RBSE Class 11 Sanskrit व्याकरणम् प्रत्यय-ज्ञान

Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Sanskrit व्याकरणम् प्रत्यय-ज्ञान Questions and Answers, Notes Pdf.

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RBSE Class 11 Sanskrit व्याकरणम् प्रत्यय-ज्ञान

संस्कृत में मूल शब्दों या धातुओं के अन्त में प्रत्यय लगाकर अनेक नवीन शब्दों का निर्माण किया जाता है। धातोः इस सूत्र से धातुओं (क्रिया) से प्रत्यय लगाकर जो नये शब्द बनाते हैं, वे कृदन्त कहलाते हैं। शब्दों के बाद प्रत्यय लगाकर जो नये शब्द बनते हैं, वे तद्धित प्रत्ययान्त कहलाते हैं। पुल्लिङ्ग शब्दों को स्त्रीलिंग बनाने के लिए जो प्रत्यय लगाते हैं, उन्हें स्त्री प्रत्यय कहते हैं। इस प्रकार प्रत्यय मुख्यतः तीन तरह के होते हैं - 
(i) कृत् (ii) तद्धित और (iii) स्त्री प्रत्यय।

(i) कृदन्त प्रत्यय 

जिन धातुओं के अन्त में कृत् प्रत्यय लगाकर नये शब्द बनते हैं, उन्हें 'कृदन्त' कहते हैं। कृत्' का अर्थ है करने वाला - करोतीति कृत्। कृत् प्रत्यय मुख्यतया कर्तृवाच्य में होते हैं तथा ये दो प्रकार के होते हैं - (क) कृत्य प्रत्यय और (ख) कृत् प्रत्यय। .
पाठ्यक्रम में निर्धारित कृदन्त-प्रत्ययों का परिचय निम्नानुसार है - 

'क्त' और 'क्तवतु' प्रत्यय - जब किसी भी कार्य की समाप्ति होती है तब उसकी समाप्ति का बोध कराने के लिए धातु से क्त और क्तवतु प्रत्यय होते हैं। अर्थात् इन दोनों प्रत्ययों का प्रयोग भूतकाल अर्थ में होता है। ये दोनों प्रत्यय व्याकरणशास्त्र में 'निष्ठा' संज्ञा शब्द से कहे जाते हैं। 'क्त' प्रत्यय के प्रथम वर्ण की अर्थात् 'क्' की इत्संज्ञा और लोप होता है। केवल 'त' शेष रहता है। यह 'क्त' प्रत्यय धातु से भाववाच्य अथवा कर्मवाच्य में प्रयुक्त होता है। 

'क्त' प्रत्ययान्त शब्दों के रूप पुल्लिंग में 'राम' के समान, स्त्रीलिंग में 'रमा' के समान और नपुंसकलिंग में 'फल' के समान चलते हैं। क्तवतु' प्रत्यय का प्रयोग कर्तृवाच्य में होता है। इस प्रत्यय के प्रथम वर्ण अर्थात् ककार 'क्' और अन्तिम वर्ण के 'उ' की इत्संज्ञा और लोप होता है। केवल 'तवत्' शेष रहता है। 'क्तवतु' प्रत्ययान्त शब्द पुल्लिंग में 'भगवत्' के समान, स्त्रीलिंग में 'नदी' के समान और नपुंसकलिंग में 'जगत्' के समान चलते हैं।

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'क्त' प्रत्ययान्ताः शब्दाः

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'क्तवतु' प्रत्ययान्ताः शब्दाः

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शत-प्रत्यय - वर्तमान काल के अर्थ में अर्थात् 'गच्छन्' (जाते हुए), 'लिखन्' (लिखते हुए) इस अर्थ में परस्मैपद की धातुओं के साथ शतृ प्रत्यय लगता है। इसका 'अत्' भाग शेष रहता है और ऋकार का लोप हो जाता है। शतृ प्रत्ययान्त शब्द का प्रयोग विशेषण के समान होता है। इसके रूप पुल्लिंग में 'पठत्' के समान, स्वीलिङ्ग में नदी के समान और नपुंसकलिङ्ग में जगत् के समान चलते हैं।

शतृप्रत्ययान्त-शब्दाः

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शानच् प्रत्ययः - वर्तमान काल के अर्थ में आत्मनेपदी धातुओं के साथ शानच् प्रत्यय लगता है। इसके 'श्' तथा 'च' का लोप हो जाता है, 'आन' शेष रहता है। शानच् प्रत्ययान्त शब्द का प्रयोग विशेषण के समान होता है। इसके रूप पुल्लिङ्ग में राम के समान, स्वीलिङ्ग में रमा के समान और नपुंसकलिंग में फल के समान चलते हैं।

शानच्प्रत्ययान्त-शब्दाः

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तव्यत्-प्रत्ययः - तव्यत् प्रत्यय का प्रयोग हिन्दी भाषा के 'चाहिए' अथवा 'योग्य' इस अर्थ में होता है। इसका 'तव्य' भाग शेष रहता है और 'त्' का लोप हो जाता है। यह प्रत्यय भाववाच्य अथवा कर्मवाच्य में ही होता है। तव्यत् प्रत्ययान्त शब्दों के रूप पुल्लिंग में राम के समान, स्त्रीलिङ्ग में रमा के समान और नपुंसकलिंग में फल के समान चलते हैं।

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तव्यत्-प्रत्ययान्तशब्दाः

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अनीयर्-प्रत्ययः - अनीयर् प्रत्यय तव्यत् प्रत्यय के समानार्थक है। इसका प्रयोग हिन्दी भाषा के 'चाहिए' अथवा 'योग्य' अर्थ में होता है। इसका 'अनीय' भाग शेष रहता है और 'र' का लोप हो जाता है। यह प्रत्यय कर्मवाच्य अथवा भाववाच्य में ही होता है। अनीयर् प्रत्ययान्त शब्दों के रूप पुल्लिंग में राम के समान, स्वीलिंग में रमा के समान तथा नपुंसकलिंग में फल के समान चलते हैं।

अनीयर्-प्रत्ययान्तशब्दाः

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क्तिन्-प्रत्ययः - भाववाचक शब्द की रचना के लिए सभी धातुओं से क्तिन् प्रत्यय होता है। इसका 'ति' भाग शेष रहता है, 'क्' और 'न्' का लोप हो जाता है। क्तिन्-प्रत्ययान्त शब्द स्वीलिङ्ग में ही होते हैं। इनके रूप 'मति' के समान चलते हैं। 

क्तिन्-प्रत्ययान्तशब्दाः

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ल्युट्-प्रत्ययः - भाववाचक शब्द की रचना के लिए सभी धातुओं से ल्युट् प्रत्यय जोड़ा जाता है। इसका 'यु' भाग शेष रहता है तथा 'ल' और 'ट्' का लोप हो जाता है। 'यु' के स्थान पर 'अन' हो जाता है। 'अन' ही धातुओं के साथ जुड़ता है। ल्युट्-प्रत्ययान्त शब्द प्राय: नपुंसकलिङ्ग में होते हैं। इनके रूप 'फल' शब्द के समान चलते हैं।

ल्युट्प्रत्ययान्तशब्दाः

तृच् प्रत्ययः - कर्ता अर्थ में अर्थात् हिन्दी भाषा का 'करने वाला' इस अर्थ में धातु के साथ 'तृच' प्रत्यय होता है। इसका 'तृ' भाग शेष रहता है और 'च' का लोप हो जाता है। तृच्-प्रत्ययान्त शब्दों के रूप तीनों लिङ्गों में चलते हैं। तीनों लिङ्गों में ही रूप होते हैं। यहाँ केवल पुल्लिंग में ही उदाहरण प्रस्तुत किए जा रहे हैं।

तुच्-प्रत्ययान्तशब्दाः

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'क्त्वा' प्रत्यय - एक क्रिया जहाँ पूर्ण हो जाती है। उसके बाद दूसरी क्रिया प्रारम्भ नहीं होती है। इस स्थिति में प्रथम सम्पन्न क्रिया पूर्वकालिकी' कही जाती है। जो प्रारम्भ नहीं हुई है वह क्रिया 'उत्तरकालिकी' होती है। दोनों क्रियाओं का कर्ता एक ही होता है। यहाँ 'पूर्वकालिकी' क्रिया के ज्ञान के लिए क्त्वा' प्रत्यय का प्रयोग होता है। क्त्वा' प्रत्यय 'कृत्वा' (कर या करके या करने के बाद) इस अर्थ में होता है। क्त्वा' प्रत्यय में से प्रथम वर्ण 'क्' वर्ण के इत्संज्ञा करने से लोप हो जाता है। केवल 'त्वा' शेष रहता है। धातु से पहले उपसर्ग नहीं होता है। 'त्वा' प्रत्यय युक्त शब्द 'अव्यय' शब्द होते हैं अर्थात् इनके रूप नहीं चलते हैं। उदाहरण के लिए - 

रमेशः पठित्वा ग्रामं गच्छति। 
मोहनः कथां कथयित्वा हसति। 
सुरेशः आपणं गत्वा वस्तूनि क्रीणाति।
महेशः चिन्तयित्वा एव वदति।। 

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'ल्यपू' प्रत्यय - 'ल्यप् प्रत्यय 'क्त्वा' प्रत्यय के समान ही अर्थवाला होता है। जहाँ धातु से पहले उपसर्ग होता है, वहाँ धातु के बाद 'कृत्वा' (करके) इस अर्थ में 'ल्यप्' प्रत्यय का प्रयोग होता है। 'ल्यप् प्रत्यय में से प्रथम वर्ण 'ल' का तथा अन्तिम वर्ण 'प्' का लोप हो जाता है। केवल 'य्' शेष रहता है। 'ल्यप् प्रत्यययुक्त शब्द अव्यय होते हैं अर्थात् इनके भी रूप नहीं चलते हैं। संक्षेप में हम यह जान सकते हैं कि उपसर्ग रहित धातु के बाद क्त्वा' एवं उपसर्गयुक्त धातु के बाद 'ल्यप् प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है।

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'तुमुन्' प्रत्यय - 'तुमुन्' प्रत्यय का प्रयोग हिन्दी भाषा के 'को' अथवा के लिए' इस अर्थ में होता है। 'तुमुन्' प्रत्यय से 'मु' के 'उ' वर्ण की और 'न्' की इत्संज्ञा और लोप होता है। केवल 'तुम्' शेष रहता है। 'तुमुन्' प्रत्ययान्त शब्द अव्यय शब्द होते हैं। अर्थात् इन शब्दों के रूप नहीं चलते हैं। उदाहरण के लिए - 

रामः संस्कृतं पठितुं गच्छति। 
सीता भ्रमितुम् उद्यानं याति। 
मोहनः कथा श्रोतुं तीनं धावति।
गणेश: भोजनं खादितुं भोजनालयं पश्यति। 

अब 'तुमुन्' प्रत्यय युक्त शब्दों की एक तालिका अभ्यास हेतु दी जा रही है - 

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यत्-प्रत्ययः -

1. अजन्त धातु से (चाहिए अर्थ में) भाववाच्य और कर्मवाच्य में यत् प्रत्यय होता है। यत् का 'य' शेष रहता है और जिस धातु से जुड़ता है उसके स्वर को गुण हो जाता है। यथा - 

चि + यत् = चेयम् 
जि + यत् = जेयम्
नी + यत् = नेयम् 

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2. आकारान्त धातु से यत् प्रत्यय होने पर 'आ' के स्थान पर (ईद्यति) ई हो जाता है और उसका गुण हो जाता है। यथा - 

दा+ यत्-दी + यत् = देयम् 
पा + यत्-पी + यत् = पेयम्
ज्ञा + यत्-ज्ञी + यत् = ज्ञेयम् 

3. यदि ए, ओ, ऐ, औ से अन्त होने वाली धातुओं में यत् प्रत्यय हो तो ए, ओ, ऐ, औ के स्थान पर 'आ' हो __ जाता है और उनका गुण हो जाता है। यथा -
धे + यत्-धा + यत्-धी + यत् = धेयम् 
गै+ यत्-गा + यत्-गी + यत् = गेयम्
छो+ यत्-छा + यत्-छी+ यत् = छेयम् 

4. पवर्गान्त अदुपध से तथा शक् और सह धातु से भी यत् प्रत्यय होता है। जैसे -

लभ् + यत् = लभ्यः 
रम् + यत् = रम्यः 
शक् + यत् = शक्यम् 
सह् + यत् = सह्यम्। 

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5. यत्प्रत्ययान्त शब्दों के रूप प्रायः तीनों लिङ्गों में बनते हैं।

यत्-प्रत्ययान्तशब्दाः

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ण्वुल्-प्रत्ययः - कर्ता या 'वाला' के अर्थ में धातु से ण्वुल् प्रत्यय होता है। ण्वुल् का 'वु' शेष रहता है तथा ण्वुल् प्रत्यय लगने पर धातु के अन्त अच् की वृद्धि एवं उपधा के स्वर को गुण हो जाता है।

(i) ण्वुल् प्रत्यय के 'वु' को (युवोरनाकौ सूत्र से) अक हो जाता है। यथा -
नी + ण्वुल्-नै + अक = नायकः 
नी + तृच-ने + तृ = नेता 
(ii) दीर्घ आकारान्त धातु से ण्वुल प्रत्यय लगाने पर युक् (य) का आगम होता है। यथा -
दा+ ण्वुल्-दा + अक-दाय् + अक = दायकः 
कृ+ ण्वुल्-कार् + अक = कारकः कृ+तृच् = कर्ता 
हन् + ण्वुल्-घत् + अक = घातकः हन् + तृच = हन्ता 
पच् + ण्वुल्-पच् + अक = पाचकः युध् + तृच् = योद्धा 
पठ् + ण्वुल-पाट् + अक = पाठकः गम् + तृच = गन्ता।
(iii) ण्वुल् प्रत्यय तुमुन् प्रत्यय की तरह क्रियार्थ में भी प्रयुक्त होता है। यथा-कृष्णं द्रष्टुं याति - कृष्णं दर्शको याति। 

(दृश् + ण्वुल्-दश् + अक = दर्शकः)

ण्वुल्-प्रत्ययान्तशब्दाः

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णिनी-प्रत्यय - (i) ग्राहि, उत्साही, स्थायी, मन्त्री, अयाची, अवादी, विषयी, अपराधी आदि के बाद णिनि (इन्) प्रत्यय लगता है। यथा -

ग्रह् + इन् = ग्राहिन् 
स्था + इन् = स्थायिन्
मन्व् + इन् = मन्त्रिन् 

(ii) कुमार और शीर्ष शब्द यदि हन् धातु के पूर्व उपपद रहे तो णिनि प्रत्यय लगता है। यथा -

कुमारघाती - कुमार + हन् + णिनि = कुमारघातिन् 
शीर्षघाती - शीर्ष + हन् + णिनि = शीर्षघातिन्

(iii) जातिवाचक संज्ञा (गो, अश्व, ब्राह्मण आदि) से भिन्न कोई सुबन्त किसी धातु के पूर्व आवे तो स्वभाव के अर्थ में णिनि (इन्) प्रत्यय लगता है। यथा -

उष्ण + भुज् + णिनि = उष्णभोजी (उष्णं भोक्तुं शीलमस्येति) 
इसी प्रकार शीतभोजी, आमिषभोजी, शाकाहारी, मांसाहारी, मनोहारी आदि शब्द बनते हैं। 

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अच् प्रत्यय - पच् आदि धातुओं में कर्तृवाचक शब्द बनाने के लिए अच् (अ) प्रत्यय लगता है। यथा - 

पच् + अच् = पचः 
वद् + अच् = वदः 
चल् + अच् = चलः 
पत् + अच् = पतः 
मृ + अच् = मरः 
सेव् + अच् = सेवः 
सृप् + अच् = सर्पः

(ii) तद्धित प्रत्यय तद्धित प्रत्यय संज्ञा, सर्वनाम और विशेषण (प्रातिपदिकों) में लगाये जाते हैं, जबकि कृत् प्रत्यय का प्रयोग सदैव धातुओं से होता है। तद्धित प्रत्यय वाले शब्द 'तद्धितान्त' कहलाते हैं। इन तद्धितान्त शब्दों के रूप प्रायः सभी विभक्तियों एवं तीनों लिङ्गों में चलते हैं। किन्तु 'तल' प्रत्ययान्त शब्द सदैव स्त्रीलिंग में, 'त्व' प्रत्ययान्त सदैव नपुंसकलिंग में चलते हैं तथा कुछ तद्धितान्त अव्यय रूप में भी रहते हैं।

तद्धित प्रत्यय लगाने से शब्द-रूप में निम्न परिवर्तन होते हैं -
1. जो प्रत्यय 'जित्' एवं 'कित्' अर्थात् जिनके आदि में अकार, णकार व ककार की इत्संज्ञा होती है, जैसे - अण् प्रत्यय, तो उसमें प्रथम स्वर की वृद्धि होती है तथा अन्तिम स्वर अ, आ, इ या ई का लोप हो जाता है।
2. यदि शब्दान्त उ, ऊ हो तो उसका गुण होकर अयादि सन्धि हो जाती है। इसी तरह ओकारान्त तथा औकारान्त शब्दों से तद्धित प्रत्यय होने पर भी अयादि सन्धि होती है।
3. तद्धित प्रत्यय लगाने से जिन अर्थों का द्योतन होता है, उनका वर्गीकरण अलग-अलग वर्गों में किया जाता है। यथा

  1. मत्वर्थीय - जिनसे मतुप् प्रत्यय का अर्थ निकले। 
  2. अपत्यार्थ - जिनसे अपत्य का अर्थ निकले। 
  3. समूहार्थ-जो समूह बतायें।
  4. सम्बन्धार्थ - जो सम्बन्ध बतायें। 
  5. भाववाचक - जो भाववाचक शब्द हों। 
  6. क्रियाविशेषणार्थ-जिनसे क्रियाविशेषण अव्यय बनें। 

विशेष - यहाँ पाठ्यपुस्तक में आये प्रमुख प्रत्ययों का ही ज्ञान कराया जा रहा है।
'तरप्' प्रत्यय-जहाँ दो की तुलना में एक की विशिष्टता अथवा अधिकता प्रकट होती है, वहाँ 'तरप्' प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है। इस प्रत्यय का प्रयोग प्रायः विशेषण शब्दों के समान होता है। 'तरप्' प्रत्यय के अन्तिम वर्ण 'प्' की इत्संज्ञा और लोप हो जाता है। केवल 'तर' शेष रहता है। 'तरप्' प्रत्ययान्त शब्द पुल्लिंग में 'राम' के समान, स्त्रीलिंग में 'रमा' के समान तथा नपुंसकलिंग में 'फल' के समान चलते हैं।

'तरप्' प्रत्ययान्ताः शब्दाः

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'तमप्' प्रत्यय - जहाँ बहुतों (अनेक वस्तुओं) की तुलना में एक की विशेषता अथवा अधिकता दिखलाई जाती है, वहाँ 'तमप' प्रत्यय का प्रयोग होता है। तमप्' प्रत्यय का प्रयोग प्रायः विशेषण शब्दों के समान होता है। 'तमप्' प्रत्यय के अन्तिम वर्ण 'प्' की इत्संज्ञा और लोप होता है। केवल 'तम्' शेष रहता है। 'तमप्' प्रत्ययान्त-शब्दों के रूप पुल्लिंग में 'राम' के समान, स्त्रीलिंग में 'रमा' के समान तथा नपुंसकलिंग में 'ज्ञान' के समान चलते हैं।

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'तमप्' प्रत्ययान्तशब्दाः

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त्व, तल् प्रत्यय-'तस्य भावस्त्वतलौ।'
अर्थात् भाव अर्थ में षष्ट्यन्त प्रातिपदिक से 'त्व' और 'तल्' (त) प्रत्यय होते हैं। 'त्व'-प्रत्ययान्त शब्द नपुंसकलिङ्ग होते हैं तथा 'तल्-प्रत्ययान्त शब्द स्त्रीलिङ्ग होते हैं। यथा - 
'गोर्भावः' (गो का भाव) - गो + त्व = गोत्वम्। गो + तल् = गोता। 
'जडस्य भावः' - जड + त्व = जडत्वम्। जड + तल् = जड़ता। 
'मनुष्यस्य भावः' मनुष्य + त्व - मनुष्यत्वम्। मनुष्य + तल् = मनुष्यता।
'देवस्य भाव:' - देव + त्व = देवत्वम्। देव + तल् = देवता। 
'दुष्टस्य भाव:' - दुष्ट + त्व = दुष्टत्वम्। दुष्ट + तल् = दुष्टता। 
'सज्जनस्य भावः' - सज्जन + त्व - सज्जनत्वम्। सज्जन + तल् = सज्जनता। 
'महतः भावः' - महत् + त्व = महत्त्वम्। महत् + तल् = महत्ता।
'नृपस्य भावः' - नृप + त्व = नृपत्वम्। नृप + तल् = नृपता।
'विप्रस्य भावः' - विप्र + त्व = विप्रत्वम्। विप्र + तल् = विप्रता। 
'द्विजस्य भावः' - द्विज + त्व = द्विजत्वम्। द्विज + तल् - द्विजता। 
'रामस्य भावः' - राम + त्व = रामत्वम्। राम + तल् = रामता।

सूत्र-ग्रामजनबन्धुभ्यस्तल्। 

अर्थात् समूह अर्थ में ग्राम, जन और बन्धु-इन तीन शब्दों से 'तल्' (त) प्रत्यय होता है। यथा - 
'ग्रामाणां समूहः - इस अर्थ में ग्राम + तल - ग्रामता। 
'जनानां समूह:' - इस अर्थ में - जन + तल् = जनता। 
'बन्धूनां समूह:' - इस अर्थ में बन्धु + तल् = बन्धुता। 

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तरप्, ईयसुन्-प्रत्यय - 

सूत्र-द्विवचनविभज्योपपदे तरबीयसुनौ।

अर्थात् द्वयर्थवाची और विभज्य (जिसका विभाग किया जावे) उपपद रहते प्रातिपदिक और तिङ्न्त से अतिशयन (अतिशय, प्रकर्ष) अर्थ में 'तरप्' (तर) और 'ईयसुन्' (ईयस्) प्रत्यय होते हैं। यथा - 
लघु + तरप् = लघुतरः, लघुतरा, लघुतरम्। 
लघु + ईयसुन् → ईयस् = लघीयान् दृढ़यान्। 

इष्ठन्, तमप्-प्रत्यय - 
सूत्र-अतिशायने तमबिष्ठनौ।

अर्थात अतिशयन (अतिशय या प्रकर्ष) अर्थ में वर्तमान प्रातिपदिक से 'तमप' (तम) और 'ईष्ठन' (इष्ठ)-ये दो प्रत्यय होते हैं। यथा - 'अतिशयेन आढ्यः ' (अधिक सम्पन्न) - आढ्य + तमप् = आढ्यतमः। 'अतिशयेन लघु:'-लघु + तमप् - लघुतमः। लघु + इष्ठन् = लघिष्ठः। गुरु + इष्ठन् = गरिष्ठः। कनिष्ठः, वरिष्ठः आदि।

'इनि' व 'ठन्' प्रत्यय-अत इनिठनौ - अकारान्त शब्दों 'वाला' या 'युक्त' अर्थ में 'इनि' और 'ठन्' प्रत्यय होता है। इनि का 'इन्' और ठन् का 'ठ' शेष रहता है।

1. इनि प्रत्यय अकारान्त के अतिरिक्त आकारान्त शब्दों में भी लग सकता है, यथा - माया + इनि = मायिन्, शिखा + इनि = शिखिन्, वीणा + इनि = वीणिन् इत्यादि।
2. इनि प्रत्ययान्त शब्द के रूप पुष्णिा में 'करिन्' के समान, स्त्रीलिंग में 'ई' लगाकर 'नदी' के समान और नपुंसकलिंग में 'मनोहारिन्' शब्द के समान चलते हैं। 
3. ठन् प्रत्यय के 'ठ' को 'इक्' हो जाता है। यथा
दण्ड + ठन्-दण्ड + इक् = दण्डिकः (दण्ड वाला)
धन + ठन्-धन + इक् = धनिकः (धन वाला) 
कतिपय इनि और ठन् प्रत्ययान्त रूप इस प्रकार हैं -

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विशेष-ब्रीहि आदि गण में पठित तथा पुष्कर आदि शब्दों से स्थान अर्थ में इनि और ठन् प्रत्यय होते हैं। यथा -
व्रीहि + इन् = व्रीहिन्-व्रीही व्रीहि + ठन् = व्रीहिकः 
माया + इन् = मायिन्-मायी माया + ठन् = मायिकः

अण-प्रत्ययः - अश्वपत्यादिभ्यश्च-अश्वपति, गणपति, शतपति, कुलपति, गृहपति, धर्मपति, सभापति, प्राणपति, क्षेत्रपति इत्यादि शब्दों से अपत्य अर्थ बताने के लिए अण् प्रत्यय होता है। 'अण्' का 'अ' शेष रहता है। यथा - 
अश्वपतेः अपत्यम् आश्वपतम्। गणपते: अपत्यं गाणपतम्।

1. इसी तरह अपत्य या सन्तान, पुत्र, पौत्र, वंश आदि अर्थ को बतलाने के लिए षष्ठी विभक्त्यन्त शब्दों से 'अण्' प्रत्यय होता है। यथा - 

उपगोः अपत्यं पुमान् औपगवः (उपगु का पुत्र)
वसुदेवस्य अपत्यं पुमान् वासुदेवः (वसुदेव का पुत्र)
मनोः अपत्यं मानवः। 

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2. शिव, मगध, पर्वत, पृथा, मनु आदि (शिवादि गण के शब्दों) से अपत्य अर्थ में 'अण्' प्रत्यय होता है । यथा -

शिवस्य अपत्यम् शिव + अण् = शैवः
मगधस्य अपत्यम् मगध + अण् = मागध:
पर्वतस्य अपत्यम् (स्त्री.) पर्वत + अण् = पार्वती
पृथायाः अपत्यम् (पु.) पृथा + अण् = पार्थ:
मनो: अपत्यम् मनु + अण् = मानवः 
रघो: अपत्यम् रघु + अण् = राघवः 
यदोः अपत्यम् यदु + अण् = यादवः 

3. नदीवाचक तथा मनुष्य जाति के स्त्रीवाचक जो शब्द संज्ञाएँ (नाम) हों तथा जिनके आदि में दीर्घ वर्ण न हो, उनसे अपत्य अर्थ में अण् प्रत्यय होता है। यथा -

यमुनायाः अपत्यम् - यमुना + अण् = यामुनः 
नर्मदायाः अपत्यम् - नर्मदा + अणु = नार्मदः 

4. ऋषिवाचक, कुलवाचक, वृष्णिकुलवाचक, कुरुवंशवाचक शब्दों में अपत्य अर्थ में अण् प्रत्यय होता है। यथा -

वसिष्ठस्य अपत्यम् - वसिष्ठ + अण् = वासिष्ठः 
विश्वामित्रस्य अपत्यम् - विश्वामित्र + अण् = वैश्वामित्रः 
श्वफल्कस्य अपत्यम् - श्वफल्क + अण् = श्वाफल्कः 
नकुलस्य अपत्यम् - नकुल + अण् = नाकुलः 
सहदेवस्य अपत्यम् - सहदेव + अण् = साहदेवः 

5. इसी प्रकार सन्तान अर्थ के समान ही अन्य अर्थों को बताने के लिए भी अण् प्रत्यय होता है। जैसे - 

हरिद्रया रक्तं वसनम् - हरिद्रा + अण् = हारिद्रम् 
देवदारोः विकारः - देवदारु + अण् = दैवदारवः
शर्करायाः इदम् - शर्करा + अण् = शार्करम् 
ऊर्णायाः इदं वस्त्रम् - ऊर्णा + अण् = और्णम् 
पृथिव्याः ईश्वरः - पृथिवी + अण् = पार्थिवः 
पञ्चालानां स्वामी - पञ्चाल + अण् = पाञ्चाल: 
कपोतानां समूहः - कपोत + अण् = कापोतम् 
भिक्षाणां समूहः - भिक्षा + अण् = भैक्षम् 
सुहृदः भावः - सुहृत् + अण् = सौहार्दम्

मयट्-प्रत्यय - 

सूत्र-"नित्यं वृद्ध-शरादिभ्यः।"
अर्थात् यदि अवयव या विकार भक्ष्य अथवा आच्छादन न हो तो अवयव और विकार अर्थों में वृद्ध-संज्ञक और शरादिगण में पठित 'शर' आदि शब्दों के षष्ठ्यन्त पदों से नित्य 'मयट् (मय) प्रत्यय होता है। यथा - 
'आम्रस्य अवयवो विकारो वा' (आम्र का अवयव या विकार)-आम्र + मयट् → मय - आम्रमयम्। शर + मयट् → मय = शरमयम्।

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सूत्र-तत्प्रकृतवचने मयट्।

अर्थात् 'प्रकृत' (प्रचुरता से प्रस्तुत) या 'प्रकृतमुच्यतेऽस्मिन्' (इसमें अधिकता या प्रचुरता से प्रस्तुत बतलाया जाता है)- इन दोनों ही अर्थों में प्रथमान्त प्रतिपदिक से 'मयट्' (मय) प्रत्यय होता है। यथा - 
'अन्नं प्रकृतम्' (प्रचुरता से प्रस्तुत अन्न)-अन्न + मयट् → मय - अन्नमयम्। 'अपूप + मयट् → मय' = अपूपमयम्।

ठक्-प्रत्यय - 

सूत्र-'रेवत्यादिभ्यष्ठक्।'

अर्थात् 'रेवती' आदि शब्दों से अपत्य अर्थ में 'ठक्' प्रत्यय होता है। यथा - 'रेवत्याः अपत्यम्' (रेवती का अपत्य)-इस अर्थ में → रेवती + ठक् → ठ → इक = रैवतिकः। इसी प्रकार -

अश्वपाली + ठक् → ठ → इक = आश्वपालिकः। 
मणिपाली + ठक् →ठ → इक = माणिपालिकः।

ढक् प्रत्यय - (i) जिन प्रातिपदिकों में स्त्री प्रत्यय लगा हो, उनमें अपत्यार्थ सूचक ढक् (एय्) प्रत्यय लगता है, यथा - 

विनता + ढक् = वैनतेयः (विनता का पुत्र)। 
भगिनी + ढक् = भागिनेयः (बहिन का पुत्र, भानजा)।

(ii) जिन प्रातिपदिकों में दो स्वर हों और स्वीप्रत्ययान्त हों तथा जो प्रातिपदिक दो स्वर वाले तथा इकारान्त हों. उनमें आपत्यार्थक सूचक ढक् प्रत्यय लगता है, जैसे - 

कुन्ती + ढक् = कौन्तेयः। 
राधा + ढक् = राधेयः। 
अत्रि + ढक् = आत्रेयः। 
दत्ता + ढक् = दात्तेयः।

(iii) स्त्री-प्रत्यय पुल्लिंग शब्दों में स्त्रीलिंग शब्द बनाने के लिए जो प्रत्यय लगाये जाते हैं, उन्हें स्वीप्रत्यय कहते हैं। जैसे बाल से बाला, यहाँ 'बाल' शब्द में 'आ' (टाप् प्रत्यय) लगाने से 'बाला' शब्द बना है, जो कि स्वीलिंग है। 

टाप् प्रत्यय -

'अजाद्यतष्टाप्' - अजादिगण में आये अज आदि शब्दों से तथा अकारान्त शब्दों से स्त्रीप्रत्यय 'टाप्' होता है। 'टाप्' का 'आ' शेष रहता है।
अजादिगण में अज, अश्व, एडक, चटक, मूषक, बाल, वत्स, पाक, वैश्य, ज्येष्ठ, कनिष्ठ, मध्यम, सरल, कृपण आदि शब्द गिने जाते हैं। यथा -

टाप् प्रत्ययान्त शब्दरूप -

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RBSE Class 11 Sanskrit व्याकरणम् प्रत्यय-ज्ञान

(क) यदि प्रत्यय से पूर्व प्रातिपदिक 'क' से युक्त हो तो 'टाप्' प्रत्यय करने पर पूर्ववर्ती अ का इ हो जाता है। यथा - 
सर्विका, कारिका, मामिका। 

(ख) कुछ शब्दों में 'अ' का 'इ' विकल्प से होता है। यथा - आर्यक + टाप् आर्यका, आर्यिका। सूतक से सूतका, सूतिका। पुत्रक से पुत्रका, पुत्रिका। वर्ण से वर्णका, वर्णिका इत्यादि। 

डीप् प्रत्यय - 

(1) ऋन्नेभ्यो डीप् - ऋकारान्त और नकारान्त शब्दों से स्त्रीलिंग में डीप् प्रत्यय होता है। इसका 'ई' शेष रहता है, जैसे - 

कर्तृ + डीप् = कर्वी, धातृ-धात्री, कामिन्-कामिनी, दण्डिन्-दण्डिनी, शुनी, राज्ञी आदि।

(2) उगितश्च - जहाँ पर उ, ऋ, लू का लोप हुआ हो, उन प्रत्ययों से बने हुए शब्दों से स्वीलिंग में डीप् (ई) प्रत्यय होता है। यथा
भवत् + ई भवती, श्रीमती, बुद्धिमती आदि।

विशेष-किन्तु भ्वादि, दिवादि, तुदादि और चुरादिगण की धातुओं से तथा णिच् प्रत्ययान्त शब्दों से डीप् करने पर 'त' से पूर्व 'न्' हो जाता है। जैसे - 
भवन्ती, पचन्ती, दीव्यन्ती, नृत्यन्ती, गच्छन्ती आदि।

(3) टिड्ढाणबद्वयस०० - टित् शब्दों से तथा ढ, अण् आदि प्रत्ययों से निष्पन्न शब्दों से स्त्रीलिंग में डीप (ई) प्रत्यय होता है। यथा -

कुरुचरी, नदी, देवी, पार्वती, कुम्भकारी, औत्सी, भागिनेयी, लावणिकी, यादृशी, इत्वरी आदि। 

(4) वयसि प्रथमे-प्रथम वय (उम्र) वाचक अकारान्त शब्दों से स्त्रीलिंग में डीप् होता है। जैसे - 
कुमारी, किशोरी, वधूटी, चिरण्टी आदि।

अभ्यासार्थ प्रश्नोत्तर 

लघूत्तरात्मकप्रश्नाः -

प्रश्न 1. 
निम्नलिखितपदानां प्रकृति-प्रत्ययौ लिखतः।
उत्तर :
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प्रश्न 2. 
निम्नलिखित प्रकृति-प्रत्ययस्य योगेन पदनिर्माणं कुरुत। 
उत्तर :
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प्रश्न 3. 
अनलिखितयोः शब्दयोः प्रकृतिं प्रत्ययं च लिखत -
(i) करणीयः, (ii) सेवमानः।
उत्तर :
(i) कृ + अनीयर्, (ii) सेव् + शानच्। 

प्रश्न 4. 
धातुं प्रत्ययं च संयोज्य पदरचनां कुरुत - 
(i) दा + ल्युट्, (ii) कृ + तृच्। 
उत्तर :
(i) दानम्, (ii) कर्ता। 

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प्रश्न 5. 
निम्नलिखितपदानां प्रकृति-प्रत्ययौ लिखतः। 
उत्तर :

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Prasanna
Last Updated on Aug. 19, 2022, 12:55 p.m.
Published Aug. 18, 2022