RBSE Solutions for Class 12 Political Science Chapter 8 पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन

Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Political Science Chapter 8 पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन Textbook Exercise Questions and Answers.

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RBSE Class 12 Political Science Solutions Chapter 8 पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन

RBSE Class 12 Political Science पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन InText Questions and Answers

क्रियाकलाप सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर:

(पृष्ठ संख्या - 118)

प्रश्न 1. 
जंगल के सवाल पर राजनीति, पानी के सवाल पर राजनीति और वायुमण्डल के मसले पर राजनीति! फिर, किस बात में राजनीति नहीं है ?
उत्तर:
वर्तमान में विश्व की स्थिति कुछ ऐसी बन गई है, जहाँ प्रत्येक बात में राजनीति होने लगी है तथा अब कोई ऐसा विषय शेष बचा हुआ प्रतीत नहीं होता जिस पर कि राजनीति हावी न हो।

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प्रश्न 2. 
अरल के निकट रहने वाले हजारों लोगों को अपना घर-बार किस कारण छोड़ना पड़ा? जहाजरानी उद्योग तथा नमक की सान्द्रता इत्यादि पर उस कारण का क्या प्रभाव पड़ा जिसके कारण हजारों लोगों को विस्थापित होना पड़ा था ?
उत्तर:
अरल सागर के आस: पास रहने वाले हजारों लोगों को अपना घर-बार इस कारण से छोड़ना पड़ा था क्योंकि वहाँ का जल विषाक्त (जहरीला) हो गया था। जल के जहरीले होने की वजह से मछली उद्योग बर्बाद हो गया। जहाजरानी उद्योग तथा उससे सम्बद्ध विभिन्न कार्य समाप्त हो गए। जल में नमक की सान्द्रता के अधिक बढ़ जाने से पैदावार पर विपरीत प्रभाव पड़ा और वह कम हो गई।

प्रश्न 3. 
अरल सागर के विषाक्त होने पर वैज्ञानिक गतिविधियों पर क्या पड़ा तथा उनका क्या परिणाम निकला?
उत्तर:
अरल सागर के जल के विषाक्त (जहरीले) होने के पश्चात् वैज्ञानिकों ने अनेक अनुसन्धान कार्य किए, लेकिन उनके ये प्रयास जल के जहरीलेपन की समस्या का कोई हल न तलाश पाए।

(पृष्ठ संख्या -119)

प्रश्न 4. 
उक्त चित्र में अंगुलियों को चिमनी और विश्व को एक लाइटर के रूप में दिखाया गया है। ऐसा क्यों ?
उत्तर:
उक्त चित्र पृथ्वी पर वैश्विक तापवृद्धि अर्थात् ग्लोबल वार्मिंग समस्या से सम्बन्धित है। चित्र में दर्शायी गई उँगलियों को चिमनी तथा विश्व को एक लाइटर (आग जलाने वाला) के रूप में दिखाया गया है। ऐसा इस कारण से क्योंकि मानव हाथ की उँगलियाँ ही समस्त प्रकार के कार्य क्रियान्वित करती हैं। जिस प्रकार चिमनी से निकला हुआ जहरीला धुआँ मानव स्वास्थ्य एवं पर्यावरण को प्रदूषित करता है तथा मानवीय जीवन विनाश के रास्ते पर लगातार अग्रसर होता चला जाता है ठीक इसी प्रकार से विश्व एक लाइटर की तरह है जो चिमनी अथवा मानवीय कर्मों की वजह से जल रहा है। वह लगातार तापवृद्धि का शिकार हो रहा है। यदि पृथ्वी के तापमान में इसी प्रकार से बढ़ोत्तरी होती रही तो वह दिन दूर नहीं है जब हमारे घर अर्थात् पृथ्वी ग्रह का जल विलुप्त (गायब) हो जाएगा। 

(पृष्ठ संख्या - 120)

प्रश्न 5. 
क्या पृथ्वी की सुरक्षा को लेकर धनी तथा निर्धन (गरीब) देशों के नजरिए अर्थात् दृष्टिकोण में अन्तर है ?
उत्तर:
वर्तमान विश्व सभ्य मानव का संसार है। इसमें किसी भी तरह का सन्देह नहीं है कि समस्त राष्ट्र तथा सम्पूर्ण मनुष्य जाति पृथ्वी ग्रह को बचाना चाहते हैं। पृथ्वी की सुरक्षा को लेकर धनी तथा निर्धन देशों के दृष्टिकोण अर्थात् नजरिए में अन्तर है। इस दृष्टिकोण का स्पष्टीकरण सन् 1992 में सम्पन्न संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण तथा विकास के मुद्दे पर केन्द्रित एक सम्मेलन ब्राजील के रियो - डी - जेनेरियो में हुआ। इस सम्मेलन को पृथ्वी सम्मेलन के नाम से भी पुकारा जाता है। इस सम्मेलन के दौरान यह तथ्य प्रत्यक्ष रूप से स्पष्ट हुआ कि विश्व के धनी तथा विकसित देश अर्थात् उत्तरी गोलार्द्ध और निर्धन एवं विकासशील देश अर्थात् दक्षिणी गोलार्द्ध पर्यावरण के अलग-अलग एजेण्डे के समर्थक हैं। इस दौरान जहाँ उत्तरी देशों की प्रमुख चिन्ता ओजोन परत के छेद तथा वैश्विक तापवृद्धि अर्थात् ग्लोबल वार्मिंग को लेकर थी वहीं दूसरी ओर दक्षिणी देश आर्थिक विकास तथा पर्यावरण प्रबन्धन के पारम्परिक सम्बन्धों को सुलझाने हेतु अधिक चिंतित थे। 

(पृष्ठ संख्या - 121)

प्रश्न 6. 
अंटार्कटिका महादेशीय क्षेत्र कितने किलोमीटर में फैला है तथा इस पर किसका स्वामित्व है ? यह अपनी गुणवत्ता क्यों खो रहा है?
उत्तर:
अंटार्कटिका महादेशीय क्षेत्र लगभग एक करोड़ चालीस लाख वर्ग किमी. में फैला है। संसार के सर्वाधिक सुदूर ठण्डे तथा झंझावाती महाद्वीप अंटार्कटिका पर स्वामित्व सम्बन्धी दो दावे किए जाते हैं। ब्रिटेन, अर्जेन्टीना, चिले, नार्वे, फ्रांस, आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैण्ड इत्यादि देशों ने अंटार्कटिका क्षेत्र पर अपने संप्रभु अधिकार का वैधानिक दावा किया। वहीं दूसरी ओर अन्य अधिकांश देशों ने इसके विपरीत अंटार्कटिका को संयुक्त सम्पदा माना है। उनकी स्पष्ट मान्यता है कि यह किसी भी देश के क्षेत्राधिकार में सम्मिलित नहीं है। सन् 1959 के पश्चात् इस क्षेत्र में गतिविधियाँ वैज्ञानिक अनुसंधान, मछलियों का शिकार तथा पर्यटन तक सीमित रही हैं; लेकिन इतनी कम गतिविधियों के बावजूद इस क्षेत्र के कुछ भाग अवशिष्ट पदार्थ, जैसे - तेल के रिसाव के दबाव में अपनी गुणवत्ता खो रहे हैं।

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प्रश्न 7. 
अंटार्कटिका महादेशीय क्षेत्र का भौगोलिक एवं आर्थिक महत्त्व संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
विशाल बर्फ भण्डार वाले इस क्षेत्र में अनेक खनिज पदार्थ मिलने की अपार सम्भावना है। यह पृथ्वी के लगातार बढ़ रहे तापमान को कम करने में भी सहायक सिद्ध होगा। यह जल से सम्बन्धित जीव-जन्तुओं के लिए भी एक वरदान है और भविष्य में भी होगा। 

(पृष्ठ संख्या -122)

प्रश्न 8. 
सन् 1970 के दशक में अफ्रीका की सबसे बड़ी विपदा कौन-सी थी ? उत्तर-सन् 1970 के दशक में अफ्रीका की सबसे बड़ी विपदा अनावृष्टि थी। प्रश्न 9. अफ्रीका पर अनावृष्टि का क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
अनावृष्टि की वजह से अफ्रीका महाद्वीप के पाँच देशों की खेती योग्य उपजाऊ भूमि बंजर हो गयी तथा उसमें गहरी चौड़ी दरारें पड़ गयीं। 

(पृष्ठ संख्या -124)

प्रश्न 10. 
लोग कहते हैं कि लातिनी अमेरिका में एक नदी बेच दी गई। साझी सम्पदा कैसे बेची जा सकती है?
उत्तर:
साझी सम्पदा वह संसाधन होता है जिस पर किसी एक का नहीं बल्कि सम्पूर्ण समुदाय का अधिकार होता है। यह परिवार का संयुक्त चूल्हा, चरागाह, मैदान, कुआँ तथा नदी आदि में से कुछ भी हो सकता है। ऐसे संसाधन की प्रकृति, उपयोग के स्तर व रख-रखाव के सन्दर्भ में समुदाय के प्रत्येक सदस्य को समान अधिकार प्राप्त होते हैं तथा समान उत्तरदायित्व निभाने होते हैं लेकिन निजीकरण, गहनतर कृषि, जनसंख्या वृद्धि एवं पारिस्थितिकी तन्त्र की गिरावट सहित कई कारणों से सम्पूर्ण विश्व में साझी सम्पदा के आकार में कमी हो रही है। साझी सम्पदा की गुणवत्ता एवं निर्धनों को उसकी उपलब्धता कम होती जा रही है। सम्भवतः लातिनी अमेरिका में इनमें से किसी कारण से नदी पर किसी मानव समुदाय अथवा राज्य ने उस पर अधिकार करके इस साझी सम्पदा को निजी सम्पदा का रूप देकर किसी अन्य को बेच दिया हो। 

(पृष्ठ संख्या - 125)

प्रश्न 11. 
पानी में तूफान-जनता परेशान की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
लगातार फैल रहे प्रदूषण से पानी में तूफान आ रहा है। इससे जनसाधारण भारी मुसीबतों का सामना कर रहा है। जनसाधारण को जहाँ प्रदूषित जल पीने हेतु बाध्य होना पड़ रहा है, वहीं पानी के शुद्धिकरण पर स्थानीय सरकारों को विपुल धनराशि प्रतिदिन व्यय करनी पड़ रही है। मछलियों के संरक्षण, बाँध निर्माण तथा जल के जहरीले होने की वजह से पानी के नजदीक रहने वाले समुदायों के समक्ष विस्थापन जैसी गम्भीर समस्या उठ खड़ी हुई हैं।

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प्रश्न 12. 
तटीय पर्यावरण से जुड़े कोई चार मुद्दे संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
तटीय पर्यावरण से जुड़े चार मुद्दे निम्नवत् हैं।

  1. मछली तथा समुद्री जीवन का अत्यधिक दोहन। 
  2. मछली तथा प्रॉन की बढ़ती माँग की वजह से मेनग्रोव को हो रही भारी क्षति। 
  3. समुद्र तटों पर भारी मात्रा में प्रदूषित जल को बिना शोधन किए ही समुद्र में डालना। 
  4. अत्यधिक मशीनीकरण से भी तटीय पर्यावरण को क्षति पहुँच रही है। 

प्रश्न 13. 
उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखण्ड की किन्हीं दो नदियों तथा दो समुदायों के नाम लिखिए। 
उत्तर:
नदियाँ:
गंगा, यमुना तथा गोमती हैं। प्रमुख समुदाय-मल्लाह तथा केवट हैं। 

प्रश्न 14. 
आन्ध्र प्रदेश से सम्बन्धित दो नदियों तथा दो प्रमुख समुदायों के नाम लिखिए। 
उत्तर:
नदियाँ-:

  1. गोदावरी, 
  2. कृष्णा। 

प्रमुख समुदाय:

  1. अंगीकुला क्षत्रिय, 
  2. बलीजा - वादा - पट्टापू। 

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प्रश्न 15. 
मैं समझ गया। पहले उन लोगों ने धरती को बर्बाद किया और अब धरती को चौपट करने की हमारी बारी है। क्या यही है हमारा पक्ष ?
उत्तर:
यहाँ उन लोगों से आशय विकसित पाश्चात्य देशों से है। विकसित देशों ने एक लम्बे समय से ग्रीन हाउस गैसों का बहुत अधिक उत्सर्जन किया है जिससे हमारी धरती अर्थात् पृथ्वी बर्बाद हो गयी है। हमारी धरती से आशय भारत जैसे विकासशील देशों से है। भारत व अन्य विकासशील देशों के अनुसार विकासशील देशों में ग्रीन हाउस गैसों की प्रति व्यक्ति उत्सर्जन दर विकसित देशों की तुलना में नाममात्र की है, उत्सर्जन दर में कमी करने की सबसे अधिक जिम्मेदारी विकसित देशों की है क्योंकि इन्होंने एक लम्बी अवधि तक बहुत अधिक उत्सर्जन किया है। अत: उन देशों पर उत्सर्जन कम करने की बाध्यता को लागू किया जाए और विकासशील देशों पर इस बाध्यता को लागू करना इसलिए आवश्यक प्रतीत नहीं होता है क्योंकि अभी इन देशों में कार्बन की दर कम है।

जब तक वह उत्सर्जन की दर विश्व औसत तक नहीं आती तब तक इन देशों पर इसकी बाध्यता लागू नहीं की जानी चाहिए। इससे यह अर्थ निकाला गया है कि अब धरती को चौपट करने की हमारी बारी है। लेकिन भारत तथा अन्य विकासशील देशों का अपना पक्ष रखने का यह आशय नहीं है बल्कि इसका आशय यह है कि विकासशील देशों में अभी कार्बन उत्सर्जन की प्रति व्यक्ति दर बहुत कम है। अतः ऐसे विकासशील देशों को कार्बन उत्सर्जन सम्बन्धी नियमों में छूट दी जाए ताकि वे अपना आर्थिक विकास कर सकें। लेकिन ऐसे देशों को कार्बन उत्सर्जन कम करने के उपाय भी ढूँढ़ने को कहा जाए। 

(पृष्ठ संख्या - 182)

प्रश्न 16. 
आदिवासी जनता एवं उनके आन्दोलनों के बारे में कुछ ज्यादा बातें क्यों नहीं सुनायी पड़तीं ? क्या मीडिया का उनसे कोई मनमुटाव है ?
उत्तर:
आदिवासी जनता एवं उनके आन्दोलनों से जुड़े मुद्दे राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में एक लम्बी अवधि से उपेक्षित रहे हैं। इसका प्रमुख कारण मीडिया के लोगों तक इनके सम्पर्क का अभाव रहा। सन् 1970 के दशक में विश्व के विभिन्न भागों के आदिवासी नेताओं के मध्य सम्पर्कों में वृद्धि हुई है। इससे इनके साझे अनुभवों एवं हितों को एक दिशा मिली। सन् 1975 में 'वर्ल्ड काउंसिल ऑफ इंडिजिनस पीपल' का गठन हुआ। इससे अतिरिक्त आदिवासियों के हितों से सम्बद्ध 10 अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं का गठन हुआ। अब आदिवासियों के अधिकारों एवं आन्दोलनों की बातें भी मीडिया में उठने लगी हैं। अतः स्पष्ट होता है कि पहले अन्तर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर आदिवासी लोगों के संगठन न होने के कारण मीडिया में इनकी बातें कुछ ज्यादा सुनाई नहीं पड़ती थीं। जैसे-जैसे आदिवासी जनता अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होती जा रही है उनके संगठन बढ़ रहे हैं। उन संगठनों के माध्यम से उनके अनेक मुद्दे एवं आन्दोलन भी हो रहे हैं जिनको मीडिया में स्थान दिया जा रहा है।

RBSE Class 12 Political Science पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1. 
पर्यावरण के प्रति बढ़ते सरोकारों का क्या कारण है? निम्नलिखित में सबसे बेहतर विकल्प चुनें 
(क) विकसित देश प्रकृति की रक्षा को लेकर चिन्तित हैं। पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन 199] 
(ख) पर्यावरण की सुरक्षा मूलवासी लोगों और प्राकृतिक पर्यावासों के लिए जरूरी है। 
(ग) मानवीय गतिविधियों से पर्यावरण को व्यापक नुकसान हुआ है और यह नुकसान खतरे की हद तक पहुँच गया है। 
(घ) इनमें से कोई नहीं। 
उत्तर:
(ग) मानवीय गतिविधियों से पर्यावरण को व्यापक नुकसान हुआ है और यह नुकसान खतरे की हद तक पहुँच गया है। 

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प्रश्न 2. 
निम्नलिखित कथनों में प्रत्येक के बारे में सही या गलत का चिह्न लगाएँ, ये कथन पृथ्वी सम्मेलन के बारे में
(क) इसमें 170 देश, हजारों स्वयंसेवी संगठन तथा अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने भाग लिया। 
(ख) यह सम्मेलन संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में हुआ। 
(ग) वैश्विक पर्यावरण मुद्दों ने पहली बार राजनीतिक धरातल पर ठोस आकार ग्रहण किया। 
(घ) यह महासम्मेलनी बैठक थी। 
उत्तर:
(क) इसमें 170 देश, हजारों स्वयंसेवी संगठन तथा अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने भाग लिया। 
(ख) वैश्विक पर्यावरण मुद्दों ने पहली बार राजनीतिक धरातल पर ठोस आकार ग्रहण किया। 
(ग) यह सम्मेलन संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में हुआ। 
(घ) यह महासम्मेलनी बैठक थी। 

प्रश्न 3. 
'विश्व की साझी विरासत' के बारे में निम्नलिखित में कौन - से कथन सही हैं? 
(क) धरती वायुमण्डल, अंटार्कटिका, समुद्री सतह व बाह्य अन्तरिक्ष को विश्व की साझी विरासत' माना जाता है। 
(ख) “विश्व की साझी विरासत' किसी राज्य के सम्प्रभु क्षेत्राधिकार में नहीं आते। 
(ग) 'विश्व की साझी विरासत' के प्रबन्धन के सवाल पर उत्तरी व दक्षिणी देशों के बीच मतभेद हैं। 
(घ) उत्तरी गोलार्द्ध के देश 'विश्व की साझी विरासत' को बचाने के लिए दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों से कहीं ज्यादा चिन्तित हैं। 
उत्तर:
(क) धरती का वायुमण्डल, अंटार्कटिका समुद्री सतह व बाह्य अन्तरिक्ष को 'विश्व की साझी विरासत' माना जाता
(ख) 'विश्व की साझी विरासत' किसी राज्य के सम्प्रभु क्षेत्राधिकार में नहीं आती। 
(ग) 'विश्व की साझी विरासत' के प्रबन्धन के सवाल पर उत्तरी व दक्षिणी देशों के बीच मतभेद हैं।
(घ) उत्तरी गोलार्द्ध के देश ‘विश्व की साझी विरासत' को बचाने के लिए दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों से कहीं ज्यादा चिन्तित

प्रश्न 4. 
रियो सम्मेलन के क्या परिणाम हुए? 
उत्तर:
रियो सम्मेलन (पृथ्वी सम्मेलन) संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में सन् 1992 में ब्राजील के शहर रियो-डी-जेनेरियो में सम्पन्न हुआ। इस सम्मेलन में 170 देशों, हजारों स्वयंसेवी संगठनों तथा अनेक बहुराष्ट्रीय निगमों ने भाग लिया। यह सम्मेलन पर्यावरण व विकास के मुद्दे पर केन्द्रित था। इस सम्मेलन के निम्न परिणाम हुए। 
(i) इस सम्मेलन के परिणामस्वरूप विश्व राजनीति के दायरे में पर्यावरण को लेकर बढ़ते सरोकारों को एक ठोस रूप मिला। 

(ii) रियो सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन, जैव-विविधता और वानिकी के सम्बन्ध में कुछ नियमाचार निर्धारित किए गए।

(iii) भविष्य के विकास के लिए 'एजेंडा: 21' प्रस्तावित किया गया जिसमें विकास के कुछ तौर - तरीके भी सुझाए गए। इसमें टिकाऊ विकास (Sustainable Development) की धारणा को विकास रणनीति के रूप में समर्थन प्राप्त हुआ।

(iv) इस सम्मेलन में पर्यावरण रक्षा के बारे में धनी व गरीब देशों अथवा उत्तरी गोलार्द्ध व दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों के दृष्टिकोण में मतभेद उभकर सामने आए। भारत व चीन तथा ब्राजील जैसे विकासशील देशों का तर्क था कि चूँकि प्राकृतिक संसाधनों का दोहन विकसित देशों ने अधिक किया है, अतः वे पर्यावरण प्रदूषण क्षरण के लिए अधिक उत्तरदायी हैं। अत: उन्हें पर्यावरण रक्षा हेतु अधिक संसाधन व प्रौद्योगिकी आदि उपलब्ध कराना चाहिए। कई धनी देश इस तर्क से सहमत नहीं थे।

(v) अन्ततः रियो सम्मेलन ने यह स्वीकार किया कि अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण कानून के निर्माण, प्रयोग और व्याख्या में विकासशील देशों की विशिष्ट जरूरतों का लेकिन अलग - अलग भूमिका का सिद्धान्त स्वीकृत किया गया। इस सिद्धान्त का तात्पर्य है कि पर्यावरण के विश्वव्यापी क्षय में विभिन्न राज्यों का योगदान अलग - अलग है जिसे देखते हुए विभिन्न राष्ट्रों की पर्यावरण रक्षा के प्रति साझी, किन्तु अलग - अलग जिम्मेदारी होगी। संक्षेप में, रियो सम्मेलन के बाद पर्यावरण का प्रश्न विश्व राजनीति में महत्त्वपूर्ण विषय के रूप में उभरा।

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प्रश्न 5. 
विश्व की साझी विरासत' का क्या अर्थ है? इसका दोहन व प्रदूषण कैसे होता है?
अथवा 
भारत से उदाहरण लेकर 'साझा सम्पदा संसाधन' की धारणा को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
साझी विरासत का तात्पर्य उन संसाधनों से है जिन पर किसी एक का नहीं वरन् पूरे समुदाय का अधिकार होता है। समुदाय स्तर पर नदी, कुआँ, चरागाह आदि साझी सम्पदा के उदाहरण हैं। विश्वस्तर पर कुछ संसाधन तथा क्षेत्र ऐसे हैं जो किसी एक देश के सम्प्रभु क्षेत्राधिकार में नहीं आते हैं, इसलिए उनका प्रबन्धन साझे तौर पर अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा किया जाता है। इसे 'विश्व सम्पदा' या 'मानवता की साझी विरासत' कहा जाता है। इस साझी विरासत में पृथ्वी का वायुमण्डल, अंटार्कटिका, समुद्री सतह और बाहरी अन्तरिक्ष शामिल हैं।

विश्व की साझी विरासत में शामिल प्राकृतिक संसाधन पारिस्थितिकी के सन्तुलन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। इस सम्पदा की सुरक्षा के लिए अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग कायम करना आसान नहीं है। केवल अंटार्कटिका महाप्रदेश में स्थलीय हिम का 90% हिस्सा तथा धरती पर मौजूद स्वच्छ जल का 70% हिस्सा शामिल है। साझी विरासत के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन व इनके प्रदूषण का क्रम जारी है।

उदाहरण के लिए; यद्यपि सन् 1959 के बाद अंटार्कटिका महाप्रदेश में मानवीय गतिविधियों वैज्ञानिक अनुसंधान, मत्स्य आखेट और पर्यटन तक सीमित रही हैं, परन्तु इसके बावजूद इस महादेश के कुछ हिस्से अवशिष्ट पदार्थ जैसे तेल के रिसाव के कारण अपनी गुणवत्ता खो रहे हैं। भारत ने अनुसंधान हेतु अंटार्कटिका प्रदेश में कई वैज्ञानिक दल भेजे हैं तथा वहाँ भारत का 'गंगोत्री' नामक स्थायी अनुसंधान केन्द्र भी स्थित है।

इसी तरह क्लोरोफ्लोरो कार्बन गैसों के असीमित उत्सर्जन के कारण वायुमण्डल की ओजोन परत का क्षरण हो रहा है। सन् 1980 के दशक के मध्य में अंटार्कटिका के ऊपर ओजोन परत में छेद की खोज एक आँख खोल देने वाली घटना है। ओजोन परत के क्षय होने पर सूरज की पराबैंगनी किरणें मनुष्यों तथा फसलों व पशुओं के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालती हैं। तटीय क्षेत्रों में औद्योगिकी व व्यावसायिक गतिविधियों के कारण समुद्री सतह प्रदूषित हो रही है।

कई बार तेल समुद्री सतह पर परत के रूप में फैल जाता है, जिससे समुद्री जीवों व वनस्पतियों को नुकसान होता है। इसी प्रकार पर्यावरण प्रदूषण से ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा बढ़ जाती है तथा वायुमण्डल व जलीय स्रोत भी प्रभावित होते हैं। इस प्रदूषण से पारिस्थितिकी व जलवायु परिवर्तन पर विपरीत प्रभाव पड़ते हैं।

साझी विरासत की सुरक्षा हेतु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कई महत्त्वपूर्ण समझौते; जैसे - अंटार्कटिका सन्धि (1959), माण्ट्रियल प्रोटोकॉल (1987) हो चुके हैं। परन्तु पारिस्थितिक सन्तुलन के सम्बन्ध में अपुष्ट वैज्ञानिक साक्ष्यों और समय सीमा को लेकर मतभेद पैदा होते रहते हैं, जिससे विश्व समुदाय में सहयोग हेतु आम सहमति बनाना कठिन है। 

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प्रश्न 6. 
'साझी परन्तु अलग - अलग जिम्मेदारियाँ' से क्या अभिप्राय है? हम इस विचार को कैसे लागू कर सकते हैं?

अथवा 
साझी परन्तु अलग - अलग जिम्मेदारियों की अवधारणा की व्याख्या कीजिए। इस पर कब, कहाँ और कैसे जोर दिया गया?
उत्तर:
विश्व पर्यावरण की रक्षा के सम्बन्ध में 'साझी लेकिन अलग - अलग जिम्मेदारियाँ' विचार के प्रतिपादन का तात्पर्य है कि चूँकि विश्व पर्यावरण की रक्षा में विकसित देशों की जिम्मेदारी अधिक है। यह जिम्मेदारी विकसित व विकासशील देशों के लिए बराबर नहीं हो सकती। इसके अलावा अभी गरीब देश विकास के पथ पर गुजर रहे हैं, अतः उनके ऊपर पर्यावरण रक्षा की जिम्मेदारी विकसित देशों के बराबर नहीं हो सकती। इस प्रकार सन् 1992 में हुए रियो सम्मेलन (पृथ्वी सम्मेलन) में माना गया कि अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण कानून के निर्माण, प्रयोग और व्याख्या में विकासशील देशों की विशिष्ट जरूरतों का ध्यान रखना चाहिए।

इसी सन्दर्भ में रियो घोषणा पत्र का कहना है कि "धरती के पारिस्थितिकी तन्त्र की अखण्डता व गुणवत्ता की बहाली, सुरक्षा तथा संरक्षण के लिए सभी राष्ट्र विश्वबन्धुत्व की भावना से आपस में सहयोग करेंगे। पर्यावरण के विश्वव्यापी अवक्षय में विभिन्न राष्ट्रों का योगदान अलग - अलग है। इसे देखते हुए विभिन्न राष्ट्रों की साझी, किन्तु अलग - अलग जिम्मेदारी होगी।"

साझी जिम्मेदारी तथा अलग - अलग भूमिका के सिद्धान्त को लागू करने हेतु यह आवश्यक है कि विभिन्न देशों द्वारा पर्यावरण प्रदूषण के लिए उत्तरदायी गैसों के उत्सर्जन व तत्वों के प्रयोग का आकलन किया जाए तथा प्रदूषण रोकने के प्रयासों में उसी अनुपात में उस देश की जिम्मेदारी तय की जाए। चूँकि पर्यावरण प्रदूषण का मुद्दा एक साझा वैश्विक मुद्दा है; अतः विकसित देशों को आ६ गुनिक प्रौद्योगिकी का विकास कर गरीब देशों को उपलब्ध कराना आवश्यक है।

जो देश अभी तक प्राकृतिक संसाधनों का दोहन नहीं कर पाए हैं तथा अभी विकास की प्रक्रिया में पीछे हैं, उन्हें आधुनिक प्रौद्योगिकी व तकनीक प्रदान कर पर्यावरण रक्षा हेतु प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। अन्यथा ऐसे देश ‘टिकाऊ विकास' (Sustainable Development) की रणनीति को अपनाने हेतु आकर्षित नहीं होंगे। इसी सिद्धान्त के आधार पर जलवायु परिवर्तन के सम्बन्ध में क्योटो प्रोटोकॉल, सन् 1997 के अन्तर्गत चीन तथा भारत जैसे विकासशील देशों को क्लोरोफ्लोरो कार्बन के उत्सर्जन की सीमा में छूट दी गयी है।

प्रश्न 7. 
वैश्विक पर्यावरण की सुरक्षा से जुड़े मुद्दे सन् 1990 के दशक से विभिन्न देशों के प्राथमिक सरोकार क्यों बन गए हैं ?
उत्तर:
वैश्विक पर्यावरण की सुरक्षा से जुड़े मुद्दे 1990 के दशक में निम्न कारणों से विभिन्न देशों के प्राथमिक सरोकार बन गए हैं।
(1) खाद्यान्न उत्पादन में कमी आना: दुनिया में जहाँ जनसंख्या बढ़ रही है, वहीं कृषि योग्य भूमि में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हो रही है। जलाशयों की जलराशि में कमी तथा उनका प्रदूषण, चरागाहों की समाप्ति तथा भूमि के अधिक सघन उपयोग में उसकी उर्वरता कम हो रही है तथा खाद्यान्न उत्पादन जनसंख्या के अनुपात में कम हो रहा है।

(2) स्वच्छ जल की उपलब्धता में कमी आना: संयुक्त राष्ट्र संघ की विश्व विकास रिपोर्ट, सन् 2016 के अनुसार जलस्रोतों के प्रदूषण के कारण दुनिया की 66.3 करोड़ जनता को स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं होता। 30 लाख से अधिक बच्चे स्वच्छ जल तथा स्वच्छता की कमी के कारण मौत के शिकार हो जाते हैं। 

(3) जैव विविधता का क्षरण होना: वनों के कटाव से जैव विविधता का क्षरण तथा जलवायु परिवर्तन का खतरा उत्पन्न हो गया है।

(4) ओजोन परत का क्षय होना: क्लोरोफ्लोरो कार्बन गैसों के उत्सर्जन से जहाँ वायुमण्डल की ओजोन परत का क्षय हो रहा है, वहीं ग्रीन हाउस गैसों के कारण ग्लोबल वार्मिंग की समस्या खड़ी हो गई है। ग्लोबल वार्मिंग से कई देशों के जलमग्न होने का खतरा बढ़ गया है।

(5) समुद्रतटीय क्षेत्रों में प्रदूषण का बढ़ना: समुद्रतटीय क्षेत्रों के प्रदूषण के कारण समुद्री पर्यावरण की गुणवत्ता में गिरावट आ रही है। चूँकि विश्व समुदाय को यह आभास हो गया है कि उक्त समस्याएँ वैश्विक हैं तथा इनका समाधान बिना वैश्विक सहयोग के सम्भव नहीं है, अतः पर्यावरण का मुद्दा विश्व राजनीति का भी अंग बन गया है। प्रत्येक राष्ट्र समूह विकसित व विकासशील अपने हितों को ध्यान में रखकर पर्यावरण रक्षा का एजेण्डा प्रस्तुत कर रहा है। परिणामस्वरूप, सन् 1992 में संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में ब्राजील के रियो डी जेनेरियो में विश्व पर्यावरण सम्मेलन का आयोजन किया गया।

विशेष रूप से इस सम्मेलन के बाद पर्यावरण व विकास से जुड़े विभिन्न पहलुओं; यथाटिकाऊ विकास, जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग, जैविक विविधता, मूलदेशी जनता के अधिकार व अलग-अलग भूमिका की धारणा पर विस्तार से चर्चा की गई। उक्त पृष्ठभूमि में पर्यावरण का मुद्दा विभिन्न राष्ट्रों के लिए प्रथम सरोकार के रूप में उभरकर सामने आया।

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प्रश्न 8. 
पृथ्वी को बचाने के लिए जरूरी है कि विभिन्न देश सुलह और सहकार की नीति अपनाएँ। पर्यावरण के सवाल पर उत्तरी और दक्षिणी देशों के बीच जारी वार्ताओं की रोशनी में इस कथन की पुष्टि करें।
उत्तर:
पृथ्वी व उसके पर्यावरण को बढ़ती जनसंख्या, तीव्र औद्योगिक विकास व प्राकृतिक संसाधनों के अतिशय दोहन के कारण गम्भीर खतरा बना हुआ है। पर्यावरण प्रदूषण की प्रकृति ऐसी है कि इसे किसी देश की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता। इसका प्रभाव वैश्विक है। अतः इसके सुधार के प्रयास भी वैश्विक स्तर पर होने चाहिए।

विश्व पर्यावरण सुरक्षा के सम्बन्ध में विभिन्न राष्ट्रों के मध्य सहयोग की जो बातचीत चल रही है, उसमें उत्तरी गोलार्द्ध के विकसित देशों तथा दक्षिणी गोलार्द्ध के विकासशील देशों के नजरिए में मतभेद देखने में आया है। अंटार्कटिका सन्धि (1959), मांट्रियल प्रोटोकॉल (1987) एवं अंटार्कटिका पर्यावरण प्रोटोकॉल (1991) हो चुके हैं, लेकिन अपुष्ट वैज्ञानिक साक्ष्यों एवं समय-सीमा को लेकर मतभेद विद्यमान हैं। ऐसे में एक सर्वमान्य पर्यावरणीय एजेंडे पर सहमति नहीं बन पायी है। विकसित देश पर्यावरण क्षरण के वर्तमान स्तर पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हुए इसके संरक्षण में सभी राष्ट्रों की समान जिम्मेदारी व भूमिका के हिमायती हैं। इसके विपरीत गरीब देशों का तर्क है कि ऐतिहासिक दृष्टि से विकसित देशों ने पर्यावरण क्षरण किया है तथा प्राकृतिक संसाधनों का अतिशय दोहन किया है; अतः विश्व पर्यावरण की रक्षा में विकसित देशों की भूमिका गरीब देशों की तुलना में अधिक होनी चाहिए।

दूसरा, विकासशील देशों में अभी पर्याप्त औद्योगिक विकास नहीं हो पाया है; अत: पर्यावरण सुरक्षा की जिम्मेदारी इन देशों की कम होनी चाहिए। सन् 1992 के अन्तर्राष्ट्रीय रियो सम्मेलन में ये मतभेद खुलकर सामने आए। इसीलिए सम्मेलन में प्रस्ताव के बीच का रास्ता अपनाया गया जिसमें कहा गया कि विश्व पर्यावरण की सुरक्षा व गुणवत्ता में सभी समुदाय की साझी जिम्मेदारी होगी, परन्तु इस संरक्षण में विकसित व विकासशील देशों की भूमिकाएँ अलग - अलग होंगी। अर्थात् विकसित देश संसाधनों व प्रौद्योगिकी के माध्यम से विश्व पर्यावरण की सुरक्षा में अधिक योगदान देंगे। उपर्युक्त मतभेद के बावजूद यह स्पष्ट है कि विश्व पर्यावरण की वैश्विक समस्या के कारण इसकी सुरक्षा हेतु विश्व सहयोग व सहकार की आवश्यकता है तथा विश्व समूहों को इस दिशा में अधिकाधिक सहयोग हेतु तत्पर होना आवश्यक है।

प्रश्न 9.
विभिन्न देशों के सामने सबसे गम्भीर चुनौती वैश्विक पर्यावरण को आगे कोई नुकसान पहुँचाए बगैर आर्थिक विकास करने की है। यह कैसे हो सकता है? कुछ उदाहरणों के साथ समझाएँ।
उत्तर:
गत 50 वर्षों में विश्व में हुए आर्थिक व औद्योगिक विकास से स्पष्ट हो जाता है कि विकास की यात्रा में प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन हुआ है। इसके कारण पारिस्थितिकी सन्तुलन इतना अधिक बिगड़ गया है कि वह मानव समुदाय के लिए एक संकट का रूप धारण कर रहा है। वायुमण्डल में हुए प्रदूषण से ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन परत का क्षरण तथा जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याएँ खड़ी हुई हैं। भूमि तथा जलीय संसाधनों का भी प्रदूषण बढ़ा है। वनों की कटाई से जैविक विविधता तथा जलवायु पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है।

अत: विश्व समुदाय ने इस बात पर आवश्यकता अनुभव की है कि विकास की रणनीति ऐसी हो कि पर्यावरण की सुरक्षा को खतरा उत्पन्न न हो। एक वैकल्पिक अवधारणा के रूप में सन् 1987 में छपी बर्टलैण्ड रिपोर्ट (अवर कॉमन फ्यूचर) में टिकाऊ विकास यानी (Sustainable Development) का प्रतिपादन किया गया था। रिपोर्ट में चेताया गया था कि औद्योगिक विकास के चालू तौर-तरीके आगे चलकर प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से टिकाऊ साबित नहीं होंगे। सन् 1992 में रियो सम्मेलन में पर्यावरण की रक्षा की दृष्टि से टिकाऊ विकास की धारणा पर बल दिया था। टिकाऊ विकास रणनीति में विकास के ऐसे साधन अपनाए जाते हैं कि प्राकृतिक संसाधन पर्याप्त व जीवन्त बने रहें। इसमें विकास को पर्यावरण रक्षा के साथ जोड़ दिया जाता है तथा प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा विकास का लक्ष्य बन जाता है।

उदाहरण के लिए; वर्तमान में हम ऊर्जा की माँग को देखते हुए गैर - परम्परागत स्रोतों; जैसे- पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा, भू - तापीय, बायो गैस आदि का दोहन कर सकते हैं, जिससे विकास में ऊर्जा की आवश्यकता की पूर्ति के साथ - साथ प्राकृतिक संसाधन भी संरक्षित रहेंगे। इसी तरह नवीन तकनीकों व मशीनों में प्रयोग कर ग्रीन हाउस गैसों व क्लोरोफ्लोरो कार्बन गैसों के उत्सर्जन को कम कर सकते हैं। विकास के साथ वनों का संरक्षण, भू - जल संरक्षण, सामाजिक - वानिकी आदि को अपनाकर हम संसाधनों की सुरक्षा के साथ - साथ विकास के लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। निष्कर्षतः टिकाऊ विकास की धारणा के द्वारा हम पर्यावरण रक्षा व विकास दोनों लक्ष्यों को प्राप्त कर सकते हैं।

Prasanna
Last Updated on Jan. 11, 2024, 9:30 a.m.
Published Jan. 10, 2024