RBSE Solutions for Class 11 Business Studies Chapter 9 सूक्ष्म, लघु तथा मध्यम उद्यम और व्यावसायिक उद्यमिता

Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Business Studies Chapter 9 सूक्ष्म, लघु तथा मध्यम उद्यम और व्यावसायिक उद्यमिता Textbook Exercise Questions and Answers.

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RBSE Class 11 Business Studies Solutions Chapter 9 सूक्ष्म, लघु तथा मध्यम उद्यम और व्यावसायिक उद्यमिता

RBSE Class 11 Business Studies सूक्ष्म, लघु तथा मध्यम उद्यम और व्यावसायिक उद्यमिता Textbook Questions and Answers

लघुत्तरात्मक प्रश्न-

प्रश्न 1. 
व्यवसाय के आकार को मापने हेतु विभिन्न मापदण्ड क्या हैं?
उत्तर:
व्यवसाय अर्थात् व्यावसायिक इकाइयों के आकार को मापने के लिए कई मापदण्ड प्रयुक्त किये जा सकते हैं। इनमें व्यवसाय में नियुक्त किये गये व्यक्तियों की संख्या, व्यवसाय में विनियोजित पूँजी, उत्पादन की मात्रा अथवा व्यवसाय के उत्पादन का मूल्य तथा व्यवसाय की क्रियाओं के लिए प्रयुक्त की गई ऊर्जा सम्मिलित है। यद्यपि, व्यवसाय के आकार को मापने का ऐसा कोई मापदण्ड नहीं है जिसकी कोई सीमा नहीं हो। लघु उद्योगों को विवेचित करने हेतु भारत सरकार द्वारा प्रयुक्त की गई परिभाषा संयंत्र एवं मशीनरी के विनियोग पर आधारित है। इस दृष्टि से निर्माणी उपक्रमों के सम्बन्ध में लघुस्तरीय उद्योगों में वे इकाइयाँ आती हैं जिनमें संयंत्र एवं मशीनरी में विनियोग 25 लाख रुपये से अधिक हो परन्तु 5 करोड़ रुपये से अधिक नहीं हो। 

सेवाएँ प्रदान करने वाले उपक्रमों के सम्बन्ध में लघुस्तरीय उद्योगों में वे इकाइयाँ आती हैं जिनमें उपकरणों में विनियोग 10 लाख रुपये से अधिक हो परन्तु 2 करोड़ रुपये से अधिक नहीं हो। निर्माण में संलग्न सूक्ष्म उद्योगों में संयंत्र एवं मशीनरी में 25 लाख रुपये से अधिक का विनियोग नहीं हो तथा मध्यस्तरीय उद्योगों में संयंत्र एवं मशीनरी में निवेश 5 करोड़ रुपये से अधिक हो परन्तु 10 करोड़ रुपये से अधिक नहीं हो। सेवाएं प्रदान करने वाली सूक्ष्म इकाइयों में उपकरणों में 10 लाख रुपये से अधिक का विनियोग नहीं हो जबकि मध्यस्तरीय इकाइयों में उपकरणों में विनियोग 2 करोड़ रुपये से अधिक हो परन्तु 5 करोड़ से अधिक नहीं हो। 

प्रश्न 2. 
छोटे पैमाने के उद्योगों हेतु भारत सरकार द्वारा कौनसी परिभाषा प्रयुक्त की जाती है? 
उत्तर:
छोटे पैमाने के उद्योगों हेतु भारत सरकार द्वारा प्रयुक्त परिभाषा 
निर्माणी उपक्रमों के सम्बन्ध में-लघु उद्योगों या उपक्रमों से तात्पर्य उन उपक्रमों से है जिनमें संयंत्र एवं मशीनरी में विनियोग 25 लाख रुपये से अधिक हो परन्तु 5 करोड़ रुपये से अधिक नहीं हो। 

सेवाएं प्रदान करने वाले उपक्रमों के सम्बन्ध में-लघु उद्योगों या उपक्रमों से तात्पर्य उन उपक्रमों से है जिनमें .. उपकरणों में विनियोग 10 लाख रुपये से अधिक को परन्तु 2 करोड़ रुपये से अधिक नहीं हो। 

उल्लेखनीय है कि भारत सरकार द्वारा लघु या छोटे उद्योगों को परिभाषित करने के लिए संयंत्र एवं मशीनरी में विनियोग को ही माना जाता है। 

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प्रश्न 3. 
एक गौण इकाई तथा एक अति-सूक्ष्म इकाई के बीच आप कैसे अन्तर्भेद करेंगे? 
उत्तर:
गौण इकाई तथा एक अति-सूक्ष्म इकाई में अन्तर 
1. गौण इकाइयां वे होती हैं जो अपने उत्पाद का कम से कम 50 प्रतिशत आपूर्ति, दूसरे उद्योगों को, जो उनकी मूल इकाई है, को करते हैं। गौण इकाइयां अपनी मूल इकाई के लिए कलपुर्जे, पुर्जे जोड़ना तथा मध्यवर्ती उत्पादों का निर्माण आदि कर सकती हैं । मूल आवश्यकताओं की पूर्ति के अतिरिक्त भी व्यवस्था कर सकती हैं। इन गौण इकाइयों को अपनी मूल इकाई की निश्चित मांग का लाभ प्राप्त होता है। जबकि अति-सूक्ष्म इकाइयों में ऐसा कुछ करने की आवश्यकता नहीं होती है। 

2. गौण इकाइयों की परिभाषा में वे इकाइयां आती थीं जिनका विनियोग प्लांट एवं मशीनरी में एक करोड़ रुपये का होता था, अति सूक्ष्म इकाइयों की परिभाषा में वे इकाइयां आती हैं, यदि वे निर्माणी इकाइयां हैं तो विनियोग प्लांट एवं मशीनरी में 25 लाख रुपये तक का हो और यदि वे सेवाएं प्रदान करने वाली इकाइयाँ हैं तो यह विनियोग 10 लाख रुपये तक का हो। 

प्रश्न 4. 
कुटीर उद्योगों की विशेषताएँ बताइये। 
उत्तर:
कुटीर उद्योगों की विशेषताएँ-

  • कुटीर उद्योग व्यक्तियों द्वारा अपने निजी संसाधनों से संगठित किये जाते हैं। 
  • कुटीर उद्योगों में सामान्यतः परिवार के सदस्यों का श्रम तथा स्थानीय स्तर पर उपलब्ध प्रतिभा का प्रयोग होता है। 
  • कुटीर उद्योगों में सरल उपकरण ही काम में लाये जाते हैं। 
  • इन उद्योगों में पूँजी का निवेश भी कम होता है। 
  • ये उद्योग अपने ही परिसरों में सरल उत्पादों का उत्पादन करते हैं। 
  • ये उद्योग स्वदेशी प्रौद्योगिकी का प्रयोग करके वस्तुओं का उत्पादन करते हैं। 
  • इन्हें ग्रामीण उद्योग या परम्परागत उद्योग भी कहा जाता है। 

प्रश्न 5. 
'उद्यमी', 'उद्यमिता' तथा 'उद्यम' का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सामान्य अर्थ में जो व्यक्ति अपना व्यवसाय या उद्यम स्थापित करता है, वह उद्यमी कहलाता है। अन्य शब्दों में उद्यमी वह व्यक्ति होता है जो नवीन अवसरों एवं परिवर्तनों की खोज करता है एवं उनका लाभ उठाने के लिए नवकरण करता है, उपक्रम की स्थापना करता है, आवश्यक संसाधन जुटाता है तथा उसमें निहित जोखिम को वहन करता है। किसी व्यक्ति द्वारा अपना व्यवसाय या उद्यम प्रारम्भ करने की प्रक्रिया उद्यमिता कहलाती है, क्योंकि यह किसी अन्य आर्थिक क्रिया, रोजगार अथवा किसी पेशे को अपनाने से भिन्न होती है। 

उद्यमिता उद्यमी को स्वरोजगार उपलब्ध कराने के साथ-साथ अन्य दोनों आर्थिक क्रियाओं, रोजगार व पेशा को भी काफी हद तक सृजन तथा विस्तार के अवसर उपलब्ध कराती है। उद्यमिता की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप जो व्यावसायिक इकाई अस्तित्व में आती है वह उद्यम कहलाता है। 

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प्रश्न 6. 
उद्यमिता को एक रचनात्मक क्रिया क्यों माना जाता है? 
उत्तर:
उद्यमिता एक रचनात्मक क्रिया-उद्यमिता एक रचनात्मक क्रिया है क्योंकि यह नवप्रवर्तन अर्थात् नये उत्पादों का प्रारम्भ, नये बाजारों तथा आगतों की आपूर्ति के नये स्रोतों की खोज, प्रौद्योगिकी की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण खोज के साथ-साथ कार्यों को बेहतर, मितव्ययी, तीव्र तथा वर्तमान सन्दर्भ में वातावरण को कम हानि पहुँचाने वाले तरीकों से त्मिक प्रारूप प्रारम्भ करती है। यह इस दृष्टि से भी एक रचनात्मक क्रिया है क्योंकि इसके द्वारा उद्यमी उत्पादन के विभिन्न साधनों का संयोजन द्वारा उन वस्तुओं एवं सेवाओं को उत्पादित करते हैं जो समाज की इच्छाओं तथा आकांक्षाओं को पूरा करते हैं। 

प्रश्न 7. 
'उद्यमी औसत दर्जे का जोखिम उठाते हैं।' इस कथन की व्याख्या कीजिये। . 
उत्तर:
यह सर्वमान्य बात है कि उद्यमी काफी जोखिम उठाते हैं। हाँ, जो व्यक्ति उद्यमिता को एक जीवनवृत्ति के रूप में अपनाते हैं, नौकरी अथवा पेशे को व्यवहार में लाने की तुलना में एक बड़ा जोखिम उठाते हैं क्योंकि इसमें कोई निश्चित भुगतान प्राप्त नहीं होता। एक प्रेक्षक को, एक सुदृढ़ एवं आशाजनक जीवनवृत्ति को छोड़ने को जोखिम एक उच्च जोखिम प्रतीत होती है, परन्तु किसी व्यक्ति द्वारा किया गया ऐसा कार्य, एक परिकलित जोखिम है। वे अपनी क्षमताओं के बारे में आश्वस्त हैं कि वे अपने 50 प्रतिशत संयोगों को 100 प्रतिशत सफलता में परिवृतत कर लेंगे। ये उच्चतर जोखिम वाली परिस्थितियों को टालते हैं, क्योंकि इन्हें अन्य व्यक्तियों की भाँति असफलताएं पसन्द नहीं हैं। ये इस जोखिम वाली स्थितियों को भी पसन्द नहीं करते हैं क्योंकि इसमें व्यवसाय एक मजाक बनकर समाप्त हो जाता है। अतः यह कहा जा सकता है कि उद्यमी औसत दर्जे का ही जोखिम उठाते हैं। 

दीर्घउत्तरात्मक प्रश्न- 

प्रश्न 1. 
छोटे पैमाने के उद्योग भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास में किस प्रकार योगदान करते हैं? 
उत्तर:
भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास में छोटे पैमाने के उद्योगों का योगदान 
भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास में छोटे पैमाने के उद्योगों के योगदान को निम्न बिन्दुओं की सहायता से समझा जा सकता है-
1. सन्तुलित क्षेत्रीय विकास-भारत के सन्तुलित क्षेत्रीय विकास मे छोटे पैमाने के उद्योगों का योगदान उल्लेखनीय है। देश में छोटे पैमाने के उद्योग देश की औद्योगिक इकाइयों का 95 प्रतिशत है। 

2. रोजगार के अधिक अवसर-छोटे पैमाने अर्थात् लघु उद्योग कृषि के बाद मानव संसाधनों के दूसरे सबसे बड़े नियोक्ता हैं। बड़े उद्योगों की तुलना में पूँजी की प्रत्येक इकाई के प्रति रोजगार के अधिक अवसर पैदा करते हैं। इसलिए इन्हें अधिक श्रम तथा कम पूँजी विनियोग वाला माना जाता है। 

3. उत्पादों की आपूर्ति करना-भारत में छोटे पैमाने के उद्योग विभिन्न प्रकार के उत्पादों की आपूर्ति समाज को करते हैं जिनमें कई उपभोक्ता वस्तुएँ, सिले-सिलाए वस्त्र, होजरी का सामान, स्टेशनरी का सामान, साबुन व डिटर्जेन्ट, घरेलू बर्तन, चमड़ा, प्लास्टिक व रबर का सामान, संसाधित खाद्य वस्तुएँ व सब्जियां इत्यादि सम्मिलित हैं। निर्मित की गई जटिल वस्तुओं में बिजली तथा इलेक्ट्रॉनिक का सामान, शिक्षण सहायक सामग्री जैसे ओवर हेड, प्रोजेक्टर, वातानुकूलन उपकरण, औषधियाँ, कृषि औजार व उपकरण तथा कई इंजीनियरिंग उत्पाद सम्मिलित हैं। 

4. औद्योगिक विकास करना-छोटे पैमाने के उद्योग, सरल प्रौद्योगिकी का प्रयोग करके सरल एवं सस्ते उत्पादों का उत्पादन करते हैं तथा स्थानीय रूप से उपलब्ध भौतिक एवं मानवीय संसाधनों पर निर्भर होते हैं। ये देश में. कहीं भी स्थापित किये जा सकते हैं। चूंकि ये बिना किसी स्थानीय बाधा के दूर-दूर तक फैले होते हैं, इसलिए औद्योगीकरण के लाभ देश के प्रत्येक क्षेत्र द्वारा प्राप्त किये जा सकते हैं। इस प्रकार ये उद्योग देश के औद्योगिक विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं।

5. उद्यमिता का विकास करना-छोटे पैमाने के उद्योग उद्यमिता के विकास के प्रचुर अवसर उपलब्ध कराते हैं। इनके द्वारा लोगों के अविकसित कौशल व प्रतिभा को व्यवसाय विचार की ओर मोड़ा जा सकता है तथा इन्हें एक लघु व्यवसाय शुरू करने के लिए अत्यल्प पूँजी निवेश तथा लगभग शून्य औपचारिकताओं के साथ वास्तविकता में परिवर्तित किया जा सकता है। 

6. कम लागत पर उत्पादन करना-छोटे पैमाने के उद्योगों द्वारा किये जाने वाले उत्पादन की लागत भी कम आती है। क्योंकि एक तो स्थानीय उपलब्ध संसाधन कम खचीले होते हैं । कम उपरिव्ययों के कारण इन उद्योगों की स्थापना एवं परिचालन लागत भी कम होती है। यथार्थ में उत्पादन की कम लागतों का लाभ छोटे पैमाने के उद्योगों को मिलता है। इससे इनकी प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता में वृद्धि होती है। 

7. सही समय पर नये अवसरों का लाभ उठाना-छोटे पैमाने के उद्योगों का आकार छोटा होने के कारण इनमें बिना किसी रुकावट के त्वरित व समय पर निर्णय लिये जा सकते हैं। फलतः सही समय पर नये व्यावसायिक अवसरों का लाभ उठाया जा सकता है। 

8. उपभोक्ता आधारित उत्पादों के लिए सर्वाधिक उपयुक्त-उपभोक्ता आधारित उत्पादों के लिए लघु उद्योग सर्वाधिक उपयुक्त हैं क्योंकि इनमें प्रत्येक उपभोक्ता की रुचि, पसंद एवं आवश्यकता के अनुसार उत्पादन किया जा अपारम्परिक उत्पाद जैसे कम्प्यूटर तथा अन्य उत्पादों का भी उत्पादन किया जा सकता है। इन उद्योगों के द्वारा सरल एवं लचीली उत्पादन तकनीकों का प्रयोग किया जाता है। अतः ये उपभोक्ता की आवश्यकता के अनुरूप उत्पादन कर सकते हैं। 

9. व्यक्तिगत सम्बन्ध बनाये रखना-लघु उद्योगों में अन्तर्निहित अनुकूलनशीलता, व्यक्तिगत स्पर्श के कारण ही ये कर्मचारियों तथा उपभोक्ताओं दोनों से ही अच्छे व्यक्तिगत सम्बन्ध बनाये रखने में समर्थ होते हैं। सरकार भी इन उद्योगों में अधिक हस्तक्षेप नहीं करती है। 

उपरोक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि लघु स्तरीय उद्योग भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। 

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प्रश्न 2. 
ग्रामीण भारत में लघव्यवसाय की भमिका की व्याख्या कीजिये। 
उत्तर:
ग्रामीण भारत में लघु व्यवसाय की भूमिका-भारत जैसे विकासशील देश में यह देखने में आया है कि ग्रामीण परिवार एकमात्र कृषि में संलग्न हैं। ऐसे बहुत से प्रमाण हैं कि ये ग्रामीण परिवार भी विभिन्न स्तर पर गैर-अकृषि क्रियाओं में भाग ले सकते हैं, जैसे-सवेतन रोजगार, स्वरोजगार, जो खेती-बाड़ी एवं श्रम आधारित पारम्परिक कृषि क्रियाकलापों के साथ-साथ की जा सकती हैं। यह भारत सरकार को ही श्रेय दिया जा सकता है कि इसने कृषि आधारित ग्रामीण उद्योगों की स्थापना तथा उन्नति के लिए नीतियों का निर्माण किया है जिसके परिणामस्वरूप देश में ग्रामीण एवं लघुस्तरीय उद्योगों का महत्त्व बढ़ा है। यही कारण है कि ये उद्योग भारत की औद्योगिक योजनाओं के अनिवार्य अंग बनते जा रहे हैं। 

ग्रामीण क्षेत्रों में कुटीर एवं ग्रामीण उद्योग रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। ये उद्योग ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को शहरी क्षेत्रों में प्रवसन को भी रोकने में सहायता करते हैं। कुटीर एवं ग्रामीण उद्योग ग्रामीण क्षेत्र में कमजोर वर्ग के लोगों, शिल्पकारों तथा दस्तकारों आदि को रोजगार उपलब्ध कराते हैं । ये उद्योग ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को रोजगार के अवसर प्रदान करते हैं जिससे इस क्षेत्र में गरीबी तथा बेरोजगारी जैसी समस्याओं से छुटकारा भी मिलता है। ये उद्योग कई अन्य सामाजिक-आर्थिक पहलुओं में भी योगदान देते हैं, जैसे-आय की असमानता को कम करना, उद्योगों का अलग-अलग क्षेत्रों में विकास करना तथा अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों से संयोजन करना। 

यथार्थ में तीव्र औद्योगिक विकास के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए तथा ग्रामीण एवं पिछड़े क्षेत्रों में अतिरिक्त उत्पादक रोजगार क्षमताओं के सृजन के लिए भारत सरकार कुटीर एवं लघु उद्योगों की भूमिका को ग्रामीण क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण मानती है। इसीलिए सरकार इन उद्योगों की स्थापना, विकास एवं विस्तार पर जोर देकर अनेक प्रकार की सहायता उपलब्ध कराती है। 

प्रश्न 3. 
छोटे पैमाने के उद्योगों के सामने आने वाली समस्याओं की चर्चा कीजिए। 
उत्तर: 
छोटे पैमाने के उद्योगों की समस्याएँ 
छोटे पैमाने के उद्योगों अथवा लघु उद्योगों की अधिकांश समस्याएँ इनके व्यवसाय के छोटे आकार के कारण होती हैं, जो इन्हें अधिक लाभदायक स्थिति में नहीं रखती हैं । यद्यपि छोटे पैमाने के उद्योगों की सभी श्रेणियों के सामने आने वाली समस्याएँ समान नहीं होती हैं । छोटी गौण इकाइयों की मुख्य समस्याओं में विलम्बित भुगतान, मूल इकाइयों से आदेश प्राप्ति की अनिश्चितता एवं उत्पादन प्रक्रिया में निरन्तर होने वाला परिवर्तन आदि मुख्य हैं। छोटे पैमाने की परम्परागत इकाइयों की समस्याओं में कम विकसित आधारभूत संरचना सम्बन्धी सुविधाओं वाले दूरवर्ती स्थान पर अवस्थिति, प्रबन्धकीय प्रतिभा का अभाव, घटिया किस्म, परम्परागत प्रौद्योगिकी तथा वित्त की अपर्याप्त उपलब्धता आदि मुख्य हैं। छोटे पैमाने की निर्यातक इकाइयों की समस्याओं में विदेशी बाजारों की पर्याप्त जानकारी का अभाव होना, बाजार सूचना का अभाव, विनिमय दरों में उतार-चढ़ाव, गुणवत्ता मानक तथा पूर्व-नौभार वित्त आदि मुख्य हैं। भारत में छोटे पैमाने के उद्योगों अर्थात् लघु उद्योगों को सामान्य रूप से निम्नलिखित समस्याओं का मुख्य रूप से सामना करना पड़ता है। 

1. वित्त सम्बन्धी समस्या-छोटे पैमाने के उद्योगों की एक प्रमुख समस्या यह है कि इसे अपनी क्रियाओं के निष्पादन के लिए पर्याप्त मात्रा में वित्त उपलब्ध नहीं हो पाता है। सामान्यतः बहुत सारी लघु क्षेत्र की इकाइयाँ अपनी साख-सृजनशीलता के अभाव के कारण पूँजी बाजार से पूँजी उठाने में सक्षम नहीं हैं। उन्हें स्थानीय वित्तीय साधनों पर निर्भर रहना पड़ता है और बार-बार ऋणदाताओं के शोषण का शिकार होना पड़ता है। देरी से भुगतान तथा बचे हुए बिना बिके माल में लगी पूंजी के कारण इन इकाइयों को बार-बार पर्याप्त कार्यशील पूँजी के अभाव को झेलना पड़ता है। पर्याप्त समानान्तर प्रतिभूति अथवा जमानत तथा सीमान्त पूँजी के अभाव के कारण वाणिज्यिक बैंक भी इन्हें ऋण नहीं देते हैं। 

2. कच्चे माल की समस्या-पर्याप्त मात्रा में कच्चा माल प्राप्त करना छोटे पैमाने के उद्योगों की एक अन्य महत्त्वपूर्ण समस्या है। जब इनकी आवश्यकता के अनुसार पर्याप्त कच्चा माल अच्छी किस्म का प्राप्त नहीं होता है तो इन्हें इनकी गणवत्ता के साथ समझौता करना पड़ता है। कम पूँजी होने तथा कम मात्रा में कच्चे माल की खरीद के कारण इनकी क्रय शक्ति अपेक्षाकृत कम होती है। माल के भण्डारण की सुविधाओं के अभाव में ये थोक में खरीदने की जोखिम उठाने में समर्थ नहीं हैं। यथार्थ में देश में धातुओं, रसायनों तथा निष्कार्षिक कच्चे माल के अभाव के कारण छोटे पैमाने का क्षेत्र सबसे अधिक प्रभावित होता है। . 

3. प्रबन्धन कौशल-छोटे पैमाने या लघु उद्योगों की स्थापना एवं संचालन प्रायः एक ही व्यक्ति द्वारा किया जाता है। अतः जरूरी नहीं है कि उस व्यक्ति में पर्याप्त प्रबन्धन कौशल हो ही। बहुत सारे लघु व्यावसायिक उद्यमों के पास प्रभावी तकनीकी ज्ञान तो हो सकता है किन्तु यह जरूरी नहीं कि वे उत्पादन का विपणन करने में सफल हों ही। अकेला व्यक्ति अधिक व्यस्त होने के कारण वह अतिरिक्त व्यापार क्रियाओं के लिए अधिक समय भी नहीं निकाल पाता। इसके साथ ही वह इस स्थिति में भी नहीं है कि वे पेशेवर प्रबन्धकों की सेवाएं लेने का खर्चा उठा सकें। 

4. श्रम सम्बन्धी समस्या-छोटे पैमाने की या लघु व्यावसायिक इकाइयों की अपनी वित्तीय सीमाएँ भी होती हैं। जिनके कारण वे अपने कर्मचारियों को अधिक वेतन देने में असमर्थ होती हैं। यही कारण है कि इन इकाइयों में कशल. दक्ष एवं प्रतिभावान कर्मचारी या तो आते नहीं और यदि आते हैं तो वे टिक नहीं पाते। इसीलिए इन उद्योगों में प्रति कर्मचारी उत्पादन अपेक्षाकृत कम ही होता है, श्रमिक आवर्तन दर भी सामान्यतः अधिक होती है। अप्रशिक्षित कर्मचारी काम तो करते हैं परन्तु उनको प्रशिक्षण देना भी समय लेने वाली प्रक्रिया है । बड़े संगठनों की तुलना में श्रम विभाजन भी सम्भव नहीं है। जिसके परिणामस्वरूप विशेषज्ञता एवं एकाग्रता का अभाव रहता है। 

5. विपणन सम्बन्धी समस्या-विपणन ही एक ऐसी महत्त्वपूर्ण क्रिया है जो विक्रय में वृद्धि कर आय उत्पन्न करती है। वस्तुओं के प्रभावी विपणन के लिए उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं की सम्पूर्ण समझ अति आवश्यक है। छोटे पैमाने या लघु इकाइयाँ विपणन के मामले में कमजोर ही रहती हैं। इसीलिए इन संगठनों को ज्यादातर मध्यस्थों पर निर्भर रहना पड़ता है। जो इन्हें कभी-कभी कम भुगतान तथा देर से भुगतान कर उनका शोषण करते हैं। ये इकाइयाँ इतनी सक्षम भी नहीं होती हैं कि वे प्रत्यक्ष रूप से विपणन के कार्य को प्रभावी ढंग से सम्पन्न कर सकें। क्योंकि इनके पास आवश्यक आधारभूत संरचनाओं का अभाव होता है। 

6. गुणवत्ता का अभाव-छोटे पैमाने की या लघु व्यावसायिक इकाइयों की एक समस्या यह भी है कि ये इया वांछित गुणवत्ता के मानकों का अनुसरण नहीं कर पाती हैं। ये इकाइया अपना पूरा ध्यान लागत को कम करने तथा कीमतों को कम रखने पर लगाती हैं। इनके पास पर्याप्त संसाधन भी नहीं होते जिससे कि वे गुणवत्ता अनुसंधान पर खर्च कर सकें तथा उद्योग के मानकों का निर्धारण कर सकें। इनके पास ऐसे विशेषज्ञ भी नहीं होते हैं जो आधुनिक प्रौद्योगिकी को अपना सकें व उसे उन्नत कर सकें वास्तव में, अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों में प्रतिस्पर्धा करते समय गुणवत्ता को बनाये रखना इनकी सबसे बड़ी कमजोरी है। 

7. उत्पादन क्षमता का पूर्ण उपयोग नहीं-छोटे पैमाने की इकाइयाँ विपणन कौशल तथा वस्तुओं की माँग के अभाव के कारण अपना पूरा माल नहीं बेच पाती हैं। इसीलिए ये अपनी उत्पादन क्षमता का पूरा उपयोग नहीं करती हैं। परिणामस्वरूप इनकी परिचालन लागत बढ़ने लगती है। धीरे-धीरे ये इकाइयाँ बीमार और समाप्त होने लगती हैं। 

8. पुरानी प्रौद्योगिकी का उपयोग-छोटे पैमाने के उद्योग अपने संसाधनों के अभाव के कारण पुरानी प्रौद्योगिकी का ही उपयोग कर पाते हैं। जिसके कारण इनकी उत्पादकता कम रहती है तथा उत्पादन लागत भी अधिक आती है। 

9. बीमार इकाइयाँ अधिक-लघु उद्योग क्षेत्र में बीमार इकाइयों की संख्या अधिक रहती है। कुशल तथा. प्रशिक्षित कर्मचारियों के अभाव, प्रबन्धन तथा विपणन कौशल के अभाव, देरी से भुगतान प्राप्त होना, कार्यशील पूँजी की कमी, अपर्याप्त ऋण तथा उत्पादों की माँग का अभाव आदि के कारण लघु उद्योगों में बीमार इकाइयाँ अधिक पायी जाती हैं। यह स्थिति नीति-निर्धारकों तथा उद्यमों दोनों के लिए ही एक चिन्ता का विषय है। 

10. वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा-वर्तमान में छोटे पैमाने के या लघु उद्योगों को न केवल मध्यम व बड़े उद्योगों से वरन् बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से भी प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है। ये इकाइयाँ इन मध्यम व बड़े उद्योगों तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के समक्ष टिक नहीं पा रही हैं। बड़े उद्योगों तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की गुणवत्ता मानक, प्रौद्योगिकी कौशल, वित्त की साख के सामर्थ्य, प्रबन्ध तथा विपणन क्षमता इत्यादि का सामना करना लघु उद्योगों के लिए अत्यन्त कठिन है। इसके साथ ही गुणवत्ता मानकों जैसे ISO 9000 जैसी कठोर माँगों के कारण छोटे पैमाने की इकाइयों की विकसित देशों के बाजार तक पहुँच सीमित ही रहती है। 

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प्रश्न 4. 
छोटे पैमाने के क्षेत्र में वित्त एवं विपणन की समस्या को हल करने हेतु सरकार द्वारा क्या उपाय किये गये हैं? 
उत्तर:
छोटे पैमाने के उद्योगों की समस्याओं को हल करने के लिए सरकार द्वारा किये गये उपाय 
भारत में छोटे पैमाने या लघु व्यवसाय के योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने अपनी नीतियों में लघु व्यावसायिक क्षेत्रों की स्थापना, उन्नति तथा विकास पर विशेष बल दिया है। विशेषकर ग्रामीण उद्योग, पिछड़े क्षेत्रों के कुटीर एवं ग्राम उद्योगों में केन्द्रीय तथा राज्य दोनों ही स्तर पर सरकारें सक्रिय भागीदारी निभा रही हैं। केन्द्रीय व राज्य सरकारें ग्रामीण क्षेत्रों में स्वरोजगार के सुअवसर उपलब्ध करवाकर, आधारभूत संरचना का निर्माण कर, वित्त, प्रौद्योगिक, प्रशिक्षण, कच्चा माल तथा विपणन के परिप्रेक्ष्य में अपना विशेष योगदान दे रही हैं।

ये सरकारें ग्रामीण उद्योगों के विकास के लिए विभिन्न नीतियाँ तथा सरकारी सहयोग की योजनाएँ, स्थानीय संसाधनों तथा स्थानीय उपलब्ध कच्चे माल के प्रयोग तथा उपलब्ध स्थानीय श्रम ती हैं। केन्द्रीय व राज्य सरकारों की ओर से ये सभी कार्य विभिन्न एजेन्सियों, विभागों तथा निगमों द्वारा किये जाते हैं। इन सभी का मुख्य उद्देश्य लघु तथा ग्रामीण उद्योगों की उन्नति करना है। 

निम्नलिखित कुछ सहयोग के उपाय तथा कार्यक्रम ऐसे हैं जो सरकार द्वारा छोटे पैमाने के उद्योगों तथा ग्रामीण उद्योगों की उन्नति के लिए किये गये हैं। 

I. संस्थागत सहयोग 
1. कृषि ग्रामीण विकास हेतु राष्ट्रीय बैंक (नाबार्ड)-सन् 1982 में देश में नाबार्ड की स्थापना सम्पूर्ण ग्रामीण विकास को बढ़ावा देने के लिए की गई। तभी से ये देश की ग्रामीण व्यावसायिक इकाइयों को बढ़ावा देने के लिए बहु-विकल्पी, बहु-प्रयोजन योजनाओं को अपना रही है। नाबार्ड साख तथा बिना साख के प्रस्तावों को प्रयोग में लाकर, लघु उद्योग, कुटीर तथा ग्रामीण उद्योग तथा ग्रामीण दस्तकारों को भी सहयोग देता है। यह ग्रामीण क्षेत्र के उद्यमियों को परामर्श सेवाएं प्रदान करता है साथ ही प्रशिक्षण तथा विकास कार्यक्रमों का आयोजन करता है। 

2. ग्रामीण लघु व्यावसायिक विकास केन्द्र (आर.एस.बी.डी.सी.)-नाबार्ड द्वारा प्रायोजित ग्रामीण लघु व्यावसायिक विकास केन्द्र लघु तथा मध्यम आकार के उद्योगों के लिए अपने आप में एक पहली संस्था है। यह सामाजिक तथा आर्थिक रूप से पिछड़े हुए व्यक्तियों एवं समूहों के हित के लिए कार्य करती है। इनका मुख्य लक्ष्य ग्रामीण क्षेत्रों की वर्तमान तथा भविष्य के लघु उद्यमों तथा छोटी इकाइयों को प्रबन्धन तथा तकनीकी सहयोग देना है। यह केन्द्र अपने कार्यक्रमों के माध्यम से ग्रामीण बेरोजगार युवकों तथा विभिन्न व्यापार में संलग्न महिलओं का ध्यान रखता है। ये विभिन्न व्यवसाय हैं-खाद्य प्रसंस्करण, मुलायम खिलौने बनाना, बने-बनाये परिधान, मोमबत्ती बनाना, अगरबत्ती निर्माण, दो पहिया मरम्मत सर्विसिंग, केंचुआ खाद तथा गैर-परम्परागत भवन निर्माण सामग्री आदि। 

3. राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम (एन.एस.आई.सी.)-देश में लघु व्यवसाय की उन्नति में सहयोग तथा विकास को बढ़ावा देने के लिए सन् 1955 में इस निगम की स्थापना की गई है-यह निगम निम्न कार्यों के वाणिज्यिक पहलू पर ध्यान केन्द्रित करता है। (i) आसान किराया-क्रय शर्तों पर स्वदेशी एवं आयातित मशीनों की आपूर्ति, (ii) स्वदेशी तथा आयातित कच्चे माल की प्राप्ति, आपूर्ति तथा वितरण, (iii) लघु व्यवसाय इकाइयों के उत्पादों का निर्यात तथा निर्यात योग्यता का विकास (iv) सलाहकारी एवं परामर्शदात्री सेवाएँ।। 

4. ग्रामीण एवं महिला उद्यमिता विकास (आर.डब्ल्यू.ई.डी.)-ग्रामीण एवं महिला उद्यमिता विकास कार्यक्रम आय वातावरण को बढावा देना तथा संस्थागत व मानवी सामर्यों का निर्माण करना है, जिससे कि ग्रामीण लोगों तथा महिलाओं की उद्यमिता पहलों को प्रोत्साहन एवं सहायता मिले। यह जिन सेवाओं को उपलब्ध कराता है वे हैं-(i) ऐसे व्यावसायिक वातावरण का निर्माण करना जो ग्रामीण एवं महिला उद्यमियों की पहलों को प्रोत्साहित करे। (ii) उद्यमी उत्साह व उत्पादकता बढ़ाने हेतु आवश्यक मानवीय एवं संस्थागत संस्थाओं को बढ़ावा देना। (iii) महिला उद्यमियों को प्रशिक्षण देना व प्रशिक्षण पुस्तिका उपलब्ध कराना। (iv) अन्य परामर्शदात्री सेवाएं उपलब्ध कराना। 

5. परम्परागत उद्योगों के पुनरुद्धार हेतु निधि की योजना (स्फूर्ति )-सन् 2005 में केन्द्र सरकार ने इस योजना को शुरू किया है। यह योजना परम्परागत उद्योगों को और अधिक उपयोगी तथा प्रतिस्पर्धी बनाती है तथा उनके संपोषणीय विकास को सुगम बनाती है। इस योजना के मुख्य उद्देश्य हैं-(i) देश के विभिन्न भागों में परम्परागत उद्योगों के समूह विकसित करना। (ii) परम्परागत उद्योगों को प्रतिस्पर्धी, लाभप्रद तथा संपोषणीय बनाने के लिए अभिनव व परम्परागत कौशल का निमोण करना, प्रौद्योगिकी में सुधार करना तथा सार्वजनिक-निजी भागीदारी बाजार सूचना विकसित करना आदि। (iii) परम्परागत उद्योगों में संपोषणीय रोजगार के अवसरों का निर्माण करना। 

6. जिला उद्योग केन्द्र (डी.आई.सी.)-जिला स्तर पर जिले में औद्योगीकरण की समस्याओं को देखने तथा एकीकृत प्रशासनिक संरचना उपलब्ध कराने की दृष्टि से 1 मई, 1978 को जिला उद्योग केन्द्र शुरू किये गये। जिला उद्योग केन्द्र जिला स्तर पर एक ऐसी संस्था है जो उन सभी उद्यमों को लघु तथा ग्रामीण उद्योगों की सभी स्थापना के लिए सेवाएँ तथा सहयोग सुविधाएँ प्रदान करती है। जिला स्तर पर उपयुक्त योजनाओं की पहचान करना, संभाव्यता प्रतिवेदन तैयार करना, साख का प्रबन्ध करना, मशीनें व उपकरण, कच्चे माल का प्रावधान तथा अन्य विस्तार सेवाएँ, ये ऐसी मुख्य गतिविधियाँ हैं जिन्हें डी.आई.सी. सम्पन्न करता है। वस्तुतः वर्तमान समय में डी.आई.सी. जिला स्तर पर आर्थिक तथा औद्योगिक वृद्धि हेतु एक केन्द्रबिन्दु के रूप में उभरकर सामने आया है। 

RBSE Solutions for Class 11 Business Studies Chapter 9 सूक्ष्म, लघु तथा मध्यम उद्यम और व्यावसायिक उद्यमिता

प्रश्न 5.
पिछड़े तथा पहाडी क्षेत्रों में उद्योगों हेत सरकार द्वारा कौन-कौन से प्रेरक उपलब्ध कराये गये हैं? 
उत्तर:
सरकार द्वारा पिछड़े एवं पहाड़ी क्षेत्रों के उद्योगों के लिए दिये गये प्रोत्साहन 
पिछड़ी जनजातियों तथा पहाड़ी क्षेत्रों के औद्योगिक विकास के लिए सरकार ने कई कदम उठाये हैं। बहुत सारी समितियों का गठन किया गया है, जो पिछड़े क्षेत्रों की पहचान कर सकें तथा सन्तुलित क्षेत्रीय विकास के अत्यन्त कठिन विशाल कार्य को करने के लिए योजनाएँ भी सुझा सकें। पिछड़े क्षेत्रों के विकास के लिए सरकार ने सम्पूर्ण ग्रामीण विकास कार्यक्रम का क्रियान्वयन किया है। इस कार्यक्रम का उद्देश्य चुने हुए ग्रामीण क्षेत्रों में लघु व्यवसाय का विकास करना था। पिछड़े तथा पहाड़ी क्षेत्रों के उद्योगों के लिए निम्नलिखित कुछ सामान्य प्रोत्साहन हैं जो दिये जा रहे हैं- 

  • भूमि-प्रत्येक राज्य अपने यहाँ उद्योग स्थापित करने के लिए विकसित भू-खण्डों को प्रस्तावित करता है। इन भू-खण्डों को प्रस्तावित करने की शर्ते राज्यों में अलग-अलग हो सकती हैं। कुछ राज्य किराये को प्रारम्भिक वर्षों में खर्च के रूप में मद में दिखाती हैं, कुछ इन्हें किस्तों में देने की अनुमति प्रदान करते हैं। 
  • विद्युत-कुछ राज्यों द्वरा इन उद्योगों को 50 प्रतिशत की रियायती दर पर विद्युत की आपूर्ति करायी जाती है तो कुछ राज्य उद्योगों को शुरू के वर्षों में छूट प्रदान करते हैं। 
  • जल-राज्यों द्वारा 50 प्रतिशत छूट के साथ बिना लाभ अथवा हानि के आधार पर जल की आपूर्ति की जाती है अथवा शुरुआत के पाँच वर्षों तक जल खर्च की छूट/रियायत दी जाती है। 
  • बिक्री कर-समस्त केन्द्रशासित राज्यों में, औद्योगिक इकाइयाँ बिक्री करों से मुक्त की गई हैं जबकि कुछ राज्य इस छूट को पाँच वर्षों तक बढ़ा सकते हैं। 
  • चुंगी-देश के अधिकांश राज्यों में चुंगी को समाप्त कर दिया गया है। 
  • कच्चा माल-राज्यों में कच्चे माल जैसे सीमेण्ट, लोहा तथा स्टील आदि के आबंटन में पिछड़े क्षेत्रों में स्थापित इकाइयों को वरीयता प्रदान की जाती है। 
  • वित्त-राज्यों में ऐसे क्षेत्रों में स्थापित उद्योगों की स्थायी सम्पत्तियों के निर्माण के लिए 10-15 प्रतिशत तक की आर्थिक सहायता दी जाती है। साथ ही रियायती दरों पर ऋण भी प्रस्तावित किये जाते हैं। 
  • औद्योगिक भू-सम्पत्ति-कुछ राज्य पिछड़े क्षेत्रों में भू-सम्पत्ति की स्थापना को भी प्रोत्साहन देते हैं। 
  • कर अवकाश-जो उद्योग पिछड़े, पहाड़ी तथा जनजाति क्षेत्रों में स्थापित हैं उन्हें 5-10 वर्षों तक करने देने की छूट दी जाती है। 

प्रश्न 6. 
एक नये व्यवसाय को प्रारम्भ करने से सम्बद्ध चरणों की संक्षेप में व्याख्या कीजिए। 
उत्तर:
एक नये व्यवसाय को प्रारम्भ करने सम्बन्धित चरण 
उपक्रम छोटा हो या बड़ा, उसे प्रारम्भ करने की प्रक्रिया के कुछ प्रमुख चरण निम्नलिखित हैं- 
1. अवसरों की खोज करना-नये व्यवसाय को प्रारम्भ करने की दशा में पहला कदम है अवसरों की खोज करना। उद्यमी को सर्वप्रथम यह खोजना होता है कि वे कौन-कौनसे अवसर हैं जिनका लाभ उठाने के लिए व्यवसाय की स्थापना की जा सकती है। 

2. अवसरों का विश्लेषण एवं मूल्यांकन करना-व्यवसाय की स्थापना की दशा में अगला कदम है, खोजे गये अवसरों का विश्लेषण एवं मूल्यांकन करना। प्रत्येक अवसर का मूल्यांकन करने के लिए जिन आधारों का उपयोग किया जाना चाहिए वे हैं-अवसरों की उपलब्धता की अवधि, अवसरों का वास्तविक एवं अनुभूति मूल्य, बाजार मांग एवं आकार का आकलन, संसाधनों की उपलब्धता, क्षमता और कौशल की उपलब्धता, जोखिम एवं प्रतिफल का आकलन, प्रतिस्पर्धी स्थिति का आकलन तथा वातावरण के घटक। 

3. प्रारम्भिक तैयारियाँ करना-एक व्यवसाय को आरम्भ करने की प्रक्रिया के इस चरण में उद्यमी को जो प्रारम्भिक तैयारियाँ करनी होती हैं वे हैं-उद्देश्यों तथा कार्यक्षेत्र का निर्धारण, उत्पाद या सेवा का चयन, व्यवसाय के आकार का निधोरण, स्वामित्व के प्रारूप का चयन, स्थान का निधोरण, प्रारम्भिक अनुबन्ध करना आदि। 

4. व्यावसायिक योजना का निर्माण करना-व्यवसाय को प्रारम्भ करने की प्रक्रिया के इस अगले चरण में व्यावसायिक योजना का निर्माण किया जाता है। इसका निर्माण एक लिखित प्रलेख के रूप में किया जाता है। व्यावसायिक योजना के निर्माण में जिन योजनाओं का निर्माण किया जाता है वे हैं-आधारभूत योजना, उत्पादन, वित्तीय, विपणन, कार्यालय तथा सेविवर्गीय योजना आदि।

5. उपक्रम संरचना का निर्माण करना-नये व्यवसाय की व्यावसायिक योजना के अनुरूप ही व्यवसाय की संरचना के निर्माण हेतु कुछ प्रमुख कदम इस प्रकार के उठाये जाते हैं-पंजीयन या समामेलन की औपचारिकताएं पूरी करना, आवश्यक संसाधनों एवं सुविधाओं की व्यवस्था करना, कर्मचारियों की व्यवस्था करना, आन्तरिक संगठन संरचना का निर्माण करना, विपणन व्यवस्था करना आदि। . 

6. वित्तीय व्यवस्था करना-आन्तरिक संगठन संरचना के निर्माण के बाद व्यवसाय के लिए आवश्यक वित्त की व्यवस्था करनी पड़ती है। प्रारम्भिक सुविधाओं एवं संसाधनों के लिए प्रारम्भिक कोषों की व्यवस्था उद्यमी अपने निजी स्रोतों तथा वित्तीय संस्थाओं से प्राप्त पूँजी आदि से करता है। यदि निजी स्रोत पर्याप्त नहीं हैं तो उन्हें सम्बन्धियों, बैंकों, उद्यम पँजीपतियों (Venture Captilists) तथा वित्तीय संस्थाओं से ऋण लेना पड़ता है। 

7. व्यवसाय प्रारम्भ करना-व्यवसाय की शुरुआत करने के लिए उठाये गये कदमों का महत्त्व वही होता है की शुरुआत हो जाये। प्रक्रिया के इस चरण में उपर्युक्त सभी कदमों को उठाने के पश्चात् व्यवसाय को प्रारम्भ किया जाता है। 

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प्रश्न 7. 
उद्यमिता एवं आर्थिक विकास के बीच सम्बन्ध की प्रकृति की जाँच कीजिए। 
उत्तर:
किसी व्यक्ति द्वारा अपना व्यवसाय प्राम्भ करने की प्रक्रिया उद्यमिता कहलाती है जो व्यक्ति अपना व्यवसाय स्थापित करता है, वह उद्यमी कहलाता है। इस प्रक्रिया के परिणाम अर्थात् व्यावसायिक इकाई को एक उपक्रम या उद्यम कहते हैं। उद्यमिता उद्यमी को स्वरोजगार उपलब्ध कराने के साथ-साथ रोजगार व पेशा को भी काफी हद तक सृजन तथा विस्तार के अवसर उपलब्ध कराती है। इस तरह से उद्यमिता एक देश के सम्पूर्ण आर्थिक विकास हेतु महत्त्वपूर्ण बन जाती है। 

प्रत्येक देश चाहे वह विकसित हो या विकासशील, सभी को उद्यमियों की आवश्यकता होती है। एक विकासशील देश को विकास की प्रक्रिया की शुरुआत करने के लिए उद्यमियों की आवश्यकता होती है जबकि एक विकसित देश को इसे बनाये रखने के लिए उद्यमिता की आवश्यकता होती है। वर्तमान भारतीय सन्दर्भ में देखें तो जहां एक ओर सार्वजनिक क्षेत्र तथा बड़े पैमाने के क्षेत्र में रोजगार के अवसर कम हो रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ वैश्वीकरण से बहुत सारे अवसर अपने उपयोग हेतु प्रतीक्षारत हैं, उद्यमिता भारत को एक बहुत बड़ी आर्थिक शक्ति बनने की ऊँचाइयों की ओर अतः आर्थिक विकास की प्रक्रिया के सम्बन्ध में तथा व्यवसाय उपक्रम के सम्बन्ध में उद्यमियों द्वारा किये जाने वाले कार्यों से ही उद्यमिता की आवश्यकता उत्पन्न होती है।

अर्थशास्त्री भी यह मानते हैं कि किसी देश में आर्थिक विकास की गति धीमी होने का एक बड़ा कारण यह है कि उन देशों में उद्यमिता का विकास कुंठित रहता है। एक विद्वान ने तो यहां तक कहा है कि "उद्यमियों की कमी आर्थिक विकास की एक बहुत बड़ी बाधा है।" किन्तु उद्यमिता का विकास करके एवं उद्यमिता की प्रक्रिया को गति प्रदान करके व्यावसायिक गतिविधियों का सकता है। इन गतिविधियों से न केवल संसाधनों का सदुपयोग होगा तथा रोजगार ही बढ़ेगा बल्कि पूँजी निर्माण की गति भी बढ़ेगी। इससे अन्ततोगत्वा सम्पूर्ण देश का चहुँमुखी आर्थिक विकास भी हो सकेगा। 

प्रश्न 8. 
स्पष्ट कीजिए कि एक व्यक्ति द्वारा उद्यमिता को जीवनवृत्ति के रूप में चुनने के निर्णय को अभिप्रेरणा तथा सामर्थ्य कैसे प्रभावित करते हैं। 
उत्तर:
उद्यमिता सहजरूप से प्रकट नहीं होती है। काफी सीमा तक यह व्यक्ति तथा वातावरण के बीच बातचीत की गतिशील प्रक्रिया का परिणाम है। अन्ततोगत्वा जीविका के रूप में उद्यमिता का चुनाव व्यक्ति को ही करना होता है। एक व्यक्ति उद्यमिता को जीवनवृत्ति के रूप में तभी चुनता है जब उसे इसकी अभिप्रेरणा मिले व उसमें इसको चुनने का सामर्थ्य हो। क्योंकि उद्यमिता को जीवनवृत्ति को चुनने में अभिप्रेरणा तथा सामर्थ ही सर्वाधिक प्रभावित करते हैं। सामान्यतः वे ही व्यक्ति उद्यमिता को जीवनवृत्ति के रूप में अपनाने में सफल होते हैं जिनमें उद्यमिता को अपनाने एवं उद्यमी बनने की अन्त: प्रेरणा या आकांक्षा हो, सामर्थ्य हो।

मेक्लीलैण्ड के मतानुसार सफल उद्यमी वे होते हैं जिनमें उपलब्धि की उच्च आकांक्षा या इच्छा पायी जाती है। इसके अतिरिक्त ऐसे लोगों की सत्ता प्राप्ति की आकांक्षा या इच्छा अर्थात् दूसरों को नियंत्रित तथा प्रभावित करने की इच्छा या प्रेरणा भी इन्हें उद्यमी बनने तथा उद्यमिता को अपनाने हेतु प्रेरित करती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि उद्यमिता को जीवनवृत्ति के रूप में लोग तभी अपना सकते हैं जबकि उनमें उद्यमिता की प्रेरणा या आकांक्षा और सामर्थ्य उत्पन्न करने वाले घटक सक्रिय हों। ऐसे लोग ही अपने लक्ष्यों के प्रति समर्पित होते हैं। वे ही चुनौतीपूर्ण लक्ष्यों को प्राप्त करने एवं समस्याओं को हल करने में रुचि लेते हैं और अन्ततः सफल होते हैं। 

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प्रश्न 9. 
भारत सरकार की स्टार्टअप योजना की विशेषताओं की चर्चा कीजिए। 
उत्तर:
भारत सरकार की स्टार्टअप योजना की विशेषताएँ 
भारत सरकार की स्टार्टअप योजना की कछ प्रमख विशेषताएँ निम्नलिखित बतलायी जा सकती हैं-

  • यह योजना देश में उद्यमिता संस्कृति को बढ़ावा देती है। 
  • यह समाज में उद्यमिता मूल्यों को अंतर्निर्विष्ट कर उद्यमिता के प्रति लोगों की मानसिकता को प्रभावित करती है। 
  • यह योजना युवाओं को उद्यमी बनने के लिए आकर्षित करने तथा उद्यमिता की प्रक्रिया को अपनाने के लिए उनमें जागरूकता उत्पन्न करती है। 
  • यह लाभ, अधिमानी तथा व्यवहार्य जीविका के रूप में उद्यमशीलता का ध्यान करने हेतु शिक्षित युवाओं, वैज्ञानिकों तथा शिल्प विज्ञानियों को अभिप्रेरित करके अतिसक्रिय स्टार्टअप को प्रोत्साहित करती है। 
  • यह योजना स्टार्टअप से पूर्व, प्रारम्भिक स्तर तथा स्टार्ट अप के पश्चात् सहित उद्यमशीलता विकास के प्रारम्भिक चरण को बल देती है तथा उपक्रमों की संवृद्धि करती है। 
  • यह योजना कम प्रतिनिधित्व वाले लक्षित समूहों जैसे महिलाओं, सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछडे समाजों, अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों की विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा करती है तथा उद्यमों सम्बन्धी आपूर्ति का विस्तृत आधार प्रदान करती है।
  • यह योजना उद्यमियों के कम प्रतिनिधित्व वाले क्षेत्रों को सम्मिलित करने हेतु सूची स्तम्भ के सबसे निचले स्तर पर जनसंख्या की आवश्यकताओं को समझने हेतु स्थायी विकास करती है। 
  • यह योजना नवप्रवर्तन को अपनाने पर बल देती है तथा तकनीक से प्रेरित उत्पादों/सेवाओं/प्रक्रियाओं का विकास करने अथवा वाणिज्यिकरण करने अथवा प्राज्ञ सम्पत्ति अधिकार तथा स्वत्वाधिकार पर बल देती है। 

प्रश्न 10. 
प्राज्ञ सम्पत्ति अधिकार की व्याख्या करें। इसके विभिन्न तत्वों को विस्तार से बताएँ। 
उत्तर:
प्राज्ञ सम्पत्ति का अधिकार-प्राज्ञ सम्पत्ति सभी जगह है, उदाहरणार्थ, हम जो संगीत सुनते हैं, प्रौद्योगिकी जिससे हमारा फोन कार्य करता है, अपनी मनपसंद कार का अभिकल्प या डिजाइन, हमारे जूतों पर लगा चिह्न आदि। यथार्थ में एक बार जब कल्पना वास्तविक उत्पाद बन जाती है, अर्थात् प्राज्ञ सम्पत्ति, तो कोई व्यक्ति उसकी सुरक्षा के लिए भारत सरकार के सम्बन्धित प्राधिकरण को आवेदन जमा करा सकता है। ऐसे उत्पादों पर जब प्राधिकरण द्वारा कानूनी अधिकार प्रदान कर दिये जाते हैं तो यह 'प्राज्ञ सम्पत्ति अधिकार' कहलाते हैं।

अतः प्राज्ञ सम्पत्ति का तात्पर्य मानवीय विचारों के उत्पादों से है, इसलिए सम्पत्तियों के अन्य प्रकारों की भाँति इनके स्वामी प्राज्ञ सम्पत्तियों को अन्य लोगों को किराये पर दे सकते हैं अथवा बेच सकते हैं। विशेष रूप से, प्राज्ञ सम्पत्ति का तात्पर्य मानवीय विचारों से जन्मी रचनाओं से है, जैसे-आविष्कार, साहित्यिक तथा कलात्मक कार्य, प्रतीक, नाम तथा व्यवसाय में प्रयुक्त चित्र एवं अभिकल्प। 

प्राज्ञ सम्पत्ति की श्रेणियाँ-प्रथम औद्योगिक सम्पत्ति-इसमें आविष्कार (एकस्व), व्यापार चिह्न, औद्योगिक अभिकल्प एवं भौगोलिक संकल्प सम्मिलित हैं। द्वितीय, स्वत्वाधिकार-इसमें साहित्यिक व कलात्मक कार्य जैसे उपन्यास, कविताएं, नाटक, अभिलेखन, चित्रकारी, फोटोग्राफी, मूर्तिकला व वास्तुशिल्पीय अभिकल्प सम्मिलित हैं। अभी हाल ही में प्राज्ञ सम्पत्ति के अन्तर्गत भौगोलिक संकेत, पौधों की प्रजातियों की सुरक्षा, अर्ध-चालकों व समाकलित परिपथों की सुरक्षा एवं अप्रकटित सूचना को लाया गया है। 

भारत में जिन प्राज्ञ सम्पत्ति अधिकारों को मान्यता दी गई है वे हैं-स्वत्वाधिकार, व्यापार चिह्न, भौगोलिक संकेत, एकस्व अभिकल्प, पौध विविधता, अर्धचालक समाकलित परिपथ अभिन्यारत अभिकल्प। इसके अतिरिक्त परम्परागत ज्ञान भी प्राज्ञ सम्पत्तियों में आता है। व्यापारिक भेद को भी अब प्राज्ञ सम्पत्ति में सम्मिलित किया गया है। 

प्राज्ञ सम्पत्ति अधिकार के तत्व अथवा पहलू-प्राज्ञ सम्पत्तियों के निम्न मुख्य तत्व या पहलू हैं- 

  • कानून-प्राज्ञ सम्पत्ति अधिकार रचयिताओं/प्राज्ञ सम्पत्ति स्वामियों को प्रदत्त वे कानूनी अधिकार हैं जो संरक्षित विषय सामग्री को दूसरों के प्रयोग करने पर रोक लगाते हैं। यह ज्ञान का कानूनी रक्षक है। 
  • प्रौद्योगिकी-प्रौद्योगिकी के सन्दर्भ में प्राज्ञ सम्पत्ति अधिकारों के अन्तर्गत सूचना प्रौद्योगिकी, आटोमोबाइल्स, फार्मास्यूटिकल्स तथा बायोटेक्नोलॉजी के विभिन्न पहलू आते हैं। 
  • व्यवसाय एवं अर्थशास्त्र-प्राज्ञ सम्पत्ति के 20 अधिकारों के मल तत्व व उद्योग के विकास तथा व्यवसायों की सफलता में सहायता करते हैं। प्राज्ञ सम्पत्ति अधिकार व्यवसायों के स्वामियों को अधिकार प्रदान करते हैं।
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Last Updated on July 14, 2022, 11:11 a.m.
Published July 8, 2022