RBSE Class 11 Home Science Notes Chapter 2 स्वयं को समझना

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RBSE Class 11 Home Science Chapter 2 Notes स्वयं को समझना

→ मुझे 'मैं' कौन बनाता है?

  • परिचय: हमारे माता-पिता, भाई-बहन, अन्य सम्बन्धियों, मित्रों तथा हमारे बीच अनेक बातें सामान्य हैं परन्तु फिर भी हम में से प्रत्येक व्यक्ति अलग है, जो अन्य सभी से भिन्न है। इस अनोखेपन की यह अनुभूति हमें अपने होने का एहसास कराती है-'मैं' होने की अनुभूति, जो 'आप', 'वे' और 'अन्य' से अलग है।
  • स्वयं की संकल्पना से जुड़ी हुई दो अन्य संकल्पनाएँ हैं-पहचान और व्यक्तित्व। ये तीनों संकल्पनाएँ आपस में काफी मिलती-जुलती हैं।

→ स्वयं क्या है?
'स्वयं' की अनुभूति का अर्थ है-यह अनुभव करना कि हम कौन हैं और कौनसी बातें हमें अन्य लोगों से भिन्न बनाती हैं। किशोरावस्था के दौरान हम अपने बारे में सबसे अधिक सोचना शुरू कर देते हैं कि हम कौन हैं, 'मुझे 'अन्य' से भिन्न कौनसी बातें बनाती हैं? इस अवस्था में किसी अन्य अवस्था की तुलना में हम 'स्वयं' को परिभाषित करने की अधिक कोशिश करते हैं।

→ स्वयं शब्द का अर्थ:
'स्वयं' शब्द का अर्थ उनके अनुभवों, विचारों, सोच तथा अनुभूतियों का सम्पूर्ण रूप है जो स्वयं के विषय में है। यह एक विशिष्ट ढंग है, जिससे हम 'स्वयं' को परिभाषित करते हैं। यह विचार कि हम 'स्वयं' हम हैं, यह 'स्वयं' की धारणा की ही अभिव्यक्ति है।

RBSE Class 11 Home Science Notes Chapter 2 स्वयं को समझना 

→ स्व-संकल्पना तथा स्वाभिमान:

  • ये दोनों पहचान के तत्व हैं । स्व-संकल्पना एक व्यक्ति का विवरण है। यह 'मैं कौन हूँ'? प्रश्न का उत्तर देता है। हमारी इस बात की संकल्पना में हमारी विशेषताएँ, अनुभूतियाँ और विचार और हम क्या करने में सक्षम हैं, शामिल होते हैं।
  • स्व-संकल्पना का एक महत्वपूर्ण पक्ष स्वाभिमान है। उन मानकों, जिन्हें हमने स्वयं अपने लिए तय किया है, के अनुसार हम स्वयं के बारे में क्या सोचते हैं, हमारा 'स्वाभिमान' कहलाता है। काफी सीमा तक यह समाज से प्रभावित होता है। यह एक व्यक्ति का स्व-मूल्यांकन है।

→ पहचान क्या होती है?
हममें से अधिकांश व्यक्ति अपने पूरे जीवन में निरन्तरता और एकरूपता का भाव बनाए रख सकते हैं चाहे उनके जीवन में दशकों से कितने भी बदलाव और निरन्तरता में विघ्न आए हों। दूसरे शब्दों में, हमारे अंदर पहचान की एक अनुभूति होती है, एक ऐसी अनुभूति जिसे हम पूरे जीवन साथ लेकर चलते हैं। ठीक इसी प्रकार हम स्वयं के मामले में व्यक्तिगत पहचान और सामाजिक पहचान के बारे में बात कर सकते हैं। यथा

  • व्यक्तिगत पहचान-व्यक्तिगत पहचान एक व्यक्ति की उन विशेषताओं को संदर्भित करती है जो उसे अन्य से भिन्न बनाती है।
  • सामाजिक पहचान-सामाजिक पहचान का अर्थ एक व्यक्ति के उस पक्ष से है जो उसे समूह से जोड़ते हैं, जैसे-व्यावसायिक, सामाजिक या सांस्कृतिक।

निष्कर्षतः कह सकते हैं कि 'स्वयं' अपनी प्रकृति में बहुआयामी होता है। व्यक्ति के शिशु से किशोरावस्था में विकसित होने के दौरान इस 'स्वयं' में भी बदलाव आते हैं।

→ स्वयं का विकास एवं विशेषताएँ
जैसे-जैसे व्यक्ति बड़ा होता है, उसके 'स्वयं' का भी निर्माण तथा विकास होता जाता है। 'स्वयं' का विकास शैशवकाल, प्रारंभिक बाल्यावस्था, मध्यम बाल्यावस्था और किशोरावस्था के दौरान होता है। यथा
(1) शैशवकाल के दौरान स्वयं-'स्वयं' की भावना शैशवकाल के दौरान क्रमिक रूप से उत्पन्न होती है और लगभग 18 महीने की आयु तक स्वयं की छवि की पहचान होने लगती है। दूसरे वर्ष की दूसरी छ:माही में, शिशु व्यक्तिगत सर्वनामों-'मैं', 'मुझे' और 'मेरा' का उपयोग करने लगता है। वह किसी व्यक्ति अथवा वस्तु पर अधिकार जताने, अपने बारे में अथवा जो कार्य वह कर रहा है उसे बताने अथवा अपने अनुभवों को बताने के लिए इनका उपयोग करता है। इस समय तक शिशु स्वयं को तस्वीर एवं आईने में भी पहचानने लगता है।

(2) प्रारम्भिक बाल्यावस्था के दौरान स्वयं-चूँकि 3 वर्ष के होने तक बच्चे प्रायः धाराप्रवाह बोलने लगते हैं। हम उन्हें 'स्वयं' के बारे में बातचीत में शामिल कर शाब्दिक साधनों का उपयोग कर सकते हैं। 
बच्चों के स्वयं' की समझ की मुख्य विशेषताएँ

  • वे 'स्वयं' को अन्य लोगों से अलग बताने के लिए 'स्वयं' का अथवा अपनी वस्तुओं के बाह्य वितरण का उपयोग करते हैं। उदाहरण के लिए, यह कहने के बजाय कि "मैं किरण से लम्बा हूँ।" बच्चा कहेगा कि "मैं लम्बा | हूँ।" इसका अभिप्राय यह है कि वे 'स्वयं' की तुलना अन्य से नहीं करते।
  • वे जो कार्य कर सकते हैं उसके अनुसार 'स्वयं' का विवरण देते हैं। उदाहरण के लिए, खेल सम्बन्धी कार्यकलापों के बारे में बच्चा कहेगा कि-"मैं साइकिल चला सकता हूँ।" अर्थात् उनकी 'स्वयं' की समझ के अन्तर्गत 'स्वयं' का विवरण सक्रियता से शामिल होता है।
  • उनका स्वयं विवरण निश्चित होता है। जैसे-"मेरे पास टेलीविजन है।"
  • वे अक्सर स्वयं का आकलन वास्तविकता से अधिक करते हैं। जैसे-एक बच्चा कह सकता है-"मुझे कभी| डर नहीं लगता।"
  • छोटे बच्चे यह पहचानने में असक्षम होते हैं कि उनमें भिन्न-भिन्न गुण हो सकते हैं। वे अलग-अलग समय में 'अच्छे', 'बुरे', 'मतलबी' व 'आकर्षक' हो सकते हैं।

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(3) मध्य बाल्यावस्था के दौरान स्वत्व-इस अवधि में बच्चे का स्वयं-मूल्यांकन अधिक जटिल हो जाता है। इस बढ़ती हुई जटिलता की विशेषता बताने वाले पाँच महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हैं। यथा

  • अब बच्चा अपनी आंतरिक विशेषताओं के संदर्भ में अपना विवरण देता है।
  • बच्चे के विवरण में सामाजिक विवरण और पहचान शामिल होती है।
  • बच्चे सामाजिक तुलना करने लगते हैं, वे स्वयं को वास्तविक रूप की बजाय अन्य लोगों से तुलनात्मक रूप से भिन्न बताते हैं।
  • वे वास्तविक स्वयं और आदर्श स्वयं में अंतर करने लगते हैं।
  • पूर्व विद्यालयी बच्चे की तुलना में इस उम्र के बच्चे का स्वयं का विवरण अधिक वास्तविक हो जाता है।

(4) किशोरावस्था के दौरान 'स्वयं:
किशोरावस्था में स्वयं की समझ अत्यधिक जटिल हो जाती है। स्वयं' की पहचान के विकास हेतु किशोरावस्था को एक नाजुक समय के रूप में देखा जाता है।

पहचान के विकास हेतु किशोरावस्था महत्वपूर्ण क्यों है?
एरिक्सन के अनुसार, पहचान की भावना का विकास करना अर्थात् किशोरावस्था के दौरान स्वयं को संतोषजनक रूप में दर्शाना एक मुख्य कार्य है। किशोरावस्था पहचान के विकास हेतु महत्वपूर्ण अवस्था है क्योंकि इस समय स्वयं के विकास पर ध्यान अधिक केंद्रित रहता है। किशोरावस्था 'स्वयं' की पहचान बनाने के संदर्भ में कठिन समय होता है। किशोरावस्था 'स्वयं' की पहचान बनाने के संदर्भ में कठिन समय होता है। इसके तीन मुख्य कारण हैं

  • अब वह स्वयं को समझने के लिए अत्यधिक चिंतित होता है।
  • अब वह 'स्वयं' और 'पहचान' की अपेक्षाकृत स्थायी भावना निर्मित कर लेता है।
  • इस समय व्यक्ति की पहचान पर तीव्र शारीरिक परिवर्तनों और सामाजिक मांगों का प्रभाव पड़ता है। 

→ किशोरावस्था में स्वयं की भावना की विशेषताएँकिशोरावस्था में स्वयं की भावना की अग्र विशेषताएँ हैं

  • किशोरावस्था के दौरान स्वयं का विवरण संक्षिप्त एवं केवल विचार रूप में ही होता है।
  • किशोरावस्था के दौरान स्वयं में कई विरोधाभास होते हैं।
  • किशोर स्वयं की भावना में काफी उतार-चढ़ाव का अनुभव करता है।
  • किशोर के स्वयं में 'आदर्श स्वयं' और 'वास्तविक स्वयं' होता है।
  • किशोर, बच्चों की अपेक्षा स्वयं के बारे में अधिक सचेत होते हैं और अपने में ही मग्न रहते हैं। 

→ पहचान पर प्रभाव-स्व-बोध का विकास हम कैसे करते हैं?
परिचय:
आप अपने अनुभवों से अपने बारे में जो सीखते हैं तथा अन्य लोग आपको आपके बारे में क्या बताते हैं? उसके परिणामस्वरूप 'स्वयं' का विकास होता है। प्रत्येक व्यक्ति के चारों ओर सम्बन्धों का एक जाल हैयह सम्बन्ध परिवार, विद्यालय, कार्यस्थल और समुदाय में होते हैं। आपके आस-पास के लोगों की बातचीत के परिणामस्वरूप और आपके कार्यों के माध्यम से स्व-बोध का विकास होता है। इस प्रकार बहुत से लोग आपके स्वयं के विकास में सहायक होते हैं। स्वयं का बोध जन्म से आप में नहीं होता लेकिन आप इसे सृजित करते हैं और आपके विकास के साथ-साथ इसका भी विकास होता जाता है।

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→ स्व-बोध का विकास आरम्भिक वर्षों में कैसे होता है?

  • प्रारंभिक दिनों में माता-पिता बच्चों को विभिन्न परिस्थितियों में एक विशेष नाम अथवा नामों से बुलाते हैं। बच्चा स्वयं से जुड़े नामों के साथ खुद को जोड़ना आरम्भ कर देता है। वो 'तुम' और 'तुम्हारा' सर्वनामों का उपयोग करते हैं। बच्चा अब समझने लगता है कि 'तुम' और 'तुम्हारा' अन्य व्यक्ति के लिए होता है। माता-पिता बच्चे को उसके शरीर के विभिन्न अंगों के नाम बताते हैं और चिह्नित करते हैं। उसके बाद बच्चे से शरीर के अंगों के बारे में| बताने को कहते हैं।
  • शैशवकाल में जैसे-जैसे बच्चे का विकास होता है, वह यह समझने लगता है कि उसके क्रियाकलापों का पर्यावरण पर प्रभाव पड़ता है।
  • जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है और बोलने लगता है, माता-पिता बच्चे को स्वयं के बारे में बताने के | लिए प्रोत्साहित करते हैं तथा कारण भी देने को कहते हैं।
  • बच्चा दिनभर में कई बार अपने आस-पास के लोगों से मिलता है और वस्तुओं को भी देखता है जिससे उसे अपनी क्षमताओं को पहचानने में सहायता मिलती है।

→ स्व-बोध और पहचान की भावना विकसित करना
हममें से प्रत्येक की पहचान भिन्न होती है क्योंकि

  • प्रत्येक में जीन का 'विशिष्ट समुच्चय' अलग होता है।
  • प्रत्येक के अनुभव भिन्न होते हैं।
  • समान अनुभवों पर हम भिन्न तरीकों से अनुक्रिया करते हैं। 

→ पहचान के निर्माण पर पड़ने वाले प्रभाव
(1) जैविक और शारीरिक परिवर्तन:

  • किशोरावस्था के दौरान शरीर में कुछ सार्वभौमिक शारीरिक और जैविक परिवर्तन होते हैं जो एक विशेष क्रम में होते हैं। इन परिवर्तनों के परिणामस्वरूप यौन परिपक्वता आती है। यौन परिपक्वता की आयु को यौवनारम्भ कहा जाता है। अक्सर मासिक धर्म (पहला) को लड़कियों में यौन परिपक्वता का बिंदु माना जाता है। लड़कों के लिए यौवनारम्भ को चिह्नित करने वाली कोई विशिष्ट प्रक्रिया नहीं है । यद्यपि इसके लिए अक्सर जिस मानदंड का उपयोग किया जाता है वह है-शुक्राणु (स्पर्मेटोज़ोआ) का उत्पादन।
  • विभिन्न संस्कृतियों में यौवनारंभ भिन्न-भिन्न औसत आयु में होता है। अधिकांश लड़कियों में यह अवधि 11 से 13 वर्ष के बीच होती है और लड़कों में 13 वर्ष से 15 वर्ष के बीच।

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यौवनावस्था के दौरान लड़कियों और लड़कों में होने वाले परिवर्तन
लड़कियाँ 

  • स्तनों के आकार में आरंभिक वृद्धि,
  • बगलों और जांघों में जांघों में बालों का आना,
  • अधिकतम वृद्धि की आयु,
  • मासिक धर्म।

लड़के

  • अंडकोष का विकास होना
  • बगलों और बालों का होना
  • आवाज में आरंभिक परिवर्तन,  
  • वीर्य का पहली बार स्खलन,
  • अधिकतम वृद्धि की आयु,
  • दाढ़ी का आना।

(2) सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ:
पहचान निर्माण की प्रक्रिया पर शारीरिक और सामाजिक परिवर्तनों का प्रभाव सांस्कृतिक, सामाजिक तथा पारिवारिक संदर्भो में भिन्न-भिन्न होता है। यथा
(i) सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ-अधिकांश पश्चिमी संस्कृतियों (जैसे-अमेरिका और ब्रिटेन) में किशोरों से पूर्णतः आत्मनिर्भर होने की अपेक्षा की जाती है। जबकि भारतीय संदर्भ में अधिकांश किशोर अपने माता-पिता पर काफी | हद तक निर्भर होते हैं जैसा कि उनसे अपेक्षा भी की जाती है और परिवार हमेशा उन पर नियंत्रण बनाए रखते हैं। एक पारम्परिक भारतीय समाज में यौवनारम्भ के साथ ही लड़कियों पर कई प्रतिबंध लग जाते हैं जबकि लड़के पहले की तरह ही स्वतंत्र होते हैं । उदाहरण के लिए एक किशोर लड़की से विवाह के बारे में उसकी राय पूछने पर वह यह कहती कि "मैं चाहूँगी कि मेरे माता-पिता मेरी शादी तय करें" की बजाय कहेगी कि, "हमारे परिवार में | माता-पिता शादी तय करते हैं।"

(ii) पारिवारिक संदर्भ-किशोरों के पहचान निर्माण को उन पारिवारिक सम्बन्धों से प्रोत्साहन मिलता है जहाँ स्वयं की राय बनाने हेतु प्रोत्साहित किया जाता है और जहाँ परिवार के सदस्यों में सुरक्षित सम्बन्ध होते हैं। इसके कारण किशोर को अपने बढ़ते हुए सामाजिक दायरे को जानने के लिए एक सुरक्षित आधार मिलता है। यह भी पाया गया है कि सुदृढ़ और स्नेहमय पालन-पोषण से पहचान का स्वस्थ विकास होता है। अभिभावक अक्सर बच्चे की प्रशंसा करते हैं, उसके कार्यकलापों के प्रति उत्साह दिखाते हैं, उसकी भावनाओं के प्रति संवेदनपूर्ण ढंग से प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं और उसके व्यक्तित्व और उसकी राय को समझते हैं। तथापि ऐसे माता-पिता दृढ़ अनुशासन वाले होते हैं। इस प्रकार के पालन-पोषण से बच्चों में स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता आती है।

(iii) मित्रमंडली-इसके साथ ही किशोरावस्था में बालक को अपनी मित्र मंडली के सहयोग और स्वीकार्यता की भी अत्यधिक आवश्यकता होती है। मित्रों का प्रभाव सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही हो सकता है।

(3) भावात्मक परिवर्तन:
किशोर विकास के दौरान कई भावात्मक परिवर्तनों का अनुभव करता है। इनमें से कई परिवर्तन किशोर में हो रहे जैविक और शारीरिक परिवर्तनों के कारण होते हैं। किशोर अपने शारीरिक रूप को लेकर अधिक चिंतामग्न रहते हैं। फिर भी शारीरिक परिवर्तनों के प्रति सभी किशोर अलग-अलग तरीके से प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। शारीरिक विकास के प्रति गर्व अथवा सहज भाव रखने से किशोरों के स्व-बोध पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। दूसरी ओर, यदि किशोर इस बात से कि वह कैसा दिखाई देता है? आवश्यकता से अधिक असंतुष्ट है तो वह अपने व्यक्तित्व के अन्य पहलुओं, जैसे-कार्य, पढ़ाई आदि पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाता है।

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(4) संज्ञानात्मक परिवर्तन:

  • बाल्यावस्था के आरंभिक वर्षों में बच्चे का विकास एक ऐसे व्यक्ति जिसे पहचान के बारे में पता नहीं होता अथवा जिसमें व्यक्तिगत भावना नहीं होती, से ऐसे व्यक्ति में होता है जो 'स्वयं' की निश्चित और सही संदर्भो में व्याख्या कर सकता है।
  • मध्य बाल्यावस्था में भी स्वयं-विवरण सही-सही होता है, अन्तर यह होता है कि इस अवस्था में यह विवरण तुलनात्मक भी होता है।
  • किशोरावस्था के दौरान एक जर्बदस्त परिवर्तन यह होता है कि किशोर अमूर्त रूप से सोचने लगता है अर्थात् वे वर्तमान से तथा जो वह देखते और अनुभव करते हैं उससे अधिक आगे भी सोच सकते हैं। अतः किशोरावस्था, पहचान विकास का महत्वपूर्ण चरण है। सच तो यह है कि किशोरावस्था विकास की वह महत्वपूर्ण अवधि है, जिसमें कई परिवर्तन होते हैं और कई अवसर आते हैं।
Prasanna
Last Updated on Aug. 2, 2022, 5:53 p.m.
Published Aug. 2, 2022