RBSE Class 12 Sociology Notes Chapter 5 औद्योगिक समाज में परिवर्तन और विकास

These comprehensive RBSE Class 12 Sociology Notes Chapter 5 औद्योगिक समाज में परिवर्तन और विकास will give a brief overview of all the concepts.

Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Sociology in Hindi Medium & English Medium are part of RBSE Solutions for Class 12. Students can also read RBSE Class 12 Sociology Important Questions for exam preparation. Students can also go through RBSE Class 12 Sociology Notes to understand and remember the concepts easily. The bhartiya samaj ka parichay is curated with the aim of boosting confidence among students.

RBSE Class 12 Sociology Chapter 5 Notes औद्योगिक समाज में परिवर्तन और विकास

→ किसी भी शहर, देश व समाज को हम, वे कहाँ रहते हैं, क्या खाते हैं और कितने कीमती कपड़े पहनते हैं, के आधार पर विभाजित कर सकते हैं। परन्तु वे एक जैसी फिल्में और किक्रेट मैच देखते हैं, समान वायु प्रदूषित वातावरण में आवागमन करते हैं और उन सबकी आकांक्षा यह होती है कि उनके बच्चे अच्छा कार्य करें। इन बातों के आधार पर वे सब समान भी हैं।
इस अध्याय में भारत में प्रौद्योगिकी में होने वाले परिवर्तनों से भारत में सामाजिक सम्बन्धों में क्या परिवर्तन आता है तथा सामाजिक संस्थाएँ, जैसे-जाति, नातेदारी, लिंग एवं क्षेत्र आदि उत्पादन को बाजार में भेजने के तरीकों को किस प्रकार प्रभावित करते हैं, को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।

→ औद्योगिक समाज की कल्पना

  • कार्ल मार्क्स, वेबर और एमील दुर्खाइम जैसे विचारकों ने उद्योग की बहुत सी नयी संकल्पनाओं से स्वयं को जोड़ा जिनमें नगरीकरण, अज्ञात व्यावसायिक सम्बन्ध, श्रम विभाजन, अलगाव आदि प्रमुख हैं।
  • औद्योगीकरण कुछ स्थानों पर जबरदस्त समानता लाता है, जैसे-कार्यस्थल पर लिंग, जाति, धर्म, यातायात, होटल इत्यादि में जातीय भेदभाव मिट जाता है। लेकिन दूसरी तरफ धन, सम्पत्ति, शक्ति व सत्ता सम्बन्धी असमानताएँ उत्पन्न हो रही हैं। 

RBSE Class 12 Sociology Notes Chapter 5 औद्योगिक समाज में परिवर्तन और विकास

→ भारत में औद्योगीकरण
(i) भारतीय औद्योगीकरण की विशिष्टताएँ: भारत में औद्योगीकरण से होने वाले अनुभव कई प्रकारों से पाश्चात्य प्रतिमान से समान और कई प्रकारों से भिन्न थे; क्योंकि औद्योगीकरण पूँजीवाद का कोई आदर्श प्रतिमान नहीं है। विकसित देशों की जनसंख्या का एक बड़ा भाग नौकरी व उद्योगों में लगा होता है अर्थात् औपचारिक रूप से कार्यरत होते हैं, जबकि अविकसित देशों के अधिकांश लोग असंगठित या अनौपचारिक क्षेत्रों में कार्यरत होते हैं। भारत में 90% से अधिक कार्य असंगठित या अनौपचारिक क्षेत्र में आते हैं। 10% लोग ही संगठित क्षेत्र से सम्बन्धित होते हैं। संगठित क्षेत्र के इतना छोटा होने के प्रमुख कारण ये हैं

  • अधिकतर भारतीय लोग छोटे पैमाने पर कार्य कर रहे स्थानों पर ही काम करते हैं।
  • बहुत ही कम भारतीय सुरक्षित और लाभदायक नौकरियों में प्रवेश करते हैं । जो वहाँ हैं उनमें भी दोतिहाई सरकारी नौकरी करते हैं।
  • बहुत ही कम लोग मजदूर संघ के सदस्य हैं।
  • सरकार ने अब असंगठित क्षेत्रों की अवस्था पर निगरानी रखने के लिए नियम बनाए हैं, लेकिन वहाँ भी क्रियान्विति में नियोजक अथवा ठेकेदार की मनमर्जी ही प्रभावी होती है।

(ii) भारत में स्वतंत्रता के प्रारम्भिक वर्षों में औद्योगीकरण-भारत में आधुनिक उद्योगों की शुरुआत रुई, जूट, कोयला खाने एवं रेलवे इत्यादि उद्योगों से हुई। स्वतंत्रता के पश्चात् आर्थिकी में सुरक्षा, परिवहन एवं संचार, ऊर्जा खनन एवं अन्य परियोजनाओं को शामिल किया गया। भारत ने मिश्रित आर्थिक नीति अपनायी जिसमें कुछ क्षेत्र सरकार के लिए आरक्षित थे, जबकि कुछ निजी क्षेत्रों के लिए खुले थे। लेकिन यह भी सरकार की अपनी लाइसेंसिंग नीति के द्वारा सुनिश्चित होती है। स्वतंत्रता से पहले उद्योग बंदरगाह वाले शहरों जैसे मद्रास, बम्बई, कलकत्ता तक सीमित थे। लेकिन उसके बाद बड़ौदा, कोयंबटूर, बैंगलोर, पूना, फरीदाबाद एवं राजकोट भी महत्त्वपूर्ण औद्योगिक क्षेत्र बन गए। सरकार अन्य छोटे पैमाने के उद्योगों को भी विशिष्ट प्रोत्साहन एवं सहायता देकर प्रोत्साहित करने का प्रयास कर रही है। सन् 1991 तक भारत में कुल कार्यकारी जनसंख्या में से केवल 28% बड़े उद्योगों में नौकरी कर रहे थे, जबकि लगभग 72% लोग छोटे पैमाने के एवं परम्परागत उद्योगों में कार्यरत थे।

(iii) भूमण्डलीकरण, उदारीकरण एवं भारतीय उद्योगों में परिवर्तन-सन् 1990 के दशक में सरकार द्वारा अपनाई गई उदारीकरण की नीति से कुछ आरक्षित सरकारी क्षेत्र जैसे दूरसंचार, नागरिक उड्डयन एवं ऊर्जा आदि भी निजी क्षेत्रों में आ गए। इससे अब भारतीय दुकानों पर विदेशी वस्तुएँ भी आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं। उदारीकरण का दूसरा क्षेत्र खुदरा व्यापार हो सकता है।

  • उदारीकरण से विनिवेश की प्रक्रिया शुरू हो गई है, जिसके कारण कर्मचारियों को उनकी नौकरी चले जाने का भय, सुरक्षित रोजगार की कमी, आमदनी की असमानताएँ भी बढ़ रही हैं। बहुउद्देश्यीय कम्पनियाँ परे विश्व में बाह्य स्रोतों से, छोटी कम्पनियों व घरों से, कार्य करवाती हैं। विकासशील देशों से उन्हें सस्ते मजदूर उपलब्ध हो जाते हैं। सरकार भी अब बाह्य स्रोतों और अनुबंध पर काम करवाने लगी है।
  • संक्षेप में, भारत अभी भी एक कृषि प्रधान देश है। लेकिन अब सेवा क्षेत्र में अधिक लोग आ रहे हैं और नगरीय मध्यवर्ग की संख्या बढ़ रही है। टी.वी. और फिल्मों में दिखाये जाने वाले मध्य वर्ग के मूल्य बढ़ रहे हैं। लेकिन भारत में सुरक्षित रोजगार बहुत कम लोगों के पास है। सरकारी रोजगार भी अब कम होता जा रहा है। उद्योग लगाने में भूमि अधिग्रहण से विस्थापन की समस्या बढ़ रही है। 

→ लोग काम किस तरह पाते हैं
भारत में बहुत कम अनुपात में लोग, विज्ञापन या रोजगार कार्यालय के द्वारा नौकरी प्राप्त कर पाते हैं। स्वनियोजित लोगों की कार्य की अवधि इनके निजी सम्पर्कों पर निर्भर करती है। फैक्ट्री के कामगारों को अधिकांश रोजगार कार्यकारिणी तथा यूनियन के द्वारा दिलाया जाता है। बहुत सी फैक्ट्रियों में बदली कामगार होते हैं जो छुट्टी पर गये हुए मजदूरों के स्थान पर कार्य करते हैं लेकिन इसे संगठित क्षेत्र में अनुबंधित कार्य कहते हैं। औद्योगिक समाजों में अनियत कामगार होते हैं। परन्तु वे अनुबंधक के अन्य सामाजिक दायित्वों से बँधे हुए नहीं होते हैं। वे अनुबंध को तोड़कर किसी ओर के यहाँ काम ढूँढ सकते हैं।

रोजगार के अवसरों में दो तत्त्व शामिल होते हैं

  • किसी संगठन में रोजगार
  • स्व-रोजगार।

भारतीय सरकार के 'स्टैण्ड अप इण्डिया' तथा 'मेक इन इण्डिया' जैसे कार्यक्रम ऐसे नीतिगत प्रयास हैं जो रोजगार एवं स्वरोजगार को सम्भव बनाते हैं। 

RBSE Class 12 Sociology Notes Chapter 5 औद्योगिक समाज में परिवर्तन और विकास

→ काम को किस तरह किया जाता है

  • एक ऑफिस या फैक्ट्री में मैनेजर का मुख्य कार्य कामगारों को नियंत्रित रखना और उनसे अधिक कार्य करवाना होता है। कामगारों से अधिक काम करवाने हेतु या तो उनके कार्य के घण्टों को बढ़ाया जाता है या निर्धारित दिए गए समय में उत्पादित वस्तु की मात्रा को बढ़ा दिया जाता है।
  • मशीनें उत्पादन बढ़ाने में तो सहायता करती हैं; परन्तु कामगारों का स्थान ले लेती हैं। इससे बेरोजगारी बढ़ती है और सम्पत्ति कुछ हाथों में एकत्रित हो जाती है।
  • उत्पादन 'वैज्ञानिक प्रबंधन' या 'औद्योगिक इंजीनियरिंग' के माध्यम से भी बढ़ाया जा सकता है। 

→ प्रथमतः, इसमें सम्पूर्ण कार्य को छोटे-छोटे तत्त्वों में तोड़कर स्टॉपवॉच की सहायता से कामगारों के मध्य विभाजित कर दिये गए समय में पूरा करना होता है। दूसरे, कार्य को तेजी से समाप्त करने के लिए एसेंबली लाइन का श्रीगणेश हुआ। तीसरे, प्रत्यक्ष नियंत्रण के स्थान पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण की व्यवस्था की गई। भारत में अधिक मशीनों वाले उद्योगों में कम लोगों को काम दिया जाता है लेकिन जो होते हैं, उन्हें भी मशीनीगति से काम करना होता है। पूरे दिन में कामगारों को बहुत कम विश्राम मिलता है । इससे प्रत्येक व्यक्ति कम आयु में ही ज्यादा परिपक्व व निढाल हो जाता है। वास्तव में, मशीनों का प्रयोग कार्यकर्ताओं की क्षमता को कम कर देता है । चौथे, कारखाने में अनेक कार्य जैसे सफाई, सुरक्षा, पुों का उत्पादन आदि बाह्य स्रोतों से करा लिया जाता है । सेवा के क्षेत्र, जैसे सॉफ्टवेयर में काम करने वाले लोग मध्यमवर्गीय और पूर्णतः शिक्षित होते हैं। उनका कार्य भी टायलरिज्म लेबर प्रक्रिया के अनुसार होता है। इनके कार्य के घंटे बढ़ा दिये गये हैं। इससे संयुक्त परिवार पुनः बनने लगे हैं।

→ कार्यावस्थाएँ
किसी भी व्यक्ति को शक्ति, एक मजबूत घर, कपड़े और अन्य सामानों की आवश्यकता होती है लेकिन ये सभी वस्तुएँ किसी के काम करने की वजह से हमें प्राप्त होती हैं। सरकार ने कार्य की दशाओं को बेहतर करने के लिए बहुत से कानून बना दिये हैं। बड़ी कम्पनियों में इन नियमों का पालन किया जाता है लेकिन छोटी खानों या छोटी कम्पनियों पर नहीं। कई ठेकेदार मजदूरों का रजिस्टर भी ठीक से नहीं रखते हैं। यह कार्यावस्थाएँ भिन्न स्थानों पर भिन्न होती हैं और भिन्न-भिन्न कामगारों को भिन्न-भिन्न समस्याओं का सामना करना पड़ता है। उदाहरण, भूमिगत खानों में कार्य करने वाले कामगार, बाढ़, आग, ऊपरी या सतह के हिस्से के धंसने की स्थितियों का सामना करना पड़ता है; वहीं खुली खानों में काम करने वालों को तेज धूप और वर्षा, खान के फटने से या किसी चीज के गिरने से आने वाली चोट का सामना करना पड़ता है।

कई उद्योगों में कामगार प्रवासी होते हैं। इन प्रवासियों को सामाजिकता निभाने के लिए बहुत कम समय होता है। भारत जैसे देश में जहाँ परिवार का हस्तक्षेप होता है, लोगों का भूमंडलीकरण की अर्थव्यवस्था में काम करना अकेलेपन और असुरक्षा की तरफ ले जाता है। अभी भी बहुत सी युवा महिलाएँ कुछ स्वतंत्रता और आर्थिक स्वायत्तता का प्रतिनिधित्व करती हैं।

→ घरों में होने वाला काम
घरों में किया जाने वाला काम आर्थिकी का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। इसमें ज़री या ब्रोकेड का काम, गलीचों, बीड़ियों, अगरबत्तियों और ऐसे ही अन्य उत्पादों को बनाया जाता है। ये कार्य मुख्य रूप से महिलाओं व बच्चों द्वारा किया जाता है। एक एजेंट इन्हें कच्चा माल दे जाता है और सम्पूर्ण कार्य को ले भी जाता है। घर पर कार्य करने वालों को चीजों के नग के हिसाब से पैसे दिए जाते हैं। जो इस बात पर निर्भर करता है कि उन्होंने कितने नग बनाए हैं। निर्माता को अपने ब्रांड की वजह से सबसे ज्यादा पैसा मिलता है, यह ब्रांड की शक्ति को दर्शाता है।

RBSE Class 12 Sociology Notes Chapter 5 औद्योगिक समाज में परिवर्तन और विकास

→ हड़तालें एवं मजदूर संघ

  • बहुत से कामगार मजदूर संघ के भाग होते हैं। भारत में मजदूर संघों में क्षेत्रीयता और जातीयता जैसी बहुत-सी समस्याएँ होती हैं।
  • कभी-कभी काम की बुरी दशाओं के कारण कामगार हड़ताल कर देते हैं। हड़ताल के कारण कभीकभी मजदूरों को बेरोजगार भी होना पड़ जाता है।
  • कामगारों को केवल वेतन व महँगाई भत्ता दिया जाता है, इसके अलावा अन्य सुविधाएँ बहुत कम या अन्य कोई भत्ता नहीं मिलता। दुर्घटना होने पर मुआवजा नहीं मिलता है या बहुत कम मिलता है। इसके लिए कामगार मजदूर संघ में भाग लेते हैं जो कामगार व मालिक के बीच की कड़ी होते हैं । बम्बई इंडस्ट्रियल रिलेशंस एक्ट के अनुसार मजदूर संघ बनाने के लिए सरकार से अनुमति लेनी पड़ती है। बम्बई में 'राष्ट्रीय मिल मजदूर संघ' (आर.एम.एम.एस.) ही एकमात्र अनुमति प्राप्त संघ है।
  • मिल-मालिक आधुनिकीकरण और मशीनों पर निवेश नहीं करते हैं। आजकल वे अपनी मिलों को रियल स्टेट डीलर्स को सुख-सुविधा सम्पन्न बहुमंजिली इमारतें बनाने के लिए बेचने का प्रयास कर रहे हैं।
Prasanna
Last Updated on June 7, 2022, 3:23 p.m.
Published June 7, 2022