RBSE Solutions for Class 11 Geography Chapter 7 भू-आकृतियाँ तथा उनका विकास

Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Geography Chapter 7 भू-आकृतियाँ तथा उनका विकास Textbook Exercise Questions and Answers.

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RBSE Class 11 Geography Solutions Chapter 7 भू-आकृतियाँ तथा उनका विकास

RBSE Class 11 Geography भू-आकृतियाँ तथा उनका विकास Intext Questions and Answers 

प्रश्न 1. 
अगर पृथ्वी के छोटे से मध्यम आकार के स्थलखण्ड को भू-आकृति कहते हैं तो भू-दृश्य क्या है ?
उत्तर:
धरातल पर विस्तृत अनेक सम्बन्धित भू-आकृतियाँ आपस में मिलकर भू-दृश्य का निर्माण करती हैं। प्रत्येक भू-आकृति की अपनी भौतिक आकृति, आकार व पदार्थ होते हैं जो कि कुछ भू-प्रक्रियाओं एवं उनके कारकों के द्वारा निर्मित हैं जबकि भू-दृश्य इनका योग होता है। 

RBSE Solutions for Class 11 Geography Chapter 7 भू-आकृतियाँ तथा उनका विकास  

प्रश्न 2. 
भू-आकृतियों के विकास के दो महत्वपूर्ण पहलू क्या हैं ? .
उत्तर:
वायु राशियों का लम्बवत् अथवा क्षैतिज संचलन तथा जलवायु सम्बन्धित कारक भू-आकृतियों के विकास के दो महत्वपूर्ण पहलू हैं।

प्रश्न 3. 
क्या ऊँचे स्थलरूपों के उच्चावच का सम्पूर्ण निम्नीकरण सम्भव है ? 
उत्तर:
ऊँचे स्थलरूपों के उच्चावच का सम्पूर्ण निम्नीकरण प्रवाहित जल के द्वारा सम्भव नहीं है क्योंकि अपरदन की अन्तिम अवस्था में यहाँ यत्र-तत्र अवरोधी चट्टानों के अवशेष दिखाई देते हैं। 

प्रश्न 4. 
प्राकृतिक तटबन्ध विसर्प अवरोधिकाओं से कैसे भिन्न हैं ?
उत्तर:
प्राकृतिक तटबन्ध बड़ी नदियों के किनारों पर पाए जाते हैं। ये नदियों के पार्यों में स्थूल पदार्थों के रैखिक, निम्न व समानान्तर कटक के रूप में पाये जाते हैं जो कि अनेक स्थानों पर कटे हुए होते हैं। विसर्प रोधिकाएँ बड़ी नदी विसरों के उत्तल ढालों पर पाई जाती हैं जो कि प्रवाहित नदियों के जल के द्वारा लाये गये तलछटों को नदी के किनारों पर निक्षेपण के कारण बनती हैं। इनकी चौड़ाई व परिच्छेदिका लगभग एक समान होती है और इनके अवसाद मिश्रित आकार के होते हैं।

प्रश्न 5. 
कार्ट प्रदेशों में कुछ अन्य अपेक्षाकृत छोटे स्थल रूप व आकृतियाँ भी पाई जाती हैं, जिन्हें स्थानीय नामों से पुकारा जाता है।
उत्तर:
कार्ट प्रदेशों में वर्षा-जल शैल सन्धियों एवं दरारों द्वारा भूमि में प्रवेश कर जाता है। चट्टानों में जल प्रवेश से उनकी सन्धियाँ चौड़ी होती जाती हैं और घुलन-क्रिया से धरातल पर क्रमशः घोल रन्ध्र, विलय रन्ध्र, लैपीज, पोनोर, डोलाइन, युवाला, पोल्जे, प्राकृतिक पुल आदि की रचना होती है। लेपीज को जर्मन भाषा में कारेन (Karren), अंग्रेजी में क्लीण्ट (Client) एवं ग्राहक (Gryke), सर्बिया में बोगाज (Bogaz) कहते हैं। पोनोर (Ponor) को फ्रांस में अवेन्स (Avens) कहते हैं।

प्रश्न 6. 
नदी घाटियों तथा हिमनद घाटियों में आधारभूत अन्तर क्या है ? (पा. पु. पृष्ठ संख्या-68)
उत्तर:
नदी घाटियों का प्रारम्भ तंग व छोटी-छोटी क्षुद्र सरिताओं से होता है जो कि 'वी' (V) आकार की होती हैं जबकि हिमनद घाटियाँ गर्त के समान होती हैं जिनके तल चौड़े व किनारे चिकने तथा तीव्र ढाल वाले होते हैं। ये 'यू' (U) आकार के होते हैं।

प्रश्न 7. 
नदी के जलोढ़ मैदान व हिमानी धौत मैदानों में अन्तर स्पष्ट करें। (पा. पु. पृष्ठ संख्या -69)
उत्तर:
नदियाँ जब उच्च स्थलों से प्रवाहित होती हुई गिरिपाद व मन्द ढाल के मैदानों में प्रवेश करती हैं तो जलोढ़ मैदानों का निर्माण करती हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में बहने वाली नदियाँ भारी व स्थूल आकार के नदी भार को वहन करती हैं। मन्द ढालों पर नदियाँ यह भार ढोने में असमर्थ रहती हैं तो शंकु के आकार में निक्षेपित हो जाती हैं जिसे जलोढ़ पंख कहते हैं। हिमानी गिरिपाद के मैदानों अथवा महाद्वीपीय हिमनदों से दूर हिमानी-जलोढ़ निक्षेपों से हिमानी धौत मैदानों का निर्माण होता है। 

प्रश्न 8.
गोलाश्मी मृत्तिका व जलोढ़ में क्या अन्तर है ?
उत्तर:
नदी जल में बहने वाले पदार्थ को जलोढ़ कहते हैं जबकि गोलाश्मी मृत्तिका हिमानी द्वारा ढोये जाने वाले पदार्थ हैं। ये पदार्थ बर्फ पिघलने के बाद एक वक्राकार घटक के रूप में मिलते हैं।

प्रश्न 9. 
क्या आप तरंग व धाराओं को उत्पन्न करने वाले बलों के विषय में जानते हैं ? (पा. पु. पृष्ठ संख्या-70)
उत्तर:
धाराओं को उत्पन्न करने के लिए निम्नलिखित भौगोलिक कारकों को उत्तरदायी माना गया है-

  1. पृथ्वी का परिभ्रमण एवं गुरुत्वाकर्षण, 
  2. वायुदाब और पवनें, 
  3. वाष्पीकरण और वर्षा, 
  4. तापमान की भिन्नता, 
  5. घनत्व में अन्तर,
  6. महाद्वीपों का आकार । 

प्रश्न 10. 
उच्च चट्टानी व निम्न अवसादी तटों की प्रक्रियाओं व स्थलाकृतियों के सन्दर्भ में विभिन्न अन्तर क्या है?
उत्तर:
उच्च चट्टानी तटों के सहारे तरंगें अवनमित होकर धरातल पर अत्यधिक बल के साथ प्रहार करती हैं, जिससे पहाड़ी पार्श्व भृगु का आकार ले लेते हैं। तरंग घर्षित चबूतरे, पुलिन, रोधिका, लैगून इससे सम्बन्धित स्थलाकृतियाँ हैं। निम्न अवसादी तटों के सहारे नदियाँ तटीय मैदान एवं डेल्टा बनाकर अपनी लम्बाई बढ़ा लेती हैं। जब मन्द ढाल वाले अवसादी तटों पर तरंगें अवनमित होती हैं तो तल के अवसाद भी दोलित होते हैं और इनके परिवहन से अवरोधिकाएँ, लैगून, स्पिट व तटीय मैदान आदि का निर्माण होता है। 

प्रश्न 11. 
बाढ़ चादर व पवन के द्वारा बनाए गए अपरदनात्मक स्थलरूपों को वर्णित करें।
उत्तर:
नदी अपरदन से जिस प्रकार घाटियाँ निर्मित होती हैं उसी प्रकार निक्षेपण की प्रक्रिया से बाढ़ के मैदान या बाढ़ चादर विकसित होते हैं। बाढ़ के मैदान नदी निक्षेपण के मुख्य स्थलरूप हैं। बाढ़ के मैदानों के ऐसे क्षेत्र जो कि नदियों के कटे हए भाग होते हैं उनमें स्थल पदार्थों के जमाव पाये जाते हैं। ऐसे बाढ़ के मैदान डेल्टाओं का निर्माण करते हैं। पवन द्वारा बनाये गये अपरदनात्मक स्थल रूपों में

  1. वातगर्त
  2. इन्सेलबर्ग
  3. छत्रक शिला 
  4. ज्यूगेन
  5. यारडांग
  6. पेडीमेंट
  7. पदस्थली
  8. प्लाया
  9. गुहा
  10. ड्राईकान्टर इत्यादि।

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1. बहुविकल्पीय प्रश्न 

(i) स्थलरूप विकास की किस अवस्था में अधोमुख कटाव प्रमुख होता है ?
(क) तरुणावस्था 
(ख) प्रथम प्रौढ़ावस्था 
(ग) अन्तिम प्रौढ़ावस्था 
(घ) वृद्धावस्था। 
उत्तर:
(क) तरुणावस्था 

(ii) एक गहरी घाटी जिसकी विशेषता सीढ़ीनुमा खड़े ढाल होते हैं; किस नाम से जानी जाती है ? 
(क) U आकार की घाटी 
(ख) अंधी घाटी 
(ग) गार्ज
(घ) कैनियन। 
उत्तर:
(ग) गार्ज

(iii) निम्न में से किन प्रदेशों में रासायनिक अपक्षय प्रक्रिया यान्त्रिक अपक्षय प्रक्रिया की अपेक्षा अधिक
शक्तिशाली होती है ?
(क) आर्द्र प्रदेश 
(ख) शुष्क प्रदेश 
(ग) चूना पत्थर प्रदेश 
(घ) हिमनद प्रदेश। 
उत्तर:
(क) आर्द्र प्रदेश 

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(iv) निम्न में से कौन-सा वक्तव्य ‘लेपीज' शब्द को परिभाषित करता है ?
(क) छोटे से मध्यम आकार के उथले गर्त 
(ख) ऐसे स्थल रूप जिनके ऊपरी मुख वृत्ताकार तथा नीचे से कीप के आकार के होते हैं
(ग) ऐसे स्थल रूप जो धरातल से जल के टपकने से बनते हैं
(घ) अनियमित धरातल जिनके तीखे कटक या खाँच हों। 
उत्तर:
(घ) अनियमित धरातल जिनके तीखे कटक या खाँच हों। 

(v) गहरे, लम्बे व विस्तृत गर्त या बेसिन जिनके शीर्ष दीवार खड़े ढाल वाले तथा किनारे खड़े व अवतल होते हैं, उन्हें क्या कहते हैं ? 
(क) सर्क
(ख) पाश्विक हिमोढ़
(ग) घाटी हिमनद 
(घ) एस्कर। 
उत्तर:
(क) सर्क

2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए

प्रश्न (i) 
चट्टानों में अधःकर्तित विसर्प और मैदानी भागों में जलोढ़ के सामान्य विसर्प क्या बताते हैं ?
उत्तर:
मैदानी भागों में नदियाँ मन्द ढाल होने के कारण टेढ़े-मेढ़े मार्गों से होकर बहती हैं, इसलिए इनके द्वारा पार्श्व अपरदन अधिक होता है और सामान्य विसर्प का निर्माण होता है, जिनकी चौड़ाई अधिक होती है। तीव्र ढाल वाले चट्टानी भागों में नदियाँ पार्श्व अपरदन के बजाय अधोतल अपरदन अथवा गहराई में अपरदन करती हैं इसलिए जो विसर्प बनते हैं, वे गहरे होते हैं। इसलिए चट्टानी भागों में अध:कर्तित विसर्प के गहरा होने के कारण गार्ज या कैनियन के रूप में उन्हें देखा जा सकता है जबकि मैदानी भागों में ये सामान्य विसर्प होते हैं। दोनों क्षेत्रों में उच्चावच की भिन्नता के कारण नदियों द्वारा अपरदन की प्रकृति में अन्तर पाया जाता है। 

प्रश्न (ii) 
घाटी रन्ध्र अथवा युवाला का विकास कैसे होता है ? ।
उत्तर:
सामान्यतः धरातलीय प्रवाहित जल जब घोल रन्ध्रों व विलयन रन्ध्रों से गुजरता हुआ आन्तरिक नदी के रूप में अदृश्य हो जाता है तथा कुछ दूरी के पश्चात् किसी कन्दरा से भूमिगत नदी के रूप में फिर निकल आता है। जब घोल रन्ध्र या डोलाइन इन कन्दराओं की छत के गिरने से या पदार्थों के स्खलन द्वारा आपस में मिल जाते हैं, तो लम्बी, सँकरी एवं विस्तृत खाइयाँ बनती हैं जिन्हें घाटी रन्ध्र या युवाला के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न (i) 
चूनायुक्त चट्टानी प्रदेशों में धरातलीय जल प्रवाह की अपेक्षा भौम जल प्रवाह अधिक पाया जाता है, क्यों ?
उत्तर:
चूनायुक्त चट्टानें अधिक पारगम्य, मुलायम, अत्यधिक जोड़ों व संधियों वाली होती हैं। रासायनिक प्रक्रिया द्वारा इन चट्टानों में वियोजन अधिक होता है। चूना-पत्थर की चट्टानों के भू-पृष्ठ से होकर प्रवाहित होने वाला धरातलीय जल छिद्रों से होकर नीचे चला जाता है और भूमिगत जल के रूप में प्रवाहित होने लगता है। चूनायुक्त चट्टानें अधिक घुलनशील होती हैं और जलप्रवाह को ऊपर नहीं रोक पातीं। यही कारण है कि चूनायुक्त चट्टानों में घोल प्रक्रिया के कारण धरातलीय जल प्रवाह की अपेक्षा भौमजल प्रवाह अधिक पाया जाता है।

प्रश्न (iv) 
हिमनद घाटियों में कई रैखिक निक्षेपण स्थलरूप मिलते हैं। इनकी अवस्थिति व नाम बताइए।
उत्तर-हिमनद घाटियों में निक्षेपण द्वारा निम्नलिखित रैखिक स्थलरूपों का विकास होता है-

  1. हिमोढ़
  2. एस्कर
  3. हिमानी धौत मैदान तथा
  4. ड्रमलिन।

1. हिमोढ़-हिमोढ़ हिमटिल या गोलाश्मी मृत्तिका के जमाव की लम्बी कटकें हैं। हिमोढ़ जमाव की स्थिति के आधार पर पाश्विक हिमोढ़, अन्तस्थ हिमोढ़, तलस्थ हिमोढ़, मध्यस्थ हिमोढ़ आदि कई प्रकार के होते हैं।
2. एस्कर-हिमनद के पिघलने से प्राप्त जलधाराओं द्वारा मलबा के निक्षेपण से निर्मित एस्कर लम्बे तथा सँकरे कटक होते हैं।
3. हिमानी धौत मैदान-हिमानी जात निक्षेपणों से हिमानी धौत मैदान बनते हैं।
4. ड्रमलिन-ड्रमलिन हिमनद मृत्तिका के अण्डाकार समतल कटकनुमा रूप हैं, जिसमें रेत व बजरी के ढेर होते हैं।

प्रश्न (v) 
मरुस्थली क्षेत्रों में पवन कैसे अपना कार्य करती है ? क्या मरुस्थलों में यही एक कारक अपरदित स्थल रूपों का निर्माण करता है ?
उत्तर:
मरुस्थली क्षेत्रों में पवन अपना अपरदनात्मक कार्य अपवाहन एवं घर्षण क्रिया द्वारा करती है। अपवाहन में पवन धरातल से चट्टानों के छोटे-छोटे कण व धूल को उड़ाती है। परिवहन के समय ये कण व धूलि के टुकड़े औजारों की तरह धरातलीय चट्टानों पर चोट पहुंचाते हैं जिससे घर्षण होता है। इस प्रकार मरुस्थलों में कई रोचक अपरदनात्मक एवं निक्षेपणात्मक स्थलरूपों का निर्माण करती हैं। मरुस्थलों में पवनों के अतिरिक्त वृहत् क्षरण एवं प्रवाहित जल की चादर से अल्प मात्रा में स्थल रूपों का निर्माण होता है। 3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 150 शब्दों में दीजिए

प्रश्न (i) 
आर्द्र व शुष्क जलवायु प्रदेशों में प्रवाहित जल ही सबसे महत्वपूर्ण भू-आकृतिक कारक है, विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर:
आर्द्र प्रदेशों में जहाँ अत्यधिक वर्षा होती है, प्रवाहित जल सबसे महत्त्वपूर्ण भू-आकृतिक कारक है। यह धरातल को नीचा करने का प्रयास करता है। प्रवाहित जल दो रूपों में कार्य करता है

  1. धरातल पर परत के रूप में फैला हुआ प्रवाह, तथा 
  2. रैखिक प्रवाह जो घाटियों में नदियों तथा सरिताओं के रूप में प्रवाहित होता है।

प्रवाहित जल का अधिकतर स्थलरूप युवावस्था से सम्बन्धित है। इस अवस्था में नदियाँ लम्बवत् अपरदन अधिक करती हैं। नदी-अपरदन से जलप्रपात तथा क्षिप्रिका, 'वी' आकार की घाटी, गार्ज एवं कैनियन का निर्माण होता है। कालान्तर में तेज ढाल लगातार अपरदन के कारण मन्द ढाल में परिवर्तित हो जाता है, जिससे नदी प्रवाह मन्द हो जाता है और निक्षेपण प्रारम्भ हो जाता है। इस समय नदियाँ पार्श्व अपरदन द्वारा घाटी को चौड़ा करती हैं। प्रवाहित जल का ढाल जितना मन्द होगा, उतना ही अधिक निक्षेपण होगा।

प्रवाहित जल अन्तत: प्रवाह में कमी से अनेक शाखाओं में बँटकर समतल मैदान और डेल्टाओं का निर्माण करता है। स्पष्ट है कि आर्द्र जलवायु प्रदेशों में प्रवाहित जल ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भू-आकृतिक कारक है जो अपरदन, परिवहन तथा निक्षेपण द्वारा अनेक भू-आकृतिक स्वरूपों का निर्माण करता है। शुष्क जलवायु प्रदेशों में भी पवन के बाद दूसरा महत्त्वपूर्ण स्थलाकृतिक कारक प्रवाहित जल है। यहाँ वर्षा कम होती है और अल्प समय में होती है किन्तु वर्षा बड़ी तीव्र गति से और मूसलाधार होती है। स्थलाकृतियों का निर्माण प्रवाहित जल द्वारा होता है। वनस्पति विहीनता तथा अधिक तापान्तर के कारण यहाँ की चट्टानें वर्षा से अधिक प्रभावित होती हैं। यहाँ भी वृहद् अपरदन मुख्यतः परत बाढ़ या वृष्टि धोवन से ही सम्पन्न होता है। मरुस्थलों में नदियाँ चौड़ी, अनियमित तथा मौसमी होती हैं। इस प्रकार प्रवाहित जल आर्द्र एवं शुष्क दोनों प्रदेशों में प्रमुख भू-आकृतिक कारक है।

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प्रश्न (ii) 
चूना चट्टानें आई व शुष्क जलवायु में भिन्न व्यवहार करती हैं, क्यों ? चूना प्रदेशों में प्रमुख व मुख्य भू-आकृतिक प्रक्रिया कौन-सी है और इसके क्या परिणाम हैं ?
उत्तर:
यदि कोई चूने की चट्टान आर्द्र जलवायु वाले प्रदेशों में है तो उसकी प्रकृति दूसरे ढंग की होगी। यदि वही चट्टान शुष्क जलवायु वाले प्रदेशों में है तो उसकी प्रकृति उसके ठीक विपरीत व्यवहार करती है। चूना चट्टानों वाले आर्द्र जलवायु प्रदेशों में जल सरलता से नीचे प्रवेश कर जाता है क्योंकि ये चट्टानें जल के लिए पारगम्य व छिद्रयुक्त होती हैं। जल के सम्पर्क में आने से ये चट्टानें रासायनिक प्रक्रिया द्वारा आसानी से घुल जाती हैं और अपरदन प्रारम्भ हो जाता है। चूना पत्थर में कैल्सियम कार्बोनेट प्रमुख तत्व होता है जो जल के सम्पर्क में आकर शीघ्रता से घुल जाता है।

शुष्क जलवायु प्रदेशों में ये चट्टानें अत्यन्त कठोर होती हैं। इन पर पवन द्वारा अपरदन कार्य का प्रभाव बहुत कम पड़ता है। ये कठोर चट्टानें मानी जाती हैं। स्पष्ट है कि आर्द्र व शुष्क जलवायु में चूना चट्टानें बिल्कुल भिन्न व्यवहार करती हैं। चूना प्रदेशों में भूमिगत जल अपरदन के कारक के रूप में अधिक सक्रिय होता है और इसके द्वारा अनेक भू-आकृतियों का निर्माण होता है। इसे 'कार्ट टोपोग्राफी' कहते हैं। भूमिगत जल इन चट्टानों से मिलकर रासायनिक क्रिया करता है और ये चट्टानें घुलकर वियोजित होने लगती हैं। इनके द्वारा स्टैलेग्टाइट, स्टैलेग्माइट तथा स्तम्भों का निर्माण होता है। अपरदन क्रिया द्वारा इस प्रदेश में घोलरन्ध्र, डोलाइन, युवाला, कन्दरा आदि स्थलरूपों का निर्माण होता है।

प्रश्न (iii) 
हिमनद ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों को निम्न पहाड़ियों व मैदानों में कैसे परिवर्तित करते हैं ? या किस प्रक्रिया से यह कार्य सम्पन्न होता है ? बताएँ।
उत्तर:
धरातल पर परतों के रूप में हिम प्रवाह या पर्वतीय ढालों से घाटियों में रैखिक प्रवाह के रूप में प्रवाहित हिम को हिमनद कहते हैं। हिमनद का विकास उच्च पर्वतीय भागों में शून्य डिग्री सेण्टीग्रेड से कम ताप वाले भागों में ही होता है। हिमनद हिम के भार एवं गुरुत्वाकर्षण बल के कारण ढाल के अनुरूप अत्यन्त मन्द गति से प्रवाहित होते हैं। ढाल के अनुरूप गतिमान हिमनद घर्षण द्वारा निचली चट्टानों में, किनारों पर अपघर्षण द्वारा बड़े-बड़े शिलाखण्डों को तोड़ते हुए प्रवाहित होते हैं। जिन चट्टानों में अपक्षय क्रिया अधिक प्रभावी रूप से सक्रिय नहीं हो सकी है, हिमनद उन्हें भी तोड़कर अपरदित कर देता है। इस प्रकार हिमनद द्वारा छोटे पर्वत, पहाड़ियों व मैदानों में परिवर्तित हो जाते हैं। 

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हिमनद चट्टानों के साथ घर्षण एवं अकः बंक्ष रक्रिया से अपरदन द्वारा अनेक स्थलरूपों का निर्माण करता है। इनमें सर्क, गिरिश्वृंत, यू आक्तर की घाटी, लटकती ऊा वार्न झील आदि प्रमुख हैं। हिमनद जब उच्च पर्वतीय भागों से निम्न क्षेत्रों में उतुती है तो तपमज में वृद्धि के कारण पिघलने लगती है। इस अवस्था में हिमनद के साथ प्रवाहित होने वाला मलबा विभिन्न स्थानों व क्षेत्रों में जमा होने लगता है। इस प्रकार के मलबे के जमाव को हिमोढ़ कहते हैं। इसके जमाव से स्थलरूयों का निर्माण होता है; जैसे-हिमोढ़, एस्कर, ड्रमलिन, केम, हिमानी धौत मैदान आदि। इस प्रकार हिमनद अपने अपरदन कार्यों द्वारा उच्च पर्वतीय भागों को छोटी पहाड़ियों और अन्ततः मैदानों के रूप में परिवर्तित कर देता है।

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परियोजना कार्य

अपने क्षेत्र के आसपास के स्थलरूप, उनके पदार्थ तथा वह जिन प्रक्रियाओं से निर्मित है, पहचानें। 
क्षेत्र परिचय-हमारे आस-पास का क्षेत्र एक समतल मैदानी क्षेत्र है।

आसपास के स्थलरूप-हमारे क्षेत्र के समतल मैदानी क्षेत्र होने के कारण यहाँ अधिक स्थलरूपों का विकास नहीं हो पाया है।

स्थलरूप सम्बन्धी पदार्थ-यहाँ मिलने स्थलरूप में संघटक पदार्थों की स्थिति देखने को मिलती है। कार्बनिक पदार्थों, आधारभूत शैलों व उच्चावचीय प्रक्रियाओं का विशेष प्रभाव देखने को मिलता है।

विभिन्न प्रक्रियाएँ-इस मैदानी भाग में अपक्षय व अपरदन की प्रक्रियाओं का प्रभाव भी न्यून मात्रा में देखने को मिलता है। वार्षिक वर्षा के औसत का कम होने से यहाँ प्रवाहित जल का विशेष प्रभाव दृष्टिगत नहीं होता। सागरीय जल, हिमानी व कार्स्ट स्थलाकृतियों का यहाँ पूर्ण अभाव है। यहाँ केवल वायुजन्य कुछ स्थलाकृतियाँ अवश्य देखने को मिलती हैं जिनमें वात रन्ध्रों, इन्सेलबर्ग व बालुका स्तूप देखने को मिलते हैं। यहाँ प्रवाहित होने वाली मौसमी सरिताएँ भी अपरदन करके कुछ स्थलरूपों के स्वरूप को दर्शाती हैं।

Prasanna
Last Updated on Aug. 4, 2022, 10:40 a.m.
Published Aug. 3, 2022