RBSE Class 12 Hindi Anivarya अपठित बोध अपठित काव्यांश

Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 12 Hindi Anivarya अपठित बोध अपठित काव्यांश Questions and Answers, Notes Pdf.

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RBSE Class 12 Hindi Anivarya अपठित बोध अपठित काव्यांश

निर्देश : 

  1. परीक्षा में अपठित गद्यांश और पद्यांश के अवतरण दिये जाते हैं। 
  2. अपठित गद्यांश या पद्यांश को सावधानी से पढ़कर उसका केन्द्रीय भाव ग्रहण करना चाहिए। 
  3. यदि कोई रेखांकित अंश हो, तो उसका अर्थ एवं मूल भाव सावधानीपूर्वक समझना चाहिए। 
  4. अपठित का यदि शीर्षक देना हो, उसका चुनाव केन्द्रीय भाव के अनुसार संक्षिप्त व सारगर्भित करना चाहिये। 
  5. अपठित से सम्बन्धित प्रश्न विषय-वस्तु, भावाभिव्यक्ति एवं रचनान्तरण आदि से सम्बन्धित होते हैं। 

अपठित काव्यांश 

निम्नांकित अपठित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

1. मनमोहिनी प्रकृति की जो गोद में बसा है, 
सुख स्वर्ग-सा जहाँ है, वह देश कौन-सा है? 
जिसका चरण निरन्तर रत्नेश धो रहा है, 
जिसका मुकुट हिमालय, वह देश कौन-सा है? 
नदियाँ जहाँ सुधा की धारा बहा रही हैं, 
सींचा हुआ सलोना, वह देश कौन-सा है? 
जिसके बड़े रसीले, फल, कन्द, नाज, 
मेवे, सब अंग में सजे हैं, वह देश कौन-सा है? 
जिसमें सुगन्ध वाले, सुन्दर प्रसून प्यारे, 
दिन-रात हँस रहे हैं, वह देश कौन-सा है?
मैदान, गिरि, वनों में हरियालियाँ लहकतीं, 
आनन्दमय जहाँ है, वह देश कौन-सा है? 
जिसकी अनन्त धन से, धरती भरी पड़ी है, 
संसार का शिरोमणि, वह देश कौन-सा है? 

प्रश्न : 
(अ) भारत का मुकुट किसे कहा गया है? 
(ब) कवि ने भारतवर्ष की कौन-सी विशेषताएँ बतायी हैं? 
(स) 'सींचा हुआ सलोना' से क्या तात्पर्य है? 
(द) भारत देश को संसार का शिरोमणि क्यों कहा गया है? 
(य) भारत के प्राकृतिक सौन्दर्य को कवि ने स्वर्ग के सदृश्य क्यों कहा है? 
(र) नदियाँ जहाँ सुधा की धारा बहा रही है? इस पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :  
(अ) भारत का मुकुट हिम-शुभ्र हिमालय को कहा गया है। 
(ब) कवि ने बताया है कि हिमालय इसका मुकुट है और सागर इसके चरण धोता है। यहाँ पर हरे-भरे खेत हैं और इसके गर्भ में अपरिमित खनिज-सम्पदा भरी हुई है। 
(स) भारतीय भूभाग पर बहने वाली नदियाँ खेतों की सिंचाई करती हैं, जिससे सारा भूभाग सुन्दर, हरा भरा और सजीला लगता है। 
(द) 'कवि ने भारत को संसार का शिरोमणि कहा है।' यह इसलिए की जो भारत की विशेषताएँ हैं, वह संसार के और किसी देश की नहीं हैं। 
(य) यह इसलिए कहा है कि भारत की प्राकृतिक सुन्दरता में स्वर्ग की सुन्दरता, सुख और आनन्द का रोचक अनुमान हो रहा है। 
(र) उपर्युक्त पंक्ति के द्वारा कवि ने बताया कि भारत देश संसार का अनोखा देश है। वह संसार का शिरोमणि है। वह अमृतमय जीवन है। 

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2. मेरी भूमि तो है पुण्यभूमि वह भारती, 
सौ नक्षत्र-लोक करें आके आप आरती। 
नित्य नये अंकुर असंख्य वहाँ फूटते, 
फूल झड़ते हैं, फल पकते हैं, टूटते। 
सुरसरिता ने वहीं पाई हैं सहेलियाँ,
लाखों अठखेलियाँ, करोड़ों रंगरेलियाँ। 
नन्दन विलासी सुरवृन्द, बहु वेशों में, 
करते विहार हैं हिमाचल प्रदेशों में। 
सुलभ यहाँ जो स्वाद, उसका महत्त्व क्या? 
दुःख जो न हो तो फिर सुख में है सत्त्व क्या? 
दुर्लभ जो होता है, उसी को हम लेते हैं, 
जो भी मूल्य देना पड़ता है, वही देते हैं। 
हम परिवर्तनमान, नित्य नये हैं तभी, 
ऊब ही उठेंगे कभी एक स्थिति में सभी। 
रहता प्रपूर्ण है हमारा रंगमंच भी, 
रुकता नहीं है लोक नाट्य कभी रंच भी। 

प्रश्न : 
(अ) कवि ने पुण्य भूमि किसे और क्यों कहा है? 
(ब) हिमाचल प्रदेश की क्या विशेषता बताई गयी है? 
(स) "दुःख जो न हो, तो फिर सुख में है सत्त्व क्या?"-इस कथन का तात्पर्य स्पष्ट कीजिए। 
(द) पृथ्वीवासियों को 'नित्य नये क्यों कहा गया है?
उत्तर : 
(अ) कवि ने भारत भूमि को पुण्य भूमि कहा है क्योंकि वहाँ आकर सैकड़ों नक्षत्र लोग उसकी आरती उतारते 
(ब) हिमाचल प्रदेश में पेड़-पौधों एवं लताओं पर नये अंकुर फूटते फूल, फल आते हैं और वहाँ पर कई 
छोटी-बड़ी नदियाँ बहती हैं। अनेक वेशभूषा के लोग देवगणों के समान निवास करते हैं।
(स) सांसारिक जीवन में दुःखों का सामना करने पर जब सुख मिलते हैं, तो उनका महत्त्व ज्ञात हो जाता है। सुख का सार दुःखों से उबरने पर ही महसूस होता है। 
(द) इस धरती पर हमेशा परिवर्तन होते रहते हैं, जीवन सदा गतिशील बना रहता है, वह रुकता नहीं है। इसी परिवर्तनशीलता से पृथ्वीवासियों को 'नित्य नये' कहा गया है। 

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3. यह अवसर है, स्वर्णिम सुयुग है, 
खो न इसे नादानी में, 
रंगरेलियों में, छेड़छाड़ में, 
मस्ती में, मनमानी में। 
तरुण, विश्व की बागडोर ले 
तू अपने कठोर कर में, 
स्थापित कर रे मानवता 
बर्बर नृशंस के उर में। 
दंभी को कर ध्वस्त धरा पर 
अस्त-त्रस्त पाखंडों को, 
करुणा शान्ति स्नेह सुख भर दे 
बाहर में, अपने घर में। 
यौवन की ज्वाला वाले 
दे अभयदान पद दलितों को, 
तेरे चरण शरण में आहत 
जग आश्वासन-श्वास गहे॥

प्रश्न : 
(अ) "यह अवसर है, स्वर्णिम सुयुग है" कवि ने किस अवसर को स्वर्णिम सुयुग कहा है? 
(ब) विश्व की बागडोर किसके हाथों में शोभा पाती है? क्यों? 
(स) "बाहर में, अपने घर में " क्या भरने के लिए कहा गया है? 
(द) "दे अभयदान पद दलितों को" पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए। 
(य) कवि ने किसके हृदय में मानवता स्थापित करने को कहा है? 
(र) कवि ने किसको धरा पर ध्वस्त करने को कहा और किससे कहा? 
उत्तर :
(अ) कवि ने स्वतन्त्रता-प्राप्ति के साथ देश के तरुणों को युवा-शक्ति के सदुपयोग का मौका मिलने को स्वर्णिम 
सुयुग कहा है। 
(ब) विश्व की बागडोर तरुणों अर्थात् युवाओं के हाथों में शोभा पार्ती है, क्योंकि वे ही प्रगति के कर्णधार होते हैं तथा मानवता स्थापित कर सकते हैं। 
(स) कवि ने तरुणों से कहा है कि वे अपने घर और देश में तथा सारे विश्व में करुणा, शान्ति, सुख एवं स्नेह की भावना भर दें। 
(द) इसका आशय है, सदियों से शोषित, पद-दलित वर्ग को तुम अपनी वीरता के बल पर भयरहित करके अभयदान दे दो अर्थात् इन्हें सुखी व निर्भय कर दो।
(य) कवि ने बर्बर नशंस व्यक्ति के हृदय में मानवता स्थापित करने को कहा है। 
(र) कवि ने युवा व्यक्तियों को कहा है कि दंभी व्यक्ति और अस्त-त्रस्त पाखण्डों को धरा पर ध्वस्त कर मानवता का संचार कर दो।

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4. हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए, 
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए, 
आज ये दीवार, परदों की तरह हिलने लगी 
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए। 
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए, 
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, 
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए। 

प्रश्न 
(अ) 'इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए'-इस पंक्ति में हिमालय से कवि का क्या तात्पर्य है? 
(ब) सामाजिक परिवर्तन के लिए कवि ने क्या शर्त रखी है? 
(स) "ये सूरत बदलनी चाहिए"-इसमें कवि किसकी सूरत बदलवाना चाहता है और क्यों?
(द) "हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए"-इस पंक्ति में कवि का क्या आशय है? लिखिए। 
(य) इस पद्यांश से कवि क्या सन्देश देना चाहता है? 
(र) प्रस्तुत पंक्तियों में किसके प्रति संवेदना व्यक्त की गई है? 
उत्तर :  
(अ) हिमालय से कवि का आशय समाज में निरन्तर बढ़ती हुई विद्रूपताओं एवं उस सांघातिक पीड़ा से है, जिसे आम आदमी झेल रहा है। 
(ब) कवि ने यह शर्त रखी है कि समाज में आमूलचूल और बुनियादी परिवर्तन होना चाहिए, भ्रष्ट समाज व्यवस्था की बुनियाद हिलनी चाहिए।
(स) कवि चाहता है कि देश की बुरी व्यवस्थाओं के ढाँचे में बदलाव लाना जरूरी है। इसके बिना समाज की उन्नति सम्भव नहीं है। 
(द) कवि का आशय है कि प्रत्येक भारतीय के हृदय में अव्यवस्थाओं को बदलने का जोशभरा दृढ़-निश्चय रहे और क्रान्तिकारी उपायों का प्रसार होता रहे। 
(य) इस पद्यांश से कवि देशवासियों को जागरण का सन्देश देना चाहता है। 
(र) इन पंक्तियों में धर्म-जाति, भेदभाव, शोषण, अत्याचार से पीड़ित व्यक्तियों के प्रति संवेदना व्यक्त हुई है। 

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5. शान्ति नहीं तब तक, जब तक 
सुख भाग न नर का सम हो, 
नहीं किसी को बहुत अधिक हो, 
नहीं किसी को कम हो। 
ऐसी शान्ति राज्य करती है 
तन पर नहीं, हृदय पर, नर के ऊँचे विश्वासों पर, 
श्रद्धा, भक्ति, प्रणय पर। 
न्याय शान्ति का प्रथम न्यास है,
जब तक न्याय न आता 
जैसा भी हो, महल शान्ति का 
सुदृढ़ नहीं रह पाता। 
कृत्रिम शान्ति सशंक आप 
अपने से ही डरती है। 
खड्ग छोड़ विश्वास किसी का 
कभी नहीं करती है। 

प्रश्न : 
(अ) "शान्ति नहीं तब तक, जब तक सुख भाग न नर का सम हो"-इस कथन का क्या तात्पर्य है? समझाइए। 
(ब) शान्ति का प्रथम न्यास किसे कहा गया है और क्यों? 
(स) "कृत्रिम शान्ति सशंक आप अपने से ही डरती है" ऐसा क्यों कहा गया है? 
(द) 'न्याय' व 'समानता' से स्थापित शान्ति का साम्राज्य किन स्थानों व किन भावनाओं पर स्थापित हो जाता है? 
(य) किस प्रकार की शांति राज्य करती है? 
(र) 'खड्ग छोड़ विश्वास' कौन नहीं करती? 
उत्तर :  
(अ) जब तक मानव-समाज में आर्थिक तथा भौतिक सुख-सुविधा की दृष्टि से समानता स्थापित न हो, सभी का सुख-भाग समान न हो, तब तक शान्ति स्थापना सम्भव नहीं है। 
(ब) शान्ति का प्रथम न्यास समाज में न्याय-सुलभता है। क्योंकि जहाँ सबके साथ न्याय किया जायेगा, वहीं शान्ति स्थापित हो सकती है। 
(स) कृत्रिम शान्ति अधिक समय तक नहीं रह सकती, क्योंकि उसके कभी भी समाप्त हो जाने की आशंका रहती है। 
(द) न्याय और समानता से स्थापित शान्ति का साम्राज्य जनता के शरीर, हृदय और मानव के दृढ़ विश्वासों पर 
तथा श्रद्धा, भक्ति एवं प्रेम-व्यवहार की भावनाओं पर स्थापित होता है। 
(य) न्याय और समानता से स्थापित शान्ति राज्य करती है। 
(र) कृत्रिम शान्ति खड्ग छोड़ विश्वास किसी का भी नहीं करती है। क्योंकि वह स्वयं से डरती है। 

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6. जग में सचर-अचर जितने हैं, सारे कर्म निरत हैं। 
धुन है एक-न-एक संभी को, सबके निश्चित व्रत हैं। 
जीवन-भर आतप सह वसुधा पर छाया करता है। 
तुच्छ पत्र की भी स्वकर्म में कैसी तत्परता है। 
सिंधु-विहंग तरंगपंख को फड़काकर प्रतिक्षण में। 
है निमग्न नित भूमि-अंड के सेवन में, रक्षण में। 
कोमल मलय पवन घर-घर में सुरभि बाँट आता है। 
शस्य सींचने घन जीवन धारण कर नित जाता है। 
रवि जग में शोभा सरसाता, सोम सुधा बरसाता। 
सब हैं लगे कर्म में, कोई निष्क्रिय दृष्टि न आता। 

प्रश्न :
(अ) 'तुच्छ पत्र की स्वकर्म में तत्परता' से कवि का क्या आशय है? 
(ब) सूर्य सदैव कौन-से कर्म में सक्रिय रहता है? 
(स) 'सब हैं लगे कर्म में'-इससे कवि ने क्या सन्देश दिया है? 
(द) 'सबके निश्चित व्रत हैं'-इसके लिए कवि ने किनके दृष्टान्त दिये हैं? 
(य) 'सबके निश्चित व्रत हैं।' इसका मतलब क्या है? 
(र) 'सिंधु-विहंग तरंगपंख' में कौनसा अलंकार है? 
उत्तर :  
(अ) तुच्छ पत्ता भी धरती पर सदा छाया करता रहता है। वह स्वयं धूप-गर्मी सहकर भी अपने कर्त्तव्य-पालन 
में तत्पर रहता है। 
(ब) सूर्य सदैव प्रात:काल उदय होकर संसार में प्रकाश एवं ऊष्मा फैलाकर सबके जीवन की रक्षा करता है। 
(स) इससे कवि ने यह सन्देश दिया है कि प्रकृति हमेशा अपने कर्तव्य पालन में तत्पर रहती है उसी प्रकार मनुष्य को भी अपने कर्त्तव्य-पालन में सदैव तत्पर रहना चाहिए। 
(द) इस संसार में सबके कर्म निश्चित हैं। समुद्र, वायु, बादल, सूर्य तथा चन्द्रमा के साथ ही तुच्छ पत्ते का दृष्टान्त देकर कवि ने कर्म-तत्परता की सुन्दर व्यंजना की है। 
(य) इसका मतलब यह है कि प्रत्येक जड़-चेतन वस्तु का अपना कर्म निश्चित है। वह अपने कर्तव्य पालन में हमेशा तत्पर रहता है। 
(र) 'सिंधु-विहंग तरंगपंख' में रूपक अलंकार है। 

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7. जब कि घटाओं ने सीखा था सबसे पहले घहराना, 
पहले पहल प्रभंजन ने जब सीखा था कुछ हहराना, 
जब कि जलधि सब सीख रहे थे सबसे पहले लहराना, 
उसी अनादि-आदि क्षण से यह जन्म-स्थान हमारा है ! 
भारतवर्ष हमारा है यह हिन्दुस्तान हमारा है !  
इसी नभ तले उसने देखे, शत-शत नवल सृजन-सपने, 
यहाँ उठे 'स्वाहा' ! के स्वर, औ यहाँ 'स्वधा' के मंत्र बने!
ऐसा प्यारा देश पुरातन, ज्ञान-निधान हमारा है ! 
भारतवर्ष हमारा है, यह हिन्दुस्तान हमारा है। 

प्रश्न :
(अ) भारतवर्ष कब से विद्यमान है? 
(ब) 'प्रथम मानव ने खोले निंदियारे लोचन'-पंक्ति में 'निंदियारे लोचन' से कवि का क्या तात्पर्य है? 
(स) देश पुरातन, ज्ञान-निधान हमारा' कहने से क्या अभिप्राय है?
(द) इस काव्यांश से कवि ने कौन-सा भाव व्यक्त किया है? 
(य) यहाँ उठे 'स्वाहा'! के स्वर, औ यहाँ 'स्वधा' के मन्त्र बने। पंक्ति का भावार्थ बताइए। 
(र) काव्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 
उत्तर :  
(अ) भारतवर्ष तब से विद्यमान है जब से मानव-सभ्यता का सर्वप्रथम निर्माण प्रारम्भ हुआ, अर्थात् सृष्टि के आरम्भिक काल से हमारा भारत देश विद्यमान है। 
(ब) इससे कवि का तात्पर्य है कि संसार में सर्वप्रथम सभ्यता का विकास भारत में ही हुआ और यहीं पर मानव ने अपने ज्ञान-नेत्र खोले। 
(स) पुराणेतिहास से यह सिद्ध हो जाता है कि भारत ही सबसे पहले ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न हुआ, और यहीं पर सर्वप्रथम सभी कलाओं का समुचित विकास भी हुआ। 
(द) इस काव्यांश में भारत की अनेक विशेषताएँ बताते हुए कवि ने देश-प्रेम और राष्ट्रीयता का भाव व्यक्त किया है। 
(य) भारतवर्ष में सबसे पहले यज्ञानुष्ठान और वेदमन्त्रों का उच्चारण हुआ था। 
(र) उपयुक्त शीर्षक-हमारा हिन्दुस्तान या भारतवर्ष की महानता। 

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8. पूर्व चलने के बटोही, 
बाट की पहचान कर ले। 
है अनिश्चित, किस जगह पर 
सरित, गिरि, गह्वर मिलेंगे, 
है अनिश्चित, किस जगह पर 
बाग, वन सुन्दर मिलेंगे। 
किस जगह यात्रा खतम हो, 
जायगी, यह भी अनिश्चित, 
है अनिश्चित, कब सुमन, कब 
कंटकों के शर मिलेंगे। 

प्रश्न 
(अ) "बाट की पहचान कर ले"-इस पंक्ति में 'बाट' से क्या आशय है? 
(ब) यात्रा प्रारम्भ करने से पूर्व पथिक को क्या सोच लेना चाहिए? 
(स) "है अनिश्चित-..." यात्रा-मार्ग में क्या अनिश्चित है? 
(द) प्रस्तुत काव्यांश में क्या सन्देश व्यक्त हुआ है? 
(य) प्रस्तुत काव्यांश में कौनसी शब्द-शक्ति का प्रयोग हुआ है? 
(र) प्रस्तुत काव्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 
उत्तर :  
(अ) इसमें 'बाट' से आशय जीवन का लक्ष्य या लक्ष्य-प्राप्ति की वह दृढ़ेच्छा है, जिससे जीवन में सफलता मिलती है। 
(ब) यात्रा प्रारम्भ करने से पूर्व पथिक को यह सोच लेना चाहिए कि इसमें कितना कष्ट मिलेगा, कितनी बाधाएँ आयेंगी और कितनी सफलता मिल सकेगी। 
(स) मनुष्य के जीवन-मार्ग में कहाँ पर सुख मिलेगा, कहाँ पर बाधाएँ और कष्ट झेलने पड़ेंगे सब कुछ अनिश्चित 
(द) यह सन्देश व्यक्त हुआ है कि मनुष्य को जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अनुकूल और प्रतिकूल सभी परिस्थितियों का सामना करने के लिए सावधान रहना चाहिए। 
(य) प्रस्तुत काव्यांश में लक्षणा शब्दशक्ति का प्रयोग हुआ है।
(र) शीर्षक-पथ की पहचान। 

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9. मन की बँधी उमंगें असहाय जल रही हैं, 
अरमान-आरजू की लाशें निकल रही हैं। 
भीगी-खुली पलों में रातें गुजारते हैं, 
सोती वसुन्धरा जब तुमको पुकारते हैं। 
इनके लिए कहीं से निर्भीक तेज ला दे, 
पिघले हए अनल का इनको अमृत पिला दे। 
आमर्ष को जगाने वाली शिखा नयी दे, 
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे। 

प्रश्न :
(अ) "मन की बँधी उमंगें असहाय"-इस पंक्ति का आशय क्या है? 
(ब) भीगी-खुली पलों में रातें कौन गुजारते हैं? 
(स) "कहीं से निर्भीक तेज ला दे"-कवि किनके लिए निर्भीक तेज लाने के लिए कहता है? 
(द) "आमर्ष को जगाने वाली शिखा" से कवि का क्या आशय है? 
(य) कवि निर्भीक तेज लाने के लिए क्यों कहता है? 
(र) सोती वसुन्धरा जब तुमको पुकारते हैं। इस पंक्ति में वसुन्धरा को कौन और क्यों पुकार रहा है? 
उत्तर :  
(अ) देश में लोकतन्त्र की स्थापना हो जाने पर निम्न वर्ग के लोगों को अपने अभ्युदय की जो आशाएँ थीं, वे सब अपूर्ण अर्थात् नष्ट हो गई हैं। 
(ब) समाज के गरीब लोग, शोषित-पीड़ित श्रमिक एवं खेतिहर कृषक वर्ग अभावों से जूझते रहते हैं और अपने भाग्य पर आँसू बहाते हुए रातें गुजार देते हैं। 
(स) समाज में जो लोग शोषित-दलित हैं, अभावग्रस्त एवं बेसहारा हैं, कवि उनके कल्याण के लिए निर्भीक तेज लाने के लिए कहता है। 
(द) समाज में विषमता, निम्न वर्ग की दयनीय दशा एवं असन्तोष का निवारण करने के लिए ओज-तेज से समन्वित क्रान्ति की शिखा जलनी चाहिए। 
(य) निर्भीक तेज अर्थात् सामाजिक क्रान्ति आने से ही निम्न वर्ग का उद्धार हो सकता है। 
(र) इस पंक्ति में शोषित-पीड़ित निम्न वर्ग और अभावों से पीड़ित कृषक वर्ग अपनी सहायता के लिए वसुन्धरा को पुकार रहे हैं।

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10. अब न गहरी नींद में तुम सो सकोगे, 
गीत गाकर मैं जगाने आ रहा हूँ। 
अतल अस्ताचल तुम्हें जाने न दूंगा, 
अरुण उदयाचल सजाने आ रहा हूँ। 
कल्पना में आज तक उड़ते रहे तुम, 
साधना से मुड़कर सिहरते रहे तुम, 
अब तुम्हें आकाश में उड़ने न दूंगा, 
आज धरती पर बसाने आ रहा हूँ। 
सुख नहीं यह, नींद में सपने संजोना, 
दुख नहीं यह, शीश पर गुरु भार ढोना, 
शूल तुम जिसको समझते थे अभी तक, 
फूल मैं उसको बनाने आ रहा हूँ। 

प्रश्न :
(अ) 'अरुण उदयाचल सजाने से क्या आशय है? 
(ब) कवि ने किसे सुख और दुःख नहीं माना है? 
(स) 'फूल' और 'शूल' से कवि का क्या आशय है?
(द) कल्पना में आज तक उड़ते रहे तुम'-इसमें कवि ने किन लोगों पर आक्षेप किया है? 
(य) गहरी नीन्द में सोने का क्या अर्थ है? 
(र) कवि लोगों को क्यों जगाना चाहता है? 
उत्तर :  
(अ) जिस प्रकार अस्ताचल के बाद उदयाचल पर आभा फैलती है। उसी प्रकार जीवन में निराशा के बाद आशा का संचार करो तभी जीवन मार्ग प्रशस्त हो सकेगा। 
(ब) नींद में सुन्दर सुखमय सपने देखना तथा चिन्ता से उत्पन्न दुःख को कवि ने वास्तविक सुख-दुःख नहीं माना है। 
(स) 'फूल' का आशय सुन्दर सुखमय स्थिति तथा 'शूल' का आशय अतीव कष्टदायक या बाधक स्थिति है। 
(द) इसमें कवि ने उन लोगों पर आक्षेप किया है जो जीवन की कठोर वास्तविकताओं से बेखबर हैं और कोरी कल्पनाओं और सपनों की दुनिया में खोये रहते हैं। 
(य) गहरी नीन्द में सोने का अर्थ है जीवन की कठोर वास्तविकताओं से बेखबर होना। 
(र) कवि लोगों को इसलिए जगाना चाहता है ताकि मनुष्यों में गतिशीलता आ सके और वे प्रगति के पथ पर आगे बढ़ सकें। 

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11. मैंने, कौतूहलवश, आँगन के कोने की 
गीली तह को यों ही उँगली से सहलाकर 
बीज सेम के दबा दिये मिट्टी के नीचे। 
भूके अंचल में मणि माणिक बाँध दिये हों। 
ओह, समय पर उनमें कितनी फलियाँ टूटीं! 
कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ, 
यह धरती कितना देती है! धरती माता 
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को! 
नहीं समझ पाया था मैं उसके महत्त्व को! 
बचपन में, छिः स्वार्थ लोभ वश पैसे बोकर। 
रल प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ। 

प्रश्न :
(अ) कवि ने किस इच्छा से धरती में पैसे बोये थे? 
(ब) कवि ने धरती में सेम के बीज क्यों दबा दिये? 
(स) 'रन प्रसविनी है वसुधा'-इसका क्या आशय है? 
(द) कवि किसके महत्त्व को नहीं समझा पाया था? 
(य) कवि को किस पेड़ की फलियाँ प्राप्त हुई? 
(र) उपर्युक्त काव्यांश का उचित शीर्षक बताइए। 
उत्तर :
(अ) कवि ने सोचा था कि पैसों के पेड़ उगेंगे, अतः उसने स्वार्थ और लोभ में आकर मोटा सेठ बनने की कामना से धरती में पैसे बोये थे। 
(ब) कवि ने कौतूहलवश यों ही सेम के बीज धरती में दबा दिये थे। 
(स) धरती माता के गर्भ में बहुमूल्य रत्न भरे पड़े हैं, उन भण्डारों को युक्तिपूर्वक बाहर निकालने की आवश्यकता है।
(द) धरती का महत्त्व अपरिमित है, परन्तु कवि बचपन में धरती के महत्त्व को नहीं समझ पाया था। 
(य) कवि को सेम के पेड़ की फलियाँ प्राप्त हुईं। 
(र) शीर्षक-धरती का महत्त्व।

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12. कटि विन्ध्याचल सिन्धु चरण तल
महिमा शाश्वत गाता! 
हरे खेत, लहरे नद निर्झर 
जीवन शोभा उर्वर, 
विश्व कर्म रत कोटि बाहु कर 
अगणित पद ध्रुव पथ पर 
प्रथम सभ्यता ज्ञाता, साम ध्वनित गुण गाथा, 
जय नव मानवता निर्माता, 
सत्य अहिंसा दाता! 
जय हे जय हे जय हे, शान्ति अधिष्ठाता 
प्रयाण तूर्य बज उठे, 
पटह तुमुल गरज उठे! 
विशाल सत्य सैन्य, लौह भुज उठे! 
शक्ति स्वरूपिणि, बहुबल धारिणि, वन्दित भारत माता! 

प्रश्न :
(अ) कविता में 'नव-मानवता निर्माता' किसे बताया गया है? 
(ब) भारत माता की महिमा कौन गाता है? 
(स) भारत माता किस रूप में वन्दित बताई गयी है? 
(द) प्रस्तुत काव्यांश में किसका गायन किया गया है? 
(य) प्रस्तुत काव्यांश का उचित शीर्षक बताइए। 
(र) 'हरे खेत, लहरे नद निर्झर' पंक्ति में कौनसा अलंकार है? 
उत्तर :
(अ) कविता में लोकतन्त्र के रूप में प्रशासित प्रवर्तित भारत को 'नव-मानवता निर्माता' बताया गया है। 
(ब) विन्ध्याचल तथा विशाल सागर भारत की शाश्वत महिमा को गाता है। 
(स) भारतमाता शक्ति-स्वरूपिणी तथा बहुबलधारिणी रूप में वन्दित बतायी गयी है। 
(द) प्रस्तुत काव्यांश में भारत की महिमा का तथा इसके शक्तिशाली एवं प्राकृतिक शोभा-सम्पन्न स्वरूप का गायन किया गया है। 
(य) शीर्षक-जय जन भारत 
(र) इस पंक्ति में अनुप्रास अलंकार है।

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13. छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये, 
मत झुको अनय पर, भले व्योम फट जाये। 
दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है, मरता है 
जो, है जो, एक ही बार मरता है।  
तुम स्वयं मरण के मुख पर चरण धरो रे! 
जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे!" 
उपशम को ही जो जाति धर्म कहती है, 
शम, दम, विराग को श्रेष्ठ कर्म कहती है, 
धृति को प्रहार, क्षान्ति को वर्म कहती है, 
अक्रोध, विनय को विजय-मर्म कहती है, 
अपमान कौन, वह जिस को नहीं सहेगी? 
सब को असीस, सब का बन दास रहेगी। 

प्रश्न :
(अ) 'छोड़ो मत अपनी आन'-इस पंक्ति से कवि ने क्या सन्देश दिया है? 
(ब) संसार में कौनसे लोग अपमान सहते हैं? 
(स) 'स्वयं मरण के मुख पर चरण धरो' पंक्ति का क्या आशय है? 
(द) "अक्रोध, विनय को विजय-मर्म कहती है"-इस पंक्ति से कवि ने क्या व्यंजित किया है? 
(य) व्यक्ति को अपने स्वाभिमान की रक्षा किस तरह करनी चाहिए। 
(र) काव्यांश का मूलभाव क्या है? 
उत्तर :  
(अ) कवि ने यह सन्देश दिया है कि चाहे प्राणों का बलिदान करना पड़े और अपरिमित कष्ट सहना पड़े, परन्तु व्यक्ति को अपनी आन नहीं छोड़नी चाहिए। 
(ब) संसार में जो लोग शान्ति, क्षमाशील, सहिष्णुता, विराग, इन्द्रिय-संयम, धैर्य, अक्रोध, विनय आदि को श्रेष्ठ आचरण मानते हैं, वे लोग सदा अपमान सहते हैं। 
(स) जो लोग मृत्यु से न डरकर आत्मसम्मान की रक्षार्थ मर-मिटने को उद्यत रहते हैं, उनका जीवन यशस्वी माना जाता है। 
(द) अपमानित होकर भी क्रोध न करना तथा सदा विनयशील बने रहना इसमें विजय का रहस्य निहित है, किन्तु अपमान सहना भी सर्वथा अनुचित है। 
(य) व्यक्ति के सामने भयानक संकट आ जाने या जान भी देनी पड़े, तो भी अपने स्वाभिमान की रक्षा करनी चाहिए। 
(र) काव्यांश का मूलभाव है-अपनी आन-बान और शान बनाए रखकर स्वतन्त्र जीवन जीना तथा इसके लिए प्राणोत्सर्ग करने की प्रेरणा देना।

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14. भर रही कोकिला इधर तान, 
मारू बाजे पर उधर गान, 
है रंग और रण का विधान, 
मिलने आये हैं आदि-अंत, 
वीरों का कैसा हो वसंत? 
गलबाँहें हों यां हो कृपाण, 
चल-चितवन हो, या धनुष-बाण,
हो रस-विलास, या दलित-त्राण, 
अब यही समस्या है दुरन्त, 
वीरों का कैसा हो वसंत? 

प्रश्न :
(अ) 'है रंग और रण का विधान'-इस पंक्ति में किस स्थिति का वर्णन है? 
(ब) इस काव्यांश में प्रकृति किस रूप में चित्रित हुई है? 
(स) "अब यही समस्या है दुरन्त"-इसका आशय स्पष्ट कीजिए। 
(द) "वीरों का कैसा हो वसन्त"-इससे किन भावों की व्यंजना हुई है? 
(य) 'मिलने आये हैं आदि-अन्त' इसका क्या तात्पर्य है? 
(र) इस काव्यांश में कौनसी ऋतु का वर्णन हुआ है।। 
उत्तर :  
(अ) जब एक ओर देश की सीमाओं की रक्षा करने का आह्वान हो रहा हो तथा दूसरी ओर जीवन में राग-रंग और भोग-विलास का आकर्षण हो। 
(ब) इस काव्यांश में प्रकृति वसन्त-काल में भी वीर भावों की प्रेरणा देने वाली तथा वीर देश-भक्तों की उत्तेजना देने वाली रूप में चित्रित हुई है। 
(स) एक ओर नवेली प्रियतमा से मधुर-मिलन का क्षण है तो दूसरी ओर देश-रक्षा के लिए मर-मिटने का प्रश्न है। अब कौन-सा कार्य अपनाया जावे यही समस्या देश-भक्त वीर के सामने है।
(द) वीरों का वसन्त प्रियतमा के साथ राग-रंग में व्यतीत न होकर उनमें उत्साह, जोश, त्याग-भावना तथा देशभक्ति का भाव रहना चाहिए। 
(य) इसका तात्पर्य है देशभक्त वीरों को एक तरफ प्रियतमा से मिलकर जीवन की शुरुआत करना तथा दूसरी तरफ देश की रक्षा के लिए युद्ध में प्राणों का अन्त करना। 
(र) इस काव्यांश में बसन्त ऋतु का वर्णन हुआ है।

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15. केवल अपने लिए सोचते, मौज भरे गाते हो। 
पीते, खाते, सोते, जगते, हँसते, सुख पाते हो। 
जग से दूर स्वार्थ-साधन ही सतत तुम्हारा यश है। 
सोचो, तुम्हीं, कौन अग-जग में तुम-सा स्वार्थ विवश है?॥ 
आवश्यकता की पुकार को श्रुति ने श्रवण किया है? 
कहो, करों ने आगे बढ़ किसको साहाय्य दिया है?
आर्तनाद तक कभी पदों ने क्या तुमको पहुँचाया? 
क्या नैराश्य-निमग्न जनों को तुमने कंठ लगाया?॥ 
यह संसार मनुष्य के लिए एक परीक्षा-स्थल है। 
दुख है, प्रश्न कठोर देखकर होती बुद्धि विकल है। 
किन्तु स्वात्म बल-विज्ञ सत्पुरुष ठीक पहुँच अटकल से। 
हल करते हैं प्रश्न सहज में अविरल मेधा-बल से॥ 

प्रश्न :
(अ) "कौन अग-जग में तुम-सा स्वार्थ-विवश है?" इसमें 'स्वार्थ-विवश' से क्या तात्पर्य है? 
(ब) संसार को स्वार्थी कौन कहता है? 
(स) "यह संसार--परीक्षा-स्थल है"-यह संसार किसके लिए परीक्षा-स्थल है और क्यों? 
(द) उक्त काव्यांश का केन्द्रीय भाव क्या है? 
(य) प्रस्तुत काव्यांश का उचित शीर्षक दीजिए। 
(र) "क्या नैराश्य-निमग्न जनों को तुमने कंठ लगाया" पंक्ति का क्या तात्पर्य है? 
उत्तर : 
(अ) जो व्यक्ति केवल अपनी ही सुख-सुविधा की चिन्ता करता है और अपने काम के लिए दूसरों की उपेक्षा करता है, वह स्वार्थ-विवश होता है। 
(ब) जो व्यक्ति सभी से सहायता प्राप्त कर लेता है, परन्तु समय आने पर दूसरों की सहायता-सहयोग नहीं करता है, वह संसार को स्वार्थी कहता है। 
(स) यह संसार मनुष्य के लिए परीक्षा-स्थल है, क्योंकि यहीं पर उसकी बुद्धि, आचार-व्यवहार एवं मानवीय आदर्शों की परीक्षा होती है। 
(द) मनुष्य सभी प्राणियों में बल-बुद्धि में श्रेष्ठ है, इसलिए उसका यह कर्त्तव्य है कि वह मानवता का आचरण कर सभी के कल्याण-सुख के लिए सचेष्ट रहे। 
(य) काव्यांश का उचित शीर्षक 'कर्तव्यनिष्ठ जीवन'। 
(र) इस पंक्ति का तात्पर्य है कि हे स्वार्थी मनुष्य! क्या तुमने कभी दुःख, पीड़ा, निराशा से पीड़ित व्यक्ति की सहायता की है। 

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16. बैठे हुए हो व्यर्थ क्यों? आगे बढ़ो, ऊँचे चढ़ो, 
है भाग्य की क्या भावना? अब पाठ पौरुष का पढ़ो। 
है सामने का ग्रास भी मख में स्वयं जाता नहीं। 
हाँ, ध्यान उद्यम का तुम्हें तो भी कभी आता नहीं। 
जो लोग पीछे थे तुम्हारे बढ़ गये हैं बढ़ रहे, 
पीछे पड़े तुम देव के सिर दोष अपना मढ़ रहे। 
पर कर्म-तैल बिना कभी विधि-दीप जल सकता नहीं, 
है दैव क्या? साँचे बिना कुछ आप ढल सकता नहीं। 
आओ, मिलें सब देश-बान्धव हार बनकर देश के, 
साधक बनें सब प्रेम से सुख शान्तिमय उद्देश्य के। 
क्या साम्प्रदायिक भेद से है ऐक्य मिट सकता अहो, 
बनती नहीं क्या एक माला विविध सुमनों की कहो। 

प्रश्न 
(अ) जीवन में प्रगति के लिए किस भावना की जरूरत होती है? 
(ब) आपसी एकता के लिए क्या करना अपेक्षित रहता है? 
(स) इस काव्यांश में कवि ने किन्हें सम्बोधित किया है और क्यों? 
(द) "बनती नहीं क्या एक माला विविध सुमनों की"-इस पंक्ति में कवि का क्या आशय है? 
(य) कवि ने किन्हें पौरुष का पाठ पढ़ने के लिए कहा है? 
(र) "पर कर्म-तैल बिना कभी विधि-दीप जल सकता नहीं" इस पंक्ति में कौनसा अलंकार है, उसकी 
परिभाषा भी दीजिए।
उत्तर :  
(अ) जीवन में प्रगति के लिए भाग्यवादी एवं आलसी प्रवृत्ति तथा अविवेक को त्याग कर उद्यमी एवं पुरुषार्थी भावना की जरूरत होती है। 
(ब) परस्पर भाईचारे का व्यवहार रखें, धार्मिक कट्टरता एवं साम्प्रदायिक भेदभाव को त्यागें और सह अस्तित्व का आचरण अपनाना चाहिए।
(स) इस काव्यांश में कवि ने सभी भारतीयों को सम्बोधित किया है, क्योंकि कवि चाहता है कि सभी भारतीय परस्पर एकता, बन्धुता, मैत्री एवं सहयोग रखकर देश की प्रगति में सहभागी बनें। 
(द) कवि का आशय है कि अविवेक, स्वार्थ, आलस्य एवं मतभेदों को त्याग कर सभी भारतीय आपसी मेल जोल और भाईचारे से रहें, इससे देश का हित किया जा सकता है। 
(य) कवि ने आलसी लोगों को पौरुष का पाठ पढ़ने के लिए कहा है। 
(र) इस पंक्ति में रूपक अलंकार है, परिभाषा उपमेय पर जब उपमान का आरोप कर दिया जाता है तब रूपक अलंकार होता है। 

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17. भू-लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला-स्थल कहाँ? 
फैला मनोहर गिरि हिमालय और गंगाजल जहाँ 
सम्पूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है? 
उसका कि जो ऋषिभूमि है, वह कौन? भारतवर्ष है। 
हाँ, वृद्ध भारतवर्ष ही संसार का सिरमौर है, 
ऐसा पुरातन देश कोई विश्व में क्या और है? 
भगवान की भव-भूतियों का यह प्रथम भण्डार है। 
विधि ने किया नर-सृष्टि का पहले यहीं विस्तार है। 
यह पुण्यभूमि प्रसिद्ध है इसके निवासी 'आर्य' हैं, 
विद्या, कला-कौशल सबके जो प्रथम आचार्य हैं। 
सन्तान उनकी आज यद्यपि हम अधोगति में पड़े, 
पर चिह्न उनकी उच्चता के आज भी कुछ हैं खड़े॥ 

प्रश्न :
(अ) भारतवर्ष को वृद्ध क्यों कहा गया है? 
(ब) 'भव-भूतियों का यह प्रथम भण्डार' से क्या आशय है? 
(स) भारतीयों का उद्भव किनसे हुआ और क्या कहलाये? 
(द) प्रस्तुत काव्यांश का केन्द्रीय भाव लिखिए। 
(य) 'भू-लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला-स्थल कहाँ' इस पंक्ति में किसका गुणगान किया है। 
(र) प्रस्तुत काव्यांश का उचित शीर्षक बताइए। 
उत्तर :  
(अ) भारतवर्ष संसार के सभी देशों में अति प्राचीन और मानव-सभ्यता में अग्रणी माना जाता है। इसी कारण कविता में इसे वृद्ध कहा गया है।
(ब) संसार में दैविक एवं भौतिक जितनी भी सम्पदाएँ हैं, भूगर्भ से निकलने वाली जितनी भी बहुमूल्य धातुएँ हैं, वे सब भारत-भूमि में मिलती हैं। इसी से इसे भव-भूतियों का भण्डार कहा गया है। 
(स) ऋषि-मुनि रूप में रहने वाले आर्यों से भारतीयों का उद्भव हुआ और वे 'आर्य' कहलाये। 
(द) भारत-भूमि प्राचीन काल से ही सुख वैभव से सम्पन्न धरती का गौरव एवं पुण्यशाली रही है। यह सब तरह से सुख-शान्तिमय और कला-कौशल से सम्पन्न देश है। 
(य) इस पंक्ति में भारत की महिमा का गुणगान किया है। 
(र) इस काव्यांश का उचित शीर्षक "भारत की श्रेष्ठता"

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18. आह! सभ्यता के प्रांगण में आज गरल-वर्षण कैसा? 
घृणा सिखा निर्वाण दिलाने वाला यह दर्शन कैसा? 
स्मृतियों का अंधेरा! शास्त्र का दम्भ! तर्क का छल कैसा?
दीन-दुखी असहाय जनों पर अत्याचार प्रबल कैसा? 
आज दीनता को प्रभु की पूजा का भी अधिकार नहीं, 
देव! बना था क्या दुखियों के लिए निठुर संसार नहीं? 
धन-पिशाच की विजय, धर्म की पावन ज्योति अदृश्य हुई, 
दौड़ो बोधिसत्त्व! भारत में मानवता अस्पृश्य हुई। 
धूप-दीप, आरती, कुसुम, ले भक्त प्रेमवश आते हैं, 
मन्दिर का पट बन्द देख, 'जय' कह निराश फिर जाते हैं। 
शबरी के जूठे बेरों से आज राम को प्रेम नहीं, 
मेवा छोड़ शाक खाने का याद नाथ को नेम नहीं। 

प्रश्न :
(अ) "भारत में मानवता अस्पृश्य हुई"-इसके क्या कारण बताये गये हैं? 
(ब) "मेवा छोड़ शाक खाने का नेम"-ऐसा प्रेम किसने और कब दिखाया था?
(स) आज मानव-समाज किसके कुप्रभाव से ग्रस्त है? 
(द) 'स्मृतियों का अंधेरा ! शास्त्र का दम्भ !'-इससे क्या आशय है? 
(य) 'आज गरल-वर्षण' कैसा? इसमें कौनसा अलंकार है? 
(र) 'मन्दिर का पट बन्द देख, 'जय' कह निराश फिर जाते हैं।' कौन निराश होकर लौट जाते हैं। 
उत्तर :  
(अ) पहले भारत में घृणा, छल-कपट, ढोंग, कर्मकाण्ड का दम्भ एवं छुआछूत आदि बुरी परम्पराओं से मानवता अस्पृश्य हो गई थी। 
(ब) दुर्योधन के स्वादिष्ट भोजन को त्यागकर विदुर के घर शाक खाने का प्रेम श्रीकृष्ण ने उस समय निभाया 
था, जब वे पाण्डवों के शान्तिदूत बनकर हस्तिनापुर गये थे। 
(स) आज मानव-समाज धन-पिशाच के कुप्रभाव से ग्रस्त है। आज के अर्थ-प्रधान युग में इसी से सामाजिक विषमता एवं उत्पीड़न-शोषण का चक्र चल रहा है। 
(द) हमारे देश में कुछ लोग स्मृति-शास्त्रों तथा धर्मशास्त्रों के नाम पर बुरी परम्पराओं, छुआछूत एवं ऊँच-नीच का आचरण कर मानवता को कलंकित कर रहे हैं। 
(य) इसमें रूपक अलंकार है। 
(र) वह व्यक्ति मन्दिर से निराश होकर लौट जाता है जो दीन-दुःखी और सामाजिक, आर्थिक स्थिति से पिछड़ा है। 

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19. हाय रे मानव, नियति के दास! 
हाय रे मनुपुत्र, अपना ही उपहास! 
प्रकृति की प्रच्छन्नता को जीत, 
सिन्धु से आकाश तक सबको किये भयभीत; 
सृष्टि को निज बुद्धि से करना हुआ परिमेय, चीरता परमाणु की सत्ता असीम, अजेय, बुद्धि के पवमान में उड़ता हुआ असहाय, 
जा रहा तू किस दिशा की ओर हो निरुपाय? 
लक्ष्य क्या? उद्देश्य क्या? क्या अर्थ? 
यह नहीं यदि ज्ञात तो विज्ञान का श्रम व्यर्थ। 

प्रश्न :
(अ) "जा रहा तू किस दिशा की ओर"-इस पंक्ति में कवि का क्या आशय है? 
(ब)"यह नहीं यदि ज्ञात"-आधुनिक मानव को कौन-सी बात ज्ञात नहीं है? 
(स) प्रस्तुत काव्यांश का केन्द्रीय भाव क्या है? लिखिए। 
(द) "प्रकृति की प्रच्छन्नता को जीत"-इस पंक्ति में प्रच्छन्नता' से क्या आशय है? 
(य) 'सिन्धु से आकाश तक सबको किये भयभीत' इस पंक्ति का मतलब क्या है? 
(र) कवि ने विज्ञान का श्रम कब व्यर्थ बताया है? 
उत्तर :  
(अ) आधुनिक काल में मानव ने विज्ञान द्वारा नये-नये आविष्कार कर भौतिकता की ओर जा रहा है, जिससे वह अपने ही विनाश का सामान तैयार कर रहा है। 
(ब) आधुनिक मानव को यह बात ज्ञात नहीं है कि जीवन का उद्देश्य मानवता का कल्याण करना है। 
(स) वर्तमान काल में अतिशय भौतिकवादी प्रवृत्ति के कारण, सुख-भोग के नये-नये साधनों के आविष्कार के कारण मानव-सभ्यता का पतन हो रहा है। 
(द) 'प्रच्छन्नता' का आशय है-गोपनीय या रहस्यमय। धरती पर आँधी-तूफान या विनाश या खुशहाली आदि का रहस्य विज्ञान ने जान लिया है। 
(य) मनुष्य ने समुद्र से आकाश तक सब जगह विज्ञान से नये-नये आविष्कार करके सबको भयभीत कर दिया। 
(र) विज्ञान के द्वारा नयी-नयी खोज करते हुए मनुष्य को अपना लक्ष्य, उद्देश्य अर्थात् मानवता का कल्याण करना ही ज्ञात नहीं है तो विज्ञान का श्रम व्यर्थ है। 

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20. मैं नव मानवता का सन्देश सुनाता, 
स्वाधीन लोक की गौरव गाथा गाता 
मैं मनःक्षितिज के पार मौन शाश्वत की, 
प्रज्वलित भूमिका ज्योतिवाह बन आता! 
मिट्टी के पैरों से भव-क्लांत जनों को 
स्वप्नों के चरणों पर चलना सिखलाता, 
तापों की छाया से कलुषित अन्तर को 
उन्मुक्त-प्रकृति का शोभा वक्ष दिखाता! 
मैं गीत विहग, निज मर्त्य नीड़ से उड़कर 
चेतना गगन में मन के पर फैलाता 
मैं अपने अन्तर का प्रकाश बरसाकर 
जीवन के तम को स्वर्णिम कर नहलाता।

प्रश्न : 
(अ) "प्रज्वलित भूमिका ज्योतिवाह बन आता"-इस पंक्ति का आशय बताइए। 
(ब) "भव-क्लान्त जनों को चलना सिखलाता"-लोगों को चलना कौन सिखाता है और कैसे सिखाता 
(स) 'गीत-विहग' कहाँ से उड़कर कहाँ और क्यों फैलता है? 
(द) "मैं नव-मानवता का सन्देश सुनाता"-इसमें 'नव-मानवता' से कवि का क्या आशय है?
(य) इस काव्यांश में कवि ने लोगों को क्या सन्देश दिया है? 
(र) 'मैं गीत विहग' इसमें कौनसा अलंकार है। 
उत्तर :  
(अ) कवि की हृदयगत कल्पनाओं से निर्मित गीत रूपी पक्षी इस धरती पर नव चेतना का प्रकाश-पुंज बनकर आता 
(ब) व्यथित लोगों को कवि द्वारा रचित गीत रूपी पक्षी चलना सिखाता है। वह जीवन की मधुर कल्पनाओं को जगाकर आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। 
(स) गीत-विहग इस नाशवान शरीर रूपी घोंसले से उड़कर, चेतना रूपी आकाश में अपने मन रूपी पंख फैलाता है।
(द) 'नव-मानवता' से कवि का आशय मानव-सभ्यता के पुनर्जागरण से है। 
(य) इस काव्यांश में कवि ने लोगों को नव चेतना अपनाने का सन्देश दिया है। 
(र) इसमें रूपक अलंकार है। 

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21. नर हो, न निराश करो मन को, 
कुछ काम करो, कुछ काम करो। 
जग में रहकर कुछ नाम करो, 
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो।
समझो, जिसमें यह व्यर्थ न हो, 
नर हो, न निराश करो मन को। 
सँभलो कि सुयोग न जाय चला, 
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला। 
समझो जग को न निरा सपना, 
पथ आप प्रशस्त करो अपना। 
अखिलेश्वर हैं अवलम्बन को, 
नर हो, न निराश करो मन को। 
प्रभु ने तुमको कर दान किये, 
सब वांच्छित वस्तु विधान किये। 
तुम प्राप्त करो उनको न अहो, 
फिर है किसका वह दोष कहो? 
समझोन अलभ्य किसी धन को, 
नर हो, न निराश करो मन को।

प्रश्न :
(अ) "यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो"-मनुष्य का जन्म किस उद्देश्य के लिए हुआ है? 
(ब) ईश्वर ने मनुष्य को कौनसी विशिष्ट चीज दी है? 
(स) प्रस्तुत कविता में क्या सन्देश निहित है? 
(द) "समझो जग को न निरा सपना'"-इस पंक्ति में 'निरा सपना' से कवि का क्या आशय है? 
(य) मनुष्य को निराशा छोड़कर क्या करना चाहिए? 
(र) 'अखिलेश्वर हैं अवलम्बन को' इस पंक्ति में ईश्वर किसका सहारा बनता है? 
उत्तर :  
(अ) मनुष्य का जन्म इस संसार में कुछ-न-कुछ काम करने के लिए तथा जीवन को सफल बनाकर यशस्वी बनने के लिए हुआ है। 
(ब) ईश्वर ने अन्य प्राणियों की अपेक्षा मनुष्य को काम करने के लिए दो हाथ दिये हैं, इनसे मनुष्य मनचाहा काम कर सकता है। 
(स) प्रस्तुत कविता में कवि ने यह सन्देश दिया है कि हमें किसी भी परिस्थिति में निराश नहीं होना चाहिए अपितु धैर्य और पराक्रम के साथ चुनौतियों का सामना करना चाहिए। 
(द) 'निरा सपना' से यह आशय है कि संसार में मानव जीवन कोरी कल्पनाओं से नहीं चलता है, अपितु इसमें कर्मनिष्ठा एवं उत्साह जरूरी है। 
(य) मनुष्य को निराशा छोड़कर धैर्य के साथ कर्मपथ पर आगे बढ़ना चाहिए। 
(र) ईश्वर कर्म करने वालों का सहारा बनता है। 

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22. विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी, 
मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करें सभी। 
हुई न यों सु-मृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिये, 
मरा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए।
यही पशु-प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे, 
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥ 
उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती, 
उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती। 
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती, 
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती। 
अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे। 
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥ 

प्रश्न :
(अ) "विचार लो कि मर्त्य हो"-इससे कवि का क्या तात्पर्य है? 
(ब) पशु-प्रवृत्ति क्या बताई गई है? 
(स) "उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती"-सृष्टि में किसकी कीर्ति का प्रसार होता है? 
(द) "वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे"-इस पंक्ति में कौनसा भाव निहित है? 
(य) प्रस्तुत काव्यांश का उचित शीर्षक बताइए। 
(र) कवि के अनुसार मनुष्यता क्या है?
उत्तर :
(अ) कवि के कथन का यह तात्पर्य है कि मानव मरणशील है, उसकी मृत्यु निश्चित है। जब एक-न-एक दिन उसे मरना ही है तो उसे मृत्यु से नहीं डरना चाहिए। 
(ब) पशु को केवल अपने पेट की चिन्ता रहती है। इसी प्रकार केवल स्वार्थ की चिन्ता करना और अपना ही काम साधना पशु-प्रवृत्ति बतायी गई है। 
(स) जो व्यक्ति उदारता से सभी का भला करता है, अपनत्व तथा मानवता का आचरण करता है, सृष्टि में उसी की कीर्ति का प्रसार होता है। 
(द) इसका मूल भाव यह है कि मानव को सभी से आत्मीयता एवं प्रेम-भाव रखकर उदारता, दया, क्षमा, सहानुभूति एवं परोपकार में संलग्न रहना चाहिए। 
(य) उचित शीर्षक-'मनुष्यता'। 
(र) कवि के अनुसार जो परोपकार से युक्त होकर मानव का कल्याण करें वहीं मनुष्यता है।

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23. वे आर्य ही थे जो कभी अपने लिए जीते न थे, 
वे स्वार्थ-रत हो मोह की मदिरा कभी पीते न थे। 
संसार के उपकार-हित जब जन्म लेते थे.सभी, 
निश्चेष्ट होकर किस तरह वे बैठ सकते थे कभी?॥ 
लक्ष्मी नहीं, सर्वस्व जावे, सत्य छोड़ेंगे नहीं, 
अन्धे बनें पर सत्य से सम्बन्ध तोड़ेंगे नहीं। 
निज-सुत-मरण स्वीकार है पर वचन की रक्षा रहे, 
है कौन जो उन पूर्वजों के शील की सीमा कहे? ॥
सर्वस्व करके दान जो चालीस दिन भूखे रहे, 
अपने अतिथि-सत्कार में फिर भी न जो रूखे रहे। 
पर-तृप्ति कर निज तृप्ति मानी रन्तिदेव नरेश ने, 
ऐसे अतिथि-संतोष-कर पैदा किए किस देश ने?॥ 

प्रश्न :  
(अ) "वे आर्य ही थे"-कवि ने आर्यों को किन आदर्शों से मण्डित बताया है? 
(ब) राजा रन्तिदेव का कौनसा आचरण वन्दनीय था? 
(स) "सत्य से सम्बन्ध तोड़ेंगे नहीं"-इसमें किनकी सत्यनिष्ठा बताई गई है? 
(द) "उन पूर्वजों के शील की सीमा"-इससे कवि का क्या आशय है? 
(य) 'निज-सुत-मरण स्वीकार है पर वचन की रक्षा रहे', ऐसा कार्य किसने किया? 
(र) पर तृप्ति कर निज तृप्ति किसने मानी? 
उत्तर :
(अ) कवि ने बताया है कि आर्य लोग परोपकार, सदाचरण, सत्याचरण, त्याग, अतिथि-सेवा आदि आदर्शों से मण्डित थे।
(ब) राजा रन्तिदेव को चालीस दिन भूखे रहने के बाद जो भोजन मिला, उसे भी अतिथि को समर्पित कर दिया। ऐसे पवित्र आचरण से वे वन्दनीय थे। 
(स) सत्यनिष्ठा के कारण राजा हरिश्चन्द्र ने अपना सर्वस्व त्याग दिया था और पत्नी-पुत्र आदि का मोह छोड़ दिया था। 
(द) भारतीयों के पूर्वज जो आर्य लोग थे, वे सत्यनिष्ठा, सदाचार, त्याग, सेवा एवं वचन-पालन आदि आदर्शों से उनका आचरण अनुपम था, उनका सदाचरण असीम था। 
(य) अपने पुत्र की मृत्यु स्वीकार है किन्तु वचन की रक्षा रहें, ऐसा कार्य राजा हरिश्चन्द्र ने किया था। 
(र) पर तृप्ति कर निज तृप्ति रन्तिदेव नरेश ने मानी थी। 

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24. ओ हिमानी चोटियों के सजग प्रहरी 
तंग सूनी घाटियों के सबल रक्षक, 
तू न एकाकी समझना आपको, 
देश तेरे साथ अन्तिम श्वास तक! 
तू सिपाही सत्य का स्वातन्त्र्य का है, 
न्याय का और शांति का है तू सिपाही, 
प्राण देकर प्राण के ओ प्रबल प्रहरी! 
जा रहा तू देश हित बलि पंथ राही! 
जा कि तेरे साथ है इस देश का बल, 
साथ तेरे देश की हर भावना है, 
साथ धन जन, साथ तन मन 
साथ, तेरी विजय की शुभ कामना है! 

प्रश्न :
(अ) "हिमानी के सजग प्रहरी" किसके लिए कहा गया है? 
(ब) सिपाही को किसका रक्षक बताया गया है? 
(स) प्रस्तुत काव्यांश का केन्द्रीय भाव क्या है? बताइए। 
(द) "जा कि तेरे साथ है" सिपाही के साथ कौन है? 
(य) 'साथ धन जन, साथ तन मन' इस पंक्ति में कौनसा अलंकार है? 
(र) इस काव्यांश में किसका चित्रण किया गया है? 
उत्तर :  
(अ) प्रस्तुत काव्यांश में देश की सीमाओं की रक्षा करने वाले सैनिकों को सजग प्रहरी कहा गया है। 
(ब) सिपाही को केवल मातृभूमि की सीमाओं का ही नहीं, अपितु देश की स्वतन्त्रता, न्याय और शान्ति का भी रक्षक बताया गया है। 
(स) इसका केन्द्रीय भाव यह है कि देश की रक्षा के लिए सिपाही अपने प्राणों की बाजी लगा देते हैं अतः उनके प्रति देशवासियों को कृतज्ञता व्यक्त करनी चाहिए। 
(द) सीमाओं की रक्षा करने वाले सिपाही के साथ देशवासियों की ओजस्वी भावनाएँ, आत्मबल, सभी का तन मन-धन और शुभकामनाएँ हैं। 
(य) इस पंक्ति में अनुप्रास अलंकार है। 
(र) इस काव्यांश में देश की रक्षा के लिए अनेक कठिनाइयों को झेलते हुए, अपने प्राणों की बाजी लगाने वाले सैनिक का चित्रण किया गया है। 

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25. गरीब लोगों की आत्माओं से भाप निकलती है 
जिससे चलती हैं रेलें, दौड़ते हैं स्टीमर,
उनके पसीने से बनता है पेट्रोल, 
उनके खून से बनते हैं दुनिया के सारे रंग 
उनकी जिजीविषा से दार्शनिकों-विचारकों के 
गम्भीर चेहरों पर दमकता है तेज 
उनके हास-परिहास से जवान होते हैं बूढ़े ऋषि, 
उनकी भाषा में पर्यायवाची शब्द अधिक होते हैं। 
सारे गरीब लोग कवि होते हैं...... 

प्रश्न :
(अ) "उनके पसीने से बनता है पेट्रोल"-इस पंक्ति में पेट्रोल' से कवि का क्या तात्पर्य है? 
(ब) गरीब लोगों का जीवन कैसा होता है? 
(स) "जवान होते हैं बूढ़े ऋषि"-इससे कवि क्या बतलाना चाहता है और क्यों? 
(द) "सारे गरीब लोग कवि होते हैं"-इस पंक्ति का आशय बताइये। 
(य) किनकी आत्माओं से भाप निकलती है? 
(र) गरीब लोगों की जिजीविषा से किसके चेहरों पर तेज दिखाई देता है? 
उत्तर :  
(अ) इस पंक्ति में 'पेट्रोल' से आशय ऊष्मा एवं आन्तरिक शक्ति है। गरीबों के प्रयास एवं परिश्रम से सामाजिक जीवन में शक्ति का संचार होता है। 
(ब) गरीब लोगों का जीवन अभावों एवं विवशताओं से ग्रस्त रहता है। उनके जीवन में हँसी-खुशी की अपेक्षा सदा संत्रास और करुणा रहती है।। 
(स) गरीब लोग अत्यधिक परिश्रम करने से कम उम्र में ही अथवा हँसी-खुशी वाले यौवन-काल में ही बूढ़े हो जाते हैं, क्योंकि वे अभावों में जिजीविषा रखते हैं। 
(द) गरीब लोग करुणा, वेदना, उत्पीड़न, व्यथा आदि कोमल भावों से व्याप्त होने के कारण वे कवियों के समान काफी भावुक और संवेदनाशील बने रहते हैं। 
(य) गरीब लोगों की आत्माओं से भाप निकलती है। 
(र) गरीब लोगों की जिजीविषा से दार्शनिकों-विचारकों के गंभीर चेहरों पर तेज चमकता दिखाई देता है। 

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26. सावधान, मनुष्य ! यदि विज्ञान है तलवार, 
तो उसे दे फेंक, तज कर मोह, स्मृति के पार। 
हो चुका है सिद्ध, है तू शिशु अभी नादान, 
फूल-काँटों की तुझे कुछ भी नहीं पहचान। 
खेल सकता तू नहीं ले हाथ में तलवार, 
काट लेगा अंग, तीखी है बड़ी यह धार। 
रसवती भू के मनुज का श्रेय, 
यह नहीं विज्ञान कटु, आग्नेय। 
श्रेय उसका प्राण में बहती प्रणय की वायु, 
मानवों के हेतु अर्पित मानवों की आयु। 

प्रश्न : 
(अ) "यदि है विज्ञान तलवार"-इस पंक्ति में तलवार' से कवि का क्या तात्पर्य है? 
(ब) मानवता के कल्याण के लिए कवि क्या चाहता है? 
(स) "यह नहीं विज्ञान कटु आग्नेय"-इसमें विज्ञान को आग्नेय' किस कारण कहा गया है? 
(द) "फूल-काँटों की तुझे कुछ भी नहीं पहचान"-इस पंक्ति में कवि का क्या आशय है? 
(य) उपर्युक्त काव्यांश का सटीक शीर्षक लिखिए। 
(र) इस काव्यांश से कवि क्या सन्देश देना चाहता है? 
उत्तर :  
(अ) कवि का 'तलवार' से आशय रक्तपात एवं हिंसा को बढ़ावा देने वाले उपकरण से है, क्योंकि इससे मानवता का अहित होता है। 
(ब) कवि चाहता है कि सारे मानव-समाज में प्रेम-प्रीति, भाईचारा, सहयोग की भावना पनपे और मानवीय संवेदना का विस्तार होता रहे। 
(स) परमाणु-विध्वंस की सम्भावना से विज्ञान को आग्नेय कहा है, जो कि भयंकर ज्वाला के समान मानव सभ्यता को जला डालेगा।
(द) परमाणु-बमों तथा अन्य विध्वंसक शस्त्रास्त्रों का आविष्कार करने से मानव-सभ्यता का ही अहित होगा, परन्तु वैज्ञानिकों को इस बात का विवेक नहीं है। 
(य) उपयुक्त (सटीक) शीर्षक 'विज्ञान से सचेत'। 
(र) कवि यह सन्देश देना चाहता है कि मनुष्य को विज्ञान से सावधान रहना चाहिए। इसका प्रयोग अज्ञानता से करने पर.यह हानि पहुँचा सकता है। 

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27. ऊँची हुई मशाल हमारी 
आगे कठिन डगर है, 
शत्रु हट गया, लेकिन उसकी 
छायाओं का डर है। 
शोषण से मृत है समाज 
कमजोर हमारा घर है, 
किन्त आ रही नयी जिन्दगी 
यह विश्वास अमर है। 
जन-गंगा में ज्वार, 
लहर तुम, प्रवहमान रहना 
पहरुए, सावधान रहना। 

प्रश्न : 
(अ) "आगे कठिन डगर है"-इससे क्या आशय है? 
(ब) शोषण से मृत समाज का उद्धार कैसे हो सकता है? 
(स) "जन-गंगा में ज्वार"-कवि ने 'ज्वार' किसे कहा है और क्यों? 
(द) "यह विश्वास अमर है"-इस पंक्ति में कवि का क्या आशय है? 
(य) 'कमजोर हमारा घर है इसका तात्पर्य क्या है? 
(र) 'शत्रु हट गया, लेकिन उसकी छायाओं का डर है।' इसका भावार्थ क्या है?
उत्तर :  
(अ) इसका आशय यह है कि देश को सदियों की गुलामी के बाद आजादी मिली है, परन्तु आगे इसकी प्रगति का मार्ग कुछ कठिन हैं। 
(ब) शोषण से ग्रस्त समाज का उद्धार परस्पर समानता, सहयोग तथा सहभागिता के द्वारा हो सकता है, जन कल्याणकारी नीतियों से हो सकता है। 
(स) 'ज्वार' से कवि का आशय जनता में जोश, उत्साह, गतिशीलता और उद्यमिता है; क्योंकि समाज एवं राष्ट्र की कमजोरियाँ तभी दूर हो सकती हैं जब जनता सावधान एवं कर्त्तव्यनिष्ठ रहे। 
(द) कवि का आशय है कि नव-स्वतन्त्र भारत यद्यपि आर्थिक दृष्टि से कमजोर है, परन्तु इसकी प्रगति, विकास और खुशहाली के लिए सभी प्रयासरत हैं। 
(य) हमारा देश आर्थिक रूप से बहुत विपन्न है। 
(र) शत्रु अर्थात् हमें गुलाम बनाने वाले अंग्रेज चले गए हैं पर उनकी छाया के रूप में विद्यमान छद्म शत्रुओं की यहाँ कमी नहीं है। हमें उनका डर है। 

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28. लाल चेहरा है नहीं, 
फिर लाल किसके? 
लाल खून नहीं 
अरे कंकाल किसके? 
प्रेरणा सोयी कि 
आटा-दाल किसके? 
सिर न चढ़ पाया 
कि छापा-माल किसके? 
वेद की वाणी कि हो आकाश-वाणी 
धूल है जो जग नहीं पायी जवानी। 

प्रश्न :
(अ) "लाल खून नहीं"-इस पंक्ति में 'लाल' किसका प्रतीक है? 
(ब) कवि ने जवानी (यौवन) की क्या विशेषता बतायी है? 
(स) "लाल चेहरा है नहीं" इससे क्या आशय है?
(द) "वेद की वाणी कि हो आकाश-वाणी" इससे कवि ने क्या भाव व्यक्त किया है? 
(य) 'सिर न चढ़ पाया कि छापा-माल किसके?' इस पंक्ति का क्या तात्पर्य है? 
(र) इस काव्यांश का मूल भाव क्या है?
उत्तर :
(अ) इसमें 'लाल' जोश और ओज का प्रतीक है। जवानी आने पर समस्त बाधाएँ तथा कष्ट आदि सब जोश दिलाती हैं, उत्तेजना पैदा करती हैं। 
(ब) कवि ने यौबन की यह विशेषता बतायी है कि उसमें बाधाओं और संकटों को देखकर जरा भी घबराहट नहीं होती है। उसमें तुच्छ स्वार्थ की अपेक्षा त्याग-बलिदान का जोश रहता है। 
(स) 'लाल चेहरा' से आशय है जवानी का जोश एवं उत्साह। जब संकट को देखकर जोश न रहे, तो फिर वह यौवन किस काम का है? 
(द) जिस कविता से युवकों में उत्साह न जगाया जा सके वह कविता भी निरर्थक है। भले ही वह पवित्र वेदों से उद्धृत हो या आकाशवाणी हो। 
(य) सिर पर छापा-तिलक इन धार्मिक प्रतीकों का तब तक कोई मूल्य नहीं है जब तक मातृ-भूमि पर शीश चढ़ाने का भाव हृदय में न पैदा हो।
(र) इस काव्यांश में स्वाभिमान और बलिदान का महत्त्व समझाया गया है और त्याग की भावना को ही प्रेम की शोभा बताया गया है।

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29. भाव कर्म में जहाँ साम्य हो सन्तत 
जग जीवन में हों विचार जन के रत; 
ज्ञान वृद्ध, निष्क्रिय न जहाँ मानव मन, 
मृत आदर्श न बन्धन, सक्रिय जीवन! 
रूढ़ि रीतियाँ जहाँ न हों आधारित, 
श्रेणि वर्ग में मानव नहीं विभाजित! 
धन बल से हो जहाँ न जन श्रम शोषण,
पूरित भव-जीवन के निखिल प्रयोजन! 
जहाँ दैन्य जर्जर, अभाव ज्वर पीड़ित, 
जीवन-यापन हो न मनुज को गर्हित 
युग-युग के छायाभासों से भासित । 
मानव के प्रति मानव मन हो न सशंकित!

प्रश्न :
(अ) "युग-युग के छायाभासों से भासित"-इस पंक्ति में 'छायाभासों' से कवि का क्या तात्पर्य है? 
(ब) कवि ने नये समाज की रचना हेतु क्या कामना की है? 
(स) "भाव कर्म में जहाँ साम्य" इससे कवि का क्या आशय है? 
(द) "मानव के प्रति मानव मन न हो सशंकित"-यह स्थिति कब बनती है? लिखिए। 
(य) कवि के अनुसार जनहित कब हो सकता है?
(र) 'मानव के प्रति मानव मन न हो सशंकित' इसमें अलंकार बताइए। 
उत्तर :  
(अ) इसमें छायाभासों' से आशय रूढ़ियों, अन्धविश्वासों, कुप्रथाओं एवं सामाजिक विषमता के विद्रूपों से है। 
(ब) कवि नये समाज की रचना के लिए कामना करता है कि समाज में समता एवं सक्रियता बनी रहे। रूढ़ियाँ, श्रम का शोषण, ऊँच-नीच न रहे। 
(स) समाज में विचारों की तथा कर्तव्यों की समानता होनी चाहिए। जब कर्म एवं भाव में समानता रहेगी, तो सारे विचार एवं कार्य जनहित के ही होंगे। 
(द) प्राचीन काल से मानव-समाज में शोषण-उत्पीड़न, ऊँच-नीच आदि से मानव आशंकित रहते थे, परन्तु नयी सामाजिक रचना में ऐसा नहीं होगा। 
(य) कवि के अनुसार भाव और कर्म में समानता होने पर जनहित हो सकता है। 
(र) अनुप्रास अलंकार। 

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30. अगर तुम ठान लो तो आँधियों को मोड़ सकते हो,
अगर तुम ठान लो तारे गगन के तोड़ सकते हो,
अगर तुम ठान लो तो विश्व के इतिहास में अपने - 
सुयश का एक नव अध्याय भी तुम जोड़ सकते हो,
तुम्हारे बाहुबल पर विश्व को भारी भरोसा है - 
उसी विश्वास को फिर आज जन-जन में जगाओ तुम। 
पसीना तुम अगर इसमें अपना मिला दोगे,
करोड़ों दीन-हीनों को नया जीवन दिला दोगे।
तुम्हारी देह के श्रम-सीकरों में शक्ति है इतनी
कहीं भी धूल में तुम फूल सोने के खिला दोगे।
नया जीवन तुम्हारे हाथ का हल्का इशारा है, 
इशारा कर वही इस देश को फिर लहलहाओ तुम। 

प्रश्न :
(अ) विश्व के इतिहास में अपना सुयश कौन और कैसे लिख सकते हैं? 
(ब) दीन-हीनों को नया जीवन कब मिल सकता है? 
(स) "कहीं भी धूल में तुम फूल सोने का खिला दोगे"-इसका आशय लिखिए। 
(द) इस काव्यांश का केन्द्रीय भाव बताइये। 
(य) नवयुवकों से क्या-क्या करने का आग्रह किया जा रहा है? 
(र) युवक यदि परिश्रम करें, तो क्या लाभ होगा? 
उत्तर :
(अ) विश्व के इतिहास में नवयुवक अपना सुयश लिख सकते हैं। इसके लिए वे अपनी युवा शक्ति का सदुपयोग करके जन-जन के उत्थान में लग जावें। 
(ब) जब देश के युवा रात-दिन परिश्रम करके सामाजिक प्रगति में संलग्न रहेंगे, तब दीन-हीनों को नया जीवन मिल सकता है। 
(स) नवयुवकों में अदम्य शक्ति होती है, वे कम साधनों के बावजूद विकट स्थितियों में भी समाज को अधिक दे सकते हैं। 
(द) नवयुवकों को अपनी शक्ति का उपयोग देशहित, समाज हित एवं कर्मनिष्ठा में करना चाहिए और जन जागरण के लिए समर्पित रहना चाहिए। 
(य) कवि नवयुवकों से आग्रह करता है कि वे नए विचार अपनाकर जनता को जाग्रत करें तथा उनमें आत्मविश्वास का भाव जगाएँ। 
(र) युवक यदि परिश्रम करें तो करोडों दीन-हीनों को नया जीवन मिल सकता है। 

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31. जो जीवन की धूल चाटकर बड़ा हुआ है, 
तूफानों से लड़ा, और फिर खड़ा हुआ है, 
जिसने सोने को खोदा - 
लोहा मोड़ा है, 
जो जीवन की आग जलाकर आग बना है,
फौलादी पंजे फैलाए नाग बना है, 
जिसने शोषण को तोड़ा 
शासन को मोड़ा है, 
जो युग के रथ का घोड़ा है, 
वह जन मारे नहीं मरेगा 

प्रश्न :
(अ) "जो जीवन की आग जलाकर आग बना"-इस पंक्ति में 'आग बना' से क्या आशय है? 
(ब) कवि ने किस जन की विशेषताओं का उल्लेख किया है?
(स) "युग के रथ का घोड़ा है"-इस पंक्ति का आशय क्या है? लिखिए। 
(द) "वह जन मारे नहीं मरेगा"-इसका अभिप्राय क्या है? 
(य) इस काव्यांश में 'नहीं मरेगा' की आवृत्ति कवि का कौनसा भाव प्रदर्शित करती है। 
(र) प्रस्तुत काव्यांश का उचित शीर्षक बताइए। 
उत्तर :  
(अ) 'आग बना' का आशय साहसी, परिश्रमी तथा क्रान्तिकारी बनना है। 
(ब) जिसने परिश्रमपूर्वक कंठिन कार्यों को सम्पन्न किया है, अपना तथा समाज का युगानुरूप निर्माण किया है, ऐसे सामान्य जन का उल्लेख किया है। 
(स) रथ घोड़े के द्वारा खींचा जाता है, उसी प्रकार वर्तमान युग की गतिशीलता को सामान्य लोग अपने परिश्रम प्रयास से बढ़ा रहे हैं। 
(द) जो व्यक्ति शोषण का विरोध कर अपने आत्मबल से अनेक बाधाओं का सामना कर अपने व्यक्तित्व का निर्माण करता है। वह सदैव जीवित जाग्रत रहता है। 
(य) इस काव्यांश में 'नहीं मरेगा' की आवृत्ति जनता में उनकी दृढ़ एवं गहरी आस्था को प्रदर्शित करती है। 
(र) उचित शीर्षक-"जो जीवन की धूल चाटकर बड़ा हुआ है।"

Prasanna
Last Updated on July 11, 2022, 3:55 p.m.
Published July 11, 2022