RBSE Class 12 Drawing Notes Chapter 5 पहाड़ी चित्र शैली

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RBSE Class 12 Drawing Chapter 5 Notes पहाड़ी चित्र शैली

→ प्रारम्भिक परिचय:
'पहाड़ी' मूल रूप से 'पहाड़ी' या 'पर्वतीय' को दर्शाता है। चित्रकला की पहाड़ी शैली में पश्चिमी हिमालय की पहाड़ियों में बसे बसोहली, गुलेर, काँगड़ा, कुल्लू, चम्बा, मनकोट, नूरपुर, मंडी, बिलासपुर, जम्मू और अन्य शहर शामिल हैं जो 17वीं से 19वीं शताब्दी तक चित्रकला के केन्द्र के रूप में उभरे। गुलेर या पूर्व काँगड़ा चरण के माध्यम से, यह भारतीय चित्रकला की सबसे उत्तम और परिष्कृत शैली के रूप में विकसित हुई। इसका प्रारम्भ बसोहली से हुआ था। मुगल, दक्कनी और राजस्थानी शैली की विशेष शैलीगत विशेषताओं के विपरीत, पहाड़ी चित्रकलाएँ उनके क्षेत्रीय वर्गीकरण में शामिल चुनौतियों को दर्शाती हैं।
उपरोक्त सभी केन्द्रों ने चित्रकला में (प्रकृति, वास्तुकला, आकृति के प्रकार, चेहरों की विशेषताएँ, वेशभूषा, विशिष्ट रंग आदि) व्यक्तिगत विशेषताओं को तैयार किया है परन्तु ये विशिष्ट शैलियों के साथ स्वतंत्र शैलियों के रूप में विकसित नहीं होते हैं। दिनांकानुसार सामग्री, कॉलोफोन और शिलालेखों की कमी वर्गीकरण में बाधा उत्पन्न करती है।
RBSE Class 12 Drawing Notes Chapter 5 पहाड़ी चित्र शैली 1
चित्र-मक्खन चुराते कृष्ण, भागवत पुराण, 1750, एन.सी. मेहता संग्रह, अहमदाबाद (गुजरात), भारत

→ पहाड़ी चित्र शैली का प्रारम्भ बसोहली शैली से:
चित्रकला की मुगल और राजस्थानी शैली, पहाड़ियों में सम्भवतः प्रांतीय मुगल शैली और राजस्थान के शाही दरबार से पहाड़ी राजाओं के पारिवारिक सम्बन्धों के उदाहरण के माध्यम से जानी जाती थी। बसोहली शैली, आमतौर पर सबसे प्राचीन प्रचलित सचित्र भाषा मानी जाती है।

→ पहाड़ी चित्र शैली के सबसे महत्त्वपूर्ण विद्वान:
बी.एन. गोस्वामी-पहाड़ी चित्र शैली के सबसे महत्त्वपूर्ण विद्वानों में से एक बी.एन. गोस्वामी हैं । गोस्वामी को पहाड़ी चित्रकला और भारतीय लघु चित्रों पर उनकी विद्वता के लिए जाना जाता है। इन्हें बसोहली की सादगीपूर्ण कला को पहाड़ी शैली में परिवर्तन हेतु जाना जाता है। उनका मुख्य विचार यह था कि पंडित सेउ (शिव) का परिवार पहाड़ी चित्रों की श्रृंखला के लिए उत्तरदायी है। गोस्वामीजी का तर्क है कि क्षेत्रों के आधार पर पहाड़ी चित्रों की पहचान करना भ्रामक हो सकता है क्योंकि राजनीतिक सीमाएँ हमेशा स्थिर नहीं होती हैं । यह तर्क राजस्थानी शैलियों के लिए भी उचित है क्योंकि केवल क्षेत्रों के कारण अस्पष्टता उत्पन्न होती है और कई असमानताएँ अस्पष्ट रहती हैं। अतः यदि कलाकारों के परिवारों को शैलीवाहक माना जाता है, तो एक शैली के कई पहलुओं का औचित्य एक ही क्षेत्र और शैली के भीतर समायोजित किया जा सकता है।

RBSE Class 12 Drawing Notes Chapter 5 पहाड़ी चित्र शैली 

→ पूर्व काँगडा शैली का काँगडा शैली में परिवर्तन:
अठारहवीं शताब्दी के मध्य से यह शैली पूर्व काँगडा शैली से काँगड़ा शैली में परिवर्तित हो गई। शैली और प्रयोग की शुरुआत में आए परिवर्तनों के कारण विभिन्न शैलीगत मुहावरों का जन्म हुआ जो कि विभिन्न पहाडी केन्द्रों से सम्बन्धित थे। यह बड़े पैमाने पर विभिन्न कलाकार परिवारों और चित्रों द्वारा प्रतिक्रियाओं हेतु जिम्मेदार हैं जो पहाड़ी क्षेत्रों में चित्रित किए गए थे।
RBSE Class 12 Drawing Notes Chapter 5 पहाड़ी चित्र शैली 2
चित्र-वन में राम और सीता, काँगड़ा, 1780, डगलस बरेट संग्रह, इंग्लैण्ड, यूके

→ चित्रों की विषयवस्तु:
इन चित्रों में प्रकृतिवाद था जिसने पहाड़ी कलाकारों की संवेदनाओं को आकर्षित किया था। वे रचनाएँ जो सापेक्ष दृष्टिकोण के आधार पर तैयार की जाती हैं, उनमें चित्रों को सुंदर हाशिये के साथ प्रदर्शित किया जाता है। जिन विषयों में दैनिक दिनचर्या या राजाओं के जीवन से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण अवसरों की रिकॉर्डिंग, महिला रूप हेतु नए प्रोटोटाइप का निर्माण और एक आदर्श चेहरा शामिल है, वे सभी इस नई उभरती हुई शैली से जुड़े हैं जो धीरे-धीरे काँगड़ा चरण में परिवर्तित हो गई।

→ पहाड़ी लघु चित्रों की शैलियाँ:
पहाड़ी लघु चित्रों में बसोहली शैली, गुलेर शैली एवं काँगड़ा शैली प्रमुख हैं। इनका वर्णन निम्न प्रकार है

→ बसोहली शैली (Basohli School)
कृपाल पाल के शासनकाल में बसोहली शैली का विकास:
पहाड़ी राज्यों के चित्रकला कार्य का प्रथम उदाहरण बसोहली से ही प्राप्त होता है। 1678 से 1695 तक, एक प्रबुद्ध राजकुमार कृपाल पाल ने राज्य पर शासन किया। उनके शासनकाल में बसोहली एक विशेष और शानदार शैली के रूप में विकसित हुई।

इस शैली की प्रमुख विशेषताएँ हैं:

  • प्राथमिक रंगों का प्रयोग,
  • पीले रंग का समुचित प्रयोग,
  • पृष्ठभूमि और क्षितिज को भरना,
  • वनस्पति का शैलीबद्ध व्यवहार प्रस्तुत करना,
  • आभूषणों में मोती का प्रतिनिधित्व दर्शाने हेतु सफेद रंग को ऊपर उठाना आदि।
  • बसोहली चित्र शैली में भुंग के पंखों के छोटे, चमकीले हरे कणों का उपयोग आभूषणों को चित्रित करने और 'पन्ना' के प्रभाव को उभारकर दर्शाने के लिए किया जाता है, यही बसोहली चित्र शैली की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है। अपने जीवन्त रंगों और लालित्य में, वे पश्चिमी भारत के चित्रों के चौरपंचशिका समूह के सौन्दर्यशास्त्र को साझा करते हैं।

→ बसोहली शैली के कुछ प्रमुख चित्र
1. भानुदत्ता की 'रसमंजरी' में चित्रित चित्र:
बसोहली चित्रकारों का सबसे लोकप्रिय प्रसंग भानुदत्ता की 'रसमंजरी' थी। 1694-95 में देवीदा, एक तारखाम (बढ़ई चित्रकार) ने अपने संरक्षक कृपाल पाल के लिए एक शानदार श्रृंखला तैयार की। भागवत पुराण और रागमाला अन्य लोकप्रिय विषय थे।

2. रामायण पर आधारित 'शांगरी' चित्र श्रृंखला:
संस्कृत महाकाव्य 'रामायण' बसोहली और कुल्ल के पहाड़ी कलाकारों के पसंदीदा ग्रन्थों में से एक था। इस श्रृंखला का नाम 'शांगरी' से लिया गया है, जो कुल्लू शाही परिवार की एक शाखा का निवास स्थान था। कुल्लू कलाकारों की ये कृतियाँ बसोहली और बिलासपुर की शैलियों से अलग-अलग मात्रा में प्रभावित थी।

3. शांगरी का चित्र 'राम अपनी सम्पत्ति त्यागते हैं' का चित्रण:

  • राम अपने वनवास के बारे में सीखते हैं और अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ अयोध्या छोड़ने की तैयारी करते हैं। मन का संतुलन बनाए रखते हुए राम अपनी संपत्ति को त्यागने के कृत्य में सम्मिलित हो जाते हैं। राम के अनुरोध पर, उनके भाई ने अपना सामान ढेर कर दिया और अपने प्रिय राम के आभूषण, बलि के बर्तन, हजार गायों और अन्य खजानों की कृपा प्राप्त करने के लिए भीड़ इकट्ठा होने लगती है।
  • बाईं ओर अलग सेट में सीता के साथ दो राजकुमार हैं जो एक कालीन पर खड़े हैं । प्राप्तकर्ताओं की भीड़ उनकी ओर बढ़ रही है। चित्रकार सावधानी से विभिन्न प्रकार के वैरागी, ब्राह्मण, दरबारियों, आम लोगों और शाही घराने के नौकरों का परिचय देता है।

कालीन पर कपड़ों और सोने के सिक्कों के ढेर हैं, भोली भाली गायों और बछड़ों को भी चित्रित किया गया है। ये गायें और बछड़े गर्दन को खींचे हुए टकटकी लगाते हुए, खुले मुँह से राम की ओर देख रहे हैं। इस स्थिति की गम्भीरता को अलग-अलग भावों के माध्यम से संवेदनशील रूप से चित्रित किया गया है। शान्त लेकिन धीरे से मुस्कुराते हुए राम जिज्ञासु लक्ष्मण, आशंकित सीता, प्राप्त करने के इच्छुक
RBSE Class 12 Drawing Notes Chapter 5 पहाड़ी चित्र शैली 3
चित्र-रसमंजरी, बसोहली, 1720, ब्रिटिश संग्रहालय, लंदन, यूके 

ब्राह्मण लेकिन बिना किसी खशी के, और अन्य भाव अविश्वास तथा कृतज्ञता के साथ सुन्दर तरीके से चित्रित किए गए हैं। राम द्वारा धारण किये गये परिधानों, ब्राह्मणों के गालों और ठुड्डी पर दाढ़ी, तिलक के निशान, आभूषण और हथियारों को कलाकार खुशी से दर्शाता है।

4. 'वन में ऋषि विश्वामित्र के साथ राम और लक्ष्मण' चित्र का वर्णन:
शांगरी के एक अन्य चित्र में राम और लक्ष्मण को ऋषि विश्वामित्र के साथ जंगल में राक्षसों को हराने के लिए दिखाया गया है। ये राक्षस संतों के ध्यान कार्य में बाधा उत्पन्न करके और उनके अनुष्ठानों को दूषित करके उन्हें परेशान करते हैं। इस चित्र की मुख्य विशेषता जानवरों का प्रतिनिधित्व है, जो पेड़ों के पीछे छिपे हुए हैं। बाईं ओर एक भेड़िया और दाईं ओर एक बाघ का चतुर चित्रण किया गया है। कलाकार एक घने अभेद्य जंगल के रूप में जंगल का चित्र प्रस्तुत करता है। जहाँ क्रूर जानवर छिपे हुए हैं। यहीं दो राजकुमार असाधारण साहस के साथ चित्रित किये गये हैं। जानवरों का आंशिक प्रतिनिधित्व भी एक रहस्य है क्योंकि उनके भेष में राक्षस होने की सम्भावना है।

RBSE Class 12 Drawing Notes Chapter 5 पहाड़ी चित्र शैली

5. अन्य चित्रकारों के चित्र:
कुछ अन्य चित्रकारों ने स्थानीय राजाओं के चित्रों को उनकी पत्नियों, दरबारियों, ज्योतिषियों, याचकों आदि के साथ चित्रित किया है । बसोहली के कलाकार और उनके चित्र धीरे-धीरे अन्य पहाडी राज्यों जैसे चंबा और कुल्ल में फैल गए. इससे बसोहली कलाम की स्थानीय विविधताओं का उद्भव हुआ। 1690 से 1730 के दशक के दौरान चित्र की एक नई शैली प्रचलन में आई, जिसे गुलेर-काँगड़ा चरण कहा गया है। इस अवधि के दौरान कलाकार प्रयोगों और आशुरचनाओं में व्यस्त रहे जो अन्त में काँगडा शैली में परिवर्तित हो गए। इसलिए, बसोहली में उत्पन्न शैली धीरे-धीरे मनकोट, नूरपुर, कुल्लू, मंडी, बिलासपुर, चम्बा, गुलेर और काँगड़ा के अन्य पहाड़ी राज्यों में फैल गई।

→ गुलेर शैली (Guler School):
राजा गोवर्धन चन्द के शासनकाल में चित्रकला का विकास:
अठारहवीं शताब्दी की पहली तिमाही में बसोहली शैली में पूर्ण परिवर्तन देखा गया। अब गुलेर काँगड़ा चरण की शुरुआत हुई। यह चरण पहली बार राजा गोवर्धन चंद (1744-1773) के संरक्षण में काँगड़ा शैली शाही परिवार की एक उच्च श्रेणी की शाखा गुलेर में दिखाई दिया। 

→ पंडित सेऊ और उनके बेटे:

  • मानक एवं नैनसुख द्वारा चित्रित चित्र-गुलेर कलाकार पंडित सेउ अपने बेटों मानक और नैनसुख के साथ 1730-40 के आसपास चित्रों की श्रृंखला को एक नई शैली में बदलने के लिए उत्तरदायी माने जाते हैं। इसे आमतौर पर पूर्व काँगड़ा या गुलेर काँगड़ा कलाम कहा जाता है। यह शैली बसोहली शैली की तुलना में अधिक परिष्कृत मंद और सुरुचिपूर्ण है। मानक और उनके भाई नैनसुख ने गुलेर शैली को सशक्त रूप से आगे बढ़ाया। नैनसुख जसरोटा के राजा बलवंत सिंह के दरबारी चित्रकार थे। इस शैली का सबसे परिपक्व संस्करण 1780 के दशक के दौरान काँगड़ा में प्रवेश किया और काँगड़ा स्कूल में परिवर्तित हो गया जबकि बसोहली की शाखाएँ भारत के चम्बा और कुल्लू में विकसित होती रहीं। 
  • मानक और नैनसुख के पुत्रों और पौत्रों ने कई और केन्द्रों पर कार्य किया और पहाड़ी चित्र शैली के कई उदाहरण प्रस्तुत किए।

→ दलीप सिंह और बिशनसिंह के शासनकाल में चित्रकला का विकास:

  • पहाड़ी शैली में गुलेर के चित्रों की एक लम्बी परम्परा है। इस बात का प्रमाण यह है कि दलीप सिंह (1695-1743) के शासनकाल में हरिपुरगुलेर में चित्रकार काम कर रहे थे क्योंकि दलीप सिंह और उनके पुत्र बिशनसिंह के कई चित्र, 1730 के दशक
  • से पहले, यानि गुलेर-काँगड़ा चरण के प्रारम्भ के पहले के पाए जाते हैं। | बिशनसिंह की मृत्यु उनके पिता के जीवनकाल में ही हो गई थी। अतः इनके अनुज गोवर्धन चंद सिंहासन पर बैठे, जिसने चित्रकला शैली में बदलाव देखा।

RBSE Class 12 Drawing Notes Chapter 5 पहाड़ी चित्र शैली 4
चित्र-प्रार्थना करते बलवंत सिंह, नैनसुख, 1750, विक्टोरिया एण्ड अल्बर्ट म्यूजियम, लंदन, यूके
RBSE Class 12 Drawing Notes Chapter 5 पहाड़ी चित्र शैली 5
चित्र-गोपियों के साथ रास करते कृष्ण, गीत गोविंद, गुलेर, 1760-1765, एन.सी. मेहता संग्रह, अहमदाबाद, गुजरात, भारत 

→ चित्रकार मानक द्वारा चित्रित गीत गोविन्द की श्रृंखला:
मानक की सर्वश्रेष्ठ रचना 1730 में गुलेर में चित्रित गीत-गोविन्द की एक श्रृंखला है जिसमें बसोहली शैली के कुछ तत्वों को जीवन्त रखा गया है। इसमें भंग के पंखों के आवरण का भव्य प्रयोग किया गया है।

→ चित्रकार नैनसख द्वारा चित्रित चित्र:
ऐसा प्रतीत होता है कि नैनसुख अपने गृहनगर गलेर को छोडकर जसरोटा चले गये थे। जसरोटा के उत्तराधिकारी बलवंत सिंह उनके सबसे बड़े संरक्षक थे। नैनसुख द्वारा चित्रित बलवंत सिंह की तस्वीरें प्रसिद्ध हैं जो संरक्षक के जीवन को प्रस्तुत करती हैं। बलवंत सिंह को विभिन्न गतिविधियों में सम्मिलित होते हुए चित्रित किया गया है, जैसे-पूजा करना, एक भवन स्थल का सर्वेक्षण करना, ठण्ड के मौसम में रजाई में लिपटे एक शिविर में बैठना आदि। चित्रकार ने अपने संरक्षक के हर अवसर को चित्रित करते हुए उसे सन्तुष्टि प्रदान की है। नैनसुख की प्रतिभा का मुख्य भाग व्यक्तिगत चित्रांकन था। कालान्तर में यही पहाड़ी शैली की प्रमुख विशेषता बनी। उनके पैलट में सफेद या भूरे रंग के विस्तार के साथ कोमल पेस्टल रंगों का समावेश था।

→ मनाकू चित्रकार:
मनाकू ने भी अपने संरक्षक राजा गोवर्धनचंद और उनके परिवार के कई चित्र बनाए। गोवर्धनचंद के उत्तराधिकारी प्रकाश चंद ने कला के अपने पिता के उत्साह का अनुकरण किया। उनके दरबार में मनाकू और नैनसुख, खुशला, फटू और गौधु के बेटे कलाकार थे।

→ काँगड़ा शैली (Kangra School):
1. घमंडचन्द के शासनकाल में चित्रकला का विकास:
राजा संसारचन्द के दादा घमंडचंद ने राज्य को उसके पूर्व गौरव की स्थिति में कायम किया। वह कटोतच वंश के शासकों से सम्बन्धित थे, जो काँगड़ा पर शासन कर रहे थे। जहाँगीर ने सत्रहवीं शताब्दी में इस क्षेत्र पर विजय प्राप्त करके उन्हें अपना जागीरदार बना लिया। मुगल साम्राज्य के पतन के बाद शासक घमंडचन्दं ने अधिकांश क्षेत्र को पुनः प्राप्त कर लिया और टीहरा (Tira) सुजानपुर को अपनी राजधानी बनाया। यह व्यास नदी के तट पर थी। राजा घमंडचन्द ने स्मारकों का भी निर्माण करवाया। उन्होंने चित्रकारों के लिए चित्रालय भी बनवाए।

2. राजा संसारचन्द के शासनकाल में चित्रकला का विकास:

  • काँगड़ा क्षेत्र में चित्रकला राजा संसारचन्द (1775-1823) के संरक्षण में विकसित हुई। ऐसा माना जाता है कि प्रकाशचंद गम्भीर वित्तीय संकट की स्थिति में आ गये और वह अपने चित्रालयों को बनाये नहीं रख सके। अतः कलाकार मनाकू और उनके बेटों ने काँगड़ा के संसारचन्द का संरक्षण प्राप्त किया।
  • संसारचन्द दस साल की आयु में ही सिंहासन पर विराजमान हो गए।
  • राजा संसारचन्द ने आसपास के सभी पहाड़ी राज्यों पर काँगड़ा का वर्चस्व स्थापित किया। उनके संरक्षण में टीहरा (Tira) सुजानपुर चित्रकला के सबसे उत्कृष्ट केन्द्र के रूप में उभरा। काँगड़ा कलाम चित्रों का एक प्रारम्भिक चरण आलमपुर में देखा गया है। सबसे परिपक्व चित्रों को नादौन में चित्रित किया गया था जहाँ संसारचन्द बाद में स्थानान्तरित हो गये थे। यह सभी केन्द्र व्यास नदी के किनारे थे। व्यास नदी के साथ आलमपुर को कुछ चित्रों में पहचाना जा सकता है। काँगड़ा में चित्रकारी कम की गई क्योंकि यह क्षेत्र 1786 तक मुगलों और बाद में सिखों के अधीन रहा।
  • संसारचन्द के पुत्र अनिरुद्ध चंद 1823-1831 भी एक उदार संरक्षक थे। उन्हें भी अपने दरबारियों के साथ चित्रित देखा जाता है।

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→ काँगड़ा चित्र शैली की विशेषताएँ:

  • काँगड़ा शैली अब तक भारतीय शैलियों की सबसे काव्यात्मक और गीतात्मक शैली है जो सौन्दर्य और कोमलता के साथ प्रस्तुत की जाती है।
  • काँगड़ा शैली की मुख्य विशेषताएँ रेखा की कोमलता, रंगों की चमक, सूक्ष्मता से सजावटी विवरण, महिला के चेहरे का चित्रण आदि हैं।
  • काँगड़ा शैली में महिला के चेहरे का चित्रण माथे के साथ तथा सीधी नाक के साथ किया जाता है जो 1790 के दशक के आसपास प्रचलन में आया था। यह भी काँगड़ा शैली की मुख्य विशेषताओं में से एक है।

→ काँगड़ा शैली के प्रमुख चित्रों के विषय एवं चित्रकार:
चित्रित किए गए सबसे लोकप्रिय विषय भगवत पुराण, गीत गोविन्द, नल दमयंती, बिहारी सतसई, रागमाला और बारहमासा थे। कई अन्य चित्रों में संसारचंद और
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चित्र-कालिया मर्दन, भागवत पुराण, काँगड़ा, 1785, राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली, भारत
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चित्र-गोपियों के साथ होली खेलते कृष्ण, काँगड़ा, 1800, राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली, भारत उनके दरबार का सचित्र रिकॉर्ड शामिल है। उन्हें नदी के किनारे बैठे, संगीत सुनते, नृत्य देखते हुए, त्यौहारों की अध्यक्षता करते हुए, तीरंदाजी का अभ्यास करते हुए और सैनिकों की ड्रीलिंग करते हुए दिखाया गया है। फट्ट, पुरखु और खुशला काँगड़ा शैली के मुख्य चित्रकार हैं।

→ काँगड़ा चित्र शैली का विस्तार तथा अवसान:
संसारचन्द के शासनकाल में काँगड़ा शैली के चित्रों का चित्रांकन अन्य पहाड़ी राज्यों की तुलना में अधिक था। उन्होंने राजनीतिक शक्ति का प्रयोग करते हुए गुलेर और अन्य क्षेत्रों के कलाकारों के साथ एक बड़े स्टूडियो का समर्थन किया। काँगड़ा शैली शीघ्र ही टीहरा (Tira) सुजानपुर से पूर्व में गढ़वाल और पश्चिम में कश्मीर तक फैल गई। 1805 के आसपास जब गोरखाओं ने काँगड़ा किले को घेर लिया तो चित्रकला गतिविधि बुरी तरह प्रभावित हुई। तब संसारचन्द को अपने पहाड़ी महल टीहरा (Tira) सुजानपुर में भागना पड़ा। 1809 में रंजीत सिंह की मदद से गोरखाओं को भगाया गया। यद्यपि संसारचन्द ने अपनी कलाकारों को संग्रह को बनाये रखा परन्तु कार्य अब 1785-1805 की अवधि की उत्कृष्ट कृतियों के समान नहीं रहा।

→ काँगड़ा शैली के प्रमुख चित्र
1. भागवत पुराण चित्रों की श्रृंखला:
भागवत पुराण चित्रों की श्रृंखला काँगड़ा कलाकारों की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक है। यह अपने सहज प्रकृतिवाद, चतुर और असामान्य मुद्रा में आकृतियों के विशद प्रतिपादन के लिए उल्लेखनीय है जो नाटकीय दृश्यों को स्पष्ट रूप से चित्रित करता है। माना जाता है कि प्रधान गुरु नैनसुख के वंशज थे जो उनके अधिकांश कौशल को नियंत्रित करते थे।
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चित्र-ज्येष्ठ माह में एक युगल, काँगड़ा, 1800, राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली, भारत

2. कृष्ण की लीलाओं को याद करते हुए अभिनय करने का चित्र:
यह चित्र रास पंचध्यायी का है जो भागवत पुराण के पाँच अध्यायों का एक समूह है। यह रस की दार्शनिक अवधारणा को समर्पित है। इसमें गोपियों की कृष्ण के प्रति प्रेम की स्पष्ट झलक है। जब कृष्ण अचानक गायब हो जाते हैं तो गोपियों का दर्द वास्तविक रूप से दिखाई देता है। अलगाव और उदासी की अवस्था में गोपियाँ हिरन, पेड़ और लताओं को सम्बोधित करते हुए कृष्ण के ठिकाने के बारे में प्रश्न पूछती हैं। उनके दयनीय सवालों के जवाब किसी के पास नहीं हैं। इस स्थिति का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है।

कृष्ण के विचारों में तल्लीन गोपियाँ, उनकी विभिन्न लीलाओं को याद करती हैं और उनका अभिनय करती हैं, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं-पूतना की हत्या, यमला अर्जुन की मुक्ति और माता यशोदा द्वारा कृष्ण को ओखली से बाँधना, गोवर्धन पर्वत को उठाना, बृज के वासियों को भारी बारिश और इन्द्र के प्रकोप से बचाना, कालिया नाग को वश में करना, कृष्ण की बांसुरी की मादक पुकार और आकर्षण आदि। गोपियाँ विभिन्न भूमिकाएं निभाती हैं और उनके दिव्य खेलों का अनुकरण करती हैं।
चित्रकार इन संवेदनशील छवियों को उत्कृष्ट रूप से चित्रित करता है। सबसे बाईं ओर, एक गोपी अभिनय करती दिखाई देती है। वह कृष्ण के रूप में आगे झुकते हुए, एक अन्य गोपी के वक्षस्थल को चूसती दिखाई देती है जो पूतना की भूमिका निभाती है और जवाब में अपना हाथ सिर की ओर उठाती है, जैसे कि मर रही हो और उसकी साँसें खत्म होती जा रही हैं। एक अन्य गोपी यशोदा का अभिनय करती है, जो अन्य गोपियों के साथ, युवा कृष्ण द्वारा पूतना को मारने का वीरतापूर्ण कार्य करने के बाद बुरी नजर को दूर रखने के लिए अपना वस्त्र रखती है।

इसके बगल में दायीं ओर के समूह में, एक गोपी ओखली की भूमिका निभाती है, जिसमें एक अन्य गोपी जो युवा कृष्ण की भूमिका निभा रही है, को एक कपड़े की पट्टी से बाँध दिया जाता है। कृष्ण की माता अपने हाथों में छड़ी पकड़े खड़ी होती है। गोवर्धन पर्वत को उठाने के दृश्य का भी साहसिक चित्रण किया गया है। तल में सबसे बाईं ओर एक गोपी, कृष्ण का अभिनय करती है जो बांसुरी बजा रहे हैं। कुछ गोपियाँ गाना गाती हैं और नत्य करती हैं तो कुछ कृष्ण की ओर खिंचती चली जा रही हैं। उनकी (गोपियों) नाराज सास उनको पुनः खींचने और पकड़ने की कोशिश करती है। इन सभी में सबसे उत्तम चित्रण सबसे दाईं ओर नीचे है जिसमें एक गोपी एक नीले रंग के कपड़े को जमीन पर फेंकती है, जो कालिया नाग का रूप ले लेता है, जिस पर वह कृष्ण की तरह नृत्य करती है।

3. अष्ट नायिका या आठ नायिकाओं का चित्र:
अष्ट नायिका या आठ नायिकाओं का चित्रण पहाड़ी चित्रों में सबसे अधिक चित्रित विषयों में से एक है जिसमें विभिन्न स्वभाव और भावनात्मक स्थितियों में महिलाओं का चित्रण शामिल है। कुछ अवस्थाओं का उल्लेख इस प्रकार है जैसे-उत्का वह है जो अपने प्रिय के आगमन की उम्मीद कर रही है और धैर्यपूर्वक उसकी प्रतीक्षा कर रही है, स्वाधीनपाटिका वह है जिसका पति उसकी इच्छा के अधीनस्थ है, वासकसज्जा नायिका वह है जो नायक से मिलने की तैयारी किए हुए बिस्तर को फूलों से सजाकर स्वयं सजकर बैठी है, कलाहंतारिता वह नायिका है जो अपने प्रिय का विरोध करती है और बाद में पछताती है।

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4. अभिसारिका नायिका का चित्र:

  • अभिसारिका एक प्रेमातुर नायिका है जो किसी भी जोखिम की परवाह न करते हुए अपने प्रेमी से मिलने निकल पड़ती है। प्रकृति के विरोधी तत्वों पर विजय प्राप्त करने वाली नायिका की लगन और दृढ़ता के साथ कल्पना की गई स्थिति, आमतौर पर विचित्र और नाटकीय सम्भावनाओं से पूर्ण होती है। इस चित्रकारी में सखी बता रही है कि वह कैसे रात में अपने प्रेयसी से मिलने के लिए जंगल पार गई थी। कवि यहाँ 'योग' का वर्णन करता है। नायिका एकल उद्देश्य को मस्तिष्क में धारण किये हुए रात के अंधेरे में जंगल से गुजरती है।
  • अभिसारिका की व्यापक प्रतिमा लगभग समान हैं। हालांकि चित्रकार कभी-कभी अपने प्रतिपादन को परिवर्तित भी करते हैं। कई संस्करणों में दिखाई देने वाले राक्षसों को इनमें छोड़ दिया जाता है। परन्तु रात का अंधेरा, बिजलियों का कड़कना, धुंधले बादल, अंधेरे में फुफकारते साँप, वृक्षों के खोखले तनों से निकलते जानवर और गिरते हुए आभूषण सभी तथ्यों को चित्रित किया गया है।

5. बारहमासा के चित्र:

  • बारामासा (बारहमासा) पेंटिंग वर्षभर के बारहमास में नायक-नायिका की श्रृंगारिक विरह तथा मिलन की क्रियाओं का चित्रण करता है। 19वीं सदी के दौरान पहाड़ियों में यह एक लोकप्रिय विषय बन गया था। केशवदास ने 'कविप्रिया' के दसवें अध्याय में बारहमासा का वर्णन प्रस्तुत किया है। वे ज्येष्ठ के गरम मास का वर्णन करते हैं जो मई और जून के महीनों में आता है। कवि द्वारा प्रस्तुत सभी अनुरूपताओं को चित्रित करके चित्रकार अत्यधिक प्रसन्न होते हैं।
  • काँगड़ा शैली 1780 के दशक में सामने आई। बसोहली शैली की शाखाएँ उभरीं और तत्पश्चात् चम्बा, कुल्लू, नूरपुर, मनकोट, जसरोटा, मण्डी, बिलासपुर, जम्मू और अन्य कई केन्द्रों में अपनी विशेषताओं के साथ जारी रही। काँगड़ा शैली ने कश्मीर में (1846-1885) एक स्थानीय स्कूल की शुरुआत की। सिखों ने भी अन्य कागड़ा चित्रकारों को नियुक्त किया।
  • पहाड़ी चित्रकला की तीनों शैलियों का मिला-जुला होना-तीनों शैलियों-बसोहली, गुलेर और काँगड़ा का एक व्यापक वर्गीकरण है। यद्यपि ये सांकेतिक केन्द्र है जहाँ से शैली कहीं और जाती है। अतः यदि जसरोटा में कोई गुलेर शैली को देखता है तो इसे गुलेर शैली के अन्तर्गत वर्गीकृत किया जाता है। अन्य केन्द्रों के पहलुओं के बारे में संक्षेप में लिखें तो सत्रहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत में चम्बा के शासकों के चित्र बसोहली शैली में प्राप्त होते हैं।

कुल्लू एक विशेष शैली के साथ उभरा। इस शैली के चित्रों में विशिष्ट ठोड़ी और चौड़ी, खुली आँखें थीं, पृष्ठभूमि में ग्रे और टेराकोटा लाल रंगों का भव्य उपयोग किया गया था। 'शांगरी रामायण' सत्रहवीं शताब्दी की अंतिम तिमाही में कुल्लू घाटी में चित्रित एक प्रसिद्ध श्रृंखला है। इस श्रृंखला के चित्रों की शैली एक-दूसरे से भिन्न है अतः ऐसा विश्वास किया जाता है कि इन्हें अलग-अलग श्रृंखला के कलाकारों द्वारा चित्रित किया गया है। ऐसा माना जाता है कि जब बसोहली शैली स्वयं से आगे निकल गई और काँगड़ा शैली में परिवर्तित हो गई तब भी नूरपुर के कलाकारों ने काँगड़ा की सुन्दर कृति के साथ-साथ बसोहली के जीवन्त रंगों को भी कायम रखा।

बसोहली और मनकोट के वैवाहिक सम्बन्धों के कारण बसोहली के कुछ कलाकार मनकोट में स्थानान्तरित हो गए जिससे चित्रों की समान शैली का विकास हुआ। सन् 1740 ई. के आसपास नैनसुख जसरोटा आ गए। यहाँ उन्होंने अपना अधिकतर कार्य शासक जोरावर सिंह और उनके पुत्र बलवंत सिंह के लिए किया। अनेक चित्र नैनसुख द्वारा चित्रित किये गये। इन्होंने बसोहली शैली को नए परिष्करण हेतु प्रोत्साहित किया। नैनसुख की इस शैली को गुलेर-काँगड़ा शैली का नाम दिया जाता है।

मंडी के शासक भगवान विष्णु और शिव के उपासक थे। अतः कृष्ण लीला विषयों के अलावा, शैव विषयों को भी चित्रित किया गया। भोलाराम नामक एक कलाकार गढ़वाल शैली से जुड़ा है। भोलाराम द्वारा हस्ताक्षरित कई चित्रकारियों की प्राप्ति हो चुकी है। यह शैली संसारचन्द चरण की काँगड़ा शैली से प्रभावित थी।

→ पहाड़ी चित्र शैली के कुछ प्रमुख चित्र 
1. प्रतीक्षावान कृष्ण और हिचकिचाती राधा (Awaiting Krishna and the Hesitant Radha):

  • कलाकार पण्डित सेउ के दो प्रतिभाशाली पुत्र थे, मानक या मनाकू और नैनसुख। बसोहली के मंच से काँगड़ा तक की पहाड़ी चित्रकला शैली को बदलने में उनका अभूतपूर्व योगदान है। इनके पुत्र काँगड़ा के गौरवशाली काल का प्रतिनिधित्व करते हैं । इस चित्रकारी को गुलेर-काँगड़ा चरण में वर्गीकृत किया गया है जिसमें परिवर्तन के लिए प्रयोग पहले से ही शुरू किया जा चुका था।
  • गीत गोविन्द मनाकू की सर्वोत्तम कृतियों की श्रृंखला है। जयदेव द्वारा रचित गीत-गोविन्द इस वर्णन से शुरू होती है कि कैसे राधा और कृष्ण यमुना नदी के तट पर अपने प्रेम की शुरुआत करते हैं । इसमें वसन्त ऋतु का आनन्ददायक वर्णन आता है और कवि अन्य गोपियों के साथ कृष्ण के खेल का वर्णन भी करता है। कृष्ण द्वारा उपेक्षित, हृदयविदारक राधा लताकुंजों के मध्य मचलती हुई कहती है कि कृष्ण सुन्दर चरवाहे लड़कियों के साथ भटकते रहते हैं। कुछ समय व्यतीत होने पर कृष्ण पछताते हैं और राधा को खोजने लगते हैं और न मिलने पर विलाप करने लगते हैं। अब दूत राधा के पास जाता है और कृष्ण की अवस्था का ज्ञान राधा को करवाता है।अन्त में राधा, कृष्ण से मिलने जाती है और उनका रहस्यमयी मिलन होता है ।
  • यहाँ पात्र दैवीय है और नाटक को एक दार्शनिक तल पर लागू करते हैं, जहाँ राधा एक भक्त या आत्मा है और कृष्ण, ब्रह्माण्डीय शक्ति है जिसमें राधा को आत्मसात् होना है। यहाँ खेला जाने वाला प्रेम खेल मानवीय है। इस चित्र में, राधा को शर्मीला और झिझकते हुए दिखाया गया है क्योंकि वह वन-क्षेत्र में पहुँचती है जबकि कृष्ण उसका बेसब्री से इन्तजार कर रहे हैं । कलाकार की कल्पना का स्रोत वह शिलालेख है, जो चित्रकारी के पीछे अंकित है। उसका अनुवाद इस प्रकार है-"राधा! सखियों को इस रहस्य का पता चल गया है कि आपकी आत्मा प्रेम के युद्ध हेतु आतुर है। अब, अपनी शर्म को छोड़ दो, अपने कमरबंध को खनखने दो और अपने प्रियतम से मिलने आगे बढ़ो। राधा तुम अपनी किसी प्रिय दासी के साथ चली आओ, तुम अपनी नाजुक और सुन्दर उंगलियों से उसका हाथ पकड़ लेना। चलो आ जाओ और अपनी चूड़ियों की खनखनाहट को अपने प्रियजन के प्रति अपने दृष्टिकोण की घोषणा करने दो।"

जयदेव का यह सुन्दर गीत कृष्ण भक्तों के होठों पर हमेशा विराजमान रहता है।
RBSE Class 12 Drawing Notes Chapter 5 पहाड़ी चित्र शैली 9
अंततः राजा अपने साथियों की सलाह मान लेती है और जयदेव निम्नलिखित वर्णन करते हैं-"फिर उसने अधिक देरी नहीं की, सीधे प्रवेश किया, उसका कदम थोड़ा लड़खड़ाया, लेकिन उसका चेहरा अकथनीय प्रेम से चमक उठा, उसकी चूड़ियों का संगीत, प्रवेश द्वार से गुजरा, उसकी आँखों में शर्म थी, वह लज्जित हो गई।

2. बलवंत सिंह नैनसुख के साथ चित्र देखते हुए (Balwant Singh looking at a Painting with Nainsukh):

  • चित्र में जसरोटा के राजकुमार बलवंत सिंह चित्र को अपने हाथों में पकड़े हुए देख रहे हैं। उनके पीछे खड़ी एक आकृति नैनसुख को दर्शाती है जो विनम्रतापूर्वक झुके हुए पेंटिंग में दिखाए गए हैं। यह चित्र दुर्लभ है क्योंकि यहाँ नैनसुख अपने संरक्षक के साथ खुद का चित्रण करते हैं।
  • बलवंत सिंह अपने महल में बैठे हुए हैं और हरे-भरे परिदृश्य को देख रहे हैं । चित्र में दिखाया गया समय शाम का प्रतीत होता है। नैनसुख की रचना व्यवस्थित है, जो कि स्थिरता शान्तिं और धीरज का प्रतीक है। यह सभी बलवंत सिंह के स्वभाव के सूचक हैं। बलवंत सिंह हुक्का धूम्रपान कर रहे हैं। ऐसा वह आमतौर पर कार्य के बीच में आए अन्तराल के दौरान करते हैं। संगीतकारों को चतुराई से चित्र के बाहरी किनारे की ओर रखा जाता है, ताकि उनकी उपस्थिति का संकेत दिया जा सके। पेंटिंग में उनकी स्थिति से पता चलता है कि वह मृदु संगीत का निर्माण कर रहे हैं। इस प्रकार शान्ति को बढ़ाते हैं । बलवंत सिंह कृष्ण को चित्रित करने वाली चित्रकारी के विवरण में तल्लीन हैं।

RBSE Class 12 Drawing Notes Chapter 5 पहाड़ी चित्र शैली

3. नन्द, यशोदा और कृष्ण (Nanda, Yashoda and Krishna):
यह चित्र भागवत पुराण के एक दृश्य को दर्शाता है। यह नन्द को उनके परिवार और रिश्तेदारों के साथ वृन्दावन की यात्रा करते हुए दर्शाता है। उन्होंने गोकुल को राक्षसों से पीड़ित पाया इसलिए एक सुरक्षित स्थान पर जाने का फैसला किया। चित्र में नन्द अपनी बैलगाड़ी पर एक समूह का नेतृत्व कर रहे हैं। उसके बाद एक और बैलगाड़ी है जिसमें दोनों भाई कृष्ण और बलराम, उनकी माताएँ, यशोदा और रोहिणी बैठे हैं। उनके साथ अनेक प्रकार का घरेलू सामान और बच्चे ले जाते हुए पुरुष तथा महिलाएँ दिखाई दे रहे हैं। यह सभी गतिविधियाँ मनोहर हैं परन्तु जब वह एक दूसरे से बात करते हैं तो उनके सिर का झुकना थकान को दर्शाता है जो निराशा के साथ व्यक्त होती है। सिर पर भार के भारीपन के कारण आँखें और सिर पर बर्तन को मजबूती से पकड़े हुए भुजाओं का तना हुआ खिंचाव, ये सभी अद्भुत अवलोकन और उत्कृष्ट कौशल के उदाहरण हैं।
काँगड़ा के चित्रकार, परिदृश्य का गहन निरीक्षण करते हैं और प्राकृतिक रूप से इसका प्रतिनिधित्व करते हैं। विवरण स्पष्टता से प्रस्तुत किया जाता है।

Prasanna
Last Updated on July 16, 2022, 10:54 a.m.
Published July 16, 2022