RBSE Class 12 History Notes Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

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RBSE Class 12 History Chapter 3 Notes बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

→ इतिहासकार समाज में हुए परिवर्तनों को समझने के लिए प्रायः साहित्यिक परम्पराओं का उपयोग करते हैं।

→ प्रत्येक ग्रन्थ और अभिलेख का लेखन किसी विशेष समुदाय के दृष्टिकोण से किया जाता है।

→ यदि हम ग्रन्थों का उपयोग सावधानीपूर्वक करें तो समाज में प्रचलित आचार-व्यवहार एवं रीति-रिवाजों का इतिहास लिखा जा सकता है।

→ महाभारत भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे समृद्ध ग्रन्थों में से एक है। इस महाकाव्य की रचना एक हजार वर्ष-तक होती रही (लगभग 500 ई. पू. से)। इसमें एक लाख श्लोकों से अधिक का संकलन है तथा विभिन्न सामाजिक श्रेणियों व परिस्थितियों का विवरण है। 

→ महाभारत.की मुख्य कथा का सम्बन्ध दो परिवारों के मध्य हुए युद्ध से है। इस ग्रन्थ के कुछ भाग विभिन्न सामाजिक समुदायों के आचार-व्यवहार के मानदण्ड तय करते हैं। इस ग्रन्थ के मुख्य पात्र प्रायः इन्हीं सामाजिक मानदण्डों का अनुसरण करते हुए दिखाई देते हैं। 

→ सन् 1919 ई. में प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान वी. एस. सुकथांकर के नेतृत्व में अनेक विद्वानों ने महाभारत के समालोचनात्मक संस्करण को तैयार करने की परियोजना प्रारम्भ की।

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→ इस परियोजना के अन्तर्गत देश के विभिन्न भागों से प्राप्त पाण्डुलिपियों के आधार पर महाभारत का समालोचनात्मक संस्करण तैयार करने में लगभग 47 वर्षों का समय लगा।

→ इस परियोजना को पूर्ण करने की प्रक्रिया के दौरान दो बातें विशेष रूप से उभर कर हमारे समक्ष आयीं

  • संस्कृत के कुछ पाठों में बहुत-से अंश समान थे। सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में प्राप्त पाण्डुलिपियों में यह समानता देखी गई।
  • कुछ शताब्दियों के दौरान हुए महाभारत के प्रेषण में अनेक क्षेत्रीय प्रभेद (प्रेकार) भी थे। 

→ ये प्रभेद प्रभावशाली परम्पराओं तथा लचीले स्थानीय विचार एवं आचरण के मध्य संवाद स्थापित कर सामाजिक इतिहासों को रूप देने वाली गूढ़ प्रक्रियाओं के द्योतक हैं।

→ परिवार एक बड़े समूह का भाग होते हैं जिन्हें हम सम्बन्धी कहकर पुकारते हैं। सम्बन्धियों को जाति-समूह भी कहा जा सकता है। 

→ पारिवारिक सम्बन्ध नैसर्गिक' एवं 'रक्त' से सम्बन्धित माने जाते हैं।

→ इतिहासकार पारिवारिक सम्बन्धों को पुनर्निर्मित करने के लिए परिवार तथा बन्धुर्ता सम्बन्धित विचारों का भी विश्लेषण करते हैं जिनसे लोगों की सोच का पता चलता है; अतः इनका अध्ययन महत्वपूर्ण होता है। 

→ संस्कृत ग्रन्थों में 'कुल' शब्द का प्रयोग परिवार के लिए एवं 'जाति' शब्द का प्रयोग बान्धवों के एक बड़े समूह के लिए किया जाता है।

→ पीढ़ी-दर-पीढ़ी किसी भी कुल के पूर्वज सम्मिलित रूप में एक ही वंश के माने जाते हैं। महाभारत बन्धुता के रिश्तों में परिवर्तन की कहानी है। यह कुरु वंश से सम्बन्धित बान्धवों के दो दलों (कौरव व पांडव) के मध्य भूमि एवं सत्ता को लेकर हुए संघर्ष को चित्रित करती हैं जो कि एक युद्ध में परिणत हुआ जिसमें पांडव विजयी हुए। 

→ महाभारत की मुख्य कथावस्तु ने पितृवंशिकता को मजबूत किया।

→ पितृवंशिकता के अनुसार पिता की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र उसके संसाधनों पर अधिकार स्थापित कर सकते हैं। 

→ राजाओं के सन्दर्भ में राजसिंहासन भी सम्मिलित था। लगभग छठी शताब्दी ई. पू. से अधिकांश राजवंश पितृवंशिकता प्रणाली का अनुसरण करते थे। हालाँकि विशेष परिस्थितियों में एक भाई दूसरे का उत्तराधिकारी होता था तथा परिस्थितिवश स्त्रियाँ (जैसे-प्रभावती गुप्त) भी सत्ता का उपभोग करती थीं।

→ पितृवंश को आगे बढ़ाने के लिए पुत्र महत्वपूर्ण होते थे। इस व्यवस्था में पुत्रियों को अलग तरह से देखा जाता था। पैतृक संसाधनों पर उनका कोई अधिकार नहीं था। पुत्रियों का अपने गोत्र से बाहर विवाह करना अपेक्षित था। यह प्रथा बहिर्विवाह पद्धति कहलाती है। इस पद्धति का प्रभाव यह हुआ कि कन्यादान (विवाह में कन्या की भेंट) को पिता का महत्वपूर्ण धार्मिक कर्तव्य माना गया।

→ सातवाहन राजाओं को उनके मातृनाम से चिह्नित किया जाता था जिससे यह प्रतीत होता है कि माताएँ महत्वपूर्ण थीं, परन्तु इस निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि सातवाहन राजाओं में सिंहासन का उत्तराधिकार प्रायः पितृवंशिक होता था। 

→ धर्मसूत्रों एवं धर्मशास्त्रों में वर्ग आधारित एक आदर्श व्यवस्था का उल्लेख मिलता है। इनके अनुसार समाज में चार वर्ग,थे, जिन्हें वर्ण कहा जाता था। 

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→ वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मणों को प्रथम स्थान प्राप्त था तथा शूद्रों व अस्पृश्यों' (अछूतों) को सबसे निचले स्तर पर रखा गया था। इस व्यवस्था में दर्जा सम्भवतः जन्म के अनुसार निर्धारित माना जाता था। ब्राह्मण इसे 'दैवीय व्यवस्था' मानते थे।

→ ब्राह्मणों ने इन नियमों का पालन करवाने हेतु दो-तीन नीतियों का अनुसरण किया। ये नीतियाँ थीं- एक, वर्ण व्यवस्था एक दैवीय व्यवस्था है। दो, वे शासकों को इस व्यवस्था के नियमों को अपने राज्यों में पालन कराने का उपदेश देते थे। तीन, वे लोगों को विश्वास दिलाने का प्रयत्न करते थे कि उनकी प्रतिष्ठा जन्म पर आधारित है। 

→ धर्मसूत्रों एवं धर्मशास्त्रों में चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र) के लिए आदर्श जीविका से जुड़े कई नियम मिलते हैं; जैसे-ब्राह्मणों का कार्य अध्ययन, वेदों की शिक्षा देना, यज्ञ करना व करवाना तथा दान देना और लेना; क्षत्रियों का कार्य- युद्ध करना, लोगों को सुरक्षा प्रदान करना तथा न्याय करना आदि । वैश्यों का कार्य-कृषि, गौपालन और व्यापार करना तथा शूद्रों का कार्य तीनों उच्च वर्गों की सेवा करना था। 

→ शास्त्रों के अनुसार केवल क्षत्रिय ही राजा हो सकते थे परन्तु कई महत्वपूर्ण राजवंशों की उत्पत्ति अन्य वर्गों से भी हुई थी; जैसे-मौर्य वंश, शुंग वंश, कण्व वंश आदि। 

→ बौद्ध ग्रन्थों में मौर्यों को क्षत्रिय माना गया है, जबकि ब्राह्मणीय शास्त्र उन्हें 'निम्न' कुल का मानते हैं, वहीं शुंग व कण्व ब्राह्मण थे।

→ ब्राह्मण मध्य एशिया से भारत आने वाले शक जैसे अन्य शासकों को मलेच्छ, बर्बर अथवा अन्यदेशीय मानते थे। . सातवाहन शासक भी स्वयं को ब्राह्मण वर्ण का बताते थे तथा अंतर्विवाह पद्धति का पालन करते थे।

→ ब्राह्मणीय सिद्धान्त के अनुसार वर्ण की तरह जाति भी जन्म पर आधारित थी, परन्तु वर्गों की संख्या निश्चित थी, जो संख्या में चार थीं, वहीं जातियों की कोई निश्चित संख्या नहीं थी। एक ही जीविका अथवा व्यवसाय से जुड़ी हुई जातियों को कभी-कभी श्रेणियों में भी संगठित किया जाता था। श्रेणी की सदस्यता

→ शिल्प में विशेषज्ञता पर निर्भर होती थी। 

→ मंदसौर (मध्य प्रदेश) से मिले एक अभिलेख (लगभग पाँचवीं शताब्दी ई.) में रेशम के बुनकरों का वर्णन मिलता है जो मूलतः लाट (गुजरात) प्रदेश के निवासी थे तथा वहाँ मंदसौर (उस समय दशपुर) आए थे।

→ संस्कृत के ग्रन्थ एवं अभिलेखों में व्यापारियों हेतु वणिक' शब्द मिलता है, वहीं शास्त्रों में व्यापार को वैश्यों की जीविका बताया जाता है। 

→ शूद्रक के नाटक 'मृच्छकटिकम्' (लगभग चौथी शताब्दी ई.) में नायक चारुदत्त को 'ब्राह्मण-वणिक' बतलाया गया है। इसी तरह पाँचवीं शताब्दी ई. के एक अभिलेख में दो भाइयों को 'क्षत्रिय-वणिक' कहा गया है जिन्होंने एक मन्दिर के निर्माण हेतु धन दिया।

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→ भारतीय उपमहाद्वीप में निवास करने वाले कुछ समुदायों पर ब्राह्मणीय विचारों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उदाहरण के लिए; निषाद वर्ग।

→ एकलव्य भी निषाद था। यायावर पशुपालकों को भी शंका की दृष्टि से देखा जाता था।

→ तत्कालीन ब्राह्मण कुछ लोगों को वर्ण व्यवस्था वाली सामाजिक प्रणाली का अंग नहीं मानते थे। उन्होंने चाण्डालों को अछूत मानकर समाज व्यवस्था में सबसे निम्न कोटि में रखा था। 

→ मनुस्मृति के अनुसार चाण्डालों को गाँव के बाहर रहना पड़ता था। वे फेंके हुए बर्तनों का उपयोग करते थे तथा मृतकों के वस्त्र व लोहे के आभूषण पहनते थे। रात के समय गाँव व नगरों में उनके आवागमन पर रोक थी। 

→ चीनी बौद्ध भिक्षु फा-शिएन (फाह्यान) के अनुसार, अस्पृश्य सड़क पर चलते समय करताल बजाकर अपने होने की सूचना देते थे ताकि अन्य लोग उन्हें देखने के दोष से स्वयं को बचा सकें। एक अन्य चीनी तीर्थयात्री ह्वेन-त्सांग के अनुसार, बधिक तथा सफाई करने वाले नगर से बाहर रहते थे।

→ मनुस्मृति के अनुसार पैतृक सम्पत्ति का माता-पिता की मृत्यु के पश्चात् सभी पुत्रों में समान रूप से बँटवारा किया जाना चाहिए, किन्तु ज्येष्ठ पुत्र विशेष भाग का अधिकारी था। स्त्रियाँ इस पैतृक सम्पत्ति में हिस्सेदारी की मांग नहीं कर सकती थीं।

→ स्त्रियों का स्त्रीधन (विवाह के समय मिले उपहार आदि) पर स्वामित्व होता था जिसे उनकी सन्तान विरासत के रूप में हासिल कर सकती थी, लेकिन इस पर उनके पति का अधिकार नहीं होता था। 

→ स्त्रियों और पुरुषों के संसाधनों पर नियंत्रण की भिन्नता के कारण उनके मध्य सामाजिक हैसियत की भिन्नता अधिक प्रखर हुई।

→ ब्राह्मणीय ग्रन्थों के अनुसार लैंगिक आधार के अतिरिक्त वर्ण भी सम्पत्ति पर अधिकार का एक आधार था। शूद्रों के लिए एकमात्र जीविका अन्य तीनों वर्गों की सेवा थी परन्तु पहले तीन वर्गों के पुरुषों के लिए विभिन्न जीविकाओं की सम्भावना रहती थी। 

→ बौद्ध धर्म में वर्ण व्यवस्था की आलोचना की गयी तथा जन्म के आधार पर सामाजिक प्रतिष्ठा को अस्वीकार किया गया था। 

→ दो हजार वर्ष पहले प्राचीन तमिलकम् क्षेत्र में अनेक सरदारियाँ थीं जो अपनी प्रशंसा गाने वाले चारण एवं कवियों को आश्रय प्रदान · करती थीं।

→ सामाजिक विषमताओं के सन्दर्भ में बौद्ध धर्म के अनुयायियों द्वारा एक भिन्न अवधारणा प्रस्तुत की गयी जिनके अनुसार सामाजिक भिन्नताओं का आधार एक सामाजिक अनुबन्ध था। 

→ बौद्ध ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि राजा का पद लोगों द्वारा चुने जाने पर निर्भर करता था। राजा द्वारा लोगों की सुरक्षा प्रदान करने के बदले में लोगों द्वारा राजा को कर दिए जाते थे। 

→ इतिहासकार किसी ग्रन्थ का विश्लेषण करते समय अनेक पहलुओं पर विचार-विमर्श करते हैं; जैसे-भाषा, रचनाकाल, लेखक, विषयवस्तु, श्रोता आदि। 

→ महाभारत नामक महाकाव्य कई भाषाओं में मिलता है लेकिन इसकी मूल भाषा संस्कृत है। इस ग्रन्थ में प्रयुक्त संस्कृत वेदों अथवा प्रशस्तियों की संस्कृत से कहीं अधिक सरल है। अतः कहा जा सकता है कि इस ग्रन्थ को व्यापक स्तर पर समझा जाता था।

→ इतिहासकार महाभारत की विषयवस्तु को दो मुख्य शीर्षकों के अन्तर्गत रखते हैं-आख्यान तथा उपदेशात्मक। आख्यान में कहानियों का संग्रह है तथा उपदेशात्मक भाग में सामाजिक आचार-विचार के मानदण्डों का चित्रण दिखाई देता है। 

→ ज्यादातर इतिहासकारों का मत है कि महाभारत वस्तुतः एक भाग में नाटकीय कथानक था। उपदेशात्मक अंशों को इसमें बाद में जोड़ा गया।

→ आरंभिक संस्कृत परम्परा में महाभारत को इतिहास की श्रेणी में रखा गया था।

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→ सम्भवतः महाभारत की मूल कथा के लेखक भाट सारथी थे जिन्हें सूता कहा जाता था। ये क्षत्रिय योद्धाओं के साथ युद्ध-क्षेत्र में जाते थे तथा उनकी विजय और उपलब्धियों के विषय में कविताएँ लिखते थे। वे इन रचनाओं का प्रेषण मौखिक रूप से करते थे।

→ पाँचवीं शताब्दी ई. पू. से इस कथा परम्परा का ब्राह्मणों ने अपना आधिपत्य जमा लिया तथा इसे लिखना शुरू किया। 

→ साहित्यिक परम्परा के आधार पर महाभारत के रचनाकार ऋषि वेद व्यास माने जाते हैं, जिन्होंने इस ग्रन्थ की गणेशजी से लिखवाया था। 

→ अन्य किसी भी प्रमुख महाकाव्य की भाँति महाभारत में युद्धों, वनों, राजमहलों एवं बस्तियों का अत्यन्त सजीव चित्रण दिखाई देता है। 

→ सन् 1951-52 में पुरातत्ववेत्ता बी.बी. लाल के नेतृत्व में मेरठ जिले के हस्तिनापुर नामक एक गाँव में उत्खनन किया गया था जिन्हें यहाँ आबादी के पाँच स्तरों के साक्ष्य मिले थे। 

→ पुरातत्ववेत्ताओं का मत है कि यह पुरास्थल कौरवों की राजधानी हस्तिनापुर हो सकती है जिसका उल्लेख महाभारत में आता है।

→ सृजनात्मक साहित्य की अपनी कथा सम्बन्धी आवश्यकताएँ होती हैं जो सदैव समाज में मौजूद वास्तविकताओं को नहीं दर्शाती हैं।

→ महाभारत की सबसे चुनौतीपूर्ण उपकथा द्रौपदी से पाण्डवों के विवाह की है। यह बहुपति विवाह का एक उदाहरण है जो महाभारत की कथा का एक अभिन्न अंग है।

→ महाभारत एक गतिशील ग्रन्थ रहा है।

→ शताब्दियों से इस महाकाव्य के अनेक पाठान्तर विभिन्न भाषाओं में लिखे गये जिसकी मुख्य कथा की अनेक पुनर्व्याख्याएँ की गयीं। इसके प्रसंगों को मूर्तिकला व चित्रों में भी दर्शाया गया। इसके अतिरिक्त इस महाकाव्य ने नाटकों एवं नृत्यकलाओं के लिए भी पर्याप्त विषयवस्तु प्रदान की है।

→ महाकाव्य - परिभाषा साहित्यशास्त्र के अनुसार वह सर्गबद्ध काव्य ग्रन्थ जिसमें प्रायः सभी रसों, ऋतुओं और प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन हो, महाकाव्य कहलाता है। ये विशालतम एवं सर्वश्रेष्ठ काव्य होते हैं; उदाहरण-महाभारत, रामायण आदि।

→ महाभारत - वेदव्यास द्वारा रचित वह परम प्रसिद्ध संस्कृत महाकाव्य जिसमें कौरवों और पाण्डवों के प्रसिद्ध युद्ध का वर्णन है। महाभारत का प्राचीन नाम जयसंहिता था।

→ पाण्डुलिपि - पुस्तक, लेख आदि की हाथ से लिखी हुई वह प्रति जो छपने को हो। 

→ कुल - एक ही पूर्व पुरुष से उत्पन्न व्यक्तियों का समूह, वंश, घराना, खानदान । संस्कृत ग्रन्थों में कुल शब्द का प्रयोग प्रत्येक परिवार के लिए होता है।

→ जाति - हिन्दुओं का वह सामाजिक विभाग जो पहले कर्मानुसार था, पर अब जन्मानुसार माना जाता है। संस्कृत ग्रन्थों में जाति शब्द का प्रयोग बान्धवों (सगे-सम्बन्धियों) के एक बड़े समूह के लिए होता है।

→ वंश - पीढ़ी-दर-पीढ़ी किसी भी कुल के पूर्वज सामूहिक रूप में एक ही वंश के माने जाते

→ परिवार - परिवार एक बड़े समूह का हिस्सा होते हैं जिन्हें हम सम्बन्धी कहते हैं, इन्हें जाति समूह भी कह सकते हैं। 

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→ पितृवंशिकता - वह वंश परम्परा जो पिता के पुत्र, फिर पौत्र, प्रपौत्र आदि से चलती है। 

→ मातृवंशिकता - वह वंश परम्परा जो माँ से जुड़ी होती है। 

→ कन्यादान - विवाह में कन्या की भेंट को कन्यादान कहा जाता है, जो पिता का एक महत्वपूर्ण धार्मिक कर्त्तव्य माना जाता है।

→ धर्मसूत्र व धर्मशास्त्र - ब्राह्मणों ने समाज के लिए विस्तृत आचार संहिताएँ तैयार की। 500 ई. पू. से इन मानदण्डों का संकलन जिन संस्कृत-ग्रन्थों में किया गया, वे धर्मसूत्र व धर्मशास्त्र कहलाए।

→ मनुस्मृति - 'धर्मसूत्रों एवं धर्मशास्त्रों में सबसे महत्वपूर्ण मनुस्मृति थी। यह आरंभिक भारत का सबसे प्रसिद्ध विधि ग्रन्थ है जिसे संस्कृत भाषा में 200 ई. पू. से 200 ई. के मध्य लिखा गया। 

→ उपनिषद् - ब्राह्मणों के वे अन्तिम भाग जिनमें आत्मा, परमात्मा आदि का निरूपण है।

→ वर्ण - ब्राह्मणों द्वारा निर्मित सामाजिक वर्ग जिनका वर्णन धर्मसूत्रों एवं धर्मशास्त्रों में किया गया है। वर्ण चार हैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। 

→ मलेच्छ - मध्य एशिया से भारत में आयी जातियों को ब्राह्मणवादी व्यवस्था में मलेच्छ कहा गया। 

→ चाण्डाल - प्राचीन समय में शवों की अन्त्येष्टि करने एवं मृत पशुओं को छूने जैसे कार्यों को करने वाले लोगों को चाण्डाल कहा जाता था। वर्ण व्यवस्था वाले समाज में इन्हें सबसे निम्न स्थान पर रखा गया था। 

→ बौद्ध भिक्षु - बौद्ध धर्म की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करने वाले लोग। 

→ स्त्री धन - प्राचीन काल में स्त्री को विवाह के समय जो उपहार मिलते थे जिस पर उसी का अधिकार होता था, उसे स्त्रीधन कहा जाता था। इसे उसकी संतान विरासत के रूप में प्राप्त कर सकती थी लेकिन इस पर उसके पति का कोई अधिकार नहीं होता था। 

→ कर - 'कर' वह मूल्य था जो लोगों द्वारा राजा को उनकी सुरक्षा के बदले दिया जाता था।

→ आख्यान - पुरानी बात को कहानी के रूप में कहना आख्यान कहलाता है। यह महाभारत का सबसे महत्वपूर्ण उपदेशात्मक अंश है।

→ भगवद्गीता - यह कुरुक्षेत्र के युद्ध क्षेत्र में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया उपदेश है।

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→ (अध्याय में दी गई महत्वपूर्ण तिथियाँ एवं सम्बन्धित घटनाएँ)

काल अथवा कालावधि

घटना/विवरण

1. लगभग 1000 ई. पू.

 वैदिक काल में गोत्र व्यवस्था का प्रचलन।

2. लगभग 500 ई. पू.

 पाणिनि की अष्टाध्यायी, संस्कृत व्याकरण की एक पुस्तक।

3. लगभग 500200 ई. पू.

 सूत्र काल (प्रमुख धर्मसूत्र, संस्कृत में)।

4. लगभग 500100 ई. पू.

 आरंभिक बौद्ध ग्रन्थों का काल; जैसेपालि भाषा में रचित त्रिपिटक

5. लगभग 500 ई. पू. से 400 ई.

 रामायण तथा महाभारत का रचना काल (संस्कृत में)।

6. लगभग 200 ई. पू. से 200 ई.

 मनुस्मृति (संस्कृत में रचित सामाजिक नियमों का ग्रन्थ) तथा तमिल भाषा में संगम साहित्य की रचना व संकलन।

7. लगभग 100 ई.

 चरक तथा सुश्रुत संहिता आयुर्वेदिक ग्रन्थ (संस्कृत में) का रचना काल।

8. लगभग 200 ई.

 पुराणों का संकलन (संस्कृत में)।

9. लगभग 300 ई.

  भरतमुनि का नाट्यशास्त्र (संस्कृत में)।

10. लगभग 300-600 ई.

 संस्कृत में लिखे धर्मशास्त्र।

11. लगभग 400-500 ई..

 कालिदास के संस्कृत साहित्य सहित; खगोल व गणितशास्त्र पर आर्यभट्ट तथा वराहमिहिर के ग्रन्थ (संस्कृत में), जैन ग्रन्थों का संग्रहण (प्राकृत में)।

12. लगभग पाँचवीं शताब्दी ई.

 बौद्ध यात्री फाह्यान (फा शिएन) का आगमन काल।

13. लगभग सातवीं शताब्दी ई.

 बौद्ध भिक्षु ह्वेनसांग (श्वैन त्सांग) का आगमन काल।

14. 1919-66 ई.

 महाभारत के समालोचनात्मक संस्करण की परिकल्पना तथा प्रकाशन।

15. 1973 ई.

 जे. ए.बी. वैन बियुटेनेन द्वारा महाभारत के समालोचनात्मक संस्करण का अंग्रेजी अनुवाद का आरम्भ, 1978 ई. में उनकी मृत्यु के उपरान्त यह परियोजना अधूरी रह गयी।

Prasanna
Last Updated on Jan. 10, 2024, 9:35 a.m.
Published Jan. 9, 2024