RBSE Solutions for Class 12 Biology Chapter 14 पारितंत्र

Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Biology Chapter 14 पारितंत्र Textbook Exercise Questions and Answers.

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RBSE Class 12 Biology Solutions Chapter 14 पारितंत्र

RBSE Class 12 Biology पारितंत्र Textbook Questions and Answers


प्रश्न 1.
रिक्त स्थानों को भरें-
(क) पादपों को ....................... कहते हैं, क्योंकि वे कार्बन डाइ आक्साइड का स्थिरीकरण करते हैं। 
(ख) ऐसे पारितंत्र में जिसमें वृक्ष प्रभावी हों, संख्या का पिरामिड ....................... प्रकार का है। 
(ग) जलीय पारितंत्रों में उत्पादकता के लिए सीमाकारी कारक ....................... है।
(घ) हमारे पारितंत्र में सामान्य अपरदहारी ....................... हैं।
(च) पृथ्वी पर कार्बन का प्रमुख भण्डार ....................... है।
उत्तर:
(क) स्वपोषी (Autotrophs)। उत्पादक
(ख) उल्टा (inverted) 
(ग) प्रकाश (light) 
(घ) केचुए (earthworms)
(च) महासागर (Oceans) 

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प्रश्न 2. 
एक खाद्य श्रृंखला में निम्न में से किसकी समष्टि सबसे बड़ी होती है?
(a) उत्पादक
(b) प्राथमिकता उपभोक्ता 
(c) द्वितीयक उपभोक्ता
(d) अपघटक 
उत्तर:
(a) (खाद्य शृंखलाओं में अपघटकों को प्रदर्शित नहीं किया जाता) 

प्रश्न 3. 
एक झील में द्वितीय पोषण स्तर है:
(a) पादप प्लवक
(b) जन्तुप्लवक 
(c) नितलक (बैन्यास) 
(d) मछलियाँ 
उत्तर:
(b) जन्तुप्लवक (Zooplanktons)

प्रश्न 4. 
द्वितीयक उत्पादक है-
(a) शाकाहारी
(b) उत्पादक 
(c) माँसाहारी
(d) इनमें से कोई नहीं 
उत्तर:
(a) शाकाहारी 

प्रश्न 5. 
आपतित सौर विकिरण में प्रकाश संश्लेषणात्मक सक्रिय (photosynthetically Active Radiation PAR) विकिरण का प्रतिशत क्या होता है?
(a) 100%
(b) 50% 
(c) 1 - 5%
(d) 2 - 10%
उत्तर:
(b) 50% 

प्रश्न 6. 
निम्नलिखित में अन्तर स्पष्ट करें-
(a) चारण खाद्य श्रृंखला एवं अपरद खाध श्रृंखला 
(b) उत्पादन एवं अपघटन
(c) ऊर्ववर्ती (सीधा) एवं अधोवर्ती (उल्टा) पिरामिड 
उत्तर:
(a) चारण खाद्य श्रृंखलाएँ एवं अपरद खाद्य श्रृंखला (Grazing Food Chain and Detritus Food Chain)

चारण खाद्य श्रृंखला (Grazing Food Chain)

अपरद खाध श्रृंखला (Detritus food Chain)

1. उत्पादकों (हरे पौधों) से प्रारम्भ होती है।

अपरद या डेट्रिटस से प्रारम्भ होती है

2. उत्पादकों से शाकाहारियों तथा शाकाहारियों से मांसाहारियों की ओर बढ़ती है

अपरद से प्रारम्भ होकर अपरदहारी तथा इनके परभक्षियों की ओर बढ़ती है

3. पादप प्लवक → जन्तुप्लवक → छोटी मछली → बड़ी मछली

पत्तियाँ → केंचुआ → पक्षी → बाज अपरद छोटा + सूक्ष्मजीव

4. जलीय पारितंत्रों में ऊर्जा प्रवाह का प्रमुख माध्यम

स्थलीय पारितंत्रों में ऊर्जा प्रवाह का प्रमुख माध्यम


दोनों ही शृंखलाओं में ऊर्जा का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्राथमिक स्रोत सूर्य का प्रकाश ही माना जाता है। 

(b) उत्पादन एवं अपघटन (Production and Decomposition)
उत्पादन (Production): सरल पदार्थों से जटिल कार्बनिक पदार्थों का निर्माण उत्पादन कहलाता है। सामान्य रूप से उत्पादन शब्द का प्रयोग हरे पौधों या उत्पादकों द्वारा सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में सरल अकार्बनिक पदार्थों जैसे कार्बन डाइ ऑक्साइड व जल की मदद से जटिल कार्बनिक पदार्थों के निर्माण के लिए किया जाता है। इस प्रकार के उत्पादन को प्राथमिक उत्पादन (Primary Production) कहा जाता है। इस प्रक्रिया में सूर्य के प्रकाश की विकिरण ऊर्जा (radiant energy) खाद्य पदार्थों की रासायनिक ऊर्जा में बदल जाती है। उपभोक्ता के स्तर पर देखने पर, शाकाहारियों (herbivores) द्वारा खाद्य ऊर्जा का स्वांगीकरण (assimilation) द्वितीयक उत्पादन (Secondary Productoin) कहलाता है। यह एक उपचयी क्रिया है। इसमें ऊर्जा आवश्यक होती है। 

अपघटन (Decomposition): मृत कार्बनिक पदार्थों के जटिल यौगिकों का अपघटक सूक्ष्मजीवों जैसे जीवाणु व कवकों द्वारा विघटित कर सरल अकार्बनिक पदार्थों जैसे कार्बन डाइऑक्साइड व जल में बदल दिया जाना अपघटन कहलाता है। वास्तव में अपघटन की अभिक्रिया प्रकाश संश्लेषण (उत्पादन) की क्रिया के ठीक विपरीत है। अपघटन प्रमुख रूप से एक अपचयी (Catabolic) अभिक्रिया है तथा इसमें ऊर्जा मुक्त होती है। 

(c) ऊर्ववर्ती व अधोवर्ती पिरामिड (Erect and Inverted Pyramids): किसी पारितंत्र में ऊर्जा, जैवभार या संख्या को आधार बनाकर पोषण सम्बन्धों के ग्राफीय निरूपण (graphic representation) पिरामिड कहलाते हैं। उदाहरण के लिए प्रथम पोषण स्तर अर्थात उत्पादकों में उपलब्ध ऊर्जा की मात्रा सर्वाधिक होती है। द्वितीय पोषण स्तर पर इस कर्जा में कमी आती है। तृतीय व चतुर्थ स्तर पर उपलब्ध ऊर्जा की मात्रा क्रमश: और कम होती जाती है। इसके माफीय निरूपण से ऐसा पिरामिड बनता है जिसमें उत्पादकों का प्रतिनिधित्व करने वाला आधार सबसे चौड़ा व सर्वोच्च उपभोक्ताओं का प्रतिनिधित्व करने वाला शोध सबसे छोटा होता है। इस प्रकार एक सीधा पिरामिड प्राप्त होता है। अर्थात् ज्यामितीय पिरामिड का वास्तविक रूप। ऊर्जा का पिरामिड सदैव सीधा होता है। संख्या व जैवभार के पिरामिड भी प्रायः सीधे ही होते है लेकिन ये कुछ स्थितियों में उल्टे भी हो सकते हैं। यहाँ उल्टे पिरामिड का अर्थ है, आधार (जो उत्पादकों का प्रतिनिधित्व करता है) छोटा या संकरा तथा ऊपर के स्तर चौड़े या बड़े। किसी भी पारिस्थितिक पिरामिड में आधार पर उत्पादकों को ही दर्शाया जाता है। एक वृक्ष के पारिस्थितिक तंत्र में संख्या का पिरामिड उल्टा होता है, अकेले वृक्ष पर खाद्य के लिए आश्रित रहने वाले कीटों की संख्या बहुत अधिक होती है। कीटों पर कुछ पक्षी निर्भर रहते हैं। 
उल्टे पिरामिड का अर्थ है उत्पादक का स्तर सबसे छोटा व इसके बाद के एक या कई स्तर बड़े होते हैं। जैसे-
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प्रश्न 7. 
निम्नलिखित में अन्तर स्पष्ट करें-
(a) खाद्य श्रृंखला व खाद्य जाल (वेब) 
(b) लिटर (कर्कट) एवं अपरद
(c) प्राथमिक व द्वितीयक उत्पादकता 
उत्तर:
(a) खाद्य श्रृंखला व खाद्य जाल खाद्य श्रृंखला (Food Chain): खाद्य कर्जा के स्थानान्तरण को प्रदर्शित करता विभिन्न पोषण स्तरों के जीवों का अन्तः सम्बन्धित रैखिक अनुक्रम (linear sequence) खाद्य श्रृंखला कहलाता है। खाद्य श्रृंखला का प्रत्येक पद पोषण स्तर (trophic level) कहलाता है। उत्पादक (हरे पौधे) खाद्य श्रृंखला का प्रथम पद बनाते हैं। द्वितीय पद शाकाहारी जीवों का होता है तथा बाद के पद विभिन्न मांसाहारियों के। खाद्य शृंखलाएँ दो प्रकार की होती हैं।
चारण खाद्य श्रृंखला (Grazing food chian): ये उत्पादकों (हरे पौधों) से प्रारम्भ होती है तथा शाकाहारियों से मांसाहारियों की ओर बढ़ती है जैसे-
घास → टिका → मेढ़क → सौंप 
अपरद खाद्य श्रृंखला (Detritus food chain): यह अपरद से प्रारम्भ होती है। अपरद पर सूक्ष्मजीवों की क्रिया होती है, इनका अपरदहारी भक्षण करते है। अपदरहारी (detritivre) को विभिन्न प्रकार के परभक्षी खाते हैं। जैसे-
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खाद्य जाल (Food Web): प्रकृति में खाद्य शृंखलाएँ एकाकी या अलग-अलग नहीं होती। एक जीव को अनेक प्रकार के जीव अपना भोजन बनाते हैं। इससे खाद्य शृंखलाओं का एक अन्तर्सम्बन्धित जाल सा बन जाता है। अनेक खाद्य श्रृंखलाओं के आपस में मिलने से बना जाल खाद्य जाल (Food Web) कहलाता है। खाद्य जाल जीवों की खाद्य आपूर्ति के वैकल्पिक मार्ग प्रदर्शित करता है। 

(b) कर्कट व अपरद (Litter and detritus)
कर्कट (Litter): जीव विज्ञान में बिना अपघटन हुआ (Undecomposed) कार्बनिक पदार्थ जैसे लीफ लिटर (leaf litter), प्लांट लिटर, लिटर फॉल (litter fall) अर्थात पतझड़ में गिरी पत्तियाँ आदि कर्कट कहलाती है। मृदा में सबसे ऊपर का '0' प्रस्तर (0 horizon) लिटर से बना होता है। (यहाँ से तात्पर्य आर्गेनिक से है) 
अपरद (Detritus): मृत कणिकामय (dead particulate) पदार्थ जिस पर सूक्ष्मजीवों की क्रिया से इसके कार्बनिक पदार्थों का अपघटन होता है। यह वह पदार्थ भी है जो पादप व जन्तु कतको, भागों के आंशिक क्षय, (disintigration) से बनता है। ऐसा मृत कार्बनिक पदार्थ जो मृदा के सूक्ष्मजीवों के लिए उपलब्ध हो अपरद कहलाता है। यह अपरदहारी जैसे केंचुए के लिए भी उपलब्ध होता है। 

(c) प्राथमिक व द्वितीयक उत्पादकता प्राथमिक उत्पादकता (Primary Productivity: प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में पादपों द्वारा निर्दिष्ट समय में प्रति इकाई क्षेत्र द्वारा उत्पादित कार्बनिक पदार्थ या जैव भार की मात्रा प्राथमिक उत्पादन कहलाती है। इसे भार ग्राम प्रति वर्ग मीटर या ऊर्जा किलो कैलोरी प्रति वर्ग मीटर के रूप में अभिव्यक्त किया जाता है। हरे पौधों के स्तर पर जैव भार (जैव मात्रा) उत्पादन की दर उत्पादकता कहलाती है। इसे ग्राम प्रति वर्ग मी प्रतिवर्ष या कि कैलोरी प्रति वर्ग मीटर प्रति वर्ष के रूप में मापा जाता है। चूंकि हरे पौधे सूर्य की विकिरण कर्जा को खाद्य पदार्थ (संचित रासायनिक ऊर्जा) में बदलते हैं अत: इसे प्राथमिक उत्पादकता (Primary Productivity) कहा जाता है। 
द्वितीयक उत्पादकता (Secondary Productivity): उपभोक्ताओं के स्तर पर नये कार्बनिक पदार्थ के निर्माण की दर द्वितीयक उत्पादकता कहलाती है। 

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प्रश्न 8. 
पारितंत्र के घटकों की व्याख्या करें। 
उत्तर:
किसी भी पारितंत्र में दो प्रकार के घटक पाये जाते हैं अजैविक घटक व जैविक घटका 
(A) अजैविक घटक पारितंत्र के भौतिक पर्यावरण (Physical Environment) के सभी भाग पारितंत्र के अजैविक घटक बनाते हैं। ये इस प्रकार हैं-

  1. अकार्बनिक पदार्थ (Inorganie materials): कार्बन डाइ ऑक्साइड, जल, विभिन्न प्रकार के खनिज, आयन व लवण अकार्बनिक पदार्थ है। 
  2. कार्बनिक पदार्थ: अपरद, स्यूमस, प्रोटीन आदि जैसे पदार्थ जो अकार्बनिक पदार्थों व जीवधारियों के बीच की कड़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं। 
  3. जलवायुगत कारक (Climate factors): प्रकाश, तापमान, आर्द्रता, हवा आदि पारितंत्र के जलवायुगत कारक है जो अजैविक घटकों में सम्मिलित हैं। 
  4. मृदीय कारक (Edaphic factors): मृदा स्थलीय व जलीय दोनों प्रकार के पारितंत्रों में पदार्थों के चक्रण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है, मृदा की pH, मृदा वायु, मृदा जल आदि समुदायों को प्रभावित करते हैं।


(B) जैविक घटक (Biotic Components): पारितंत्र के जीवित जीवधारी जैविक घटकों का निर्माण करते हैं। यह निम्न प्रकार के होते हैं - उत्पादक, उपभोक्ता व अपघटक 
(i) उत्पादक (Producers): उत्पादकों में पारितंत्र के हरे पौधों को शामिल किया जाता है जो प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में सरल अकार्बनिक पदार्थों से जटिल खाद्य पदार्थों का निर्माण करते हैं। अर्थात् सूर्य की विकिरण ऊर्जा को खाद्य पदार्थ की रासायनिक ऊर्जा में बदल देते हैं। ये निम्न प्रकार के हो सकते हैं-
(क) सूक्ष्म पादप (Microphytes): जलीय पारितंत्र के प्रमुख उत्पादक 
(ख) दीर्घ पादप (Macrophytes): स्थलीय पारितंत्र के प्रमुख उत्पादक 

(ii) उपभोक्ता (Consumers) या विषमपोषी घटक (Heterotrophie Components): इसमें इस प्रकार के जीव शामिल है जो स्वयं अपना भोजन नहीं बनाते तथा पादपों से बना भोजन (readymade food) प्राप्त करते हैं। अर्थात् ये भोजन के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पादपों पर निर्भर रहते हैं।
उपभोक्ता दो प्रकार के होते हैं - जन्तु उपभोक्ता तथा अपघटक।

(a) जन्तु उपभोक्ता (Animal Consumer): ये दीर्घ उपभोक्ता (macroconsumer) हैं जो होलोजोइक (holozole) होते हैं। खाद्य स्रोत के आधार पर ये निम्न प्रकार के हो सकते हैं
शाकाहारी (herbivores) या प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता: जो सीधे हरे पौधों से अपना भोजन प्राप्त करते हैं। इन्हें प्राथमिक उपभोक्ता भी कहते हैं। 
द्वितीयक उपभोक्ता (Secondary consumers): शाकाहारी जन्तुओं को खाने वाले मांसाहारी जन्तु द्वितीयक उपभोक्ता या द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ता हैं। 
तृतीयक उपभोक्ता (Tertiary consumer): यह तृतीय श्रेणी के उपभोक्ता है जो द्वितीयक उपभोक्ताओं या प्राथमिक मांसाहारियों (Primary carnivores) से भोजन प्राप्त करते हैं।
सर्वोच्च उपभोक्ता (Topcarnivores): ये ऐसे जीव है जिन्हें कोई अन्य जीव नहीं खाता तथा यह अन्य किसी प्रकार के जीव को खाते हैं जैसे शेर, बाघ आदि। 

(b) अपघटक (decomposers): ये विशिष्ट प्रकार के उपभोक्ता हैं जिन्हें सूक्ष्म उपभोक्ता (micro consumers) भी कहा जाता है। ये मृत कार्बनिक पदार्थों के अपघटन से अपना पोषण प्राप्त करते हैं।

प्रश्न 9. 
पारिस्थितिक पिरामिड को परिभाषित करें तथा जैव मात्रा या जैव - भार तथा संख्या के पिरामिडों की उदाहरण सहित व्याख्या करें।
उत्तर:
(a) किसी पारितंत्र में पोषण संरचना व पोषण कार्य का प्राफीय निरूपण पारिस्थितिक पिरामिड कहलाता है। इसमें प्रथम स्तर अर्थात उत्पादक स्तर पिरामिड का आधार तथा अन्य पोषक स्तर क्रमशः इसके ऊपरी भाग बनाते हैं। शीर्ष भाग (apex) खाद्य श्रृंखला के सर्वोच्च उपभोक्ता द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। पारिस्थितिक पिरामिड बनाने में पोषण स्तरों के तीन पहलुओं, संख्या, जैवभार (जैव मात्रा) या ऊर्जा को आधार बनाया जा सकता है,
अत: पिरामिड तीन प्रकार के होते हैं
(a) संख्या का पिरामिड (Pyramid of number): इसमें जीवों की संख्या को प्रदर्शित किया जाता है।
(b) जैव मात्रा का पिरामिड (Pyramid of biomass): यह जीवों के कुल शुष्क भार/कैलोरी मूल्य पर आधारित होता है। 
(c) ऊर्जा का पिरामिह (Pyramid of energy): इसमें प्रत्येक स्तर पर ऊर्जा बहाव की दर या उत्पादकता प्रदर्शित की जाती है। जैवभार (जैव मात्रा) का पिरामिड तथा संख्या का पिरामिड दोनों ही प्राय: सीधे होते हैं क्योंकि उत्पादक स्तर पर जीवों की संख्या व जैव भार की मात्रा, उपभोक्ता स्तर के जीवों की संख्या व मात्रा से अधिक होती है।
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लेकिन संख्या व जैव भार के पिरामिड उल्टे (inverted) भी हो सकते है। उल्टे पिरामिड का अर्थ है कि उत्पादकों की संख्या का या जैव भार उपभोक्ताओं के किसी एक या अधिक स्तरों से कम होता है। जैसे किसी वृक्ष के जैव संख्या पिरामिड में उत्पादक वृक्ष की संख्या एक व उस पर आश्रित कीटों की संख्या बहुत अधिक होती है। इसी प्रकार सागरीय (marine) पारितंत्र में उत्पादकों का जैव भार उन्हें खाने वाली मछलियों के जैव भार से कम होता है। इस प्रकार एक उल्टा (inverted pyramid) प्राप्त होता है।
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प्रश्न 10. 
प्राथमिक उत्पादकता क्या है? उन कारकों की संक्षेप में चर्चा करें जो प्राथमिक उत्पादकता को प्रभावित करते हैं। 
उत्तर:
प्राथमिक व द्वितीयक उत्पादकता प्राथमिक उत्पादकता (Primary Productivity: प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में पादपों द्वारा निर्दिष्ट समय में प्रति इकाई क्षेत्र द्वारा उत्पादित कार्बनिक पदार्थ या जैव भार की मात्रा प्राथमिक उत्पादन कहलाती है। इसे भार ग्राम प्रति वर्ग मीटर या ऊर्जा किलो कैलोरी प्रति वर्ग मीटर के रूप में अभिव्यक्त किया जाता है। हरे पौधों के स्तर पर जैव भार (जैव मात्रा) उत्पादन की दर उत्पादकता कहलाती है। इसे ग्राम प्रति वर्ग मी प्रतिवर्ष या कि कैलोरी प्रति वर्ग मीटर प्रति वर्ष के रूप में मापा जाता है। चूंकि हरे पौधे सूर्य की विकिरण कर्जा को खाद्य पदार्थ (संचित रासायनिक ऊर्जा) में बदलते हैं अत: इसे प्राथमिक उत्पादकता (Primary Productivity) कहा जाता है। 
द्वितीयक उत्पादकता (Secondary Productivity): उपभोक्ताओं के स्तर पर नये कार्बनिक पदार्थ के निर्माण की दर द्वितीयक उत्पादकता कहलाती है।
प्राथमिक उत्पादकता को प्रभावित करने वाले कारक: प्राथमिक उत्पादकता को निम्न कारक प्रभावित करते हैं।

  1. पर्यावरणीय कारक (Environmental factors): प्रकाश (light) की तीव्रता, अवधि व गुणवत्ता, तापमान परास (temperature range), जल की उपलब्धता (availability of water), मृदा का प्रकार (Types of soil)
  2. पादप प्रजाति, प्रजाति की प्रकाश संश्लेषणीय क्षमता (Photosynthetic capacity) 
  3. पोषकों की उपलब्धता (Availability of nutrients) जैसे कार्बन डाइ ऑक्साइड, जल, खनिज। 

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प्रश्न 11. 
अपघटन की परिभाषा दें तथा अपघटन की प्रक्रिया एवं उसके उत्पादों की व्याख्या करें। 
उत्तर:
उत्पादन एवं अपघटन (Production and Decomposition)
उत्पादन (Production): सरल पदार्थों से जटिल कार्बनिक पदार्थों का निर्माण उत्पादन कहलाता है। सामान्य रूप से उत्पादन शब्द का प्रयोग हरे पौधों या उत्पादकों द्वारा सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में सरल अकार्बनिक पदार्थों जैसे कार्बन डाइ ऑक्साइड व जल की मदद से जटिल कार्बनिक पदार्थों के निर्माण के लिए किया जाता है। इस प्रकार के उत्पादन को प्राथमिक उत्पादन (Primary Production) कहा जाता है। इस प्रक्रिया में सूर्य के प्रकाश की विकिरण ऊर्जा (radiant energy) खाद्य पदार्थों की रासायनिक ऊर्जा में बदल जाती है। उपभोक्ता के स्तर पर देखने पर, शाकाहारियों (herbivores) द्वारा खाद्य ऊर्जा का स्वांगीकरण (assimilation) द्वितीयक उत्पादन (Secondary Productoin) कहलाता है। यह एक उपचयी क्रिया है। इसमें ऊर्जा आवश्यक होती है। 

अपघटन (Decomposition): मृत कार्बनिक पदार्थों के जटिल यौगिकों का अपघटक सूक्ष्मजीवों जैसे जीवाणु व कवकों द्वारा विघटित कर सरल अकार्बनिक पदार्थों जैसे कार्बन डाइऑक्साइड व जल में बदल दिया जाना अपघटन कहलाता है। वास्तव में अपघटन की अभिक्रिया प्रकाश संश्लेषण (उत्पादन) की क्रिया के ठीक विपरीत है। अपघटन प्रमुख रूप से एक अपचयी (Catabolic) अभिक्रिया है तथा इसमें ऊर्जा मुक्त होती है। 
प्रक्रिया व उत्पाद: सुविधा की दृष्टि से अपघटन की प्रक्रिया को निम्न चरणों बाँटा जा सकता है जो साथ - साथ सम्पन्न होती हैं-

(a) अपरद का खण्डन (Fragmentation of Detritus): केचुऐं, मोमें, कोपेपोड आदि अपरदहारी जीव हैं। ये अपरद या अपरद पर लगे सूक्ष्मजीवों कवक, जीवाणु व शैवाल के साथ अपरद को खाते हैं। इससे अपरद का खण्डन हो जाता है। खण्डन से छोटे - छोटे कण बन जाते हैं तथा अपरद का सतही क्षेत्र सूक्ष्मजीवी क्रिया हेतु बढ़ जाता है। 
(b) प्रक्षालन (Leaching): जल में पुलित लवणों, शर्कराओं तथा खनिजों आदि का मृदा के नीचे के स्तरों में चले जाना। 
(c) अपचय (catabolism): जीवाणु व कवकों के बहिः कोशिकीय एंजाइम अपरद के जटिल कार्बनिक पदार्थों को सरल अकार्बनिक पदार्थों जैसे कार्बन डाइऑक्साइड व जल में विघटित कर देते हैं। अपचयन विभिन्न प्रकार के सूक्ष्मजीवों द्वारा सम्पन्न किया जाता है। जिससे अन्त में उत्पाद के रूप में सरल अकार्बनिक पदार्थ प्राप्त होते हैं। 

स्यूमीकरण (Humification): इस प्रक्रिया में अपचय के बाद उमस का निर्माण होता है। स्यूमस गहरे रंग का (काला - कत्थई) एमार्फस (amorphous) पदार्थ है जिसका अपघटन बहुत धीमा होता है। यह पोषकों, खनिजों के भण्डार के रूप में कार्य करता है। 
खनिजीभवन (Miniralization): जैसा कि नाम से स्पष्ट है, इस प्रक्रिया में खनिज पदार्थ जैसे कि NH4+, Ca++, Mg++ व K+ आदि धीरे - धीरे मुक्त होते हैं। 

प्रश्न 12. 
एक पारिस्थितिक तंत्र में ऊर्जा प्रवाह का वर्णन करें। 
उत्तर:
पारिस्थितिक तंत्र में ऊर्जा प्रवाह: ऊर्जा प्रवाह किसी भी पारितंत्र का विशिष्ट गुण है कर्जा प्रवाह ऊष्मागतिकी के प्रथम व द्वितीय नियमों (First and second laws of thermodynamics) का पालन करता है।

ऊर्जा प्रवाह की दो प्रमुख स्थितियाँ हैं सूर्य की विकिरण ऊर्जा का रूपान्तरण तथा खाद्य श्रृंखला में ऊर्जा प्रवाह। हरे पौधे कुल आपतित सूर्य के प्रकाश की लगभग 50% मात्रा जो कि प्रकाश संश्लेषणीय सक्रिय विकिरण (PAR) होती है। में से 2 - 10 प्रतिशत प्रकाश संश्लेषण के रूप में स्थिर करते हैं। अर्थात सूर्य की विकिरण ऊर्जा (Radiant energy) खाद्य पदार्थ की रासायनिक ऊर्जा (Chemical energy) में परिवर्तित हो जाती है। पौधों में कुल उत्पादन सकल उत्पादन (gross production) कहलाता है। श्वसनीय हानि (Respiratory loss) के बाद बची जैव मात्रा शाकाहारियों हेतु उपलब्ध होती है। पारितंत्र के अन्य सभी जीव इसी रासायनिक ऊर्जा (भोजन) से अपनी ऊर्जा आवश्यकताएं पूरी करते हैं। पौधों से यह ऊर्जा खाद्य श्रृंखला के माध्यम से सभी जीवधारियों को स्थानान्तरित कर दी जाती है।

हरे पौधों को पारितंत्र में प्राथमिक उत्पादक कहा जाता है क्योंकि सौर ऊर्जा के रूपान्तरण (transformation) के बाद यही सभी उपभोक्ताओं (जन्तुओं व अपघटकों) तक ऊजा के स्थानान्तरण (transfer) का स्रोत है।
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इस प्रकार खाद्य ऊर्जा उत्पादकों से शाकाहारी जन्तुओं अर्थात प्रथम श्रेणी के उपभोक्ताओं में, शाकाहारियों से इनको खाने वाले प्राथमिक मांसाहारियों (Primary carnivores) या द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ताओं में, प्राथमिक मांसाहारियों से द्वितीय मांसाहारियों (Secondary carnivores) में व अन्त में सर्वोच्च मांसाहारी (top carnivores) तक स्थानान्तरित होती है। प्रत्येक स्थानान्तरण में ऊर्जा की ऊष्मा के रूप में हानि होती है। पौधों की मृत्यु के बाद उनके शरीर को प्रयोग न की गई ऊर्जा तथा जन्तुओं की मृत्यु के बाद उनके शरीर की ऊर्जा साथ ही जन्तुओं के अपशिष्ट पदार्थों की ऊर्जा, मृत कार्बनिक पदार्थ के रूप में अपपटक जीवों को प्राप्त हो जाती है तथा अपरद खाद्य शृंखला (ditritus food chian) का मार्ग अपनाती है। एक पोषण स्तर में उपलब्ध ऊर्जा का केवल 10 प्रतिशत भाग ही अगले पोषण स्तर में उपलब्ध हो पाता है। इसे 10 प्रतिशत का नियम कहते है।
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प्रश्न 13. 
एक पारितंत्र में अवसादीय चक्र की विशेषताओं का वर्णन करें। 
उत्तर:
अवसादी चक्रण की विशेषताएँ-

  1. अवसादी चक्रण में पोषक का स्रोत वायुमण्डल नहीं अपितु भूपर्पटी (Earth crust) होती है जैसे कि फास्फोरस व सल्फर चक्र में।
  2. अवसादी चक्रण में अपरदन (erosion), अवसादन (sedimentation), पहाड़ निर्माण (mountain building), ज्वालामुखीय गतिविधि (Volcanic activity) तथा जैविक परिवहन (biological transport) पोषक तत्व के चक्रण को प्रभावित करने वाले प्राथमिक कारक होते है। 
  3. फास्फोरस एक ऐसा तत्व है जिसकी मृदा (भूपर्पटी) में कमी अक्सर पादपों की वृद्धि के लिए सीमाकारी होती है। 
  4. ठोस पदार्थ की वायु में धूल के कणों के रूप में गति फाल आउट (fall out) कही जाती है। अवसादी चक्रण फॉल आउट प्रवृत्ति प्रदर्शित करते है।
  5. जीव व पर्यावरण के बीच गैसीय विनिमय लगभग नगण्य होता है। 

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प्रश्न 14. 
एक पारितंत्र में कार्बन चक्रण की महत्त्वपूर्ण विशेषताओं की रूपरेखा प्रस्तुत करें। 
उत्तर:
पारितंत्र - कार्बन चक्र (Ecosystem - carbon cycle):
कार्बन को जीवन का आधार माना जाता है। यह जीवद्रव्य के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण यौगिकों जैसे प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेटस, नाभिकीय अम्ल सभी का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संघटक है। कार्बन किसी जीव के शुष्क भार का 49 प्रतिशत भाग बनाता है। जीवों में जल के बाद कार्बन की ही सर्वाधिक मात्रा होती है।

भण्डार (Reservoir):
कार्बन की कुल वैश्विक (global) मात्रा में 71 प्रतिशत कार्बन महासागरों में घुलित अवस्था में पाया जाता है। यह सागरीय भण्डार (Oceanic reservoir) ही वायुमण्डल में कार्बन डाइ आक्साइड की मात्रा का नियमन करता है। वायुमण्डल में कुल वैश्विक कार्बन की मात्रा का केवल 1 प्रतिशत स्थित होता है। जीवाश्म ईंधन भी कार्बन के भण्डार का प्रतिनिधित्व करते हैं। अत: कोयले में स्थित कार्बन, ग्रेफाइट, पेट्रोलियम कार्बन के भण्डार हैं। 

चक्रण (Recycle):
कार्बन चक्र में वायुमण्डल, सागर, जीवित व मृत जीवधारी शामिल हैं। जीवधारियों में अधिकांश कार्बन प्रकाश संश्लेषण की क्रिया के माध्यम से प्रवेश करता है। एक अनुमान के अनुसार जीवमण्डल (biosphere) में 4 x 1013 किग्रा कार्बन का प्रतिवर्ष प्रकाश संश्लेषण द्वारा स्थिरीकरण होता है। प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में बने कार्बनिक पदार्थ पौधों (उत्पादकों) से उपभोक्ताओं को स्थानान्तरित हो जाते हैं। कार्बन की एक उल्लेखनीय मात्रा कार्बन डाई आक्साइड के रूप में उत्पादकों व उपभोक्ताओं के द्वारा किये गये श्वसन में मुक्त होती है। पेड़ - पौधों व जन्तुओं के मृत शरीर तथा मल - मूत्र जिनमें कार्बन यौगिक एकत्रित होते हैं, सूक्ष्मजीवों द्वारा अपघटित (decompose) कर दिये जाते है। इससे कार्बन डाई आक्साइड मुक्त हो जाती है। सूक्ष्मजीवों द्वारा अपघटन स्थलीय तथा जलीय दोनों ही पर्यावरणों में होता है। स्थिरीकृत (fixed) कार्बन की कुछ मात्रा अवसाद (Sediment) में नष्ट हो जाती है व परिवहन से हट जाती है। कार्बन निम्न तरीकों से भी कार्बन डाइऑक्साइड के रूप में वायुमण्डल में मुक्त होता है-

  • लकड़ी व जीवाश्म ईंधन का जलना
  • वनों की आग (forest fire) 
  • कार्बनिक पदार्थों का जलना
  • ज्वालामुखीय गतिविधियाँ (Volcanic activities) 

मानवीय गतिविधियों का कार्बन चक्र पर गहरा असर पड़ा है। तेजी से हो रही वनों की कटाई (deforestation) तथा ऊर्जा प्राप्ति व परिवहन के लिए हो रहे जीवाश्म ईंधन के अत्यधिक प्रयोग से वायुमण्डल में कार्बन डाइ
ऑक्साइड की मुक्ति की दर तेजी से बढ़ी है।

Bhagya
Last Updated on Dec. 1, 2023, 9:30 a.m.
Published Nov. 30, 2023