RBSE Solutions for Class 11 Psychology Chapter 2 मनोविज्ञान में जाँच की विधियाँ

Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Psychology Chapter 2 मनोविज्ञान में जाँच की विधियाँ Textbook Exercise Questions and Answers.

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RBSE Class 11 Psychology Solutions Chapter 2 मनोविज्ञान में जाँच की विधियाँ

RBSE Class 11 Psychology मनोविज्ञान में जाँच की विधियाँ Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1. 
वैज्ञानिक जाँच के लक्ष्य क्या होते हैं ?
उत्तर : 
मनोविज्ञान जाँच के लक्ष्य : किसी वैज्ञानिक अनुसंधान की तरह मनोवैज्ञानिक जाँच के लक्ष्य इस प्रकार हैं:
(i) वर्णन (Description) 
(ii) पूर्वकथन (Prediction) 
(iii) व्याख्या (Explanation) 
(iv) नियंत्रण (Control) 
(v) अनुप्रयोग (Application)

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प्रश्न 2. 
वैज्ञानिक जाँच करने के अंतर्निहित विभिन्न चरणों का वर्णन कीजिए। .
उत्तर : 
इसके निम्नलिखित चरण हैं :
(i) समस्या का संप्रत्ययन : वैज्ञानिक शोध का कार्य उस समय प्रारंभ होता है जब शोधकर्ता अध्ययन के कथ्य अथवा विषय का चयन कर लेता है। इसके पश्चात् वह अपना ध्यान केंद्रित करता है तथा विशेष शोध प्रश्न अथवा समस्या का विकास करता है। ऐसा पूर्व में किए गए अनुसंधानों की समीक्षा, प्रेक्षणों तथा व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर किया जाता है। उदाहरण के लिए एक शोधकर्ता विद्यार्थियों के अध्ययन की आदतों का प्रेक्षण करने में रुचि लेता है। इसके लिए वह पहले अध्ययन की आदतों के विविध पक्षों की पहचान करता है, उसके बाद ही यह सुनिश्चित कर सकता है कि वह घर पर किए जाने वाले अथवा कक्षा में प्रदर्शित अध्ययन की आदतों का अध्ययन करना चाहता

मनोविज्ञान में हम व्यवहार एवं अनुभव से संबंधित विविध समस्याओं का अध्ययन करते हैं:
(क) हमारे अपने व्यवहार को समझने (जैसे-जब हम प्रसन्नता अथवा दु:ख की दशा में होते हैं तो कैसा अनुभव करते हैं ? हम अपने अनुभवों एवं व्यवहार पर कैसी प्रतिक्रिया करते हैं ? हम क्यों भूल जाते हैं ?):

(ख) दूसरों के व्यवहार को समझने (उदाहरण के लिए क्या सोनू मोनू से अधिक बुद्धिमान है ? कुछ लोग अपना कार्य सर्वदा समय में क्यों नहीं पूरा कर पाते है ? क्या सिगरेट पीने की आदत को नियंत्रित किया जा सकता है ? कुछ लोग असाध्य रोग से ग्रसित होने के बाद भी दवाइयाँ क्यों नहीं लेते है ?);

(ग) समूह से प्रभावित वैयक्तिक व्यवहार (उदाहरण के लिए, सोहन अपने कार्य को संपादित करने की तुलना में लोगों से मिलने-जुलने में अधिक समय क्यों देता है ? कोई साइकिल चालक साइकिल चलाते हुए अकेले की तुलना में समूह में अधिक अच्छा प्रदर्शन क्यों करता है ?);

(घ) समूह व्यवहार (उदाहरण के लिए जब लोग समूह में होते हैं तो उनके खतरा उठाने वाले व्यवहारों में वृद्धि क्यों हो जाती है ?)

(ङ) संगठनात्मक स्तर (उदाहरण के लिए, कुछ संगठन दूसरे संगठनों की तुलना में अधिक सफल क्यों होते हैं? कोई नियोजक अपने कर्मचारियों की अभिप्रेरणा में कैसे वृद्धि कर सकता है ?) से होता है। इसकी सूची लंबी है और आप आगे के अध्यायों में इनके विविध पक्षों को जानेंगे। यदि आप अधिक जिज्ञासु हों तो आप कई समस्याओं को लिख सकते हैं, जिनकी आप जाँच कर सकते हैं। समस्या की पहचान के पश्चात् शोधकर्ता समस्या का एक काल्पनिक उत्तर खोजता है, जिसे परिकल्पना (Hypothesis) कहते हैं। उदाहरण के लिए, अपने पूर्व के साक्ष्य या प्रेक्षण के आधार पर आप एक परिकल्पना विकसित कर सकते हैं कि टेलीविजन पर हिंसा देखने से बच्चों में आक्रामकता आती है। इसके पश्चात् आप अपने अनुसंधान में इस कथन को गलत अथवा सही सिद्ध कर सकते हैं।

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(ii) प्रदत्त संग्रह : वैज्ञानिक विधि का दूसरा चरण प्रदत्त संग्रह होता है। प्रदत्त संग्रह के लिए संपूर्ण अध्ययन का एक अनुसंधान अभिकल्प होना चाहिए। इसके लिए निम्नलिखित चार पहलुओं के बारे में निर्णय लेना पड़ता है; 
(क) अध्ययन के प्रतिभागी, 
(ख) प्रदत्त संग्रह की विधि, 
(ग) अनुसंधान में प्रयुक्त उपकरण एवं 

(घ) प्रदत्त संग्रह की प्रक्रिया। अध्ययन के स्वरूप के अनुसार अनुसंधानकर्ता को निर्णय करना पड़ता है कि अध्ययन में कौन-कौन प्रतिभागी (सूचना देने वाले) होंगे। प्रतिभागी बच्चे, किशोर, महाविद्यालय के छात्र, अध्यापक और प्रबंधक हो सकते हैं। चिकित्सालय के रोगी, उद्योग में कार्य करने वाले कर्मचारी अथवा व्यक्तियों का कोई समूह भी प्रतिभागी हो सकते हैं जिनमें ।

जहाँ पर अध्ययन किए जाने वाला गोचर प्रचलित हों। दूसरा निर्णय प्रदत्त संग्रह की विधि के उपयोग से संबंधित होता है; जैसे प्रेक्षण विधि, प्रायोगिक विधि, सहसंबंधात्मक विधि, व्यक्ति अध्ययन इत्यादि। अनुसंधानकर्ता को प्रदत्त संग्रह के लिए उपयुक्त साधनों के विषय में भी निर्णय लेना पड़ता है। (उदाहरण के लिए, साक्षात्कार अनुसूची, प्रेक्षण अनुसूची, प्रश्नावली आदि) शोधकर्ता यह भी निर्णय करता है कि इन उपकरणों को प्रदत्त संग्रह हेतु किस प्रकार उपयोग में लाया जाएगा (अर्थात् वैयक्तिक अथवा सामूहिक)। इसके बाद वास्तविक प्रदत्त संग्रह किया जाता है।

(iii) निष्कर्ष प्राप्त करना : अगला चरण संगृहीत प्रदत्तों का सांख्यिकीय प्रक्रियाओं की सहायता से विश्लेषण करना है. जिससे हम समझ सकें कि प्रदत्तों का क्या अर्थ है ? यह कार्य ग्राफ द्वारा ((जैसे वृत्तखंड, दंड-आरेख, संचयी बारंबारता आदि बनाना) तथा विभिन्न सांख्यिकीय विधियों के उपयोग द्वारा भी किया जा सकता है। विश्लेषण का उद्देश्य परिकल्पना की जाँच करके तदनुसार निष्कर्ष निकालना है।

(iv) शोध निष्कर्षों का पुनरीक्षण करना : अनुसंधानकर्ता ने अनुशासनहीनता का अध्ययन इस परिकल्पना से प्रारंभ किया होगा कि टेलीविजन पर हिंसा देखने एवं बच्चों में आक्रामकता आने के बीच संबंध है। उसे यह देखना होगा कि क्या उसके निष्कर्ष इस परिकल्पना की पुष्टि करते हैं। यदि करते हैं तो प्रस्तुत परिकल्पना / सिद्धांत की पुष्टि हो जाएगी। यदि ऐसा नहीं है तो अनुसंधानकर्ता एक वैकल्पिक परिकल्पना । सिद्धान्त स्थापित करेगा तथा नए प्रदत्तों के आधार पर इसका परीक्षण करेगा और निष्कर्ष निकालेगा। इस परिकल्पना / सिद्धान्त की परीक्षा भावी अनुसंधानकर्ता द्वारा की जा सकती है। अतः अनुसंधान निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है।

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प्रश्न 3. 
मनोवैज्ञानिक प्रदत्तों के स्वरूप की व्याख्या कीजिए।
उत्तर : 
मनोवैज्ञानिक प्रदत्त का स्वरूप : हमारे मन में जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि मनोवैज्ञानिक प्रदत्त किस प्रकार अन्य विज्ञानों के प्रदत्तों से भिन्न होता है। मनोवैज्ञानिक विविध स्रोतों से विभिन्न विधियों द्वारा सूचनाएँ एकत्रित करते हैं। सूचनाएँ जिन्हें प्रदत्त (Data) कहा जाता है, व्यक्तियों के अव्यक्त अथवा व्यक्त व्यवहारों, आत्मपरक अनुभवों एवं मानसिक प्रक्रियाओं से सम्बन्धित होती हैं। मनोवैज्ञानिक जाँच का महत्त्वपूर्ण स्वरूप प्रदत्तों से निर्मित होता है। वे वास्तव में कुछ सीमा तक वास्तविकता का अनुमान लगाते हैं और इससे एक ऐसा अवसर प्राप्त होता है जिसमें हम अपने विचारों, अनुमानों, धारणाओं आदि के वास्तविक अथवा गलत होने की जाँच कर सकते हैं।

उल्लेखनीय है कि प्रदत्त कोई स्वतंत्र सत्व नहीं होते बल्कि वे एक संदर्भ में प्राप्त होते हैं तथा उस सिद्धान्त एवं विधि से जुड़े होते हैं जिनसे इनके संग्रह की प्रक्रिया संचालित होती है। दूसरे शब्दों में, प्रदत्त भौतिक अथवा सामाजिक संदर्भो, संबंधित व्यक्तियों तथा व्यवहार के घटित होने के समय आदि से स्वतंत्र नहीं होते हैं। 

उदाहरण के लिए, हम अकेले में जैसा व्यवहार करते हैं समूह में या घर और कार्यालय में उससे कहीं भिन्न व्यवहार करते हैं। आप अपने अध्यापक अथवा माता-पिता से बातचीत करने में संकोच करते हैं, परंतु अपने मित्रों के साथ संकोच नहीं करते हैं। आपने ध्यान दिया होगा कि सभी लोग समान परिस्थितियों में समान व्यवहार नहीं करते हैं। आप भी हर जगह एक ही तरह का व्यवहार नहीं करते। प्रदत्त संग्रह की प्रयुक्त विधियाँ (सर्वेक्षण, साक्षात्कार, प्रयोग आदि) तथा सूचना के स्रोत (उदाहरण के लिए, व्यक्ति अथवा समूह, युवा अथवा वृद्ध, पुरुष अथवा महिला, शहरी अथवा ग्रामीण) प्रदत्त के स्वरूप तथा गुणवत्ता का निर्धारण करते हैं। 

यह संभव है कि जब आप अपने किसी सहपाठी का साक्षात्कार करें तो वह उस परिस्थिति में एक अलग प्रकार का व्यवहार करे परंतु जब आप वास्तविक स्थिति में उसका प्रेक्षण करें तो सब कुछ विपरीत पाएँ। प्रदत्त की अन्य विशेषता है कि वह स्वयं सत्यता के विषय में कुछ नहीं कहता बल्कि उससे अनुमान लगाया जाता है। दूसरे शब्दों में, शोधकर्ता प्रदत्त को एक संदर्भ विशेष में रखकर अर्थवान बनाता है।

मनोविज्ञान में हम विभिन्न प्रकार के प्रदत्त अथवा सूचनाएँ संगृहीत करते हैं। उदाहरण :
(i) जनांकिकीय सूचनाएँ : इन सूचनाओं के अन्तर्गत व्यक्तिगत सूचनाएँ आती हैं; जैसे- नाम, आयु, लिंग, जन्मक्रम, सहोदरों की संख्या, शिक्षा, व्यवसाय, वैवाहिक स्थिति, बच्चों की संख्या, आवास की भौगोलिक स्थिति, जाति, धर्म, माता-पिता की शिक्षा, उनका व्यवसाय तथा परिवार की आय आदि।

(ii) भौतिक सूचनाएँ : इसके अंतर्गत पारिस्थितिक संबंधी सूचनाएँ (पहाड़ी । रेगिस्तानी / वन) आर्थिक दशा, आवास की दशा, कमरों का आकार, घर में, पड़ोस में एवं विद्यालय में उपलब्ध सुविधाएँ, यातायात के साधन आदि सम्मिलित होती हैं।

(iii) दैहिक प्रदत्त : कुछ अध्ययनों में लंबाई, वजन, हृदय गति, थकान का स्तर, गैल्वैनी त्वचा प्रतिरोध, इलैक्ट्रो एनसैफैलोग्राफ द्वारा मापी जाने वाली मस्तिष्क की धारागत क्रियाएँ, रुधिर ऑक्सीजन का स्तर, प्रतिक्रिया काल, निद्रा की अवधि, रक्तचाप, स्वप्न का स्वरूप, लार की मात्रा तथा पशुओं के संदर्भ में दौड़ना एवं कूदना जैसी दैहिक एवं मनोवैज्ञानिक सूचनाओं को संगृहीत किया जाता है।

(iv) मनोवैज्ञानिक सूचना : कुछ अध्ययनों में बुद्धि, व्यक्तित्व, रुचि, मूल्य, सर्जनशीलता, संवेग, अभिप्रेरणा, मनोवैज्ञानिक विकार, भ्रमासक्ति, विभ्रांति, भ्रम, अवसादबोधन, प्रात्यक्षिक निर्णय, चिंतन प्रक्रियाएँ, चेतना, व्यक्तिपरक अनुभव आदि अनेक मनोवैज्ञानिक सूचनाएँ संगृहीत की जाती हैं। मापन की दृष्टि से उपर्युक्त सूचनाएँ अनगढ़ हो सकती हैं। ये श्रेणियों के रूप में (जैसे उच्च/ निम्न, हाँ/ नहीं), कोटियों (जैसे- प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ आदि) अथवा लब्धांकों (10, 12, 15, 18, 20 आदि) के रूप में होती हैं। हमें वाचिक आख्याएँ, प्रेक्षण अभिलेख, व्यक्तिगत दैनिकी, क्षेत्र टिप्पणियाँ, पुरालेखीय प्रदत्त आदि भी प्राप्त होते हैं। इस तरह की सूचनाओं का गुणात्मक विधि का उपयोग करते हुए पृथक् रूप में विश्लेषण किया जा सकता है।

प्रश्न 4. 
प्रायोगिक तथा नियन्त्रित समूह एक-दूसरे से कैसे भिन्न होते हैं ? एक उदाहरण की सहायता से व्याख्या कीजिए। .
उत्तर : 
प्रायोगिक एवं नियंत्रित समूह : प्रयोगों में प्रायः एक या अधिक प्रायोगिक समूह और एक या अधिक नियंत्रित समूह होते हैं। प्रायोगिक समूह वह समूह होता है जिसमें समूह सदस्यों को अनाश्रित परिवर्त्य प्रहस्तन के लिए प्रस्तुत किया जाता है। नियंत्रित समूह एक तुलना समूह होता है जो प्रहस्तित परिवर्त्य को छोड़कर शेष अन्य दृष्टियों से प्रायोगिक समूह के समान ही होता है। उदाहरण के लिए, लताने और डार्ली के अध्ययन में, दो प्रायोगिक समूह और एक नियंत्रित समूह थे। जैसे आपको ज्ञात है, अध्ययन में प्रतिभागी तीन कक्षों में भेजे गए थे। एक कक्ष में कोई भी उपस्थित नहीं था। 

(नियंत्रित समूह) अन्य दो कक्षों में  दो व्यक्ति बैठाए गए थे (प्रायोगिक समूह)। दो प्रायोगिक समूहों में से एक समूह को यह निर्देशित किया गया था कि कमरे से धुआँ भरने पर कुछ भी नहीं करना था। दूसरे समूह को कोई भी निर्देश नहीं दिया गया था। नियंत्रित समूह के निष्पादन की तुलना प्रायोगिक समूह से की गई थी। जैसा कि अध्ययन में पाया गया, नियंत्रित समूह के प्रतिभागियों ने आपातकाल के विषय में सबसे अधिक सूचना दी, प्रथम प्रायोगिक समूह जिसमें प्रतिभागियों को कोई निर्देश नहीं दिया गया था तथा द्वितीय प्रायोगिक समूह (अभिषंगी वाला समूह) ने आपातकाल की बहुत कम सूचना दी।

उल्लेखनीय है कि किसी प्रयोग में प्रायोगिक प्रहस्तन के अतिरिक्त प्रायोगिक एवं नियंत्रित समूहों के लिए अन्य दशाएँ स्थिर रखी जाती हैं। उन सभी संबद्ध परिवयों को नियंत्रित करने का प्रयास किया जाता है जो आश्रित परिवर्त्य को प्रभावित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए. जिस गति से कक्ष में धुआँ आना शुरू हुआ, कक्ष में धुएँ की समग्र मात्रा, कक्ष में भौतिक एवं अन्य प्रकार की सुविधाएँ तीनों समूह के लिए एकसमान थीं। प्रायोगिक एवं नियंत्रित समूहों में प्रतिभागियों का वितरण यादृच्छिक (Random) रूप में किया जाता है। यह वह विधि होती है जिसमें यह निर्धारित किया जाता है कि हर व्यक्ति के किसी भी समूह में चयनित होने की संभावना एक समान रहे। यह संभव है कि प्रयोगकर्ता एक समूह में सिर्फ पुरुषों को और दूसरे समूह में सिर्फ

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महिलाओं को रखे। जो परिणाम उसको अध्ययन में मिलेगा वह प्रायोगिक प्रहस्तन का न होकर लिंग भिन्नता के कारण होगा। प्रायोगिक अध्ययनों में सभी संबद्ध सार्थक परिवर्त्य जो अध्ययन के परिणाम को प्रभावित कर सकते हैं उनका नियंत्रण करने की आवश्यकता होती है। ये तीन प्रकार के होते हैं- जैविक परिवर्त्य (जैसे दुश्चिता, बुद्धि, व्यक्तित्व आदि), परिस्थितिजन्य अथवा पर्यावरणीय परिवर्त्य जो प्रयोग करते समय क्रियाशील होते हैं (जैसे-शोर, तापमान, आर्द्रता) तथा अनुक्रमिक परिवर्त्य।

जब प्रयोग के प्रतिभागियों का परीक्षण विभिन्न दशाओं में किया जाता है तो अनुक्रमिक परिवर्त्य अधिक सक्रिय हो जाते हैं। विभिन्न दशाओं के प्रति संवेदनशीलता के परिणामस्वरूप थकान अथवा अभ्यास प्रभाव उत्पन्न हो सकते हैं जो अध्ययन के परिणामों को प्रभावित कर सकते हैं तथा निष्कर्षों की व्याख्या को जटिल बना सकते हैं।

प्रश्न 5. 
एक अनुसंधानकर्ता साइकिल चलाने की गति एवं लोगों की उपस्थिति के मध्य का अध्ययन कर रहा है। एक उपयुक्त परिकल्पना का निर्माण कीजिए तथा अनाश्रित एवं आश्रित परिवयों की पहचान कीजिए ?
उत्तर : 
नोट : परिकल्पना का निर्माण अपने अध्यापक की सहायता से कीजिए।

(i) अनाश्रित परिवर्त्य : अनाश्रित परिवर्त्य वह परिवर्त्य होता है। जिसका वहस्तन किया जाता है अथवा जिसे प्रयोग में अनुसंधानकर्ता द्वारा परिवर्तित किया जाता है।
(ii) आश्रित परिवर्त्य : जिस व्यवहार पर अनाश्रित परिवर्त्य के प्रभाव का प्रक्षेण किया जाता है उसे आश्रित परिवर्त्य कहते

प्रश्न 6. 
जाँच की विधि के रूप में प्रायोगिक विधि के गुणों एवं अवगुणों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर : 
प्रायोगिक विधि के गुण : 
(i) इस विधि में आँकड़ों का मापन संभव है। 
(ii) सूचनाएँ विश्वसनीय होती है।
(iii) प्रयोग का लक्ष्य बाह्य परिवयों को कम करना होता है। 
(iv) इस विधि में असंतुलनकारी तकनीक अपनाई जाती है।

प्रायोगिक विधि के अवगुण : 
(i) प्रायोगिक दशा में ही परिवों का निस्सरण करना पड़ता है। 
(ii) निरसन सर्वदा संभव नहीं होता। 
(iii) कई बार प्रयोगशाला में अध्ययन कर पाना संभव नहीं होता है। 
(iv) घटनाओं की मात्रा एवं गुणवत्ता में परिवर्तन आता रहता है।

प्रश्न 7. 
डॉ. कृष्णन व्यवहार को बिना प्रभावित अथवा नियंत्रित किए एक नर्सरी विद्यालय में बच्चों के खेलकूद | वाले व्यवहार का प्रेक्षण करने एवं अभिलेख तैयार करने जा | रहे हैं। इसमें अनुसंधान की कौन-सी विधि प्रयुक्त हुई है? इसकी प्रक्रिया की व्याख्या कीजिए तथा इसके गुणों एवं अवगुणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर : 
डॉ. कृष्णन व्यवहार को प्रभावित या नियंत्रित करने का प्रयास किए बिना बच्चों के व्यवहार को देखने और रिकॉर्ड करने के लिए गैर-प्रतिभागी अवलोकन की विधि का उपयोग करेंगे। वह एक कोने में बैठते थे और बच्चों के व्यवहार का निरीक्षण करते थे, उनके बारे में पता किए बिना। वह खेलते समय बच्चों के व्यवहार पर ध्यान देता है, कैसे वे एक-दूसरे के साथ बातचीत करते हैं और जीतने या हारने के प्रति उनकी प्रतिक्रिया। वह एक फाइल में सभी डेटा एकत्र करेगा और फिर परिकल्पना के साथ निष्कर्ष का मिलान करेगा।

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गैर-प्रतिभागी अवलोकन के गुण :
(i) शोधकर्ता लोगों और प्राकृतिक व्यवहार में उनके व्यवहार का अवलोकन करता है।
(ii) पर्यवेक्षक विषय के बारे में पहले हाथ की जानकारी प्राप्त कर सकता है।

गैर-प्रतिभागी अवलोकन के अवगुण :
(i) यह विधि समय लेने वाली, श्रम गहन और व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों के अधीन है।
(ii) शोधकर्ता व्यक्तिगत मूल्यों के आधार पर व्यवहार की व्याख्या कर सकता है।

प्रश्न 8. 
उन दो स्थितियों का उदाहरण दीजिए जहाँ सर्वेक्षण विधि का उपयोग किया जा सकता है। इस विधि की सीमाएँ क्या हैं ?
उत्तर : 
जहाँ सर्वेक्षण विधि का उपयोग किया जा सकता है वे दो स्थितियाँ इस प्रकार हैं :
(i) प्रश्नावली सर्वेक्षण, तथा 
(ii) दूरभाष सर्वेक्षण।

(i) प्रश्नावली सर्वेक्षण : प्रश्नावली सूचना प्राप्त करने की सबसे प्रचलित, साधारण, बहुमुखी तथा अल्प लागत वाली आत्म-संवाद विधि है। इसमें एक पूर्वनिर्धारित प्रश्नों का समुच्चय होता है। प्रतिक्रियादाता को प्रश्न करना पड़ता है और कागज पर उत्तर लिखना पड़ता है न कि साक्षात्कारकर्ता को मौखिक उत्तर देना होता है। यह लगभग अति संरचित साक्षात्कार के समान होता है। प्रश्नावली को व्यक्तियों के एक समूह में वितरित किया जा सकता है जो प्रश्नों के उत्तर देते हैं और अनुसंधानकर्ता को वापस कर देते हैं अथवा उत्तर डाक द्वारा भी भेजा जा सकता है। प्रायः प्रश्नावली में दो प्रकार के प्रश्न होते हैं- मुक्त एवं अमुक्त। मुक्त प्रश्नों में प्रतिक्रियावाता कुछ भी उत्तर दे सकता है जो वह उचित समझता है। अमुक्त प्रश्नों में प्रश्न तथा उनके संभावित उत्तर दिए गए होते हैं तथा प्रतिक्रियादाता को सही उत्तर का चुनाव करना

होता है। अमुक्त प्रश्नों की प्रतिक्रियाओं के उदाहरण इस प्रकार हो सकते हैं - जैसे हाँ / नहीं, सही / गलत, बहुविकल्प अथवा मापनियों का उपयोग आदि। मापनियों के विषय में एक कथन दिया रहता है और प्रतिक्रियादाता अपना मत त्रि-अंक (सहमत, अनिर्णय, असहमत) अथवा पंच-अंक (अत्यधिक सहमत, सहमत, अनिर्णय, असहमत, अत्यधिक असहमत) अथवा सप्त-अंक, नौ अंक, ग्यारह अंक अथवा तेरह अंक मापनियों पर देता है। कुछ स्थितियों में प्रतिक्रियादाता अपनी पसंद के क्रम में बहुत-सी चीजों को श्रेणियों में प्रस्तुत करता है। प्रश्नावली का उपयोग पृष्ठभूमि संबंधी एवं जनांकिकीय सूचनाओं, भूतकाल के व्यवहारों, अभिवृत्तियों एवं अभिमतों, किसी विषय विशेष के ज्ञान तथा व्यक्तियों की प्रत्याशाओं एवं आकांक्षाओं की जानकारी के लिए किया जाता है। कभी-कभी सर्वेक्षण डाक द्वारा प्रश्नावली भेजकर भी किया जाता है। डाक द्वारा भेजी गई प्रश्नावली की समस्या यह होती है कि लोगों से प्रतिक्रियाएँ कम मिल पाती हैं।

(i) दूरभाष सर्वेक्षण : सर्वेक्षण दूरभाष (Telephone) द्वारा भी किए जाते हैं और वर्तमान में मोबाइल फोन पर एस. एम. एस. (संक्षिप्त संदेश सेवा) द्वारा विचारों को जानने के कार्यक्रम आपने देखे होंगे। दूरभाष सर्वेक्षण में समय कम लगता है। चूंकि प्रतिक्रियादाता साक्षात्कारकर्ता को नहीं जानता है इसलिए प्रतिक्रियादाताओं में असहयोग, अनिच्छा तथा सतही उत्तर देने की प्रवृत्ति अधिक देखी जाती है। एक संभावना और है कि प्रतिक्रियादाता प्रतिक्रिया न देने वालों से आयु, लिंग, आय-स्तर, शैक्षिक स्तर आदि में भिन्न हो सकते हैं। इससे अभिनत परिणाम मिलने की संभावना बनी रहती है।

सर्वेक्षण करने हेतु प्रेक्षण विधि का भी उपयोग किया जाता है। प्रत्येक विधि के अपने लाभ एवं सीमाएँ हैं। शोधकर्ता को किसी विधि विशेष का चयन करते समय सावधानी बरतनी चाहिए। सर्वेक्षण विधि के अनेक लाभ हैं। प्रथम, हजारों व्यक्तियों से शीघ्रतापूर्वक एवं दक्षतापूर्वक सूचनाएँ संगृहीत की जा सकती हैं। द्वितीय, चूँकि सर्वेक्षण शीघ्रता से किए जा सकते हैं इसलिए नए मुद्दों के उत्पन्न होने के साथ ही उन पर जनमत प्राप्त किया जा सकता है। सर्वेक्षण की कुछ सीमाएँ भी हैं। प्रथम, लोग गलत सूचनाएँ दे सकते हैं। वे ऐसा स्मृति की गड़बड़ी से कर सकते हैं अथवा वे शोधकर्ता को यह नहीं बताना चाहते हैं कि किसी मुद्दे पर उनके वास्तविक विचार क्या हैं - वे कैसा विश्वास करते हैं। द्वितीय, लोग कभी-कभी वैसी प्रतिक्रियाएँ देते हैं जैसा शोधकर्ता जानना चाहता है।

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प्रश्न 9. 
साक्षात्कार एवं प्रश्नावली में अन्तर स्पष्ट कीजिए। 
उत्तर : 
साक्षात्कार एवं प्रश्नावली में अन्तर : 

साक्षात्कार 

प्रश्नावली 

1. साक्षात्कार करना एक कौशल है जिसके लिए उपयुक्त प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। 
2. साक्षात्कार में प्रश्नकर्ता और उत्तरदाता एक-दूसरे के समक्ष होते हैं। 
3. साक्षात्कार सूचनाओं को गहराई से प्राप्त करने में सहायता करता है।
4. साक्षात्कार में तथ्य सत्यपरक होते हैं।

1. प्रश्नावली अल्प लागत वाली आत्म-संवाद विधि है।
2 इसमें ऐसा नहीं होता।
3. प्रश्नावली में प्रश्नों को लिखित रूप में प्रश्नकर्ता को भेजा जाता है जिसमें वह उत्तर अपनी इच्छानुसार तथ्यों को बढ़ा-चढ़ाकर या छिपाकर प्रस्तुत करता है। 
4. प्रश्नावली में तथ्य भ्रामक होते हैं।


प्रश्न 10. 
एक मानकीकृत परीक्षण की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर : 
मुख्य रूप से साक्षात्कार दो प्रकार के होते हैं : 
(i) मानकीकृत, तथा 
(ii) अमानकीकृत

मानकीकृत साक्षात्कार के अन्तर्गत हमें साक्षात्कार के समय प्रश्न पूछने होते हैं।

तकनीकी रूप से मनोवैज्ञानिक परीक्षण मानकीकृत (Standardised) एवं वस्तुनिष्ठ (Objective) उपकरण होते हैं जिसका उपयोग मानसिक अथवा व्यवहारपरक विशेषताओं के सम्बन्ध में किसी व्यक्ति की स्थिति के मूल्यांकन में करते हैं। इस परिभाषा में दो बातें उल्लेखनीय हैं - वस्तुनिष्ठता एवं प्रमाणीकरण। वस्तुनिष्ठता (Objectivity) का संबंध इस बात से होता है कि यदि दो या दो से अधिक अनुसंधानकर्ता एक मनोवैज्ञानिक परीक्षण को एक ही समूह के सदस्यों को दें तो दोनों ही समूह के प्रत्येक सदस्य के लिए लगभग एक ही प्रकार के मूल्य दिखाई देने चाहिए। 

किसी भी परीक्षण के एकांशों की शब्दावली ऐसी होनी चाहिए कि वह विभिन्न पाठकों को समान अर्थ का ज्ञान कराए। साथ ही परीक्षण का उत्तर देने वाले व्यक्ति के लिए एकांशों का उत्तर देने संबंधी निर्देश का पूर्व में उल्लेख करना चाहिए। परीक्षण को देने की प्रक्रिया जैसे पर्यावरणीय दशाएँ, समय सीमा, देने की रीति (वैयक्तिक अथवा सामूहिक) का भी उल्लेख होना चाहिए तथा प्रतिक्रियादाताओं की प्रतिक्रियाओं की गणना की विधि का भी उल्लेख किया जाना आवश्यक होता है। अंतिम रूप से, कोई परीक्षण प्रामाणिक परीक्षण तब होता है जब परीक्षण के लिए मानक विकसित कर लिए जाते हैं। जैसा कि पूर्व में वर्णित है कि मानक समूह का सामान्य अथवा औसत निष्पादन होता है। परीक्षण विद्यार्थियों के एक बड़े समूह को दिया

जाता है। उनकी आयु, लिंग, आवास स्थान आदि के आधार पर औसत निष्पादन मानक सुनिश्चित कर लिए जाते है। इससे एक विद्यार्थी के निष्पादन की समूह के अन्य विद्यार्थियों के साथ तुलना करने में सहायता मिलती है। इससे किसी परीक्षण पर व्यक्तियों के प्राप्त लब्धांक की व्याख्या करने में भी सहायता मिलती है।

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प्रश्न 11. 
मनोवैज्ञानिक जाँच की सीमाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर : 
मनोवैज्ञानिक जाँच की सीमाएँ : मनोवैज्ञानिक जाँच की सीमाएँ निम्नलिखित हैं जिन्हें हम तीन भागों में बाँट सकते है
(i) वास्तविक शून्य बिंदु का अभाव। 
(ii) मनोवैज्ञानिक उपकरणों का सापेक्षिक स्वरूप। 
(ii) गुणात्मक प्रदत्तों की आत्मपरक व्याख्या।

(i) वास्तविक शून्य बिंदु का अभाव : भौतिक विज्ञानों में मापन शून्य से प्रारंभ होते हैं। उदाहरण के लिए, यदि आप मेज की लंबाई का मापन करना चाहते हैं तो आप उसका मापन शून्य से शुरू कर कह सकते हैं कि यह 3 फीट लंबी है। मनोवैज्ञानिक मापन में हमें शून्य बिंदु नहीं मिलते हैं। जैसे इस दुनिया में किसी भी व्यक्ति की बुद्धि शून्य नहीं होती। हम सभी लोगों के पास बुद्धि की कुछ मात्रा अवश्य होती है। मनोवैज्ञानिक मनचाहे ढंग से किसी बिंदु को शून्य बिंदु निर्धारित कर लेते हैं और आगे बढ़ते हैं। 

परिणामस्वरूप हम मनोवैज्ञानिक अध्ययन में जो कुछ लब्धांक प्राप्त करते हैं वे अपने आप में निरपेक्ष नहीं होते बल्कि उनका सापेक्षिक मूल्य होता है। कुछ अध्ययनों में कोटियों को लब्धांक के रूप में उपयोग में लाया जाता है। उदाहरण के लिए, किसी परीक्षण में प्राप्त किए गए लब्धांक के आधार पर शिक्षक विद्यार्थियों को एक क्रम में व्यवस्थित करता है - 1,2,3,4 और उसी प्रकार आगे भी करता है। ऐसे मूल्यांकन की समस्या यह होती है कि प्रथम एवं द्वितीय कोटि प्राप्त विद्यार्थियों के मध्य का अंतर द्वितीय एवं तृतीय कोटि प्राप्त विद्यार्थियों के मध्य के अंतर के समान नहीं होता। 50 अंक में से प्रथम कोटि वाला विद्यार्थी 48 अंक प्राप्त कर सकता है. द्वितीय 47 अंक तथा तृतीय 40 अंक प्राप्त कर सकता है। इस उदाहरण से स्पष्ट होता है कि प्रथम एवं द्वितीय कोटि प्राप्त विद्यार्थियों का अंतर द्वितीय एवं तृतीय कोटि प्राप्त विद्यार्थियों के समाप्न नहीं है। इससे मनोवैज्ञानिक मापन के सापेक्षिक स्वरूप भी स्पष्ट होते हैं।

(ii) मनोवैज्ञानिक उपकरणों का सापेक्षिक स्वरूप : मनोवैज्ञानिक परीक्षणों का निर्माण किसी संदर्भ विशेष के प्रमुख पक्षों को दृष्टिगत रखकर किया जाता है। उदाहरण के लिए, शहरी क्षेत्र के छात्रों के लिए विकसित परीक्षण में शहरी क्षेत्र के उद्दीपकों से संबंधित एकांश से परिचय आवश्यक है - बहुमंजिली इमारतें, हवाई जहाज, मेट्रो रेल आदि। ऐसा परीक्षण जनजातीय क्षेत्रों के बच्चों के लिए उपयुक्त नहीं होगा। वे अधिक सहज उन एकांशों से होंगे जिनमें उनके परिवेश के पेड़-पौधे व जीव-जंतुओं के वर्णन मिलते हैं। इसी प्रकार पश्चिमी देशों में विकसित परीक्षण भारतीय संदर्भ में उपयुक्त नहीं हो सकते हैं। ऐसे परीक्षणों को ध्यानपूर्वक परिष्कृत करना चाहिए तथा उन्हें जिन संदर्भो में प्रयुक्त करना हो, उनकी विशेषताओं से उन्हें अनुकूलित होना चाहिए।

(iii) गुणात्मक प्रदत्तों की आत्मपरक व्याख्या : गुणात्मक अध्ययनों में प्रदत्त प्रायः आत्मपरक होते हैं क्योंकि इनकी व्याख्या अनुसंधानकर्ता एवं प्रदत्त प्रदान करने वाले करते हैं। एक व्यक्ति की व्याख्या दूसरे से अलग हो सकती है। इसलिए प्रायः यह सुझाव दिया जाता है कि गुणात्मक अध्ययनों के संदर्भ में क्षेत्र अध्ययन एक से अधिक शोधकर्ताओं द्वारा किया जाना चाहिए जो अध्ययन के अंत में बैठकर अपने प्रेक्षणों पर विमर्श करें तथा उसको अंतिम स्वरूप देने के पहले स्वयं एक सहमत बिंदु पर पहुंचे। वस्तुतः यदि ऐसे सार्थक विमर्श में प्रतिक्रियादाताओं को भी सम्मिलित किया जाए तो अधिक अच्छा होगा।

प्रश्न 12.
मनोवैज्ञानिक जाँच करते समय एक मनोवैज्ञानिक को किन नैतिक मार्गदर्शी सिद्धान्तों का पालन करना चाहिए?
उत्तर : 
मनोवैज्ञानिक जाँच करते समय एक मनोवैज्ञानिक को निम्नलिखित नैतिक मार्गदर्शी सिद्धान्तों का पालन करना चाहिए :
(i) स्वैच्छिक सहभागिता : जिन व्यक्तियों पर अनुसंधानकर्ता अध्ययन करने जा रहे हैं उन्हें यह निर्धारित करने का विकल्प होना चाहिए कि वे अध्ययन में भाग लेंगे अथवा नहीं। प्रतिभागियों को इस बात का विकल्प होना चाहिए कि वह बिना किसी प्रपीड़न अथवा प्रलोभन के अध्ययन में भाग लें और अनुसंधान के आरंभ होने के पश्चात् उससे अलग होने पर उन्हें किसी भी प्रकार से दंडित नहीं किया जाए।

(ii) सूचित सहमति : यह आवश्यक है कि प्रतिभागी को यह ज्ञात होना चाहिए कि अध्ययन की अवधि में उनके साथ क्या घटित होगा। सूचित सहमति के सिद्धान्त के अनुसार, संभाव्य प्रतिभागियों को यह सूचना उनसे प्रदत्त संग्रह से पहले होनी चाहिए जिससे वे अध्ययन में भाग लेने के लिए सूचित निर्णय ले सकें। कुछ मनोवैज्ञानिक प्रयोगों में, प्रतिभागियों को प्रयोग के समय विद्युताघात दिया जाता है। कुछ अन्य अध्ययनों में आपत्तिजनक (घातक अथवा अप्रिय) उद्दीपक प्रस्तुत किए जाते हैं। हो सकता है कि उनसे कुछ व्यक्तिगत सूचनाएँ भी माँगी जाएँ जो प्रायः दूसरों को नहीं बताई जाती हैं। कुछ अध्ययनों में छलछद्म की तकनीक का प्रयोग भी किया जाता है जिसमें प्रतिभागियों को इस बात का निर्देश दिया जाता है कि वे एक निश्चित तरीके से सोचे अथवा कल्पना करें तथा उनके निष्पादन के विषय में उनको झूठी सूचना अथवा प्रतिप्राप्ति दी जाती है (उदाहरण के लिए, आप बहुत बुद्धिमान हैं, आप अक्षम हैं)। इसलिए यह महत्त्वपूर्ण होता है कि प्रतिभागियों की वास्तविक रूप में अध्ययन प्रारंभ करने से पहले ही उसके स्वरूप के विषय में बता दिया जाना चाहिए।

RBSE Solutions for Class 11 Psychology Chapter 2 मनोविज्ञान में जाँच की विधियाँ

(iii) स्पष्टीकरण : अध्ययन समाप्त हो जाने के पश्चात् प्रतिभागियों को वे सभी आवश्यक सूचनाएँ देनी चाहिए जिनसे वे अनुसंधान को ठीक से समझ सकें। यह उस समय सबसे आवश्यक हो जाता है जब अध्ययन में छलछद्म का उपयोग किया गया हो। स्पष्टीकरण का उद्देश्य यह होता है कि प्रतिभागी जिस शारीरिक एवं मानसिक दशा में अध्ययन में सम्मिलित हुए थे, अध्ययन समाप्त होने पर उसी दशा में पुनः वापस आ जाएँ। यह प्रतिभागियों को एक प्रकार से भरोसा दिलाने जैसा ही है। अध्ययन के समय छलछद्म के कारण उत्पन्न किसी दुश्चिता अथवा दुष्प्रभाव जिसे प्रतिभागी ने अनुभव किया हो, को अनुसंधानकर्ता को दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए।

(iv) अध्ययन के परिणाम की भगीदारी : मनोवैज्ञानिक अनुसंधानों में प्रतिभागियों से सूचनाएँ संगृहीत करने के पश्चात् हम अपने कार्य-स्थान पर वापस आते हैं, प्रदत्तों का विश्लेषण करते हैं एवं निष्कर्ष निकालते हैं। अनुसंधानकर्ता के लिए यह आवश्यक है कि वह प्रतिभागियों के पास वापस जाकर अध्ययन के परिणाम को उनको बताए। जब आप प्रदत्त संग्रह के लिए जाते हैं तो प्रतिभागी आपसे कुछ आशा रखते हैं। एक आशा यह होती है कि आपने अपने अध्ययन में उनके व्यवहारों की जो अन्वेषणा की है उसके विषय में उन्हें बताएँगे। अनुसंधानकर्ता के रूप में यह हमारा नैतिक कर्त्तव्य होता है कि हम उनसे वापस मिलें। इस अभ्यास के दो लाभ हैं। प्रथम, आप प्रतिभागियों की प्रत्याशा पूरी करते हैं। द्वितीय, प्रतिभागी परिणाम के विषय में अपने विचार बताएँगे जो आपको नई अन्तर्दृष्टि विकसित करने में सहायता कर सकते हैं।

(v) प्रदत्त स्रोतों की गोपनीयता : अध्ययन में प्रतिभागियों को अपनी निजता का अधिकार होता है। अनुसंधानकर्ता को चाहिए कि वह उनकी निजता की रक्षा के लिए उनके द्वारा दी गई सूचनाओं को पूर्ण गोपनीय रखे। सूचना का उपयोग सिर्फ अनुसंधान के लिए किया जाना चाहिए और किसी भी दशा में यह किसी अन्य इच्छुक पक्ष के हाथ नहीं लगनी चाहिए। प्रतिभागियों की गोपनीयता की रक्षा का सबसे सशक्त तरीका यह है कि उनके पहचान का अभिलेख तैयार न किया जाए। कुछ प्रकार के अनुसंधानों में यह संभव नहीं होता है। ऐसी दशा में संकेत संख्या प्रदत्त पत्र पर अंकित कर दी जाती है तथा नामों को संकेतों से अलग रखा जाता है। पहचान सूची अनुसंधान कार्य समाप्त होने के उपरांत नष्ट कर दी जानी चाहिए।

Bhagya
Last Updated on Sept. 23, 2022, 11:40 a.m.
Published Sept. 23, 2022