RBSE Solutions for Class 11 Psychology Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Psychology Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग Textbook Exercise Questions and Answers.

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RBSE Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

RBSE Class 11 Psychology अभिप्रेरणा एवं संवेग Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1. 
अभिप्रेरणा के संप्रत्यय की व्याख्या कीजिए।
उत्तर : 
अभिप्रेरणा का संप्रत्यय इस बात पर ध्यान केंद्रित करता है कि व्यवहार में 'गति' किस प्रकार आती है। अंग्रेजी भाषा में Motivation लैटिन शब्द movere से बना है, जिसका संदर्भ क्रियाकलाप की गति से है। हमारे दैनिक जीवन में अधिकांश व्यवहारों की व्याख्या भी अभिप्रेरकों के आधार पर की जाती है। हम विद्यालय या महाविद्यालय क्यों जाते हैं ? इस व्यवहार के अनेक कारण हो सकते हैं, जैसे कि हम ज्ञान अर्जित करना चाहते हैं या मित्र बनाना चाहते हैं, या फिर हमें एक अच्छी नौकरी पाने के लिए एक डिप्लोमा अथवा डिग्री की आवश्यकता है, या हम

अपने माता-पिता को प्रसन्न करना चाहते हैं. इत्यादि। इन कारणों की कोई संयुक्ति या अन्य कारण भी हमारे उच्च शिक्षा ग्रहण की व्याख्या कर सकते हैं। अभिप्रेरक व्यवहारों का पूर्वानुमान करने में भी सहायता करते हैं। यदि किसी व्यक्ति में तीव्र उपलब्धि अभिप्रेरक हो तो वह विद्यालय में, खेल में, व्यापार में, संगीत में तथा अनेक अन्य परिस्थितियों में कड़ा परिश्रम करेगा। अतः अभिप्रेरक वे सामान्य स्थितियाँ हैं जिनके आधार पर हम भिन्न परिस्थितियों में व्यवहार के बारे में पूर्वानुमान लगा सकते हैं। दूसरे शब्दों में, अभिप्रेरणा व्यवहार के निर्धारकों में से एक है। मूल प्रवृत्तियाँ, अंतर्नोद, आवश्यकताएँ. लक्ष्य तथा उत्प्रेरक अभिप्रेरणा के विस्तृत दायरे में आते हैं।

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प्रश्न 2. 
भूख तथा प्यास की आवश्यकताओं के जैविक आधार क्या हैं ?
उत्तर : 
भूख : जब किसी को भूख लगी हो तो भोजन की आवश्यकता सर्वोपरि हो जाती है। यह व्यक्ति को भोजन प्राप्त करने और उसे खाने के लिए अभिप्रेरित करती है लेकिन हमें भूख की अनुभूति क्यों होती है ? अनेक अध्ययन यह स्पष्ट करते हैं कि शरीर के भीतर तथा बाहर घटित होने वाली अनेक घटनाएँ भूख को उद्दीप्त अथवा निरुद्ध कर सकती हैं। भूख के उद्दीपकों में अन्तनिर्हित हैं - आमाशय में संकुचन, जो यह बताता है कि आमाशय खाली है। रक्त में ग्लूकोज की निम्न सांद्रता; प्रोटीन का निम्न स्तर तथा शरीर में वसा के भंडारण की मात्रा। 

शरीर में ईंध न की कमी के प्रति यकृत भी प्रतिक्रिया करता है तथा वह मस्तिष्क को तंत्रिका आवेग प्रेषित करता है। भोजन की सुगंध, स्वाद या देखने भर से खाने की इच्छा उत्पन्न करते हैं। उल्लेखनीय है कि इनमें से कोई भी एक अपने आप में यह भाव नहीं जगाते कि हम भूखे हैं। ये सब बाह्य कारकों (जैसे- स्वाद, रंग, दूसरों को भोजन करते हुए देखना, तथा भोजन की सुगंध इत्यादि) के साथ संयुक्त होकर हमें यह समझने में सहायता करते हैं कि भूख लगी है। अत: यह कहा जा सकता है कि हमारी भूख अधश्चेतक में स्थित पोषण-तृप्ति की जटिल व्यवस्था, यकृत और शरीर के अन्य अंगों तथा परिवेश में स्थित बाह्य संकेतों द्वरा नियंत्रित होती

कुछ शरीरक्रिया वैज्ञानिकों का मत है कि यकृत के उपापचयी क्रियाओं में होने वाले परिवर्तनों के कारण भूख की अनुभूति होती है। मस्तिष्क के उस भाग को जिसे अधश्चेतक कहते हैं, यकृत संकेत भेजता है। अधश्चेतक के दो क्षेत्र जिनका भूख से सम्बन्ध है, वे हैं पाश्विक अधश्चेतक तथा अधर मध्य अध-श्चेतक। पाश्विक अधश्चतेक भूख संदीपन क्षेत्र समझा जाता है। पशुओं के इस क्षेत्र को उद्दीप्त करने पर वे भोजन करने लगते हैं। जब यह क्षतिग्रस्त हो जाता है तो पशु खाना छोड़ देते हैं तथा अनशन से

उनकी मृत्यु भी हो जाती है। अधर मध्य अधश्चेतक के मध्य में स्थित होता है, इसे भूख नियंत्रण क्षेत्र कहते हैं तथा यह भूख के अंतर्नोद को निरुद्ध कर देता है। प्यास : यदि आपको दीर्घकाल तक पानी से वंचित रखा जाए तो आपको क्या होगा? आपको प्यास क्यों लगती है? जब हम कई घंटे तक पानी पीने से वंचित रह जाते हैं तो हमारा मुँह तथा गला सूखने लगता है तथा शरीर के ऊतकों में निर्जलीकरण होने लगता है। सूखे मुँह को आई करने के लिए पानी पीना आवश्यक है किंतु केवल मुँह का सूखना ही पानी पीने के व्यवहार में परिणत नहीं होता, बल्कि शरीर के भीतर घटित होने वाली प्रक्रियाएँ प्यास तथा पानी पीने को नियंत्रित करती हैं। निर्जलीकरण में शरीर के ऊतकों में पर्याप्त मात्रा में जल पहुँचने पर ही मुँह तथा गले का सूखना दूर हो जाता है।

शारीरिक स्थितियाँ पानी पीने के व्यवहार को प्रमुख रूप से उद्दीप्त करती हैं। कोशिकाओं से पानी का क्षय तथा रक्त के परिमाण का घटना। जब शरीर से तरल द्रव्यों का क्षय होता है तो कोशिकाओं के आंतरिक भाग में भी जल का हास होता है। अग्र अधश्चेतक में कुछ तंत्रिका कोशिकाएँ होती हैं, जिन्हें परासरणग्राही कहते हैं, जो कोशिकाओं के निर्जलीकरण की स्थिति में तंत्रिका-आवेग उत्पन्न करती हैं।

यह तंत्रिका-आवेग प्यास तथा पानी पीने के लिए संकेत का कार्य करते हैं; जब प्यास का नियंत्रण परासरणग्राही द्वारा होता है तो उसे कोशिकीय-निर्जलीकरण प्यास कहते हैं। कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि जो तंत्र पानी पीने की व्याख्या करता है, वही पानी पीने को रोकने के लिए भी उत्तरदायी है। दूसरे शोधकर्ता मानते हैं कि पानी पीने के परिणामस्वरूप, आमाशय में जो उद्दीपन होता है वह पानी पीने को रोकने में प्रभावी होता है किंतु प्यास के अंतर्नाद के अंतर्निहित सुनिश्चित शरीर क्रियात्मक तंत्र को समझना अभी शेष है।

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प्रश्न 3. 
किशोरों के व्यवहारों को उपलब्धि, संबंधन तथा शक्ति की आवश्यकताएँ कैसे प्रभावित करती हैं ? उदाहरणों के साथ समझाइए।
उत्तर : 
प्रतिदिन हमें दूसरों के साथ की अथवा मित्रों की आवश्यकता होती है या हम दूसरों के साथ किसी प्रकार का संबंध बनाना चाहते हैं। कोई भी व्यक्ति सदैव अकेले नहीं रहना चाहता। जैसे ही लोग परस्पर आपस में कुछ समानताएँ देखते हैं, वे एक समूह बना लेते हैं। समूह का निर्माण अथवा सामूहिकता मानव जीवन की एक प्रमुख विशेषता है। अक्सर लोग दूसरों के निकट पहुँचने, उनकी सहायता प्राप्त करने तथा उनके समूह का सदस्य बनने के लिए अत्यधिक प्रयास करते हैं।

दूसरों को चाहना तथा भौतिक एवं मनोवैज्ञानिक रूप से उनके निकट आने की इच्छा को संबंधन कहते हैं। इसमें सामाजिक संपर्क की अभिप्रेरणा पाई जाती है। सबंधन की आवश्यकता उस समय जाग्रत होती है, जब लोग अपने को खतरे में या असहाय अनुभव करते हैं, और उस समय भी जब वे प्रसन्न होते हैं। जिन व्यक्तियों में यह आवश्यकता प्रबल होती है वे दूसरों का साथ खोजते हैं तथा दूसरों के साथ मित्रतापूर्ण संबंध बनाए रखते हैं।

शक्ति अभिप्रेरक : शक्ति की आवश्यकता व्यक्ति की ऐसी योग्यता है जिसके कारण वह दूसरों के संवेगों तथा व्यवहारों पर अभिप्रेत प्रभाव डालता है। शक्ति अभिप्रेरक के अनेक लक्ष्य हैं, प्रभाव डालना, नियंत्रण करना, सम्मत कराना, नेतृत्व करना तथा दूसरों को मोहित कर लेना और सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण, दूसरों की दृष्टि में अपनी प्रतिष्ठा को ऊँचा उठाना। डेविड मैकक्लीलैंड (David McClelland, 1975) ने शक्ति अभिप्रेरक की अभिव्यक्ति के चार सामान्य तरीके बताए हैं :

प्रथम : व्यक्ति शक्ति या सामर्थ्य का बोध प्राप्त करने के लिए अपने बाहर के स्रोतों का उपयोग करता है। जैसे- खेल के सितारों के बारे में कहानियाँ पढ़कर या किसी लोकप्रिय व्यक्ति के साथ संलग्न होकर।

द्वितीय : शक्ति का बोध अपने भीतर के स्रोतों द्वारा भी किया जा सकता है और उसकी अभिव्यक्ति शारीरिक सौष्ठव का निर्माण करके तथा अपने आवेगों एवं अंत:प्रेरणाओं पर नियंत्रण करके की जा सकती है। .

तृतीय : व्यक्ति कुछ कार्य व्यक्तिगत स्तर पर दूसरों पर प्रभाव डालने के लिए कार्य करता है। उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति बहस करता है या किसी अन्य व्यक्ति के साथ इसलिए प्रतियोगिता करता है कि उसको प्रभावित कर सके या उससे प्रतिस्पर्धा कर सके।

चतुर्थ : व्यक्ति किसी संगठन के सदस्य के रूप में दूसरों पर प्रभाव डालने के लिए भी कार्य करता है जैसे कि किसी राजनीतिक दल के नेता के रूप में; वह राजनीतिक दल के तंत्र का उपयोग दूसरों को प्रभावित करने के लिए कर सकता है। इनमें से कोई भी तरीका किसी व्यक्ति की शक्ति
अभिप्रेरणा की अभिव्यक्ति में प्रमुख हो सकता है या उस पर छा सकता है किंतु इसमें आयु और जीवन अनुभवों के साथ परिवर्तन भी आता है।

उपलब्धि अभिप्रेरक : कुछ विद्यार्थी परीक्षा में अच्छे अंक या श्रेणी पाने के लिए कठोर परिश्रम करते हैं या दूसरे के साथ स्पर्धा करते हैं क्योंकि अच्छे अंक या श्रेणी उनके लिए उच्च शिक्षा और अच्छी नौकरी का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। उत्कृष्टता के मापदंड को प्राप्त करने की यह आवश्यकता उपलब्धि अभिप्रेरक कहलाती है। उपलब्धि की आवश्यकता, जिसे n-Ach भी कहते हैं, व्यवहारों का ऊर्जन एवं निर्देशन करती है तथा परिस्थितियों के प्रत्यक्षण को प्रभावित करती है।

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प्रश्न 4. 
मैस्लो के आवश्यकता पदानुक्रम के पीछे | प्राथमिक विचार क्या हैं ? उपयुक्त उदाहरणों की सहायता से व्याख्या कीजिए।
उत्तर : 
मैस्लो का आवश्यकता पदानुक्रम : मानव अभिप्रेरणा के संबंध में विभिन्न मत हैं। इनमें से सर्वाधिक लोकप्रिय सिद्धांत अब्राहम एच. मैस्लो (Abraham H. Maslong 1968-1970) द्वारा दिया गया है। उन्होंने मानव व्यवहार को प्रकट करने के लिए आवश्यकताओं को एक पदानुक्रम में व्यवस्थित किया है। उनके सिद्धांत को “आत्म-सिद्धि" का सिद्धांत कहते हैं और यह सिद्धांत अपने सैद्धांतिक एवं अनुप्रयुक्त मूल्यों के कारण अत्यंत लोकप्रिय है। मैस्लो का मॉडल एक पिरामिड के रूप में संप्रत्ययित किया जा सकता है, जिसमें पदानुक्रम के तल में मूल शरीर क्रियात्मक या जैविक आवश्यकताएँ हैं जो कि जीवन-निर्वाह के लिए
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आवश्यक हैं जैसे-भूख, प्यास इत्यादि। जब इन आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती है तभी व्यक्ति में खतरे से सुरक्षा की आवश्यकता उत्पन्न होती है। इसका आशय भौतिक एवं मनोवैज्ञानिक प्रकार के खतरों से सुरक्षा का है। इसके पश्चात् दूसरों का उनसे प्रेम करना तथा उनका प्रेम प्राप्त करना आता है। यदि हम इस आवश्यकता को पूर्ण करने में सफल हो जाते हैं तब हम स्वयं आत्म-सम्मान तथा दूसरों से सम्मान प्राप्त करने की दिशा में बढ़ते हैं। पदानुक्रम में इससे ऊपर आत्म-सिद्धि की आवश्यकता होती है, जो एक व्यक्ति की अपनी सम्भाव्यताओं को पूर्ण रूप से विकसित करने के अभिप्रेरण में परिलक्षित होती है। आत्म-सिद्ध व्यक्ति आत्म-जागरूक, समाज के प्रति अनुक्रियाशील, सर्जनात्मक, स्वतः स्फूर्त तथा नवीनता एवं चुनौती के प्रति मुक्त होता है। ऐसे व्यक्ति में हास्य भावना होती है तथा गहरे अंतर्वैयक्तिक संबंध बनाने की क्षमता होती है।

पदानुक्रम में निम्न स्तर की आवश्यकताएँ (शरीर क्रियात्मक) जब तक संतुष्ट नहीं हो जाती तब तक प्रभावी बनी रहती हैं। एक बार जब वे पर्याप्त रूप से संतुष्ट हो जाती हैं तब उच्च स्तर की आवश्यकताएँ व्यक्ति के ध्यान एवं प्रयासों में केन्द्रित हो जाती हैं। यह उल्लेखनीय है कि अधिकांश व्यक्ति निम्न स्तर की आवश्यकताओं के लिए अत्यधिक सरोकार होने के कारण सर्वोच्च स्तर तक पहुँच ही नहीं पाते।

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प्रश्न 5. 
क्या शरीरक्रियात्मक उद्धेलन सांवेगिक अनुभव के पूर्व या पश्चात् घटित होता है ? व्याख्या कीजिए।
उत्तर : 
संवेगों के शरीरक्रियात्मक आधार : संजय नौकरी पाने के लिए परेशान है। उसने साक्षात्कार के लिए अच्छी तैयारी की है और आत्म-विश्वास का अनुभव कर रहा है। जैसे ही वह साक्षात्कार कक्ष में जाता है और साक्षात्कार प्रारंभ होता है, वह अत्यधिक तनाव में आ जाता है। उसके हाथ-पाँव ठंडे पड़ जाते हैं, उसका हदय जोर-जोर से धड़कने लगता है और वह उपयुक्त तरीके से उत्तर देने में असमर्थ हो जाता है।

यह सब क्यों हुआ? किसी ऐसी घटना के बारे में सोचने का प्रयास कीजिए जो इससे मिलती हुई हो और जिसका अनुभव स्वयं आपने किया हो। क्या आप उसका कोई संभाव्य कारण सोच सकते हैं। जब हम किसी संवेग का अनुभव करते हैं तो अनेक शरीर क्रियात्मक परिवर्तन होते हैं। जब हम उत्तेजित, भयभीत अथवा क्रोधित होते हैं तो इन शारीरिक परिवर्तनों को चिह्नित करना अपेक्षाकृत सरल होता है।

जब हम किसी वस्तु के बारे में उत्तेजित या क्रुद्ध होते हैं तो अनुभव करते हैं कि हमारी हृदय गति बढ़ जाती है, सिर चकराने लगता है, पसीना आने लगता है तथा हाथ-पाँव में कंपन होने लगता है। परिष्कृत उपकरणों की सहायता से उन शरीर क्रियात्मक परिवर्तनों का यथार्थ मापन किया

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प्रश्न 6.
क्या संवेगों की चेतन रूप से व्याख्या तथा नामकरण करना उनको समझने के लिए महत्त्वपूर्ण है ? उपयुक्त उदाहरण देते हुए चर्चा कीजिए।
उत्तर : 
संवेगों का नामकरण : संस्कृति एवं संवेग एक-दूसरे से अन्तः सम्बन्धित हैं। संवेगों की अभिव्यक्ति व अनुभूति दोनों ही संस्कृति के विशेष रूप से 'प्रदर्शन नियमों' के द्वारा प्रभावित जा सकता है जो संवेग की अनुभूति के साथ उत्पन्न होते हैं। स्वायत्त तथा कायिक तंत्रिका तंत्र दोनों ही संवेगात्मक प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।

संवेग का अनुभव तंत्रिका शरीर क्रियात्मक सक्रियकरण की श्रृंखला पर निर्भर करता है, जिसमें चेतक, अधश्चेतक, उपवल्कुटीय व्यवस्था तथा प्रमस्तिष्कीय वल्कुट महत्त्वपूर्ण रूप से अंतर्निहित होते हैं। वे व्यक्ति जिनक मस्तिष्क के इन क्षेत्रों में व्यापक क्षति हो जाती है, उनकी संवेगात्मक योग्यताएँ दोषपूर्ण होते हुए देखी गई हैं। प्रयोगों में शिशुओं तथा वयस्कों में भी विभिन्न मस्तिष्क के क्षेत्रों में चयनात्मक सक्रियकरण, भिन्न-भिन्न संवेगों का उद्वेलन प्रदर्शित करता है।

संवेग के शरीर क्रियात्मक सिद्धांतों में सबसे पुराने सिद्धांतों में से एक जेम्स (James, 1884) द्वारा दिया गया था और लैंगे (Lange) ने उसका समर्थन किया था, अत: इसे जेम्स-लैंगे सिद्धांत (James-Lange theory) के नाम से जाना जाता है। इस सिद्धांत के अनुसार पर्यावरणी उद्दीपक विसेरा या अंतरांग (आंतरिक अंग; जैसे- हृदय तथा फेफड़े) में शरीर क्रियात्मक अनुक्रियाएँ उत्पन्न करते हैं, जो कि पेशीय गति से संबद्ध होते हैं। उदाहरण के लिए, अप्रत्याशित अत्यंत तीव्र शोर के द्वारा चौंकना, आंतरांगी तथा पेशीय अंगों में सक्रियकरण को उत्पन्न करता है, जिसका अनुसरण करता है 

संवेगात्मक उद्वेलन। दूसरे शब्दों में, जेम्स-लैंगे सिद्धांत का तर्क यह है कि आपके शारीरिक परिवर्तनों का आपके द्वारा किया गया प्रत्यक्षण- जैसे किसी घटना के बाद साँस का तेज चलना, हृदय की तेज धड़कन, टाँगों का दौड़ना, संवेगात्मक उद्वेलन को उत्पन्न करता है। इस सिद्धांत का निहितार्थ यह है कि विशिष्ट घटनाएँ या उद्दीपक विशिष्ट शरीर क्रियात्मक परिवर्तनों को उत्तेजित करती हैं तथा व्यक्ति इन परिवर्तनों का जिस प्रकार से प्रत्यक्षण करता है. संवंगों की अनुभूति उसी का परिणाम होती है। होती है। संवेगों को चेतन रूप से समझने के लिए संवेगों का नामकरण तथा उनकी व्याख्या करना महत्त्वपूर्ण है। इससे उसे समझने में सरलता भी हो जाती है। उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण निम्नलिखित प्रकार से है मूल संवेग, श्रेणीगत नामों या लेबल तथा विस्तारण में भी परस्पर भिन्न होते हैं। टाहिटी भाषा में अंग्रेजी के शब्द 'क्रोध' के

लिए 46 लेबल या नाम हैं। जब उत्तरी अमेरिकियों से मुक्त रूप से लेबल लगाने को कहा गया तो क्रोध अभिव्यक्त करने वाले चेहरे के लिए उन्होंने 40 लेबल दिए तथा अवमानना अभिव्यक्त करने वाले चेहरे को देखकर 81 लेबल दिए। जापानियों ने विभिन्न संवेग अभिव्यक्त करने वाले चेहरों को देखकर अलग-अलग लेबल प्रस्तुत किए। प्रसन्नता अभिव्यक्त करने वाले चेहरे को देखकर (10 लेबल), क्रोध (8 लेबल), तथा घृणा (6 लेबल) के लिए लेबल की मात्रा अलग-अलग थी।

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प्राचीन चीनी साहित्य में सात संवेगों का उल्लेख है, जिनके नाम हैं- हर्ष, क्रोध, दुख, भय. प्रेम, नापसंद तथा पसंद। प्राचीन भारतीय साहित्य में आठ प्रकार के संवेगों को चिह्नित किया गया है, जिनके नाम हैं - प्रेम, आमोद-प्रमोद, ऊर्जा, आश्चर्य, क्रोध, शोक, घृणा तथा भय। पाश्चात्य साहित्य में कुछ संवेग, जैसे- प्रसन्नता, दुःख, भय, क्रोध तथा घृणा को एकसमान रूप से मनुष्यों के लिए मूल माना गया है जबकि कुछ अन्य संवेग; जैसे- आश्चर्य, अवमानना, शर्म तथा अपराध बोध को सभी के लिए मूल नहीं समझा जाता है। 

संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि कुछ मूल संवेग, सभी लोगों द्वारा अभिव्यक्त किए जाते और समझे जाते हैं चाहे उनमें नृजाति अथवा संस्कृति के आधार पर कितने भी अंतर हों तथा कुछ संवेग किसी संस्कृति विशेष के लिए विशिष्ट होते हैं। यह याद रखना आवश्यक है कि संवेगों की सभी प्रक्रियाओं में संस्कृति की अपनी विशिष्ट भूमिका है। संवेगों की अभिव्यक्ति तथा अनुभूति दोनों ही संस्कृति विशेष के 'प्रदर्शन नियमों' के द्वारा प्रभावित होती हैं जो कि उनकी मध्यस्थता एवं रूपांतरण दोनों करती हैं अर्थात् उन दशाओं की सीमा निर्धारित करती हैं जिनमें संवेगों की अभिव्यक्ति की जा सकती है तथा जितनी तीव्रता से वे प्रदर्शित किए जाते हैं।
 
प्रश्न 7. 
संस्कृति संवेगों की अभिव्यक्ति को कैसे प्रभावित करती है ?
उत्तर : 
संवेगों को अभिव्यक्त करने में संस्कृति का विशेष योगदान है। संवेगों का अध्ययन किया जाए तो ज्ञात होता है कि हमारे सामने वाला व्यक्ति या मित्र प्रसन्न है या दुःखी है ? क्या वह हमारी भावनाओं को समझ पाता है या नहीं ? संवेग एक आन्तरिक अनुभूति है जिसका दूसरे सीधे प्रेक्षण नहीं कर पाते या अवाचिक अभिव्यक्तियों के द्वारा ही होता है। ये वाचिक या अवाचिक अभिव्यक्तियों संचार माध्यम का कार्य करती हैं, इनके द्वारा व्यक्ति अपने संवेगों की अभिव्यक्ति करने तथा दूसरों की अनुभूतियों को समझने में समर्थ होता है।

संस्कृति एवं संवेगात्मक अभिव्यक्ति : अध्ययनों से यह पता लगा है कि अधिकांश मूल संवेग सहज अथवा जन्मजात होते हैं और उन्हें सीखना नहीं पड़ता। अधिकांशतः मनोवैज्ञानिक यह विश्वास करते हैं कि संवेगों, विशेषकर चेहरे की अभिव्यक्तियों के प्रबल जैविक संबंध (बंधन) होते हैं। उदाहरण के लिए, वे बालक जो जन्म से दृष्टिहीन हैं तथा जिन्होंने दूसरों को मुस्कराते हुए या दूसरों का चेहरा भी नहीं देखा है, वे भी उसी प्रकार मुस्कराते हैं अथवा माथे पर बल डालते हैं जिस प्रकार सामान्य दृष्टि वाले बालका किंतु विभिन्न संस्कृतियों की तुलना करने पर यह ज्ञात होता है कि संवेगों में अधिगम की प्रमुख भूमिका होती है। यह दो प्रकार से होता है। प्रथम, सांस्कृतिक अधिगम संवेगों के अनुभव की अपेक्षा संवेगों की अभिव्यक्ति को अधिक प्रभावित करता है, उदाहरण के लिए, कुछ संस्कृतियों में मुक्त सांवेगिक अभिव्यक्ति को प्रोत्साहित किया जाता है, जबकि कुछ दूसरी संस्कृतियाँ मॉडलिंग तथा प्रबलन के माध्यम से व्यक्ति को सार्वजनिक रूप से अपने संवेगों को सीमित रूप से प्रकट करना सिखाती हैं।

द्वितीय, अधिगम उन उद्दीपकों पर बहुत निर्भर करता है जो सांवेगिक प्रतिक्रियाएँ जनित करते हैं। यह प्रदर्शित किया जा चुका है कि वे व्यक्ति जो लिफ्ट, मोटरगाड़ी इत्यादि के प्रति अत्यधिक भय (दुर्भीति) प्रदर्शित करते हैं, उन्होंने यह भय मॉडल, प्राचीन अनुबंधन या परिहार अनुबंधन के द्वारा सीखे होते हैं। यह उल्लेखनीय है कि संवेगों में अंतर्निहित प्रक्रियाएँ संस्कृति द्वारा प्रभावित होती हैं। सम्प्रति शोध विशेष रूप से इस प्रश्न पर केंद्रीकृत है कि संवेगों में कितनी सर्वव्यापकता अथवा सांस्कृतिक विशिष्टता पाई जाती है। इनमें से अधिकांश शोध मुख की अभिव्यक्तियों पर किए गए हैं क्योंकि मुख का प्रेक्षण सरलता से किया जा सकता है, वह जटिलताओं से अपेक्षाकृत मुक्त होता है तथा वह संवेग के आत्मनिष्ठ अनुभव तथा प्रकट अभिव्यक्ति के मध्य एक कड़ी का कार्य करता है। किंतु फिर भी इस बात पर बल देना आवश्यक है कि संवेग केवल मुख द्वारा ही अभिव्यक्त नहीं कर सकते। संवेगों का अनुमान केवल उनके वाचिक अथवा

नहीं होते। एक अनुभव किया हुआ संवेग अन्य अवाचिक माध्यमों; जैसे-टकटकी लगाकर देखने, चेष्टा, पराभाषा तथा समीपस्थ व्यवहार इत्यादि से भी अभिव्यक्त होता है। चेष्टा (शरीर भाषा) के द्वारा व्यक्त संवेगात्मक अर्थ एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति में भिन्न होता है। उदाहरण के लिए, चीन में ताली बजाना आकुलता या निराशा का सूचक है. तथा क्रोध को हँसी के द्वारा व्यक्त किया जाता है। मौन भी विभिन्न संस्कृतियों में भिन्न-भिन्न अर्थ व्यक्त करता है। उदाहरण के लिए, भारत में गहरे संवेग कभी-कभी मौन द्वारा अभिव्यक्त किए जाते हैं, जबकि पाश्चात्य देशों में यह व्याकुलता अथवा लज्जा को व्यक्त कर सकता है। टकटकी लगा कर देखने में भी सांस्कृतिक भिन्नताएँ पाई जाती हैं। 

यह भी देखा गया है कि लैटिन अमेरिकी तथा दक्षिण यूरोपीय लोग अंत:क्रिया कर रहे व्यक्ति की आँखों में टकटकी लगाकर देखते हैं, जबकि एशियाई लोग, विशेषकर भारतीय तथा पाकिस्तानी मूल के लोग, किसी अंत:क्रिया के दौरान दृष्टि को परिधि (अंतःक्रिया करने वाले से दूर से दृष्टिपात) पर केंद्रित करते हैं। संवेगात्मक आदान-प्रदान के दौरान, शारीरिक दूरी (सान्निध्य) विभिन्न प्रकार के संवेगात्मक अर्थों को प्रकट करती है।

उदाहरण के लिए, अमेरिकी लोग अंत:क्रिया करते समय बहुत निकट नहीं आना चाहते; जबकि भारतीय लोग निकता का प्रत्यक्षण आरामदेह स्थिति के रूप में करते हैं। वास्तव में, कम दूरी में छूना या स्पर्श करना संवेगात्मक उष्णता या सहृदयता का परिचायक समझा जाता है। उदाहरण के लिए, यह पाया गया कि अरबी मूल के लोग उन उत्तर अमेरिकी लोगों के प्रति विमुखता अनुभव करते हैं जो अंत:क्रिया के दौरान सँघने की दूरी (अत्यधिक निकट) के बाहर रह कर ही अंतःक्रिया करना पसंद करते हैं।

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प्रश्न 8. 
निषेधात्मक संवेगों का प्रबंधन क्यों महत्वपूर्ण है ? निषेधात्मक संवेगों के प्रबन्धन हेतु उपाय सुझाइए।
उत्तर : 
संवेग एक सातत्यक के अंश हैं। किसी संवेग को अनेक तीव्रताओं पर अनुभव किया जा सकता है। आप थोड़ी-सी प्रसन्नता या उल्लास का, थोड़ी विचारमग्नता या शोकाकुलता का अनुभव कर सकते हैं। यद्यपि हममें से अधिकांश लोग संवेगों में संतुलन बनाए रखने में सफल होते हैं। जब द्वंद्वात्मक परिस्थिति होती है तो व्यक्ति उसके साथ समायोजन करने का प्रयास करते हैं तथा सामना करने के लिए या तो कार्योन्मुख या रक्षा-उन्मुख उपाय अपनाते हैं। ये समायोजी

उपाय उन्हें कुछ असामान्य संवेगात्मक, प्रतिक्रियाओं; जैसेदुश्चिता, अवसाद इत्यादि को करने से रोकते हैं। दुश्चिता (Anxiety) वह अवस्था है जो व्यक्ति उपयुक्त अहं रक्षा को न अपनाने के कारण हुई असफलता की स्थिति में विकसित कर लेता है। उदाहरण के लिए- यदि व्यक्ति अपने किसी अनैतिक कार्य (जैसे-नकल या धोखाधड़ी या चोरी करना), को तर्कसंगत ठहराने के रक्षा करने में असफल हो जाता है, तो वह इस कार्य के परिणामों के विषय में तीव्र आशंका से ग्रस्त हो जाता है। दुश्चतित व्यक्तियों को ध्यान केंद्रित करने में तथा तुच्छ विषय पर भी निर्णय लेने में अत्यंत कठिनाई का अनुभव होता है।
अवसाद की दशा, व्यक्ति के तर्कसंगत सोचने की, वास्तविकता का अनुभव करने की तथा सक्षम रूप से कार्य करने की योग्यता पर विषम प्रभाव डालती है। वह व्यक्ति की मनोदशा को पूर्णतः अभिभूत कर देती है। अवसाद क्योंकि दीर्घकाल तक चलता है, अतः अवसादग्रस्त व्यक्ति में अनेक लक्षण विकसित हो जाते हैं; जैसे-नींद आने में कठिनाई, मन:चालित क्षोभ या मंदन में वृद्धि होना, सोचने या ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई तथा सामाजिक एवं वैयक्तिक क्रियाकलापों में नीरसता अनुभव करना इत्यादि।

प्रतिदिन के जीवन में हम अक्सर द्वंद्वात्मक परिस्थितियों का सामना करते हैं। कठिन और दबावमय परिस्थितियों में किसी व्यक्ति में बहुत से निषेधात्मक संवेग; जैसे- भय, दुश्चिता, विरुचि इत्यादि विकसित हो जाते हैं। यदि इस प्रकार के निषेधात्मक संवेगों को दीर्घकाल तक चलते रहने दिया जाए, तो वे व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव डाल सकते हैं। यही कारण है कि अधिकांश दबाव प्रबंधन के कार्यक्रम, संवेगों के प्रबंधन को दबाव प्रबंधन के लिए आवश्यक मानते हैं।

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संवेग प्रबंधन का फोकस निषेधात्मक संवेगों में कमी तथा विध्यात्मक संवेगों में वृद्धि करने पर होता है। । यद्यपि अधिकांश शोधकर्ताओं का फोकस निषेधात्मक संवेगों; जैसे- क्रोध, भय, दुश्चिता इत्यादि रहा है किंतु निकट समय में 'विध्यात्मक मनोविज्ञान' के क्षेत्र ने उत्कर्ष हासिल किया है। जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है, विध्यात्मक मनोविज्ञान का सरोकार उन विशेषताओं के अध्ययन से है जो जीवन को वैभवशाली बनाती हैं; जैसे-भरोसा, प्रसन्नता, सर्जनात्मकता, साहस, आशावादिता, उल्लास इत्यादि।
 

Bhagya
Last Updated on Sept. 24, 2022, 10:10 a.m.
Published Sept. 24, 2022