प्रसार के कारण इनका महत्व और भी बढ़ गया है। पुस्तकालयों में इतिहास, भूगोल, विज्ञान, सामान्य ज्ञान, साहित्य, अर्थशास्त्र, धर्म, राजनीति आदि तथा प्रसिद्ध लेखकों और कवियों द्वारा लिखित वे पुस्तकें भी आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं, जो प्रायः सुगमता से नहीं मिल पातीं। पुस्तकें हमारे विचारों तथा चिंतन को दृढ़ बनाती हैं, हमारे चरित्र का विकास करती हैं तथा हमारे अंदर आत्मविश्वास की भावना उत्पन्न करती हैं। इस दृष्टि से पुस्तकें हमारी परम मित्र हैं।
प्रश्न :
उत्तर :
25. वर्तमान समाज में नैतिक मूल्यों का विघटन चहुँओर दिखाई दे रहा है। विलास और भौतिकता के मद में भ्रांत लोग बेतहाशा धनोपार्जन की अंधी दौड़ में शामिल हो गए हैं। आज का मानव स्वार्थपरता में इस तरह आकंठ डूब चुका है कि उसे उचित-अनुचित, नीति-अनीति का भान नहीं हो रहा है। व्यक्ति विशेष की निजी स्वार्थ पूर्ति से समाज का कितना अहित हो रहा है, इसका शायद किसी को आभास नहीं है।
आज के अभिभावक भी धनोपार्जन एवं भौतिकता के साधन जुटाने में इतने लीन हैं कि उनके वात्सल्य का स्रोत ही उनके लाडलों के लिए सूख गया है। उनकी इस उदासीनता ने मासूम दिलों को गहरे तक चीर दिया है। आज का बालक अपने एकाकीपन की भरपाई या तो घर में दूरदर्शन केबिल से प्रसारित अश्लील फूहड़ कार्यक्रमों से करता है अथवा कुसंगति में पड़कर जीवन का नाश करता है। समाज के इस संक्रांति काल में छात्र किन जीवन मूल्यों को सीख पाएगा यह कहना नितान्त कठिन है।
प्रश्न :
उत्तर :