RBSE Solutions for Class 11 Sociology Chapter 2 ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था

Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Sociology Chapter 2 ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था Textbook Exercise Questions and Answers.

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RBSE Class 11 Sociology Solutions Chapter 2 ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था

RBSE Class 11 Sociology ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था Intext Questions and Answers

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प्रश्न 1. 
अपने बड़ों से बात कीजिये तथा अपने जीवन से संबंधित चीजों के बारे में सूची बनाइये जो
(क) उस समय नहीं थीं, जब आपके माता-पिता आपकी उम्र के थे।। 
(ख) तब अस्तित्व में नहीं थीं, जब आपके नाना-नानी/दादा-दादी आपकी उम्र के थे।
(ग) क्या आप ऐसी चीजों की सूची बना सकते हैं, जो आपके माता-पिता, उनके माता-पिता के समय में थीं, परन्तु अब नहीं हैं।
उत्तर:
छात्र यह परियोजना अपने बड़ों से बात करके स्वयं करें। सुविधा की दृष्टि से निम्न वस्तुओं पर विचार किया जा सकता है-
(क) आपके माता-पिता के छात्र-जीवन के समय संभवतः ये वस्तुएँ अस्तित्व में नहीं होंगी-

  1. रंगीन टीवी,
  2. मोबाइल फोन 
  3. कम्प्यूटर 
  4. प्लास्टिक की थैली में दूध 
  5. इंटरनेट आदि।

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(ख) आपके नाना-नानी/दादा-दादी के छात्र-जीवन के समय संभवतः ये वस्तुएँ अस्तित्व में नहीं रही होंगी। 

  1. (क) में गिनाई गई समस्त वस्तुएँ 
  2. श्याम-श्वेत टी.वी
  3. कपड़ों में जिप का प्रयोग 
  4. प्लास्टिक की बाल्टी 
  5. प्लास्टिक की अन्य वस्तुएँ 
  6. प्लास्टिक व कागज के पत्तल व दोने
  7. बाल पेन 
  8. ट्यूबवैल आदि।

(ग) आपके दादा-दादी के छात्र-वय के समय की ये वस्तुएँ आज प्रचलन में नहीं हैं

  1. सरकंडे की कलम 
  2. लकड़ी की तख्ती तथा उसको चमकाने के लिए प्रयुक्त सीसे का गोल छल्ला, 
  3. सोने-चांदी तथा तांबे के सिक्के 
  4. कुओं से पानी निकालने का चरस आदि। | 

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प्रश्न 2. 
फ्रांसीसी क्रांति अथवा औद्योगिक क्रांति जिसके बारे में आपने पाठ्यपुस्तकों में पढ़ा है, परिचर्चा को देखिये। 
(अ) इनमें से प्रत्येक किस प्रकार के परिवर्तन लेकर आया? क्या ये परिवर्तन इतने तीव्र अथवा इतने दूरगामी थे कि क्रांतिकारी परिवर्तन के योग्य हो सकें।
(ब) अन्य किस प्रकार के सामाजिक परिवर्तनों के बारे में आपने अपनी पुस्तक में पढ़ा है, जो क्रांतिकारी परिवर्तन के योग्य नहीं हैं? वे क्यों योग्य नहीं हैं? 
उत्तर:
(अ) फ्रांसीसी क्रांति तथा औद्योगिक क्रान्ति के कारण तथा परिणाम-
(i) फ्रांसीसी क्रांति के कारण 1789 ई. की फ्रांस की क्रांति वहां की निरंकुश शासन व्यवस्था, दोषपूर्ण सामाजिक व्यवस्था, विशेषाधिकारों और नौकरशाहों के विरुद्ध थी तथा तात्कालिक परिस्थितियों की विस्फोट थी। फ्रांस की राज्य क्रांति के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे

(1) निरंकुश राजतंत्र-फ्रांस के शासक निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी थे। लोगों को किसी भी प्रकार के अधिकार नहीं थे। राजा किसी भी व्यक्ति को बन्दी बनाकर उसे अपनी इच्छानुसार दण्डित कर सकता था। फ्रांस में 'एस्टेट्स । जनरल' नामक एक प्रतिनिधि संस्था अवश्य थी, परन्तु 1614 ई. के बाद उसका कोई अधिवेशन नहीं बुलाया गया था।

(2) अयोग्य शासक-फ्रांस का शासक लई पन्द्रहवां (1715-1774) अयोग्य, अकर्मण्य तथा अदूरदशी था। उसने अपनी साम्राज्यवादी नीति तथा फिजूलखर्ची से राजकोष को खाली कर दिया था। लुई सोलहवां भी एक अयोग्य, विलासप्रिय तथा अदूरदर्शी था। उसके समय में फ्रांस की आर्थिक दशा अत्यन्त शोचनीय हो गई तथा वह क्रांति के विस्फोट को रोकने में असफल रहा।

(3) दूषित न्याय व्यवस्था-फ्रांस की न्याय व्यवस्था दोषपूर्ण थी। देश के भिन्न-भिन्न भागों में अलग-अलग कानून प्रचलित थे। दण्ड व्यवस्था कठोर एवं पक्षपातपूर्ण थी। कोई न्यायिक पद्धति नहीं थी। धन देकर न्यायाधीश का पद खरीदा जा सकता था।

(4) असन्तोषजनक शासन व्यवस्था-उस समय फ्रांस की शासन व्यवस्था अक्षम, अव्यवस्थित, भ्रष्ट तथा खर्चीली थी। उच्च पदों पर कुलीन वर्ग के लोग आसीन थे जो जनता का शोषण कर ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करते थे। स्थानीय स्वशासन व्यवस्था नहीं थी। प्रान्तीय शासक गवर्नमेंट और जनरेलिटी दो प्रकार के प्रान्तों में बँटा था। गवर्नमेंट प्रान्तों के गवर्नर कुलीन वर्ग के लोग थे। 36 जनरेलिटी के प्रान्तीय अधिकारी राजा द्वारा नियुक्त इन्टेण्डेण्ट कहलाते थे। ये राजाज्ञा के दास थे।

(5) उच्च वर्ग का विशेषाधिकार युक्त होना-फ्रांसीसी समाज में घोर असमानता व्याप्त थी। फ्रांसीसी समाज दो भागों में विभक्त था-

  • विशेषाधिकारयुक्त वर्ग तथा 
  • अधिकारविहीन वर्ग।

विशेषाधिकारयुक्त वर्ग में उच्च पादरी तथा कुलीन लोग शामिल थे। इनके पास अतुल धन-सम्पत्ति थी तथा विलासप्रिय थे। ये लोग सभी प्रकार के करों से मुक्त थे, उच्च पदों पर आसीन थे, किसानों का शोषण करते थे। इनके अत्याचारों के कारण किसानों में घोर असन्तोष व्याप्त था। मध्यम वर्ग के लोग भी सामन्ती हस्तक्षेप से दुःखी थे। थीयर्स ने फ्रांस की क्रांति के सम्बन्ध में लिखा है कि 'विद्रोह राजगद्दी के विरुद्ध कम तथा कुलीन वर्ग के अत्याचारों के विरुद्ध अधिक था।' किसानों और मजदूरों की दशा अत्यन्त शोचनीय थी। उन्हें भरपेट भोजन नहीं मिल पाता था।

उन पर करों का भारी बोझ लदा हुआ था। सामन्तों के अत्याचारों के कारण उनमें आक्रोश व्याप्त था। यद्यपि मध्यम वर्ग के पास धन था, संजीव पास बुक्स योग्यता थी, लेकिन धन एवं योग्यता के अनुरूप समाज में प्रतिष्ठा नहीं थी। कुलीन वर्ग के लोग उन्हें घृणा की दृष्टि से देखते थे। अतः मध्यम वर्ग के लोगों में कुलीन वर्ग के विशेषाधिकारों के प्रति तीव्र आक्रोश था। अतः फ्रांस की क्रांति विशेषाधिकारों के विरुद्ध समानता के लिए आन्दोलन था जिसका नेतृत्व मध्यम वर्ग ने ही किया था।

(6) शोचनीय आर्थिक दशा-फ्रांस के शासकों की फिजूलखर्ची, दोषपूर्ण कर प्रणाली तथा उनकी साम्राज्यवादी नीति के कारण फ्रांस की आर्थिक दशा शोचनीय बन गयी थी। सरकार पर ऋण-भार बहुत बढ़ गया था तथा लुई सोलहवें । (1774-1793) के समय में फ्रांस आर्थिक दृष्टि से दिवालिया हो चुका था। उसने कुलीन वर्गों के प्रभाव में आकर अपने अर्थ-मंत्रियों के सुझावों को लागू नहीं किया। अन्त में 5 मई, 1789 को एस्टेट्स जनरल का अधिवेशन उसने मजबूरी में बुलाया। यहीं से क्रांति का सूत्रपात हुआ।

(7) बौद्धिक कारण-फ्रांस के दार्शनिकों, विचारकों एवं लेखकों ने फ्रांस की जनता को क्रांति के लिए प्रेरित किया। उन्होंने फ्रांस की जनता को शासन, समाज, चर्च एवं अन्य क्षेत्रों में व्याप्त बुराइयों से जनता को अवगत कराया और उनमें विद्रोह की भावना उत्पन्न की। 

फ्रांस की क्रांति के प्रभाव 
फ्रांस की क्रांति के प्रमुख प्रभाव निम्नलिखित रहे-
(1) राष्ट्रीयता का विकास-फ्रांस की क्रांति ने समस्त यूरोप में राष्ट्रीयता की भावना का विकास किया।

(2) जनतंत्र की विजय-फ्रांस की क्रांति ने सदियों से चल रहे सामन्तवाद का अन्त कर जनतंत्रात्मक शासन के युग को प्रारंभ किया। फ्रांस में निरंकुश राजतंत्रीय शासन का अन्त हुआ। इस क्रांति ने राजा के दैवी अधिकारों के सिद्धान्त का अन्त कर लोकप्रिय सम्प्रभुता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। वंशानुगत कुलीन, भ्रष्ट राज्याधिकारियों एवं न्यायाधीशों के स्थान पर योग्य, प्रशिक्षित और चयनित व्यक्ति नियुक्त किये जाने लगे जो संविधान के अनुसार कार्य करने को बाध्य थे। न्यायालयों में ज्यूरी पद्धति का भी निरन्तर विकास हुआ।

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(3) समानता तथा समाजवाद का विकास-असमानता और अन्याय के विरुद्ध हुई फ्रांस की क्रांति ने फ्रांस में सभी लोगों को संविधान द्वारा समान घोषित किया। इसने अमीर तथा गरीब दोनों को कानून एवं न्याय के समक्ष समान घोषित किया। सभी को उन्नति के समान अवसर दिये गये। फ्रांस में समान कानून व कर व्यवस्था लागू की गई। मनुष्य के प्राकृतिक अधिकारों को मान्यता दी गई। कुलीनों तथा सामन्तों के विशेषाधिकार समाप्त कर दिये गये। दास प्रथा का अन्त हुआ। सामाजिक असमानता समाप्त हुई तथा चर्च की शक्ति को समाप्त कर दिया गया।

(4) शिक्षा व संस्कृति का विकास-फ्रांस की क्रांति के फलस्वरूप शिक्षा पर चर्च का नियंत्रण समाप्त हो गया। शिक्षा को राष्ट्रीय एवं धर्मनिरपेक्ष बनाया गया। राष्ट्रीय शिक्षण संस्थाएँ स्थापित हुईं जिनमें मानववादी दर्शन, विज्ञान और विशुद्ध धर्मशास्त्र की शिक्षा दी जाने लगी। साहित्यकार बंधनों से मुक्त होकर लेखन-कार्य करने लगे।

(5) चर्च की प्रतिष्ठा का पतन-फ्रांस की क्रांति ने चर्च की शक्ति तथा प्रतिष्ठा को प्रबल आघात पहुँचाया। राज्य द्वारा चर्च की सम्पत्ति जब्त कर ली गई। पादरी अब राज्य, जनता तथा संविधान के नाम पर शपथ लेने लगे। अतः क्रांति ने राजनीति पर धर्म के प्रभाव को समाप्त किया।

(6) सामन्तवाद का पतन-फ्रांस की राज्य क्रांति ने फ्रांस की सामन्ती व्यवस्था का अन्त कर दिया। सामन्तों के विशेषाधिकार समाप्त कर दिये गये। इससे जनसामान्य को राहत मिली।

(7) धर्मनिरपेक्ष राज्य का उदय-फ्रांस की क्रांति के फलस्वरूप यूरोपीय देशों में धार्मिक उदारता एवं सहिष्णुता का विकास हुआ और लोगों को धार्मिक उपासना की स्वतंत्रता प्राप्त हुई।

(8) स्वतंत्रता, समानता तथा भ्रातृत्व के सिद्धान्तों का प्रतिपादन-फ्रांस की क्रांति ने विश्व को स्वतंत्रता, समानता तथा भ्रातृत्व के सिद्धान्त दिये। इसके परिणामस्वरूप लोगों को लेखन, भाषण तथा प्रेस की स्वतंत्रता के अधिकार दिये गये। कानून के समक्ष सबको समानता मिली, सबको अवसर की समानता मिली तथा सार्वजनिक पदों पर योग्यता के आधार पर नियुक्तियाँ की गईं। क्रांति के प्रभावस्वरूप समाज में परस्पर सहयोग, प्रेम, बंधुत्व आदि की भावनाओं का विकास हुआ। फ्रांसीसी क्रांति उपर्युक्त परिवर्तन लेकर आयी। ये परिवर्तन अत्यधिक तीव्र तथा दूरगामी प्रभाव के थे। इसका प्रभाव समस्त यूरोप के देशों पर पड़ा। अतः इन्हें क्रांतिकारी परिवर्तन कहा जा सकता है।


(ii) औद्योगिक क्रांति के प्रभाव-
जब मानव के हाथ के स्थान पर मशीनों द्वारा बड़े-बड़े कारखानों में वस्तुओं का उत्पादन बड़े पैमाने पर होने लगा तो उसके परिणामस्वरूप व्यवसाय, यातायात, संचार आदि क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए, उन्हें औद्योगिक क्रांति के नाम से पुकारा जाता है। औद्योगिक क्रांति के निम्नलिखित सामाजिक प्रभाव पड़े :
(1) समाज में नवीन वर्गों का उदय-औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप समाज में दो प्रमुख वर्गों का उदय हुआ

  • श्रमिक वर्ग और 
  • पूँजीपति वर्ग। दोनों ही वर्ग परस्पर आश्रित एवं प्रभावशाली वर्ग बन गए। पुराना सामाजिक वर्गों का वर्गीकरण बदल गया। इन दोनों वर्गों ने इंग्लैंड की राजनीति को भी काफी प्रभावित किया।

(2) मध्यम वर्ग का विकास-औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप मध्यम वर्ग का तेजी से विकास हुआ। कारखानों के संचालन के लिए पूँजी तथा व्यावसायिक बुद्धि की आवश्यकता थी और मध्यम वर्ग के लोगों के पास पूँजी तथा व्यावसायिक बुद्धि दोनों ही थीं।

(3) मानव-जीवन की सुख-सुविधा में वृद्धि-औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप सर्व-साधारण को भी वे सुविधायें प्राप्त हो गईं, जिन्हें पहले कुछ थोड़े से धनी लोग ही प्राप्त करते थे। अब लोगों को रेडियो, सिनेमा, टेलीविजन आदि के रूप में मनोरंजन के नये साधन प्राप्त हुए।

(4) वर्ग-संघर्ष तथा श्रमिक सुधार कानूनों का निर्माण-औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप पूँजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग दोनों में सुविधाओं तथा अधिकारों के लिए संघर्ष प्रारंभ हो गया। फलतः श्रमिक-सुधार-कानूनों का निर्माण हुआ और श्रमिकों को भी मताधिकार प्राप्त हुआ। कहा जाता है कि 19वीं सदी में हुए इंग्लैंड में संसदीय सुधार औद्योगिक क्रांति के कारण ही हुए।

(5) कृषि क्षेत्र में परिवर्तन-औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप कृषि के क्षेत्र में भी परिवर्तन आया। कृषि का यंत्रीकरण तथा व्यवसायीकरण हुआ तथा कृषकों की स्थिति में सुधार हुआ।

(6) नये नगरों का विकास-औद्योगिक क्रान्ति के परिणामस्वरूप नये नगरों का विकास हुआ। हजारों किसान आजीविका की तलाश में नगरों में आ गये और औद्योगिक केन्द्रों के आस-पास अब मकान बनाकर रहने लगे। इंग्लैण्ड में लीड्स, मेनचेस्टर, लिवरपूल, लंकाशायर आदि नगरों की नींव औद्योगिक क्रान्ति के कारण पड़ी।

(7) औपनिवेशिक प्रतिस्पर्धा-औद्योगिक क्रान्ति ने औपनिवेशिक प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहन दिया। यूरोपीय देशों ने तैयार माल को खपाने के लिए तथा कच्चा माल प्राप्त करने के लिए उपनिवेश स्थापित करने शुरू कर दिये। इससे 19वीं सदी में इंग्लैंड, फ्रांस, हॉलैण्ड, स्पेन, पुर्तगाल आदि देशों ने अपने-अपने औपनिवेशिक साम्राज्य का विस्तार किया। इससे औपनिवेशिक प्रतिस्पर्धा प्रारंभ हो गयी।

(8) गन्दी बस्तियों का उदय-कारखानों के आस-पास मजदूर तथा निम्न आय के परिवार बस गये। वे कच्चेपक्के झोंपड़ों में रहने लगे। इससे नगरों में गन्दी बस्तियों का जन्म हुआ। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि फ्रांसीसी क्रांति अथवा औद्योगिक क्रान्ति में से प्रत्येक अनेक महत्त्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन लेकर आयी जिनका समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा तथा समाज की संरचना तथा मूल्यों व मानदण्डों में भी परिवर्तन आये। ये परिवर्तन इतने तीव्र तथा दूरगामी थे कि इन्हें क्रांतिकारी परिवर्तन की संज्ञा दी गई।
(ब) अन्य प्रकार के सामाजिक परिवर्तन जो क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं कहे जा सकते-अन्य प्रकार के सामाजिक परिवर्तन जो क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं कहे जा सकते, वे हैं
(i) सामाजिक उद्विकासीय परिवर्तन और 
(ii) प्रगति। 

(i) सामाजिक उदविकासीय परिवर्तन-इसका विवेचन पृथक से इस अध्याय में किया जा चुका है। इसे क्रांतिकारी परिवर्तन की संज्ञा इसलिए नहीं दी जा सकती क्योंकि ये परिवर्तन धीमी गति से होते हैं तथा निरन्तर होते रहते हैं । ये आकस्मिक रूप से नहीं होते हैं और न ही अत्यधिक तीव्र गति से समाज को परिवर्तित करते हैं।

(i) प्रगति-प्रगति परिवर्तन है, लेकिन यह इच्छित तथा स्वीकृत दिशा में परिवर्तन है। यह सचेत प्रयत्नों का परिणाम है। समकालीन सामाजिक अध्ययनों में समाज की प्रगति को साधारणतया औद्योगीकरण तथा आधुनिक तकनीकी विकास से संबंध किया गया है। इसे क्रांति इसलिए नहीं कहा जा सकता क्योंकि इसकी गति धीमी होती है तथा यह आकस्मिक नहीं होती।

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प्रश्न 3. 
क्या आपने ऐसे अन्य तकनीकी परिवर्तनों पर ध्यान दिया है, जिसका आपके सामाजिक जीवन पर प्रभाव पड़ा हो? फोटोकॉपी मशीन तथा उसके प्रभाव के बारे में सोचिये। क्या आपने कभी सोचा है कि उसके पहले जीवन कैसा होगा जब फोटोकापी इतनी सस्ती तथा आसानी से उपलब्ध नहीं थी। दूसरा उदाहरण एस. टी. डी. टेलीफोन बूथ हो सकते हैं। यह पता कीजिये कि लोग कैसे एक दूसरे से सम्पर्क रखते थे, व कुछ ही घरों में टेलीफोन की सुविधायें थीं। ऐसे ही कुछ अन्य उदाहरणों की सूची बनाइये।
उत्तर:
किसी उद्देश्य अथवा उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अप्रत्यक्ष तथा उच्च श्रेणी के साधनों की व्यवस्था को हम तकनीक कहते हैं । तकनीक के द्वारा सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्ष प्रभावित होते हैं। कोई वस्तु अपने उपयोग के कारण ही तकनीक होती है। उदाहरण के लिए, हम टेलीफोन का उपयोग अपने सम्बन्धों को बढ़ाने के लिए करते हैं और इसीलिए इसे तकनीक के अन्तर्गत शामिल करते हैं। मार्क्स के शब्दों में, "तकनीकी प्रकृति के साथ मनुष्य के व्यवहार करने के ढंग तथा उत्पादन करने के उस तरीके को व्यक्त करती है जिसके द्वारा व्यक्ति जीवित रहता है और अपने सामाजिक सम्बन्धों तथा मानसिक धारणाओं के रूप को निर्धारित करता है।" अतः स्पष्ट है कि तकनीक कार्य करने का एक विशेष तरीका है।

फोटोकॉपी मशीन और उसका प्रभाव-फोटोकॉपी मशीन के कारण किसी प्रमाण पत्र, अंक तालिका या अन्य किसी प्रारूप की हू-ब-हू प्रतिलिपि अति शीघ्र रूप में निकाली जा सकती है। इससे पूर्व किसी वस्तु की प्रतिलिपि लेने के लिए पहले टाइप करना पड़ता था फिर उसे किसी सरकारी अधिकारी से प्रमाणित करवाना पड़ता था कि यह प्रलिलिपि सही है। इससे कार्य में काफी समय लग जाता था, अब फोटोकॉपी मशीन से आसानी से तीव्र गति से एक से अधिक प्रतिलिपि निकाली जा सकती हैं। इस प्रकार इससे कार्य आसान तथा तीव्र गति से होने लगा है। इस प्रकार फोटोकापी मशीन ने सामाजिक गतिशीलता में वृद्धि की है।। एस. टी. डी. टेलीफोन बूथ-जब कुछ ही घरों में टेलीफोन की सुविधायें थीं, तब लोग पत्र-व्यवहार, संदेशवाहकों आदि के माध्यम से एक दूसरे से सम्पर्क रख पाते थे।

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इसके अतिरिक्त तार-घर में जाकर 'तार' भेजकर सुख-दु:ख की सूचनाएँ भेजी जाती थीं। लेकिन एस. टी. डी. टेलीफोन बूथ खुलने से लोग टेलीफोन के माध्यम से सूचनाओं का आदान-प्रदान करने लगे। इससे सूचनाएँ शीघ्रता से पहुँचती हैं तथा परस्पर बातचीत के माध्यम से सम्पर्क बना रहता है। अब तो लगभग प्रत्येक घर में टेलीफोन की सुविधा उपलब्ध होने से एस.टी.डी. बूथों का महत्त्व कम हो गया है और मोबाइल फोन की सुविधा ने तो सम्पर्क में क्रान्ति ला दी है। अब दूरियां कम हो गई हैं अर्थात् सम्पर्क बनाए रखने में दूरियों की बाधायें समाप्त हो गई हैं। - फोटोकॉपी मशीन, एस.टी.डी. बूथ के अतिरिक्त अन्य उदाहरण हैं—कम्प्यूटर तथा इण्टरनेट की सुविधायें, मोबाइल फोन, बालपेन, टेलीविजन, उन्नत किस्म के बीज, कृषि में यंत्रीकरण आदि। पृष्ठ 35/

प्रश्न 4. 
हम एक समान स्थिति को उबाऊ तथा परिवर्तन को प्रसन्नतादायक मानते हैं, वैसे यह सही भी है कि परिवर्तन दिलचस्प होता है तथा परिवर्तन में कमी वाकई बेकार होती है। परन्तु सोचिये कि जीवन कैसा होगा अगर आपको मजबूरन हमेशा बदलना पड़े क्या होगा यदि आपको भोजन में वही खाना हमेशा न मिले, प्रत्येक दिन कुछ अलग, एक ही चीज दोबारा न मिले, चाहे आप पसंद करते हों या नहीं। कल्पना करें इस डरावनी सोच का क्या हो जब आप स्कूल से वापस आएँ तो घर में अलग-अलग लोग हों, अलग-अलग माता-पिता, अलग भाईबहिन......? क्या हो यदि आप अपना पसंदीदा खेल खेलें-फुटबाल, क्रिकेट, वॉलीबॉल, हॉकी इत्यादि और हर बार नियम अलग हों? आप अपने जीवन के कुछ पक्षों के बारे में सोचिये जहाँ आप चीजों को जल्दी बदलना नहीं चाहेंगे। क्या ये आपके जीवन के वे क्षेत्र हैं जहाँ आप चीजों में जल्दी परिवर्तन चाहेंगे? कारण सोचने की कोशिश कीजिये कि क्यों आप विशेष स्थितियों में परिवर्तन चाहेंगे या नहीं?
उत्तर:
यदि हमें मजबूरन हमेशा बदलना पड़े तो जीवन दूभर हो जायेगा। परिवर्तन एक संकल्पना के रूप में तभी अर्थवान लगता है जब कुछ चीजें ऐसी भी होती हैं जो बदलती नहीं हैं, ताकि वे साम्य तथा वैषम्य की संभावना दिखा सकें अर्थात् सामाजिक परिवर्तन को सामाजिक व्यवस्था के संदर्भ में ही समझा जा सकता है। 189 अपने आपको एक शक्तिशाली तथा प्रासंगिक सामाजिक व्यवस्था के रूप में सुव्यवस्थित करने के लिए प्रत्येक समाज को अपने आपको समय के साथ पुन:त्पादित करना तथा उसके स्थायित्व को बनाए रखना पड़ता है। स्थायित्व के लिए आवश्यक है कि सामाजिक आदर्श तथा मूल्य, सामाजिक संरचनाएँ कमोबेश वैसी ही बनी रहें जैसी वे हैं अर्थात व्यक्ति लगातार समान नियमों का पालन करता रहे, समान क्रिया एक ही प्रकार के परिणाम दें और साधारणतः व्यक्ति तथा संस्थाएँ पूर्वानुमान रूप में आचरण करें।

यदि आपको मजबूरन हमेशा बदलना पड़ेगा; अर्थात् कोई सामाजिक व्यवस्था नहीं होगी तो समाज ही नहीं होगा और एक असामाजिक स्थिति होगी जहाँ कोई नियम-कायदे-कानून नहीं होंगे। परिवर्तन की यह स्थिति अराजक होगी। इसलिए सामाजिक व्यवस्था का होना आवश्यक है और सामाजिक व्यवस्था के स्थायित्व के लिए यह आवश्यक है कि समाज में परम्पराएँ, आदर्श तथा मूल्य हों; सामाजिक संस्थाएँ हों तथा उनके निश्चित सम्बन्धों का एक ताना-बाना हो। सामाजिक संरचना और सामाजिक आदर्शों तथा मूल्यों में हम परिवर्तन विशेष स्थितियों में ही चाहेंगे जब इन मूल्यों, आदर्शों व संरचनाओं में असमानताएँ, शोषण, तानाशाही की स्थितियाँ विद्यमान हो गई हों तथा व्यक्ति की स्वतंत्रताएँ समाप्त कर दी गई हों।

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प्रश्न 5. 
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के बारे में जानकारी हासिल कीजिये। इसका उद्देश्य क्या है? यह एक प्रमुख विकास योजना क्यों मानी जाती है? इसे कौन-कौन सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है? अगर यह सफल हो जाता है तो इसके क्या प्रभाव हो सकते हैं?
उत्तर:
इस परियोजना को छात्र स्वयं करें।

पृष्ठ 49

प्रश्न 6. 
क्या आपने अपने कस्बे अथवा नगर में इस प्रकार के 'गेटेड समुदाय को देखा, सुना है अथवा कभी उनके घर गए हैं? बड़ों से इस समुदाय के बारे में पता कीजिये। चारदीवारी तथा गेट कब बने? क्या इसका विरोध किया गया, यदि हाँ तो किसके द्वारा? ऐसे स्थानों पर रहने के लिए लोगों के पास कौनसे कारण हैं? आपकी समझ से शहरी समाज तथा प्रतिवेशी पर इसका क्या असर पड़ेगा?
उत्तर:
गेटेड समुदाय का अर्थ है-एक समृद्ध प्रतिवेशी का निर्माण जो अपने परिवेश से दीवारों तथा प्रवेशद्वारों से अलग होता है। जहाँ प्रवेश तथा निकास नियंत्रित होता है। अधिकांश ऐसे समुदायों की अपनी समानान्तर नागरिक सुविधाएँ, जैसे पानी और बिजली सप्लाई, पुलिस तथा सुरक्षा भी होती हैं। इस परियोजना को छात्र स्वयं करें।

पृष्ठ 50

प्रश्न 7. 
क्या आपने अपने पड़ोस में 'भद्रीकरण' देखा है? क्या आप इस तरह की घटना से परिचित हैं? पहले उपवस्ती कैसी थी जब यह घटित हुआ? पता कीजिये। किस रूप में परिवर्तन आया है? विभिन्न सामाजिक समूहों को इसने कैसे प्रभावित किया है? किसे फायदा तथा किसे नुकसान हुआ है? इस प्रकार के परिवर्तन के निर्णय कौन लेता है? क्या इस पर मतदान होता है अथवा किसी प्रकार की परिचर्चा होती है?
उत्तर:
भद्रीकरण से आशय-भद्रीकरण प्रतिवेश के पूर्ववत् निम्न वर्ग का मध्यम अथवा उच्च वर्ग के परिवर्तित स्वरूप को इंगित करता है। आगे इस परियोजना को छात्र स्वयं करें।

RBSE Class 11 Sociology ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1. 
क्या आप इस बात से सहमत हैं कि तीव्र सामाजिक परिवर्तन मनुष्य के इतिहास में तुलनात्मक रूप से नवीन घटना है? अपने उत्तर के लिए कारण दें। 
उत्तर:
परिवर्तन ही समाज का अपरिवर्तनीय पक्ष है अर्थात् परिवर्तन हमारे समाज की विशिष्ट पहचान है, लेकिन तीव्र सामाजिक परिवर्तन मनुष्य के इतिहास में तुलनात्मक रूप से नवीन घटना है। अनुमान लगाया जाता है कि मानव जाति का पृथ्वी पर अस्तित्व लगभग 5 लाख वर्षों से है, परन्तु उनकी सभ्यता का अस्तित्व मात्र 6000 वर्षों से ही माना जाता रहा है। इन सभ्य माने जाने वाले 6000 वर्षों में पिछले मात्र 400 वर्षों से ही हमने लगातार एवं तीव्र परिवर्तन देखे हैं। इन परिवर्तनशील 400 वर्षों में भी, इसके परिवर्तनों में तेजी मात्र पिछले 100 वर्षों में आई है। और पिछले 100. वर्षों में सबसे अधिक परिवर्तन प्रथम पचास वर्षों की तुलना में अन्तिम पचास वर्षों में हुए हैं और आखिरी 50 वर्षों में भी पहले तीस वर्षों की तुलना में विश्व में परिवर्तन अन्तिम 20 वर्षों में अधिक आया उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि तीव्र सामाजिक परिवर्तन मनुष्य के इतिहास में तुलनात्मक रूप से नवीन घटना है। इस तीव्र सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख कारण हैं-

  1. औद्योगिक क्रांति और 
  2. संचार क्रान्ति।

प्रश्न 2. 
सामाजिक परिवर्तन को अन्य परिवर्तनों से किस प्रकार अलग किया जा सकता है?.
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन को अन्य परिवर्तनों से अलग किया जा सकता है। इसे अन्य परिवर्तनों से निम्न प्रकार अलग किया जा सकता है
(1) सामाजिक परिवर्तन एक सामान्य अवधारणा है जिसका प्रयोग अन्य परिवर्तनों के लिए भी किया जा सकता है, लेकिन अन्य परिवर्तन विशिष्ट अवधारणा है जिनका प्रयोग सामाजिक परिवर्तन के लिए नहीं किया जा सकता। इस आधार पर हम सामाजिक परिवर्तन को अन्य परिवर्तनों, जैसे-राजनैतिक परिवर्तन या आर्थिक परिवर्तन आदि से अलग कर सकते हैं।

(2) सामाजिक परिवर्तन में सभी परिवर्तनों को सम्मिलित नहीं किया जाता है। सामाजिक परिवर्तन केवल उन परिवर्तनों को इंगित करता है जो महत्त्वपूर्ण हैं अर्थात् किसी वस्तु या परिस्थिति की मूल-संरचना को समयावधि में बदल दे। इस प्रकार इसमें वे परिवर्तन सम्मिलित किये जाते हैं जो वस्तुओं को बुनियादी तौर पर बदल देते हैं, वे परिवर्तन (छोटे तथा बड़े दोनों) जो वस्तुओं की मूल संरचना में परिवर्तन नहीं लाते हैं, सामाजिक परिवर्तन की श्रेणी में नहीं आते हैं। इन्हें हम अन्य परिवर्तनों की श्रेणी में रख सकते हैं।

(3) सामाजिक परिवर्तन वह, सीमित अथवा विस्तृत, परिवर्तन है जो समाज के एक बड़े भाग को प्रभावित करता हो; यदि कोई परिवर्तन समाज के एक बड़े हिस्से को प्रभावित न करके केवल एक छोटे भाग को ही प्रभावित करता है, वह सामाजिक परिवर्तन न कहलाकर अन्य परिवर्तन कहलायेगा।

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प्रश्न 3. 
संरचनात्मक परिवर्तन से आप क्या समझते हैं? पुस्तक से अलग उदाहरणों द्वारा स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
संरचनात्मक परिवर्तन-संरचनात्मक परिवर्तन समाज की संरचना में परिवर्तन को दिखाता है। सामाजिक संरचना मानवीय क्रियाओं तथा सम्बन्धों से बनती है और जो पक्ष इन्हें नियमितता प्रदान करता है, वह है, अलग-अलग काल अवधि में एवं भिन्न-भिन्न स्थानों में इन क्रियाओं एवं सम्बन्धों का लगातार दोहराया जाना । इस प्रकार संरचनात्मक परिवर्तन से आशय उन संस्थाओं अथवा नियमों में आने वाले परिवर्तनों से है जो मानवीय क्रियाओं तथा सम्बन्धों को निर्धारित करती हैं। हैरी एम. जानसन ने सामाजिक संरचना में परिवर्तन के निम्नलिखित पाँच प्रकारों का उल्लेख किया है-

(1) सामाजिक मूल्यों में होने वाला परिवर्तन-सामाजिक मूल्यों में होने वाले परिवर्तन को संरचनात्मक परिवर्तन कहा जाता है। सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन सामाजिक भूमिकाओं तथा अन्तःक्रियाओं को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है तथा इसका दूरगामी परिणाम सामाजिक व्यवस्था की प्रकार्यात्मकता पर पड़ता है।

(2) संस्थाओं में होने वाला परिवर्तन-संस्थाओं में होने वाले परिवर्तन से आशय है-संगठनों, भूमिकाओं तथा भूमिकाओं की विषयवस्तु में होने वाला परिवर्तन । उदाहरण के लिए नगरीकरण तथा उत्तरोत्तर बढ़ती गतिशीलता के कारण संयुक्त परिवार विघटित होकर एकाकी परिवारों में परिवर्तित हुए हैं। इससे परिवारों के सदस्यों के मध्य अन्तःसम्बन्ध प्रभावित हुए हैं।

(3) संपदा तथा पुरस्कारों के वितरण में होने वाला परिवर्तन-संपदा तथा पुरस्कारों के वितरण में अत्यन्त निकट सम्बन्ध होता है। इनके वितरण में होने वाला परिवर्तन भी सामाजिक संरचना में परिवर्तन लाता है। उदाहरण के लिए भू-स्वामित्व की संरचना में आए परिवर्तनों पर भूमि सुधार जैसे कदमों का व्यापक प्रभाव पड़ा। इसके परिणामस्वरूप मध्यवर्ती कृषक जातियों का भूमि पर आधिपत्य हुआ तथा अपनी बहुसंख्या तथा वोट की राजनीति ने इन्हें राजनीतिक रूप से प्रभावी बनाया। कई क्षेत्रों में ये जातियाँ आर्थिक तथा राजनीतिक दृष्टि से प्रभावी हो गयी हैं तथा ग्रामीण सामाजिक संरचना में इनका वर्चस्व स्थापित हो गया है।

(4) कार्मिकों में परिवर्तन-सामाजिक व्यवस्था की भूमिकाओं को धारण करने वाले कार्मिकों में होने वाले परिवर्तनों से भी संरचनात्मक परिवर्तन होते हैं । कार्मिकों के परिवर्तन से मूल्यों तथा संस्थागत प्रतिमानों में परिवर्तन आता है। उदाहरण के लिए किसी संस्था के शीर्ष व्यक्ति के बदलने पर उस संस्था की कार्य पद्धति तथा अभिवृत्तियों व मूल्यों में भी परिवर्तन आ सकते हैं।

(5) कार्मिकों की योग्यताओं और मनोवृत्तियों में परिवर्तन-संरचनात्मक परिवर्तन कार्मिकों की मनोवृत्तियों में परिवर्तन होने से भी हो सकता है। उदाहरण के लिए संचार-साधनों के परिवर्तन तथा कम्प्यूटर के प्रचलन से कार्मिकों की मनोवृत्तियों में परिवर्तन आया है और इसके परिणामस्वरूप संस्थाओं की संरचनाओं में व्यापक परिवर्तन हो रहे हैं।

प्रश्न 4. 
पर्यावरण से सम्बन्धित कुछ सामाजिक परिवर्तनों के बारे में बताइये। 
उत्तर:
पर्यावरण से सम्बन्धित सामाजिक परिवर्तन प्रकृति, पारिस्थितिकी तथा भौतिक पर्यावरण का समाज की संरचना और स्वरूप पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव हमेशा रहा है। यथा प्राचीन काल में पर्यावरण से सम्बन्धित सामाजिक परिवर्तन-प्राचीन समय में जब मनुष्य प्रकृति के प्रभावों को रोकने अथवा झेलने में असमर्थ था, उस समय उनका निवास स्थान, भोजन, कपड़े, आजीविका तथा सामाजिक अन्तःक्रियायें आदि सब काफी हद तक उनके पर्यावरण के भौतिक व जलवायु की स्थितियों से निर्धारित होता था। यथा- 

  1. अत्यधिक ठंडी जलवायु में रहने वाले लोगों, 
  2. मैदानी भागों अथवा नदियों के किनारे रहने वाले लोगों, 
  3. मरुस्थलीय वातावरण में रहने वाले लोगों तथा 
  4. बंदरगाह पर स्थित नगरों, प्रमुख व्यापारिक मार्गों आदि में रहने वाले लोगों की सामाजिक संरचना की भिन्नता का प्रमुख कारण पर्यावरण की भिन्नता है।

आधुनिक काल में पर्यावरण से सम्बन्धित सामाजिक परिवर्तन-
आधुनिक काल में तकनीकी संसाधनों के बढ़ने के कारण भिन्न पर्यावरण के कारण समाजों के बीच आए अन्तर कम हुए हैं। तकनीक ने प्रकृति के साथ हमारे सम्बन्धों को नए तरीके से परिवर्तित किया है। अतः समाज पर प्रकृति के प्रभाव का स्वरूप बदल रहा है। आधुनिक काल में भी 

(1) त्वरित तथा विध्वंसकारी घटनाएँ, जैसे- भूकम्प, ज्वालामुखी विस्फोट, बाढ़ अथवा ज्वारभाटीय तरंगें (जैसे 2004 में आयी सुनामी की तरंगें) समाज को पूर्णरूपेण बदलकर रख देते हैं। ये बदलाव अपरिवर्तनीयं होते हैं अर्थात् ये स्थायी होते हैं तथा चीजों को वापस अपनी पूर्व स्थिति में नहीं आने देते।

(2) तकनीक के कारण पर्यावरण या प्राकृतिक साधनों ने किस प्रकार सामाजिक परिवर्तन किया है, इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण खाड़ी के देशों के रेगिस्तानी प्रदेशों में तेल का मिलना है। जिस प्रकार 19वीं शताब्दी में कैलिफोर्निया में सोने की खोज हुई थी, ठीक उसी प्रकार तेल के भंडारों ने खाड़ी के देशों के समाज को बदल कर रख दिया है। सऊदी अरब, कुवैत अथवा संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों की स्थिति आज तेल सम्पदा के बिना बिल्कुल अलग है।

प्रश्न 5. 
वे कौन-से परिवर्तन हैं जो तकनीक तथा अर्थव्यवस्था द्वारा लाए जाते हैं? 
उत्तर:
तकनीक तथा अर्थव्यवस्था द्वारा लाये जाने वाले परिवर्तन तकनीक समाज को कई प्रकार से प्रभावित करती है। यह प्रकृति को विभिन्न तरीकों से नियंत्रित करने, उसके अनुरूप ढालने तथा उसके दोहन करने में हमारी मदद करती है। यथा
(1) बाजार जैसी शक्तिशाली संस्था के साथ जुड़कर तकनीकी परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन लाने में प्रभावी हो सकते हैं। इस दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उदाहरण औद्योगिक क्रांति का है। संजीव पास बुक्स वाष्प शक्ति की खोज ने, उदीयमान विभिन्न प्रकार के बड़े उद्योगों को शक्ति की ताकत से परिचित कराया। इसका दोहन जब यातायात के साधनों, जैसे-वाष्प- चालित जहाज तथा रेलगाड़ी के रूप में किया गया तो इसने विश्व की अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक भूगोल को परिवर्तित कर दिया। यथा-
(i) रेल-रेल ने उद्योग तथा व्यापार को अमेरिका महाद्वीप तथा पश्चिमी देशों को सक्षम किया। भारत में भी रेल परिवहन ने अर्थव्यवस्था को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी।

(ii) वाष्पचालित जहाज-वाष्पचालित जहाजों ने समुद्री यातायात को अत्यधिक तीव्र तथा भरोसेमंद बनाया तथा इसने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार तथा प्रवास की गति को परिवर्तित कर दिया।
इन दोनों परिवर्तनों ने विकास की विशाल लहर पैदा की, जिसने न केवल अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया अपितु समाज के सामाजिक, सांस्कृतिक तथा जनसांख्यिक रूप को बदल दिया।

(2) तकनीकी आविष्कार तथा खोज का कभी-कभी तात्कालिक प्रभाव संकुचित होता है, लेकिन बाद में होने वाले परिवर्तन आर्थिक संदर्भ में उसकी सामाजिक महत्ता को एकदम परिवर्तित कर देते हैं। इसका उदाहरण चीन में बारूद तथा कागज की खोज है जिसका प्रभाव सदियों तक संकुचित रहा। लेकिन जब उनका प्रयोग पश्चिमी यूरोप के आधुनिकीकरण के संदर्भ में हुआ, तो उसका व्यापक प्रभाव पड़ा। बारूद द्वारा युद्ध की तकनीक में आये परिवर्तन तथा कागज की छपाई की क्रान्ति ने समाज को हमेशा के लिए परिवर्तित कर दिया।

(3) कई बार अर्थव्यवस्था में होने वाले परिवर्तन जो प्रत्यक्षतः तकनीकी नहीं होते हैं, फिर भी वे समाज को बदल सकते हैं। इसका जाना-पहचाना उदाहरण रोपण कृषि है। रोपण कृषि में बड़े पैमाने पर नकदी फसलों; जैसे-गन्ना, चाय अथवा कपास की खेती की जाती है, ने श्रम के लिए भारी मांग उत्पन्न की। इस मांग ने 17 से 19वीं सदी के मध्य संस्था के रूप में दासता व दासों का व्यापार प्रारंभ किया। भारत में भी असम के चाय बागानों में काम करने वाले अधिकतर लोग पूर्वी भारत के थे, जिन्हें बाध्य हो श्रम के लिए प्रवास करना पड़ा।

RBSE Solutions for Class 11 Sociology Chapter 2 ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था

प्रश्न 6. 
सामाजिक व्यवस्था का क्या अर्थ है तथा इसे कैसे बनाए रखा जा सकता है?
उत्तर:
सामाजिक व्यवस्था का अर्थ-सामाजिक व्यवस्था का तात्पर्य सामाजिक घटनाओं की नियमित तथा क्रमबद्ध पद्धति से है। सामाजिक व्यवस्था संरचनात्मक तत्वों के मान्य सम्बन्धों का समुच्चय है। सामाजिक व्यवस्था की संरचना व्यक्तियों के बीच अन्तःक्रिया से होती है। अतः यह भूमिकाओं का समुच्चय है तथा यह समाज स्वीकृत मानकों तथा मूल्यों का समुच्चय है।
परिभाषाएँ-सामाजिक व्यवस्था की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

  1. लूमिस के अनुसार, "सामाजिक व्यवस्था सदस्यों की प्रतिमानित अन्तःक्रिया से निर्मित होती है।" 
  2. पारसन्स के अनुसार, "सामाजिक व्यवस्था अनिवार्य रूप से अन्तःक्रियात्मक सम्बन्धों का जाल है।"
  3. मार्शल जोन्स के शब्दों में, "सामाजिक व्यवस्था वह स्थिति है, जब समाज की विभिन्न क्रियाशील इकाइयाँ परस्पर तथा सम्पूर्ण समाज के साथ अर्थपूर्ण तरीके से सम्बन्धित होती हैं।"

सामाजिक व्यवस्था की विशेषताएँ -
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर सामाजिक व्यवस्था की निम्न विशेषताएँ बताई जा सकती हैं-

  1. सामाजिक व्यवस्था में अनेक भाग होते हैं और समाज के इन भागों में प्रकार्यात्मक सम्बन्ध पाये जाते हैं। इनमें क्रमबद्ध सम्बद्धता पायी जाती है।
  2. सामाजिक अन्तःक्रिया सामाजिक व्यवस्था का मुख्य आधार है। 
  3. संस्कृति सामाजिक व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण आधार होती है। 
  4. प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र, समाज तथा काल से जुड़ी होती है। 
  5. सामाजिक व्यवस्था द्वारा मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है। 
  6. इसमें बदलती हुई परिस्थितियों से अनुकूलन की क्षमता होती है। 
  7. यह प्रकार्यात्मक संतुलन के माध्यम से सामाजिक जीवन में संतुलन बनाए रखती है।

सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखना-
सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के प्रमुख तरीके (कारण) निम्नलिखित हैं-
(1) सुस्थापित सामाजिक प्रणालियों के माध्यम से-सामाजिक व्यवस्था की सुस्थापित सामाजिक प्रणालियाँ परिवर्तन का प्रतिरोध तथा उसे विनियमित कर सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखती हैं। प्रत्येक समाज को अपने आपको समय के साथ पुनउत्पादित करना तथा उसके स्थायित्व को बनाए रखना पड़ता है। स्थायित्व के लिए यह आवश्ययक है कि चीजें कमोबेश वैसी ही रहें जैसी वे हैं अर्थात् व्यक्ति लगातार समान नियमों का पालन करता रहे, समान क्रियायें एक ही प्रकार के परिणाम दें और साधारण व्यक्ति तथा संस्थाएँ पूर्वानुमानित रूप में आचरण करें। ऐसा करके सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखा जा सकता है।

(2) शासक तथा प्रभावशाली वर्ग द्वारा परिवर्तन का विरोध-अधिकतर समाज असंगत रूप से स्तरीकृत होते हैं अर्थात् सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत आर्थिक संसाधनों, सामाजिक स्तर तथा राजनैतिक शक्ति के संदर्भ में विभिन्न वर्गों की स्थिति भिन्न है। जिनकी स्थिति अनुकूल है वे यथास्थिति चाहते हैं तथा जो विपरीत परिस्थितियों में हैं, वे सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन लाना चाहते हैं। इस प्रकार समाज के शासक तथा प्रभावशाली वर्ग, अनुकूल स्थिति में होने के कारण, सामाजिक परिवर्तन का प्रतिरोध करते हैं क्योंकि यह परिवर्तन उनकी स्थिति को बदल सकता है। अतः सामाजिक व्यवस्था के स्थायित्व में उनका हित निहित होता है। सामान्यतः ये प्रभावशाली वर्ग परिवर्तन के प्रतिरोध में सफल रहते हैं। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि सामाजिक व्यवस्था को दो तरीके से बनाए रखा जा सकता है

  • जहाँ व्यक्ति नियमों तथा मानदण्डों को स्वतः मानते हों। अथवा 
  • जहाँ व्यक्तियों को मानदण्डों को मानने के लिए बाध्य किया जाता हो।

प्रत्येक समाज इन दोनों तरीकों का मिश्रित प्रयोग सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए करता है। 

प्रश्न 7. 
सत्ता क्या है तथा यह प्रभुता तथा कानून से कैसे सम्बन्धित है?
उत्तर:
सत्ता का अर्थ-सत्ता का अर्थ है कि समाज के अन्य सदस्य जो इसके नियमों तथा नियमावलियों को मानने के लिए तैयार हैं तथा इस सत्ता को एक सही क्षेत्र में मानने को बाध्य हों। उदाहरण के लिए एक जज का कार्यक्षेत्र कोर्टरूम होता है और जब नागरिक कोर्ट में होते हैं तो उन्हें जज की आज्ञा का पालन करना पड़ता है। सड़क पर उसे पुलिस की कानूनी सत्ता को मानना पड़ेगा और शिक्षक की सत्ता अपने छात्रों पर कक्षा के अन्दर होती है। मैक्स वेबर के अनुसार, सत्ता कानूनी शक्ति है। सी. राइट मिल्स के अनुसार, सत्ता का तात्पर्य निर्णय लेने के अधिकार तथा दूसरे व्यक्तियों के व्यवहार को अपनी इच्छानुसार तथा सम्बन्धित व्यक्तियों की इच्छा के विरुद्ध प्रभावित करने की शक्ति है।सत्ता समाज द्वारा स्वीकृत प्रभुत्व है।

आधुनिक समाजों में राज्य के प्रमुख द्वारा प्रयोग किये जाने वाला बल वस्तुतः सत्ता है। अतः जब शक्ति को वैधता प्रदान कर दी जाती है तो यह सत्ता का रूप धारण कर लेती है। सत्ता का प्रभुता तथा कानून से सम्बन्ध प्रभाव शक्ति के तहत कार्य करता है परन्तु इनमें से अधिकांश शक्ति वास्तव में कानूनी शक्ति अर्थात् सत्ता होती है जिसका एक वृहत्तर भाग कानून द्वारा संहिताबद्ध होता है। इस प्रकार प्रभाव (प्रभुता) तथा कानून सत्ता से सम्बन्धित होता है। सत्ता के प्रभुता और कानून के सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिए सत्ता को मोटे रूप से दो प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है

(अ) औपचारिक सत्ता या कानूनी सत्ता-औपचारिक सत्ता का स्वरूप कानूनी होता है। इसके विशेषाधिकार सीमित तथा कानून के द्वारा सुपरिभाषित होते हैं। इस सत्ता का समावेश व्यक्ति विशेष में निहित न होकर उसके पद तथा प्रस्थिति में निहित होता है और यह पद तथा प्रस्थिति कानून द्वारा निर्धारित होती है। आधुनिक औद्योगिक समाजों में नौकरशाही औपचारिक सत्ता का उपयुक्त उदाहरण है।

(ब) अनौपचारिक सत्ता-अनौपचारिक सत्ता का आधार व्यक्ति का प्रभाव या उसकी प्रभुता होती है। धार्मिक वर्ग के नेता अथवा छोटी संस्थाओं के अल्पसंख्यक धार्मिक वर्ग औपचारिक हुए बिना भी अत्यन्त शक्तिशाली होते हैं। संजीव पास बुक्स ठीक इसी प्रकार व्यक्ति का करिश्माई व्यक्तित्व, शिक्षाविद्, कलाकार, लेखक तथा अन्य बुद्धिजीवी वर्ग अपने-अपने क्षेत्रों में, बिना कानूनी शक्ति प्राप्त किए, काफी शक्तिशाली होते हैं। उनकी यह सत्ता उनके व्यक्तिगत प्रभाव के कारण होती है। अतः स्पष्ट है कि सत्ता का कानून तथा प्रभुता से घनिष्ठ सम्बन्ध है। शक्ति कानून या प्रभुता या दोनों का आधार पाकर सत्ता का रूप धारण करती है।

प्रश्न 8. 
गाँव, कस्बा तथा नगर एक दूसरे से किस प्रकार भिन्न हैं? 
उत्तर:
गाँव, कस्बा व नगर में अन्तर
(1) जनसंख्या के घनत्व के आधार पर अन्तर-कस्बा तथा नगर में जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है। जबकि गाँवों में कस्बा व नगर की तुलना में जनसंख्या का घनत्व कम होता है। भारतीय जनगणना के अनुसार जनसंख्या का घनत्व 400 व्यक्ति प्रति कि.मी. या अधिक वाला स्थान नगर या कस्बा होता है और 400 व्यक्ति प्रति कि.मी. घनत्व से कम वाला स्थान गाँव कहलाता है।

(2) कृषि-आधारित आर्थिक क्रियाओं का अनुपात-शहरों तथा कस्बों से गाँव को उनके आर्थिक प्रारूप में कृषिजन्य क्रियाकलापों में एक बड़े भाग के आधार पर भी अलग किया जाता है। दूसरे शब्दों में, गाँवों की आबादी का एक बड़ा हिस्सा कृषि सम्बन्धित व्यवसाय से जुड़ा है। अधिकांश वस्तुएँ कृषि उत्पाद ही होती हैं जो इनकी आय का प्रमुख स्रोत होता है। दूसरी तरफ नगरों और कस्बों की आबादी गैर-कृषि व्यवसायों से जुड़ी होती है।

(3) कस्बा तथा नगर में अन्तर-एक कस्बा तथा नगर मुख्यतः एक ही प्रकार के व्यवस्थापन होते हैं। इनके अन्तर का आधार आकार का तथा प्रशासन सम्बन्धी होता है। यथा

  • कस्बों की तुलना में नगरों का आकार बड़ा होता है। 
  • कस्बों की तुलना में नगरों में जनसंख्या का घनत्व भी अधिक होता है।
  • कस्बे की प्रशासनिक व्यवस्था नगरपालिका के अधीन होती है और नगरों की नगर परिषद् तथा नगर निगम के अधीन होती है।
  • वह स्थान जिसकी जनसंख्या 1 लाख या अधिक होती है, नगर कहलाता है और पाँच हजार से एक लाख तक की जनसंख्या वाला स्थान कस्बा कहलाता है।

RBSE Solutions for Class 11 Sociology Chapter 2 ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था

प्रश्न 9. 
ग्रामीण क्षेत्रों की सामाजिक व्यवस्था की कुछ विशेषताएँ क्या हैं? 
उत्तर:
ग्रामीण क्षेत्रों की सामाजिक व्यवस्था की विशेषताएँ ग्रामीण क्षेत्रों की सामाजिक व्यवस्था की विशेषताओं को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है
(1) मुख्य व्यवसाय कृषि-गाँवों की आबादी का एक बड़ा हिस्सा कृषि तथा कृषि से सम्बन्धित व्यवसाय से जुड़ा होता है। अधिकांश वस्तुएँ कृषि उत्पाद ही होती हैं जो इनकी आय का प्रमुख स्रोत होता है।

(2) लघु आकार-ग्राम का आकार छोटा होता है। इसके छोटे आकार का मुख्य कारण कृषि है। कृषि के लिए पर्याप्त भूमि चाहिए। एक कृषक को अपने जीवन-यापन के लिए कम से कम 2- एकड़ भूमि आवश्यक होती है। यदि एक गाँव में दो सौ परिवार हैं तो उनके लिए कम से कम 500 एकड़ भूमि की आवश्यकता पड़ेगी, जबकि नगरों में इतनी जमीन पर हजारों परिवार निवास करते हुए अपना व्यवसाय कर सकते हैं।

(3) जनसंख्या का कम घनत्व-गाँवों में जनसंख्या का घनत्व कम पाया जाता है। कृषि और पशुपालन व्यवसाय के लिए प्रति व्यक्ति अधिक भूमि की आवश्यकता होती है क्योंकि कम भूमि में ये व्यवसाय संभव नहीं हैं।

(4) व्यक्तिगत, प्रत्यक्ष तथा प्राथमिक सम्बन्ध-गाँव अधिकांशतः व्यक्तिगत तथा प्रत्यक्ष सम्बन्धों का अनुमोदन करते हैं। गाँव के लोग एक-दूसरे को देखकर पहचान लेते हैं। प्राथमिक सम्बन्धों के कारण गाँव के प्रत्येक व्यक्ति को उस गाँव के अन्य व्यक्तियों के बारे में पूर्ण जानकारी होती है। यहाँ गाँव के लोग पड़ौस, चौपाल की बैठक, बिरादरी की बैठक आदि के रूप में नित्य परस्पर किसी न किसी रूप में मिलते रहते हैं। इनके कार्य और जीवन का क्षेत्र सीमित और छोटा होने के कारण इनमें व्यक्तिगत तथा प्राथमिक सम्बन्ध पाये जाते हैं।

(5) परम्परागत समाज-ग्रामीण समाज परम्परागत समाज है । अधिकांश गाँव की सामाजिक संरचना परम्परागत तरीकों से चालित होती है। इसलिए संस्थाएँ, जैसे जाति, धर्म तथा सांस्कृतिक एवं परम्परागत सामाजिक प्रथाओं के दूसरे

195 स्वरूप यहाँ अधिक प्रभावशाली हैं। यथा-ग्रामीण धर्म और उनके देवी-देवता जीवन के साथ चलते हैं और उनके साथ खेतों और खलिहानों में कार्य करते हैं। ग्रामीण समाज में असंख्य देवी-देवता, बाबा हैं, जो उनकी रक्षा करते हैं और उन्हें आशीर्वाद देते हैं। इनके पीछे किसी न किसी प्रकार की गाथाएँ जुड़ी हुई हैं। ग्रामीण-सांस्कृतिक-प्रतिमान में अंधविश्वासी परम्पराओं की एक शक्तिशाली श्रृंखला है जिससे व्यक्ति आज भी जुड़ा हुआ है।

(6) धीमी गति से परिवर्तन-जब तक कोई विशिष्ट परिस्थितियाँ न हों, गाँवों में परिवर्तन नगरों की अपेक्षा धीमी गति से होता है क्योंकि ग्रामीण इलाके में अभिव्यक्ति के दायरे बहुत कम होते हैं, व्यक्ति समुदाय के साथ सीधे जुड़े होते हैं, प्रभावशाली वर्ग अधिक शक्तिशाली होते हैं तथा वहाँ शक्ति संरचना मजबूत होती है, जिसे उखाड़ फेंकना बहुत कठिन होता है। इन कारणों से गाँवों में परिवर्तन की गति नगरों की अपेक्षा बहुत धीमी होती है।

(7) एकता की भावना-गाँवों में प्रायः एकता की भावना पाई जाती है। ग्रामीण समाज में अधिकांश व्यक्ति कृषक होते हैं और कुछ इनके सहायक । सभी एक-सा कार्य करते हैं । लघु आकार, कम घनत्व और समान कार्य के कारण इनमें प्राथमिक सम्बन्ध विकसित हो जाते हैं, जो वहाँ की एकता के आधार होते हैं। गाँवों में विभिन्न जातियों, धर्मों व भिन्न-भिन्न उपसंस्कृतियों के लोग रहते हैं, लेकिन सभी लगभग समान प्रकार का जीवन जीते हैं। उनके व्यवसाय, भाषा, आचार-विचार, जीवन के प्रति दृष्टिकोण प्रायः एकरूप होते हैं।

प्रश्न 10. 
नगरीय क्षेत्रों की सामाजिक व्यवस्था के सामने कौनसी चुनौतियाँ हैं? 
उत्तर:
नगरीय क्षेत्रों की सामाजिक व्यवस्था के समक्ष चुनौतियाँ नगर ग्रामों का बड़ा रूप है लेकिन यहाँ सभी लोग गैर-कृषि व्यवसाय करते हैं, जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है। लोगों में द्वितीयक सम्बन्धों की प्रधानता पायी जाती है। यहाँ अवसरों की अधिकता होती है तथा सामाजिक गतिशीलता होती है। स्वार्थ और व्यक्तिवाद को नगरीय जीवन में बढ़ावा मिलता है। यहाँ सभी प्रकार की सुखसुविधायें उपलब्ध होती हैं। इसीलिए अधिकांश कलाकारों, लेखकों तथा मनीषियों ने नगर को व्यक्ति का स्वर्ग कहा है। लेकिन नगरीय क्षेत्रों की सामाजिक व्यवस्था के सामने भी आज अनेक चुनौतियाँ हैं। कुछ प्रमुख चुनौतियाँ निम्नलिखित हैं

(1) स्वतंत्रता और अवसर केवल कुछ व्यक्तियों को ही प्राप्त-यद्यपि नगरों में स्वतंत्रता तथा अवसरों की अधिकता होती है, लेकिन ये स्वतंत्रताएँ और अवसर सभी को समान रूप से प्राप्त नहीं हैं, बल्कि केवल कुछ व्यक्तियों को प्राप्त हैं। यहाँ केवल सामाजिक तथा आर्थिक विशेषाधिकार प्राप्त अल्पसंख्यक ही पूर्णरूपेण उन्मुक्त तथा संतुष्ट जीवन जी सकते हैं। अधिकांश व्यक्ति, जो नगरों में रहते हैं, बाध्यताओं में ही सीमित रहते हैं तथा उन्हें सापेक्षिक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं होती है।

(2) समूह-पहचान का विकास-नगर समूह-पहचान के विकास को बढ़ावा देते हैं। यहाँ प्रजाति, धर्म, नृजातीयता, जाति, प्रदेश तथा समूह नगरीय जीवन का पूर्ण प्रतिनिधित्व करते हैं। कम स्थान में अत्यधिक लोगों का जमाव इस पहचान को और तीव्र करता है तथा उन्हें अस्तित्व, प्रतिरोध तथा दृढ़ता की रणनीति का अंग बनाता है।

(3) स्थान की समस्या से उपजी चुनौतियाँ-नगर की अधिकांश समस्याओं का सम्बन्ध स्थान के प्रश्न से जुड़ा है। जनसंख्या का उच्च घनत्व स्थान पर अत्यधिक जोर देता है तथा अनेक जटिल समस्या खड़ी करता है। यथा
(i) संगठन तथा प्रबंधन की समस्या-नगर में सामाजिक व्यवस्था की बुनियादी कड़ी है-संगठन और प्रबन्धन की व्यवस्था। इसके लिए कुछ चीजों की आवश्यकता होती है, जैसे-निवास तथा आवासीय पद्धति, जन-यातायात के साधन उपलब्ध कराना ताकि कर्मचारियों की बड़ी संख्या को कार्य-स्थल तक लाया तथा वहाँ से ले जाया जा सके; आवासीय, सरकारी तथा औद्योगिक भूमि उपयोग क्षेत्र के सह-अस्तित्व की व्यवस्था करना तथा जन-स्वास्थ्य, स्वच्छता, पुलिस, जन-सुरक्षा तथा नगर के शासन पर नियंत्रण की व्यवस्था करना आदि। इनमें से प्रत्येक कार्य अपने आप में एक वृहद् उपक्रम है तथा योजना, क्रियान्विति और रख-रखाव की दुर्जेय चुनौती देता है।

(ii) विभाजन तथा तनाव-नगरों में समूह, नृजातीयता, धर्म, जाति आदि का विभाजन पाया जाता है तथा इनमें विभाजन की चेतना तीव्र पायी जाती है। इस कारण यहाँ विभाजन के कार्य निरन्तर चलते रहते हैं। विभाजन के ये कार्य तनाव पैदा करते रहते हैं।

RBSE Solutions for Class 11 Sociology Chapter 2 ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था

(iii) गंदी बस्तियाँ-नगरों में स्थान की कमी से जुड़ी एक प्रमुख समस्या आवास की है। यहाँ गरीबों के लिए आवास की समस्या एक चुनौती बनी हुई है। इस समस्या को यहाँ 'बेघर', 'सड़क पर चलने वाले लोग' जन्म देते हैं जो सड़कों, फुटपाथों, पुलों तथा फ्लाईओवर के नीचे, खाली बिल्डिंग तथा अन्य खाली स्थानों पर रहते तथा जीवनयापन करते हैं। इसी समस्या ने शहरों में गंदी बस्तियों को जन्म दिया है। यह बस्ती एक भीड़-भाड़ तथा घिच-पिच वाला रिहायशी इलाका होता है। यहाँ जन-सुविधाओं का अभाव होता है तथा ये बस्तियाँ झुग्गी-झोंपड़ियों के रूप में होती हैं । ये बस्तियाँ दादाओं की जन्मभूमि होती हैं तथा ये बस्तियाँ गैर-कानूनी धंधों, अपराधों तथा भूमि सम्बन्धित गैंग के अड्डे बन जाते हैं। ये गन्दी-बस्तियाँ आज नगरों की प्रमुख चुनौतियाँ बनी हुई हैं।

(4) सामूहिक तनाव तथा पृथक्कीकरण की प्रक्रिया-नगरों में मनुष्य कहाँ और कैसे रहेंगे-यह प्रश्न सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान पर आधारित होता है। नगरीय आवासीय क्षेत्र प्रायः समूह तथा अधिकतर प्रजाति, नृजातीयता, धर्म तथा अन्य कारकों द्वारा विभाजित होते हैं। इन पहचानों के बीच तनाव पृथक्कीकरण की प्रक्रिया के रूप में सामने आता है। उदाहरण के लिए, भारत में विभिन्न धर्मों के बीच साम्प्रदायिक तनाव, विशेषकर हिन्दुओं तथा मुसलमानों में देखा जा सकता है। ये साम्प्रदायिक तनाव साम्प्रदायिक दंगों को एक विशिष्ट देशिक रूप में देते हैं जो बस्तीकरण की नवीन प्रक्रिया घैटोआइजेशन को बढ़ाते हैं।

(5) ट्रैफिक के जमाव और प्रदूषण की समस्या-नगरीय परिवहन व्यवस्था प्रत्यक्ष और गंभीर रूप से आवासीय क्षेत्रों के सापेक्ष औद्योगिक तथा वाणिज्यिक कार्यस्थलों से प्रभावित हुई है। अगर ये दूर-दराज स्थित होते हैं तो वृहत् जन-परिवहन प्रणाली के निर्माण और रख-रखाव की आवश्यकता होती है। परिवहन व्यवस्था का नगर में काम करने वालों की 'जीवन की गुणवत्ता' पर सीधा प्रभाव पड़ता है। सड़क परिवहन में निजी साधनों के बढ़ते प्रयोग के कारण नगरों में ट्रैफिक के जमाव तथा वाहन प्रदूषण की समस्या पैदा हो रही है। यह समस्या आज नगरों में एक बड़ी चुनौती बनी हुई है।

Prasanna
Last Updated on Sept. 7, 2022, 5:39 p.m.
Published Sept. 7, 2022