These comprehensive RBSE Class 10 Social Science Notes History Chapter 4 औद्योगीकरण का युग will give a brief overview of all the concepts.
→ आदि-औद्योगीकरण औद्योगीकरण को प्रायः कारखानों के विकास के साथ ही जोड़कर देखा जाता है। परन्तु इंग्लैण्ड और यूरोप में फैक्ट्रियों की स्थापना से पहले भी अन्तर्राष्ट्रीय बाजार के लिए बड़े पैमाने पर औद्योगिक उत्पादन होने लगा था। अनेक इतिहासकार औद्योगीकरण के इस चरण को 'आदि-औद्योगीकरण' की संज्ञा देते हैं।
→ कारखानों का उदय इंग्लैण्ड में सबसे पहले 1730 के दशक में कारखाने खुले । कपास (कॉटन) नये युग का पहला प्रतीक थी।
→ औद्योगिक परिवर्तन की गति - सूती वस्त्र उद्योग और कपास उद्योग ब्रिटेन के सबसे फलते-फूलते उद्योग थे। इसके बाद लोहा और स्टील उद्योग आगे निकल गए। परम्परागत उद्योग पूरी तरह ठहराव की स्थिति में भी नहीं थे। प्रौद्योगिकीय परिवर्तनों की गति धीमी थी।
→ हाथ का श्रम - ब्रिटेन में मानव श्रम की कोई कमी नहीं थी। गरीब किसान और बेकार लोग काम-काज की तलाश में बड़ी संख्या में शहरों को जाते थे। अनेक उद्योगों में श्रमिकों की माँग मौसमी आधार पर घटती-बढ़ती रहती थी। बहुत सारे उत्पाद केवल हाथ से ही तैयार किए जा सकते थे। प्रायः बारीक डिजाइन और विशेष आकारों वाली वस्तुओं की बड़ी माँग थी। इन्हें बनाने के लिए मानवीय निपुणता की आवश्यकता थी।
→ मजदूरों का जीवन-रोजगार चाहने वाले बहुत सारे लोगों को सप्ताहों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। वे पुलों के नीचे या रैन-बसेरों में रातें काटते थे। अनेक उद्योगों में मौसमी काम के कारण कामगारों को बीच-बीच में बहुत समय तक खाली बैठना पड़ता था।
→ भारतीय कपड़े का युग-मशीन उद्योगों के युग से पहले अन्तर्राष्ट्रीय कपड़ा बाजार में भारत के रेशमी और सूती उत्पादों का बोलबाला था। सूरत, हुगली आदि बन्दरगाहों से भारतीय वस्त्रों का निर्यात किया जाता था। परन्तु अंग्रेजी कम्पनियों ने धीरे-धीरे व्यापार पर नियन्त्रण कर लिया। फलस्वरूप सूरत और हुगली बन्दरगाहों का महत्त्व घट |
गया।
→ बुनकरों की दुर्दशा-ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने कपड़ा व्यापार में सक्रिय व्यापारियों तथा दलालों को समाप्त करने तथा बुनकरों पर अधिक प्रत्यक्ष नियन्त्रण स्थापित करने का भरसक प्रयास किया। कम्पनी ने बुनकरों पर निगरानी रखने के लिए गुमाश्ता नामक वेतनभोगी कर्मचारी नियुक्त कर दिए। परन्तु, शीघ्र ही गाँवों में बुनकरों तथा गुमाश्तों के बीच टकराव शुरू हो गया। गुमाश्ते बुनकरों के साथ अपमानजनक एवं कठोर व्यवहार करते थे और उन्हें कोड़ों से पीटा जाता था। परिणामस्वरूप अनेक बुनकर गाँव छोड़ कर चले गए।
→ भारत में मैनचेस्टर का आना-उन्नीसवीं शताब्दी में भारत के कपड़ा निर्यात में गिरावट आने लगी। ब्रिटिश उद्योगपतियों ने सरकार पर दबाव डाला कि वह आयातित कपड़े पर आयात शुल्क वसूल करे जिससे मैनचेस्टर में बने कपड़े बाहरी प्रतिस्पर्धा के बिना इंग्लैण्ड में आसानी से बिक सकें। ब्रिटेन के वस्त्र उत्पादों के निर्यात में भी बहुत वृद्धि हुई।
→ भारत में कारखानों की स्थापना-मुम्बई में प्रथम कपड़ा मिल 1854 में लगी और दो वर्ष बाद उसमें उत्पादन होने लगा। 1862 तक मुम्बई में ऐसी चार मिलें काम कर रही थीं। बंगाल में पहली जूट मिल 1855 में और दूसरी जूट मिल 1862 में स्थापित हुई। 1860 के दशक में एल्गिन मिल कानपुर में खुली।
→ प्रारम्भिक उद्यमी - अनेक व्यावसायियों ने व्यापार से पैसा कमाने के बाद भारत में औद्योगिक उद्यम स्थापित किये। इसमें द्वारकानाथ टैगोर, डिनशॉ पेटिट जमशेदजी नुसरबाजी द्वारा, सेठ हुकुमचंद्र, बिड़लाज आदि प्रमुख थे।
→ मजदूरों की उपलब्धता - फैक्ट्रियों में काम करने को अधिकतर मजदूर आसपास के जिलों से आते थे। जिन किसानों-कारगीरों को गांव में काम नहीं मिलता था वे औद्योगिक केन्द्रों की तरफ जाने लगते थे। नये कामों की खबर फैलने पर दूर-दूर से भी लोग औद्योगिक इलाकों में आने लगे थे।
→ औद्योगिक विकास का अनूठापन - 1900 से 1912 के बीच भारत में सूती कपड़े का उत्पादन दोगुना हो गया। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीय कारखानों में सेना के लिए जूट की बोरियाँ, सैनिकों के लिए वर्दी के कपड़े आदि सामान बनने लगे। इसके लिए नए कारखाने लगाए गए। युद्ध के दौरान उत्पादन बढ़ गया।
→ लघु उद्योगों की बहुलता-बीसवीं सदी में कुछ लघु उद्योगों में पर्याप्त वृद्धि हुई जैसे हथकरघा क्षेत्र में। बीसवीं सदी में हथकरघों पर बने कपड़े के उत्पादन में बहुत सुधार हुआ। 1900 से 1940 के बीच यह तीन गुना हो चुका था। अनेक बुनकर 'फ्लाइंग शटल' वाले करघों का प्रयोग करते थे। इससे कामगारों की उत्पादन क्षमता बढ़ गई और उत्पादन तेज हो गया।
→ वस्तुओं के लिए बाजार - उद्योगपतियों ने नए उपभोक्ता पैदा करने तथा अपने औद्योगिक उत्पादनों की | बिक्री के लिए विज्ञापनों का सहारा लिया।