RBSE Class 11 Home Science Notes Chapter 10 विविध संदर्भो में सरोकार और आवश्यकताएँ

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RBSE Class 11 Home Science Chapter 10 Notes विविध संदर्भो में सरोकार और आवश्यकताएँ

→ पोषण, स्वास्थ्य और स्वास्थ्य विज्ञान
परिचय:
हर व्यक्ति स्वस्थ बने रहने का अनुभव और अच्छी जिंदगी जीना चाहता है। वर्ष 1948 में मानव अधिकारों की विश्वव्यापी घोषणा के अनुसार, "हर व्यक्ति को अपने परिवार के लिए आहार की पर्याप्तता के साथसाथ उनके स्वास्थ्य तथा कल्याण के लिए अच्छा जीवन स्तर पाने का अधिकार है।

→ स्वास्थ्य की परिभाषा:
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) के अनुसार, "वह स्थिति जिसमें मनुष्य मानसिक, शारीरिक तथा सामाजिक रूप से पूर्णतः स्वस्थ रहता है। मनुष्य में रोगों का अभाव होने का मतलब उसका स्वस्थ होना नहीं है।"

→ रोग का अर्थ:
शारीरिक स्वास्थ्य की क्षति, शरीर के किसी भाग या अंग के कार्य में परिवर्तन/विघटन/विक्षिप्तता, जो सामान्य कार्य करने में बाधा डाले और पूर्ण रूप से स्वस्थ न रहने दे।

RBSE Class 11 Home Science Notes Chapter 10 विविध संदर्भो में सरोकार और आवश्यकताएँ 

→ स्वास्थ्य और इसके आयाम
(i) सामाजिक स्वास्थ्य-इसका आशय व्यक्तियों और समाज के स्वास्थ्य से है। जब हम किसी समाज से जुड़ते हैं तो इसका आशय उस समाज से होता है जिसमें सभी नागरिकों को अच्छे स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य वस्तुओं तथा सेवाओं को उपलब्ध करने के समान अवसर और पहुँच प्राप्त हो। आजकल सामाजिक स्वास्थ्य पर बल देने का महत्व बढ़ रहा है क्योंकि वैज्ञानिक अध्ययन दर्शाते हैं कि जो लोग सामाजिक रूप से अच्छी तरह तालमेल बनाए रखते हैं वे लंबे समय तक जीते हैं और बीमारी से भी जल्दी राहत पा लेते हैं। सामाजिक स्वास्थ्य से जुड़े कुछ सामाजिक निर्धारक है

  • रोजगार की स्थिति
  • कार्यस्थलों में सुरक्षा
  • सांस्कृतिक/धार्मिक आस्थाएँ, वर्जित कर्म और मूल्य प्रणाली
  • सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरण सम्बन्धी परिस्थितियाँ।

(ii) मानसिक स्वास्थ्य-इसका आशय भावात्मक तथा मनोवैज्ञानिक स्वस्थता से है। जिस व्यक्ति ने स्वस्थता की अनुभूति को अनुभव किया है, वह अपनी संज्ञानात्मक तथा भावात्मक क्षमताओं का उपयोग कर सकता है, समाज में सुचारु रूप से कार्य कर सकता है और दैनिक सामान्य जरूरतों को पूरा कर सकता है।

(iii) शारीरिक स्वास्थ्य-स्वास्थ्य के इस पहलू में शारीरिक तंदुरुस्ती और शरीर की क्रियाएँ एवं क्षमताएँ शामिल हैं। शारीरिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति सामान्य गतिविधियाँ कर सकता है, असाधारण रूप से थकान महसूस नहीं करता तथा उसमें संक्रमण और रोग के प्रति पर्याप्त प्रतिरोधक शक्ति होती है।

→ स्वास्थ्य देखभाल-स्वास्थ्य की देखभाल में वे सभी विभिन्न सेवाएँ शामिल हैं जो स्वास्थ्य को संवर्द्धित करने, बनाए रखने, मॉनिटरिंग करने या पुनः स्थापित करने के उद्देश्य से स्वास्थ्य सेवाओं के एजेंटों या व्यवसायियों द्वारा व्यक्तियों अथवा समुदायों को उपलब्ध कराई जाती हैं। इस प्रकार स्वास्थ्य की देखभाल में निवारक, संवर्द्धक तथा चिकित्सकीय देखभाल शामिल हैं। स्वास्थ्य देखभाल तीन स्तरों पर उपलब्ध कराई जाती है-प्राथमिक देखभाल, द्वितीयक देखभाल और तृतीयक देखभाल स्तर।

→ स्वास्थ्य के सूचक-स्वास्थ्य के आकलन के लिए कई सूचकों का प्रयोग किया जाता है। इनके अन्तर्गत मृत्युदर, रुग्णता (बीमारी/रोग), अशक्तता दर, पोषण स्तर, स्वास्थ्य देखभाल वितरण, उपयोग, परिवेश, स्वास्थ्य नीति, जीवन की गुणवत्ता आदि के सूचक शामिल हैं।

→ पोषण और स्वास्थ्य-पोषण और स्वास्थ्य के बीच घनिष्ठ पारस्परिक सम्बन्ध है। पोषण का सम्बन्ध |
शरीर के अंगों व ऊतकों की संरचना एवं कार्य के रखरखाव तथा शरीर की वृद्धि और विकास के साथ है। जबकि | किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य की स्थिति उसकी पोषक तत्वों की आवश्यकताओं और आहार ग्रहण को निर्धारित करती है।

→ पोषक तत्व-भोजन में 50 से अधिक पोषक तत्व होते हैं। मानव शरीर के लिए अपेक्षित मात्राओं के आधार पर पोषक तत्वों को मोटे तौर पर वृहत् पोषक और सूक्ष्म पोषक में वर्गीकृत किया गया है। वृहत् पोषक तत्वों में सामान्यतः वसा, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट तथा रेशे आते हैं। सूक्ष्म पोषक तत्वों में खनिज जैसे लौह तत्व, जिंक, सिलेनियम और विभिन्न विटामिन, वसा-विलेय तथा जल-विलेय शामिल हैं।

→ अच्छा स्वास्थ्य और पोषण कैसे सहायक तथा लाभप्रद होता है?
अच्छे स्वास्थ्य वाले लोग प्रायः अधिक प्रसन्नचित्त होते हैं और दूसरों से अधिक कार्य कर सकते हैं। स्वस्थ माता-पिता अपने बच्चों की अच्छी देखभाल कर पाते हैं और स्वस्थ बच्चे प्रायः खुश रहते हैं तथा पढ़ाई में अच्छा परिणाम देते हैं। इस प्रकार, जब कोई स्वस्थ होता है तब वह अपने लिए अधिक रचनाशील होता है और समुदाय स्तर पर गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग ले सकता है। अतः यह स्पष्ट है कि यदि व्यक्ति का स्वास्थ्य और पोषण बेहतर है तो वह समाज का उत्पादक, मिलनसार एवं सहयोगी सदस्य बन सकता है।

→ कुपोषण क्या है?
जब पोषक तत्वों का अंतर्ग्रहण शरीर द्वारा अपेक्षित मात्रा से कम हो, या अपेक्षा से अधिक हो, तो उसका परिणाम कुपोषण होता है। कुपोषण अतिपोषण का रूप भी ले सकता है और अल्पपोषण का भी। किशोरों में कुपोषण का अत्यंत महत्वपूर्ण कारण आहार के गलत विकल्प के प्रति अभिरुचि या संयोजन हो सकता है।

→ पोषणात्मक स्वस्थता को प्रभावित करने वाले कारक-विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार चार मुख्य कारक हैं जो पोषणात्मक स्वस्थता को प्रभावित करते हैं। ये निम्नलिखित हैं

  • आहार और पोषक तत्वों की सुरक्षा-इसका अर्थ है कि एक स्वस्थ जीवन जीने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आवश्यकताओं के अनुसार पर्याप्त आहार तथा पोषक तत्वों को वर्ष भर पाने की पहुँच हो और वह उन्हें प्राप्त कर सके।
  • संवेदनशील लोगों की देखभाल-इसका अर्थ है कि प्रत्येक को स्नेहपूर्ण देखभाल तथा ध्यान की जरूरत है जो देखभाल करने के व्यवहार से झलकती हो। शिशुओं, गर्भवती महिलाओं, कामकाजी महिलाओं, बीमार एवं रोग से पीड़ित व्यक्तियों को सही आहार, उचित पोषण व उपचार आदि सहित देखभाल तथा सहायता की जरूरत होती है।
  • सर्वे सन्तु निरामया (सब स्वस्थ रहें)-इसमें रोग का निवारण और रोग हो जाने पर उसका इलाज शामिल है। संक्रामक रोगों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए क्योंकि इससे शरीर में पोषक तत्वों की कमी हो जाती है और स्वास्थ्य व पोषण प्रभावित होता है। हर नागरिक को स्वास्थ्य की थोड़ी-बहुत देखभाल मिलनी ही चाहिए।
  • सुरक्षित पर्यावरण-यह भौतिक, जैविक तथा रासायनिक पदार्थों सहित पर्यावरण के उन सभी पहलुओं पर केंद्रित होता है, जो स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकते हैं। इसमें स्वच्छ पेयजल, स्वच्छ भोजन और पर्यावरणीय प्रदूषण तथा निम्नीकरण की रोकथाम शामिल हैं।

→ पोषण सम्बन्धी समस्याएँ और उनके परिणाम-हमारे देश की जनता में अनेक पोषण-सम्बन्धी समस्याएँ पायी जाती हैं। यथा

  • अल्प पोषण-अल्पपोषण उनमें से एक प्रमुख समस्या है। बहुत बड़ी संख्या में गर्भवती महिलाएँ इस समस्या की शिकार हैं और वे कम वजन वाले बच्चों को जन्म देती हैं, जो कि अल्पपोषण की समस्या से पैदाइशी ग्रस्त होते हैं। इससे बच्चों के मानसिक विकास, प्रतिरक्षा पर भी विनाशकारी प्रभाव पड़ते हैं और इसके फलस्वरूप बच्चे अशक्त भी हो सकते हैं।
  • पोषण सम्बन्धी अन्य कमियाँ-पोषण से सम्बन्धित अन्य कमियाँ भी हैं, जैसे-लौह तत्व की कमी से खून की कमी का होना, विटामिन ए की कमी से अंधापन का शिकार हो जाना और आयोडीन की कमी से पेंघा रोग का होना।
  • अतिपोषण-कुपोषण के अलावा अतिपोषण भी अच्छा नहीं होता। अपेक्षा से अधिक भोजन करने से स्वास्थ्य की अनेक समस्याएँ पैदा हो जाती हैं। व्यक्ति का वजन भी बढ़ सकता है तथा मोटापा भी हो सकता है। मोटापे से कई रोगों का खतरा बढ़ जाता है, जैसे-मधुमेह, हृदय रोग और उच्च रक्तचाप।
  • पोषण और संक्रमण-पोषण और संक्रमण का घनिष्ठ पारस्परिक सम्बन्ध है। खराब पोषण की स्थिति प्रतिरोधक शक्ति तथा प्रतिरक्षा को कम करती है और इस प्रकार संक्रमण होने का खतरा बढ़ जाता है। दूसरी ओर संक्रमण के दौरान शरीर में पोषक तत्वों के आरक्षित भंडार की काफी क्षति होती है, जबकि पोषक तत्वों की जरूरतें वस्तुतः बढ़ जाती हैं। यदि पोषण का अंतर्ग्रहण आवश्यकता की तुलना में कम हो तो संक्रमण पोषण स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव डालेंगे। इससे दूसरे संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है और सभी व्यक्तियों के लिए विशेषतः बच्चों, बुजुर्गों तथा अल्पपोषितों के लिए अन्य संक्रमणों एवं रोगों जैसे-अतिसार, पेचिश, संक्रामक एवं संचारी रोग आदि का खतरा पैदा हो जाता है।

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→ स्वास्थ्य विज्ञान और स्वच्छता-रोग की रोकथाम तथा नियंत्रण के लिए आंतरिक और बाह्य दोनों कारकों पर ध्यान दिया जाना चाहिए जो विभिन्न रोगों के साथ जुड़े हुए हैं। इन कारकों में स्वास्थ्य विज्ञान तथा स्वच्छता, पोषण तथा प्रतिरक्षण प्रमुख हैं।
स्वास्थ्य विज्ञान प्रमुखतः दो पहलुओं से सम्बन्धित होते हैं-निजी और पर्यावरणी। स्वास्थ्य भोजन सहित मुख्यतः सामाजिक परिवेश, जीवन शैली तथा व्यवहार पर निर्भर करता है। यह स्वच्छता से भी घनिष्ठतः सम्बन्धित होता है। स्वास्थ्य के सिद्धांतों का समुचित रूप से पालन न करने से अनेक संक्रमण तथा कृमिग्रसन हो सकते हैं।

  • पर्यावरणी सम्बन्धी स्वास्थ्य विज्ञान-इसमें घरेलू स्वास्थ्य विज्ञान और सामुदायिक स्तरों पर जैव और अजैव दोनों बाह्य पदार्थ शामिल हैं। इसमें भौतिक कारक, जैसे जल, वायु, आवास, विकिरण आदि शामिल हैं। साथ ही इसमें जैविक तत्व जैसे पौधे, जीवाणु, विषाणु, कीट, कृंतक प्राणी तथा जानवर भी आते हैं।
  • आहार सम्बन्धी स्वास्थ्य विज्ञान-आहारजनित बीमारियाँ ऐसा भोजन खाने से होती हैं जिसमें रोजजनक सूक्ष्म जीव विद्यमान हों। इससे होने वाले रोग हैं-अतिसार, पेचिस, संक्रामक हेपिटाइटिस, टाइफाइड, हैजा, आंत्रशोथ आदि। इनमें से अधिकांश का कारण व्यक्तिगत अस्वच्छता या भोजन बनाने के खराब तरीके हैं।

→ कार्य, कार्यकर्ता और कार्यस्थल
(1) परिचय-हम सभी प्रतिदिन घंटों काम करते हैं-बच्चे पढ़ते हैं तथा अन्य जरूरी काम करते हैं, माता-पिता आजीविका अर्जित करते हैं और घर को चलाते हैं। इष्टतम निष्पादन के लिए जरूरी है कि कार्य को परिवेश, कार्यस्थल जहाँ वह निष्पादित किया जाता है और कार्यकर्ताओं के संदर्भ में समझा जाए। यह जानकारी काम के लिए प्रयुक्त ऊर्जा और बिताए गए समय को कम करने में सहायक होती है। इससे काम की दक्षता बढ़ती है। साथ ही, थकान और स्वास्थ्य की अन्य समस्याओं से भी बचाव होगा। अतः यह जरूरी है कि कार्यकर्ता को असुविधाजनक कार्यस्थल पर काम करने के लिए मजबूर करने के बजाय कार्य का वातावरण स्वस्थ बनाया जाए।

(2) कार्य-कार्य को कुछ करने या बनाने के लिए निर्देशित गतिविधि के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, यानी जो कुछ बनाने या करने के लिए दिया जाए। किसी काम को करने या पूरा करने के लिए स्वयं को शारीरिक और/या मानसिक रूप से गतिविधि से संलग्न करना कार्य है। किसी विद्यार्थी के संदर्भ में, कार्य का प्रमुख रूप से यही अर्थ है कि ज्ञान प्राप्त करने के लिए अध्ययन किया जाए। कार्य में अनेक छोटे-बड़े कार्य या उप-कार्य शामिल होते हैं, जो वांछित लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायक होते हैं। किन्तु कार्यों और उपकार्यों को निर्धारित करने से पहले लक्ष्यों के बारे में स्पष्ट होना आवश्यक है।

(3) कार्यकर्ता-कार्यकर्ता वह व्यक्ति होता है जो उत्पाद के परिणाम प्राप्त करने के लिए किसी विशिष्ट काम या गतिविधि को निष्पादित करता है। एक विद्यार्थी का अपने स्कूल का काम करना और गृहिणी द्वारा घर की सफाई करना 'कार्यकर्ता' के उदाहरण हैं।
किए गए कार्य के पहलू-किसी व्यक्ति द्वारा किए गए किसी भी कार्य में निम्नलिखित पहलू निहित होते हैं

  • शारीरिक पहलू-यह कार्यकर्ता के शरीर से सम्बन्धित है। इसमें मानव ऊर्जा, शारीरिक गतिविधि और वृद्धि शामिल हैं।
  • संज्ञानात्मक पहलू-संज्ञानात्मक या मानसिक पहलू में कार्यकर्ता की मनोवैज्ञानिक विशेषताएँ शामिल होती हैं। ये हैं-अभिवृत्तियाँ, कुशलताएँ, ज्ञान आदि।
  • रुचि से सम्बन्धित पहलू-इसमें कार्य के प्रति कार्यकर्ता की रुचियाँ, अरुचियाँ तथा प्राथमिकताएँ शामिल हैं जो गतिविधि के बारे में कार्यकर्ता की निजी भावनाओं से सम्बन्धित हैं और लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में योगदान करती हैं।
  • काल सूचक पहलू-यह समय के प्रबंधन से सम्बन्धित है। कई बार किसी व्यक्ति द्वारा एक निश्चित समय में निष्पादित की जाने वाली गतिविधियों की संख्या बहुत अधिक होती है। इसके लिए समय का उत्तम प्रबंधन करना पड़ता है।

(4) कार्यस्थल-यह वह स्थान है जहाँ कोई कार्यकर्ता किसी काम को निष्पादित करते हुए कार्य करता है। कार्यस्थल के कुछ उदाहरण हैं-स्कूल, अध्ययन कक्ष, रसोई आदि। प्रत्येक कार्यस्थल कार्यकर्ता और कार्य दोनों को ध्यान में रखकर डिजाइन किया जाना चाहिए ताकि कम-से-कम ऊर्जा खर्च करते हुए कार्य को सुविधापूर्वक, सुचारु ढंग से और कुशलतापूर्वक निष्पादित किया जा सके।
कार्यस्थल के घटक-कार्यस्थल के निम्नलिखित प्रमुख घटक हैं
(i) भौतिक और रासायनिक पर्यावरण-कार्यस्थल में विशिष्ट रूप से अनेक भौतिक और रासायनिक पर्यावरण कारक होते हैं, जो कि निम्नलिखित हैं

  • शोर-ऊँचे स्तर का शोर कोई काम करते समय हमारी एकाग्रता को प्रभावित करता है।
  • प्रकाश-व्यवस्था-प्रकाश-व्यवस्था कार्य की सतह पर पड़ने वाली प्रकाश की मात्रा है। अतः कार्यस्थल | अच्छी तरह से प्रकाशित किया जाना चाहिए।
  • जलवायु-जलवायु कारक कार्य कर रहे व्यक्ति की ऊर्जा खपत को प्रभावित करते हैं। अतः भीतरी जलवायु को पंखों, एग्जोस्ट फैन, रूम हीटर, कूलर और वातानुकूलक जैसे कृत्रिम साधनों द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है।
  • विकिरण-जब कोई पदार्थ वैद्युतचुंबकीय प्रकार की किरणें या तरंगें निकालता है तब इन तरंगों को विकिरण कहते हैं, जिनमें से कुछ लाभदायक और कुछ हानिकारक प्रभाव वाले होते हैं।
  • सूक्ष्म जैविक प्रदूषण-हम अपने पर्यावरण में निरन्तर सूक्ष्म-जीवों के सम्पर्क में आते रहते हैं क्योंकि वे वायु, जल, आहार और हमारे शरीर में भी मौजूद होते हैं। यदि वे हानिकारक हैं तो रोग पैदा कर सकते हैं।
  • रासायनिक पदार्थ-हम रासायनिक पदार्थों से भी घिरे रहते हैं जो हर समय द्रव, गैस, वाष्प, धूल या ठोस रूप में हमारे पर्यावरण में मौजूद होते हैं। उनमें से कुछ हानिकारक हो सकते हैं।

(ii) कार्य-धरातल:

  • कार्यस्थल के भौतिक और रासायनिक पर्यावरण के अलावा, कार्य-धरातल का डिजाइन भी कार्यकर्ता की सुविधा तथा स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। यदि कार्यस्थल का डिज़ाइन समुचित होगा तो व्यक्ति की निश्चल स्थिर क्रियाओं, बार-बार हिलने-डुलने से और अनुपयुक्त स्थिति से बचा जा सकता है और इस प्रकार कार्य की गुणवत्ता में सुधार लाया जा सकता है।
  • इस प्रकार, कार्य, कार्यकर्ता और कार्यस्थल के बीच आपसी सम्बन्ध को समय और स्थान जैसे संसाधनों के विवेकपूर्ण प्रयोग द्वारा सुदृढ़ किया जा सकता है।

RBSE Class 11 Home Science Notes Chapter 10 विविध संदर्भो में सरोकार और आवश्यकताएँ

→ संसाधन उपलब्धता और प्रबंधन 
(1) परिचय:

  • संसाधन वे संपत्ति, द्रव्य या निधियाँ होती हैं, जिनका उपयोग लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए किया जाता है। धन, समय, स्थान और ऊर्जा आदि संसाधनों के कुछ उदाहरण हैं। ये संसाधन किसी व्यक्ति के लिए संपत्तियाँ होती हैं।
  • संसाधनों की प्रचुर मात्रा में आपूर्ति विरले ही हो पाती है। ये हर किसी को समान रूप से उपलब्ध भी नहीं होते। अतः अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए जरूरी है कि सभी उपलब्ध संसाधनों का समुचित प्रबंधन किया जाए।

(2) समय प्रबंधन:

  • समय सीमित है और उसे दोबारा से प्राप्त नहीं किया जा सकता है। हमें हर रोज 24 घंटे का समय मिलता है जिसका प्रयोग हम अपनी इच्छानुसार कर सकते हैं। व्यक्ति कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो, वह समय को नहीं रोक सकता, न ही इसकी गति को तेज़ या धीमा कर सकता है। बीता हुआ समय कभी वापस नहीं आता। अतः समय का प्रबंधन महत्वपूर्ण हो गया है।
  • सफल होने के लिए समय प्रबंधन कौशल विकसित करना जरूरी है। जो लोग इन तकनीकों का उपयोग करते हैं, वे कृषि से लेकर व्यापार, खेल, सार्वजनिक सेवा, अन्य सभी व्यवसायों और निजी जीवन तक हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त करते हैं।
  • समय प्रबंधन की शुरुआत व्यवस्थित नियोजन से होती है। इसलिए एक व्यवस्थित समय योजना जरूरी है। तय अवधि में निष्पादित की जाने वाली गतिविधियों की अग्रिम सूची तैयार करने की प्रक्रिया को समय योजना कहते हैं।

→ आपका समय-प्रबंधन कितना अच्छा है?
हममें से अधिकांश के पास अपनी सभी गतिविधियाँ पूरी करने के लिए दिन में कभी पर्याप्त समय नहीं होता। 

→ समय और गतिविधि योजना के विविध चरण

  • अपना कार्य यथाशीघ्र शुरू कर दें। काम को टालने या उससे बचाव के उपाय करने में समय नष्ट न करें।
  • नियमित दिनचर्या से कार्य करें।
  • अपने कार्यों की प्राथमिकता तय करें। एक ही समय में बहुत अधिक गतिविधियाँ शुरू न करें।
  • अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण या कम प्राथमिकता वाले कामों की जिम्मेदारी न लें।
  • बड़े कामों को सुविधाजनक गतिविधियों की एक श्रृंखला में छोटा-छोटा कर विभाजित कर लें।
  • उन कामों पर ऊर्जा तथा समय नष्ट ना करें जिन पर बहुत ध्यान देने की ज़रूरत न हो।
  • एक समय में एक काम देखें। जब तक वह पूरा न हो जाए, उसे बीच में न छोड़ें।
  • गतिविधियों की सूची में 'आरंभ' और 'अंत' का समय निर्धारित करें। हर विषय के लिए उपयुक्त समय निर्धारित करें।
  • पूरे दिन के लिए उपयुक्त समय-सारणी बनाएँ, जिसमें फुर्सत के समय को भी सदा शामिल करें। 

→ कारगर समय-प्रबंधन के लिए सुझाव

  • किए जाने वाले योग्य कार्यों की सरल सूची बनाएँ।
  • दैनिक/साप्ताहिक योजना सारणी बनाएँ।
  • दीर्घावधि योजना सारणी बनाएँ। 

→ समय प्रबंधन की स्थितियाँ-निम्नलिखित स्थितियाँ समय के प्रभावी प्रबंधन में मदद करती है

  • चरम भार अवधि-किसी निर्दिष्ट अवधि में काम के अधिकतम बोझ को चरम भार अवधि कहते हैं।
  • कार्य वक्र-यह समयानुसार कार्य देखने का एक साधन होता है।
  • विश्राम/अंतराल की अवधि-काम करने के समय के दौरान कई अनुत्पादक रुकावटें आती हैं, जिन्हें अंतराल की अवधि कहते हैं। यह अवधि न बहुत लम्बी होनी चाहिए, न बहुत छोटी।
  • कार्य का सरलीकरण-कार्य करने की सबसे सरल, आसान और अतिशीघ्र विधि से करने की चेतन कोशिश कार्य का सरलीकरण कहलाता है। इसका आशय समय और मानव ऊर्जा के सही मिश्रण एवं प्रबंधन से है।

इसका उद्देश्य होता है-समय-ऊर्जा की निर्दिष्ट मात्रा में अधिकाधिक काम का निष्पादन या निर्धारित काम को पूरा करने के लिए समय या ऊर्जा या दोनों की मात्रा घटाना या बढ़ाना। ऐसे परिवर्तन के लिए ये स्तर महत्त्वपूर्ण हैं

  • हाथ और शरीर की गति में परिवर्तन करना,
  • कुछ प्रक्रियाओं को काट-छांट व जोड़ना,
  • कार्य के क्रम में सुधार करना,
  • कार्य में कुशलता विकसित करना
  • शरीर की मुद्रा में सुधार करना,
  • कार्य, भंडारण स्थान और प्रयुक्त उपकरणों में परिवर्तन करना तथा
  • उत्पाद में परिवर्तन करना, जैसे-कच्ची सामग्री के रूप में परिवर्तन करना आदि।

RBSE Class 11 Home Science Notes Chapter 10 विविध संदर्भो में सरोकार और आवश्यकताएँ

→ स्थान प्रबंधन-स्थान प्रबंधन में शामिल है-स्थान का नियोजन, योजनानुसार उसकी व्यवस्था, उसके उपयोग के अनुसार योजना का क्रियान्वयन और कार्यकारिता तथा सौंदर्यबोध की दृष्टि से उसका मूल्यांकन। सुप्रबंधित स्थान न केवल काम करते समय आराम देता है, बल्कि आकर्षक भी दिखता है।
(i) स्थान और घर-घर में प्रायः विशिष्ट क्षेत्र निर्धारित किए जाते हैं। अधिकांश शहरी मध्यवर्गीय घरों में एक बैठक, एक या उससे अधिक शयनकक्ष, रसोईघर, भंडारघर, स्नानागार, शौचालय और बरामदा/आँगन (ऐच्छिक) होते हैं। इसके अलावा कुछ घरों में अतिरिक्त कमरे भी हो सकते हैं, जैसे-भोजन कक्ष, अध्ययन कक्ष, मनोरंजन कक्ष,
शृंगार कक्ष, अतिथि कक्ष, बाल कक्ष, गैराज (स्कूटर या कार के लिए), सीढ़ियाँ, गलियारे, पूजा-घर, बगीचा, बालकनी आदि।

(ii) स्थान नियोजन के सिद्धांत

  • स्वरूप-यह भवन की बाहरी दीवारों में दरवाज़ों तथा खिड़कियों की व्यवस्था का द्योतक है।
  • प्रभाव-प्रभाव वह छाप है जो घर को बाहर से देखने वाले व्यक्ति पर पड़ सकता है।
  • एकांतता-यह स्थान नियोजन का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। इसके दो पहलुओं पर विचार करना होता हैभीतरी एकांतता व बाहरी एकांतता।
  • कमरे की स्थिति-इसका आशय कमरों के एक-दूसरे के साथ भीतरी सम्बन्ध से है।
  • खुलापन-यह रहने वालों को कमरे के खुलेपन का आभास देता है। कमरे के आकार और आकृति, फर्नीचर की व्यवस्था और प्रयुक्त रंग योजना का भी उसके खुलेपन पर प्रभाव पड़ता है।
  • फ़र्नीचर की आवश्यकताएँ-कमरों की योजना बनाते समय वहाँ रखे जाने वाले फर्नीचर पर यथोचित विचार किया जाना चाहिए।
  • स्वच्छता-स्वच्छता का आशय है मकान में भरपूर रोशनी, हवादारी और सफाई तथा स्वच्छता की सुविधाएँ पर्याप्त होनी चाहिए।
  • वायु का परिसंचरण-कमरा-दर-कमरा भी वायु परिसंचरण सम्भव होना चाहिए। उत्तम परिसंचरण का अर्थ है कि घर के प्रत्येक कमरे का स्वतंत्र प्रवेश-द्वार हो।
  • व्यावहारिक बातें-संरचना की मजबूती तथा स्थिरता, परिवार के लिए सुविधा और आराम, सरलता, सौंदर्य और भविष्य में विस्तार का प्रावधान आदि व्यावहारिक बातें हैं।
  • रमणीयता-योजना के सामान्य विन्यास द्वारा रमणीयता पैदा की जाती है। उपर्युक्त सिद्धांत स्थान के नियोजन और प्रबंधन में सहायता करते हैं।

→ अधिगम, शिक्षा और विस्तार
(1) अधिगम-अधिगम (सीखना) की हमारे जीवन में एक बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। यह हमारे ज्ञान, बोध और व्यवहार का आधार है। हम पैदा होते ही सीखना शुरू कर देते हैं। भ्रूण माता की कोख में भी सीखता है अर्थात् सीखना जीवन के साथ ही शुरू हो जाता है। अतः अनुभव के परिणामस्वरूप नया व्यवहार प्राप्त करना या पहले वाले व्यवहार में सुधार करना अथवा उसे छोड़ देना अधिगम कहलाता है।
अधिगम की प्रक्रिया में तीन मुख्य घटक होते हैं- सीखने वाला, जिसके व्यवहार में बदलाव आता है।

  • व्यवहार में बदलाव के लिए अपेक्षित प्रशिक्षण। 
  • संसाधन, मानव सामग्री। 

अधिगम के प्रकार-अधिगम पाँच प्रकार से हो सकता है

  • शाब्दिक शिक्षा-शाब्दिक शिक्षा में चिह्न, चित्र, संकेत, शब्द, आकृतियाँ, ध्वनियाँ और आवाजें आती हैं। इसमें लिखित या वाचिक गद्य से अर्थगत ज्ञान या प्रक्रियात्मक ज्ञान शामिल है जैसे किसी पाठ्यपुस्तक से पाठ पढ़कर सीखना। 
  • रट कर सीखना या कंठस्थ करना-कविताएँ, गुणा के पहाड़े या आयतें या सुरा/श्लोक (धार्मिक उक्तियाँ) आदि को याद करना रट कर सीखने के उदाहरण हैं। यह शाब्दिक ज्ञान का ही एक रूप है।
  • यांत्रिक अधिगम-इसमें हम सभी प्रकार की पेशियों का प्रयोग करना सीखते हैं जो भौतिक दक्षता और अंततः कौशल के विकास की ओर ले जाती हैं। जैसे-तैरना, सिलाई, बुनाई, टाइपिंग, नृत्य आदि।
  • संकल्पनात्मक अधिगम-संकल्पना से सीखने में किसी अवबोधन, पिछले अनुभव, प्रशिक्षण और/या कुछ संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं के फलस्वरूप हमारे मन में एक छवि बनती है।
  • समस्या समाधान अधिगम-समस्या-समाधान का आशय उच्च स्तर वाले अधिगम से है। इसके लिए संज्ञानात्मक योग्यताओं की आवश्यकता होती है, जैसे-तर्क, विवेक, सामान्यीकरण, कल्पना, अवलोकन करने, अनुमान लगाने तथा निष्कर्ष निकालने की क्षमता। हर आयु के व्यक्ति समस्या समाधान में लगे होते हैं-एक शिशु भूखे होने की अपनी समस्या हल करने हेतु दूध के लिए रोता है, जबकि एक छात्रा अपना नियत कार्य पूर्ण करने की समस्या को उस पर गंभीरता से काम करके हल करती है।

(2) शिक्षा-शिक्षा हमारे भौतिक, भावात्मक, संज्ञानात्मक और इंद्रियातीत अनुभवों के माध्यम से हमें संसार का बोध कराती है। यह मानवों की अंतःशक्ति को प्रकट करने में भी मदद करती है। शिक्षा विभिन्न रूपों में हो सकती है, औपचारिक भी और अनौपचारिक भी। बीसवीं सदी के एक भारतीय दार्शनिक श्री अरविंद के अनुसार, शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मानव मन तथा आत्मा की शक्तियों का निर्माण है| यह ज्ञान तथा इच्छा का प्रोत्साहन है और ज्ञान, चरित्र एवं संस्कृति को प्रयोग करने की शक्ति है।

→ शिक्षा और परिवार
हर औपचारिक शिक्षा में विषयवस्तु होती है जिसे पाठ्यक्रम कहते हैं। शिक्षा के विभिन्न चरणों के दौरान, प्राथमिक से तृतीयक तक, अनेक पाठ तथा विषय होते हैं जो हमें परिवार के बारे में बताते हैं। किसी प्राथमिक कक्षा में अपना पहला निबंध लिखने तथा परिवार का चित्र बनाने से शुरू करके आप परिवार की व्यापक संकल्पना बनाने लगते हैं।
इसके अतिरिक्त सामाजिक अध्ययन पाठ्यक्रम के अनेक पहलुओं ने भी संसार में परिवार की विविधता के बारे में जानकारी उपलब्ध कराई। समाज विज्ञान और अब मानव पारिस्थितिकी तथा परिवार विज्ञान जैसे विषय इस क्षेत्र में आपके ज्ञान को और बढ़ाते हैं। इस प्रकार, हमें पता चलता है कि शहरी, ग्रामीण तथा आदिवासी परिवार अलगअलग होते हैं, जिनकी ज़रूरतें और अनुभव अलग-अलग होते हैं।

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→ शिक्षा और स्कूल
औपचारिक शिक्षा उपलब्ध कराने में विद्यालय एक महत्वपूर्ण संस्था है। देश के अनेक भागों में, विद्यालय-पूर्व समूह को भी औपचारिक विद्यालय के साथ जोड़ दिया गया है। साथ ही, यह भी सम्भव है कि कोई छात्र अनौपचारिक शिक्षा ले।
(क) औपचारिक शिक्षा-यह पढ़ाने और सीखने की एक सुव्यवस्थित प्रणाली है। इसका उत्तरदायित्व वे संस्थाएँ लेती हैं जो सरकार द्वारा या मान्यता प्राप्त गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा चलाई जाती हैं। इस प्रकार विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, तकनीकी और व्यावसायिक संस्थाएँ औपचारिक शिक्षा देती हैं। शिक्षा की सभी औपचारिक संस्थाओं की कुछ सामान्य विशेषताएँ होती हैं। यथा

  • यह प्राथमिक विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक कालक्रमानुसार वर्गीकृत होती है।
  • इसका पाठ्यक्रम पूर्व निर्धारित होता है।
  • छात्रों के साझे लक्ष्य होते हैं।
  • सत्र के अंत तक पाठ्यक्रम पूरा कर सभी की परीक्षा ली जाती है तथा उन्हें डिग्रियाँ दी जाती हैं।

(ख) अनौपचारिक शिक्षा-भारत में ऐसे अनेक बच्चे हैं जो कई कारणों से स्कूल नहीं जा पाते। फिर ऐसे वयस्क भी हैं जो बचपन में स्कूल नहीं जा पाए या अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर पाए। अनौपचारिक शिक्षा की प्रणाली इन शिशुओं को शिक्षा प्राप्त करने का अवसर उपलब्ध कराती है। बेसहारा तथा कामकाजी बच्चों के लिए अनौपचारिक केंद्र हैं और वयस्कों के लिए प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम हैं। शिक्षा का लक्ष्य यहाँ भी ज्ञान प्राप्त करना और कुशलता विकसित करना है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ हैं

  • तंत्र का कठोर वर्गीकरण नहीं होता
  • अध्यापन शिक्षु केन्द्रित होता है।
  • पाठ्यक्रम आवश्यकता आधारित होता है ।
  • छात्रों को प्रमाणपत्र दिये जाते हैं, डिग्रियाँ नहीं। 

→ शिक्षा, समुदाय और समाज
बच्चों, युवाओं तथा पर्यटकों को जो शिक्षा मिलती है, उसे अंततः हमारे इर्द-गिर्द समुदाय के और समग्र समाज के विकास में मदद करनी चाहिए। ज्ञान प्राप्ति, निजी विकास और शिक्षा में प्रक्रियाओं के माध्यम से व्यक्ति कौशल | अर्जन करते हैं जो उन्हें राष्ट्र निर्माण में और वैश्विक स्तर पर मानव विकास में योगदान करने की शक्ति देते हैं।

→ विस्तार-शिक्षा और विस्तार में गहन सम्बन्ध है। आज अनुसंधान, प्रशिक्षण दृष्टिकोण, संचार एवं प्रौद्योगिकी, गैर सरकारी संगठन आंदोलन तथा सरकारी हस्तक्षेप के माध्यम से विस्तारण, राष्ट्रीय विकास का एक साधन बन गया है।

→ विस्तार और विस्तार शिक्षा

  • विस्तार का अर्थ है ज्ञान को ज्ञात से अज्ञात तक फैलाना। यह ज्ञान तथा अनुभव बाँटने की दुतरफा प्रक्रिया है, जिसके द्वारा निजी तथा सामुदायिक विकास हेतु व्यक्तियों और समूहों को प्रेरित किया जाता है।
  • जब शिक्षा तथा ज्ञान को व्यवहार में लाया जाता है और समुदाय तक उसका विस्तार किया जाता है, तब उसे विस्तार शिक्षा कहते हैं। विस्तार शिक्षा एक सम्पूर्ण विषय है। इसका अपना दर्शन, उद्देश्य, सिद्धांत, विधियाँ तथा तकनीक हैं।

→ विस्तार शिक्षा के सिद्धांत 

  • रुचि और जरूरत का सिद्धांत-विस्तार कार्य लोगों की रुचियों तथा जरूरतों पर आधारित होना चाहिए।
  • सांस्कृतिक भिन्नता का सिद्धांत-विस्तार कार्य उन लोगों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का ध्यान रखता है जिनके साथ काम किया जाता है।
  • भागीदारी का सिद्धांत-विस्तार कार्य लोगों को स्वयं अपनी सहायता करने में मदद करता है।
  • अनुकूलन क्षमता का सिद्धांत-विस्तार कार्यक्रम लचीला होना चाहिए ताकि बदलती हुई परिस्थितियों के अनुकूल आवश्यक परिवर्तन किए जा सकें।
  • संगठन के आधारभूत सिद्धांत-विस्तार कार्य स्थानीय समुदाय द्वारा प्रायोजित होना चाहिए।
  • नेतृत्व का सिद्धांत-अधिकांश विस्तार कार्य स्थानीय नेतृत्व के उपयोग पर आधारित होता है।
  • पूर्ण परिवार सिद्धांत-विस्तार कार्य के सफल होने की संभावना अधिक होगी यदि उसे परिवार के सभी पुरुषों, महिलाओं, बच्चों तथा युवा सदस्यों के साथ चलाया जाए।
  • सहयोग का सिद्धांत-यह एक संयुक्त लोकतांत्रिक उद्यम है, जिसमें लोग एक साझा उद्देश्य के लिए अपने गाँव, ब्लॉक तथा राज्य के अधिकारियों के साथ सहयोग करते हैं।
  • संतोष का सिद्धांत-किसी समस्या का समाधान करने, कोई नया कौशल प्राप्त करने या व्यवहार में कोई अन्य परिवर्तन लाने की दक्षता 'संतोष' ही है।
  • मूल्यांकन सिद्धांत-विस्तार विज्ञान की विधियों पर आधारित है, अतः इसका सतत मूल्यांकन करना होता

→ विस्तार अध्ययन विधियाँ-विस्तार कार्य में निम्नांकित विधियों का प्रयोग किया जाता है

  • फार्म और घर में जाना-विस्तार कार्यकर्ता द्वारा किसी एक व्यक्ति और/या परिवार के सभी सदस्यों के साथ प्रत्यक्ष या आमने-सामने सम्पर्क का कार्य है।
  • परिणाम प्रदर्शन-परिणाम प्रदर्शन सुझाई गई रीतियों के लाभ सिद्ध करने और स्थानीय परिस्थितियों में उनकी उपयोगिता दर्शाने के लिए एक शैक्षिक परीक्षण है।
  • विधि प्रदर्शन-इसका प्रयोग काम करने की तकनीक या नई रीतियाँ अपनाने की तकनीक दिखाने के लिए किया जाता है।
  • समूह चर्चाएँ-समूहों में सम्पर्क करना सुविधाजनक एवं व्यवहार साध्य से होता है। इस विधि को प्रायः समूह चर्चा कहते हैं।
  • प्रदर्शनियाँ-प्रदर्शनियों का प्रयोग विविध विषयों के लिए किया जाता है, जैसे आदर्श गाँव की योजना बनाना या सिंचाई की उन्नत रीतियाँ दिखाना।
  • साधारण बैठकें-लोगों को भविष्य की कार्यवाही हेतु कुछ जानकारी देने के लिए अक्सर बैठकें आयोजित की जाती हैं।
  • अभियान-लोगों का ध्यान किसी समस्या-विशेष पर केंद्रित करने के लिए अभियान चलाया जाता है, जैसे गाँव की स्वच्छता, पादप संरक्षण और परिवार नियोजन।
  • दौरा और इलाकों की यात्रा-किसानों को विश्वास दिलाने के लिए उनके दौरों और यात्राओं का आयोजन किया जाता है। इससे उन्हें अपने क्षेत्र के बारे में राय बनाने में मदद मिलती है।
  • दृश्य-श्रव्य साधनों का प्रयोग-जैसे मुद्रित सामग्री (साहित्य), रेडियो, टेलीविजन व चलचित्र (सिनेमा) आदि।

→ कुछ ग्रामीण रोजगार उत्पादन तथा अन्य योजनाएँ
ग्रामीण तथा शहरी दोनों क्षेत्रों में लोगों के जीवन की गुणवत्ता सुधारने के लिए सरकार द्वारा अनेक योजनाएँ बनाई गई हैं। जैसे

  • स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना (एस.जी.एस.वाई.)-यह कार्यक्रम अप्रैल 1999 में शुरू किया गया था। यह स्वरोजगार के सभी पहलुओं को शामिल करने वाला एक संपूर्ण कार्यक्रम है। इसमें गरीबों को स्वावलम्बी समूहों का गठन, प्रशिक्षण, प्रौद्योगिकी, आधारिक संरचना और विपणन आता है। एस.जी.एस.वाई. का उद्देश्य ग्रामीण गरीबों को स्थाई आय उपलब्ध कराना है।
  • जवाहर ग्राम समृद्धि योजना (जे.जी.एस.वाई.)-यह पुरानी जवाहर रोजगार योजना का पुनर्गठित, सुकर और विस्तृत रूप है। गरीबों के जीवन में सुधार के लिए तैयार जे.जी.एस.वाई. 1 अप्रैल, 1999 को शुरू की गई, इसका मूल उद्देश्य माँग-आधारित सामुदायिक गाँव की आधारिक संरचना का सृजन करना है। इसमें ग्राम स्तर पर टिकाऊ परिसम्पत्तियाँ (जैसे-प्रशिक्षण केंद्र) शामिल हैं।
  • सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास कार्यक्रम-एम.पी.एल.ए.डी.पी. दिसम्बर 1993 में एक केन्द्रीय क्षेत्र की योजना के रूप में शुरू की गई थी ताकि लोकसभा और राज्यसभा के सदस्य इस उद्देश्य के लिए दिशा-निर्देशों के भीतर अपनी पसंद की उन योजनाओं को क्रियान्वित कर सकें, जो विकासात्मक हों और स्थानीय जरूरतों पर आधारित हों।

RBSE Class 11 Home Science Notes Chapter 10 विविध संदर्भो में सरोकार और आवश्यकताएँ

→ भारत की वस्त्र परंपराएँ
(1) परिचय-मानव 20,000 वर्ष पूर्व भी वस्त्र बनाने की कला जानता था। प्राचीन साहित्य के संदर्भो में गुफाओं तथा भवनों में दीवारों पर चित्रकारी से भी हमें उनके बारे में जानकारी मिलती है। वस्त्र सामग्रियों ने प्राचीन काल से मानवों को मोहित किया है, ये सभ्यता का अनिवार्य अंग रही हैं। सभी प्राचीन सभ्यताओं के लोगों ने अपने प्रदेश में उपलब्ध कच्ची सामग्री के उपयोग के लिए तकनीकें एवं प्रौद्योगिकियाँ विकसित की थीं। उन्होंने स्वयं अपने विशिष्ट डिजाइनों की रचना की और अलंकृत डिजाइनों वाले उत्पाद पैदा किए।

(2) भारत में ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य-भारत में परिष्कृत वस्त्रों का उत्पादन उतना ही प्राचीन है, जितनी भारतीय सभ्यता। भारत में बुनाई सबसे पुरानी कला है और महीन कपड़े के उत्पाद बहुत पुराने समय से बनाए जाते रहे हैं। भारत में सूत की कताई, बुनाई, रंगाई और कशीदाकारी की परम्पराएँ कम से कम 5000 वर्ष पुरानी हैं। कपड़े के टुकड़े और टेरा-कोटा तकले तथा कांस्य की सूइयाँ भी, जो मोहनजोदड़ो में खुदाई के स्थल पर मिली हैं। प्राचीन साहित्य (ग्रीक और लैटिन) में सूत, रेशम तथा ऊन से बनाए गए भारतीय कपड़ों की उत्कृष्टता की प्रशंसा के उल्लेख मिलते हैं। लगभग 15वीं शताब्दी से ही भारत वस्त्रों का सबसे बड़ा निर्यातक था। यूरोपीय राष्ट्रों द्वारा विभिन्न ईस्ट इंडिया कंपनियों की स्थापना भारत में वस्त्र व्यापार के साथ सम्बन्धित थी।

(3) तीन मुख्य रेशे-पारम्परिक रूप से भारतीय कपड़े का उत्पादन तीन मुख्य प्राकृतिक रेशों के साथ जुड़ा हुआ है-कपास, रेशम और ऊन। यथा
(i) कपास-भारत कपास का घर है। कपास की खेती और बुनाई में उसका प्रयोग प्रागैतिहासिक काल से विदित है। कपास का चलन भारत से सारे संसार में फैल गया। ढाका (बांग्लादेश) में सबसे बारीक कपड़ा 'मलमल खास' या 'शाही मस्लिन' बनाया गया। जामदानी' या बंगाल तथा उत्तर भारत के भागों के कपास के उपयोग से पारम्परिक रूप से बुनी जाने वाली अलंकृत मलमल भारतीय बुराई का सर्वोत्तम ब्रोकेड उत्पाद है।

सूती कपड़ा बनाने में निपुणता के अतिरिक्त, भारत की सर्वोच्च वस्त्र उपलब्धि चटकीले पक्के रंगों के साथ सूती कपड़े में पैटर्न बनाने की थी। यूरोपीय फ़ैशन तथा बाजार में भारतीय छींट (छपाई और चित्रकारी वाला सूती कपड़ा) ने क्रांति ला दी थी। भारतीय शिल्पकार संसार के सर्वोत्तम रंगरेज़ थे। सूत की बुनाई सारे भारत में अब भी होती है। विविध उत्पाद अलग-अलग डिज़ाइनों तथा रंगों में बनाया जाता

(ii) रेशम-भारत में रेशम के कपड़े प्राचीन काल से बनाए जाते हैं। वैसे तो रेशम का मूल चीन में था, परंतु कुछ रेशम का प्रयोग भारत में भी किया गया। भारतीय तथा चीनी रेशम में भेद किया गया है। रेशम के बुनाई केंद्र राज्यों
की राजधानियों, तीर्थ स्थलों और व्यापार केंद्रों के निकट विकसित हुए। बुनकरों के प्रयास से अनेक नए केंद्र विकसित और स्थापित हुए। विभिन्न प्रदेशों में रेशम की बुनाई की विशिष्ट शैलियाँ हैं।

भारत में रेशम के केन्द्र

  • वाराणसी-उत्तर प्रदेश में वाराणसी की विशेष शैलियों में बुनाई की एक प्राचीन परम्परा है। उसका अत्यंत लोकप्रिय उत्पाद ब्रोकेड या किनख्वाब है।
  • पश्चिम बंगाल-पश्चिम बंगाल अपनी रेशम की बुनाई के लिए पारम्परिक रूप से प्रसिद्ध है। पश्चिम बंगाल के बुनकर जामदानी बुनकर जैसे करघे का प्रयोग कर रेशमी ब्रोकेड वाली साड़ी बुनते हैं, जिसे बालुचर बूटेदार कहते
  • गुजरात (अहमदाबाद)-गुजरात ने किनख्वाब की अपनी शैली विकसित की है। अहमदाबाद की अशावली साड़ियाँ अपनी सुंदर ब्रोकेड किनारियों के लिए और पहलुओं के लिए प्रसिद्ध हैं।
  • तमिलनाडु (कांचीपुर)-तमिलनाडु में कांचीपुर प्राचीन काल से दक्षिण भारत में ब्रोकेड बुनाई का एक प्रसिद्ध केंद्र है।
  • पैठन व अन्य नगर-दक्कन प्रदेश का प्राचीनतम नगर पैठन किनारियों तथा मोटिफों के लिए सोने की जड़ाऊ बुनाई वाली रेशम की विशेष साड़ियों के लिए प्रसिद्ध है। सूरत, अहमदाबाद, आगरा, दिल्ली, बुरहानपुर, तिरुचिरापल्ली और तंजावुर जरी ब्रोकेड बुनाई के पारम्परिक रूप से प्रसिद्ध अन्य केंद्र हैं।

(iii) ऊन-ऊन का विकास शीतल प्रदेशों के साथ जुड़ा हुआ है। जैसे-लद्दाख की पहाड़ियाँ, जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल की पहाड़ियाँ, कुछ उत्तर-पूर्वी राज्य, पंजाब, राजस्थान और मध्य तथा पश्चिम भारत के कुछ स्थान। ऊन के सबसे पुराने संदर्भ में पहाड़ी बकरियों और कुछ हिरण जैसे जानवरों से प्राप्त बहुत बारीक बाल का उल्लेख है। इसके अतिरिक्त भेड़ तथा अन्य जानवरों (खरगोशों तथा ऊँटों) के बाल भी प्रयुक्त किए जाते हैं। सर्वोत्तम शालें पश्मीना और शाहतूस-पहाड़ी बकरियों के बालों से बनाई गईं। बाद में, शालों पर कशीदाकारी भी की जाने लगी। हिमाचल प्रदेश की शालें व कुल्लू घाटी के पट्ट और तेहरू काफी प्रसिद्ध हैं।

(4) रंगाई-भारत में रंगाई का इतिहास बहुत पुराना है। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से पहले रंग केवल प्राकृतिक स्रोतों, जैसे-पादपों की जड़, छाल, पत्ते, फूल और बीज आदि से लिए जाते थे। कुछ कीटों तथा खनिजों से भी रंग मिलता था। भारतीयों को रंगों के रसायन, पक्के रंग की विशिष्टता तथा विख्यात वस्तुओं के उत्पादन में रंग के अनुप्रयोग की तकनीकों का गहरा ज्ञान था। 

→ रंगरोधी रंगाई वाले वस्त्र
रंग के साथ डिजाइन बनाने का सबसे पुराना रूप रंगरोधी रंगाई है। रोध की सामग्री धागा, कपड़े के टुकड़े या मृदा तथा मोम जैसे पदार्थ हो सकते हैं, जो भौतिक प्रतिरोध करते हैं। रोध की सबसे अधिक प्रचलित विधि धागे से बाँधने की है। भारत में बनाए जाने वाले टाई एंड डाई कपड़ों की दो विधियाँ हैं-फेब्रिक टाई एंड डाई और धागा टाई एंड डाई। दोनों ही मामलों में जिस भाग पर डिज़ाइन बनाना हो, उसके चारों ओर कस कर धागा लपेट कर बाँध देते हैं और रंगते हैं। रंगाई प्रक्रिया के दौरान, बंधा हुआ अंश अपना मूल रंग बनाए रखता है। 

→ कपड़ा टाई एंड डाई:
बंधनी, चुनरी, लहरिया आदि कुछ वस्त्र हैं जिनमें कपड़े को बुनने के बाद टाई-डाई द्वारा पैटर्न बनाए जाते हैं। 

→ धागा टाई एंड डाई:
यह एक जटिल प्रक्रिया है। इन्हें इकत कपड़े कहते हैं। यदि केवल एक ही धागे अर्थात् केवल ताने या बाने के धागे की टाई रंगाई की गई हो तो उसे एक एकल इकत कहते हैं; यदि दोनों धागों को इस प्रकार रंगा गया हो तो यह संयुक्त इकत कहलाता है।

  • गुजरात में इकत बुनाई की सबसे समृद्ध परम्परा है। पटोला रेशम में बनाई गई दोहरे इकत की रंग बिरंगी साड़ी है।
  • उड़ीसा में सूत तथा रेशम की इकत साडियाँ और कपडे बनाए जाते हैं। . आंध्र प्रदेश में पोचमपल्ली और किराला में सूती इकत कपड़े बनाने की परंपरा है, जिन्हें तेलिया रुमाल कहते

(5) कशीदाकारी-सूई या सूई जैसे औज़ारों का प्रयोग करके रेशम, सूत, स्वर्ण या चाँदी के धागों से कपड़ों की सतह को अलंकृत करने की कला कशीदाकारी है। कशीदाकारी सारे देश में प्रचलित थी क्योंकि यह

  • सभी सामाजिक-आर्थिक स्तरों पर,
  • सभी प्रकार के कपड़ों पर, 
  • सभी वस्तुओं और धागों पर तथा
  • विविध वस्तुएँ बनाने में प्रयुक्त होती थी।

कशीदाकारी को सामान्यतः एक घरेलू हस्तशिल्प माना जाता है। यह एक ऐसा व्यवसाय है जिसे महिलाएं अपने खाली समय के दौरान मुख्यतः परिधान या घरेलू प्रयोग की वस्तुओं को अलंकृत करने या सजाने के लिए करती हैं। फिर भी, कशीदाकारियाँ देश के भीतर और संसार के विभिन्न भागों में भी व्यापार की वस्तुएँ बन गई हैं।

→ कशीदाकारी की प्रमुख शैलियाँ:
भारत में कशीदाकारी की कुछ प्रमुख शैलयाँ निम्नलिखित हैं

  • फुलकारी-फुलकारी पंजाब की दस्तकारी की कला है। फुलकारी का अर्थ है 'पुष्प कार्य' या फूलों की क्यारी। कशीदाकारी मोटे सूती (खद्दर) कपड़े पर बिना बटे रेशमी लॉस से की जाती है, जिसे पाट कहते हैं।
  • कसूती-कसूती शब्द का प्रयोग कर्नाटक की कशीदाकारी के लिए किया जाता है। कसूती शब्द कशीदा से बना है, जो एक फारसी शब्द है। यह कशीदाकारी का अत्यंत सूक्ष्म रूप है, जिसमें कशीदे के धागे कपड़े की बुनाई के पैटर्न को अपनाते हैं।
  • कान्था-बंगाल का कान्था पुरानी सूती साड़ियों या धोतियों की 3-4 परतों पर तैयार किया जाता है। यह कशीदा रजाई की तरह है-छोटे सीधे टांके आधार कपड़े की सभी परतों के बीच में से जाते हैं।
  • कशीदा-कशीदा एक सामान्य शब्द है, जिसका प्रयोग कश्मीर में कशीदाकारी के लिए किया जाता है। दो सबसे महत्वपूर्ण कशीदे सुजनी और जलकदोज़ी हैं। कश्मीर ऊन की भूमि है, अतः कशीदा ऊनी कपड़ों पर किया जाता है।
  • चिकनकारी-उत्तर प्रदेश की चिकनकारी वह कशीदा है, जिसका वाणिज्यीकरण बहुत आरम्भिक अवस्था में हो गया था। लखनऊ को इसका मुख्य केंद्र माना जाता है। शुरू में यह सफेद कपड़े पर सफेद धागे से किया जाता था। पिछले कुछ वर्षों से डिजाइनों में जरी के धागों, छोटे मनकों और चमकीले सितारों का भी समावेश किया जाने लगा है। 

RBSE Class 11 Home Science Notes Chapter 10 विविध संदर्भो में सरोकार और आवश्यकताएँ

→ गुजरात के कशीदे की बहुत समृद्ध परंपरा है:
गुजरात मूलतः खानाबदोश जनजातियों का प्रदेश रहा है, जो विभिन्न संस्कृतियों के डिजाइनों तथा तकनीकों के सम्मिश्रण के लिए प्रख्यात है। यहाँ कसीदे का प्रयोग जीवन के सभी पहलुओं के लिए किया जाता है। अनेक कशीदों को जनजातियों के नाम से जाना जाता है-महाजन, राबरी, मोचीभारत, कन्बीभारत और सिंधी। गुजरात तथा राजस्थान की सीमा में निकटता है। राजस्थान में भी जनजातीय आबादी है। अतः उनका कशीदा समान शैली का है।

चंबा रुमाल-हिमाचल प्रदेश में चंबा के पूर्व पहाड़ी राज्य के 'चंबा रुमाल' मुख्य उपहारों की ट्रे को ढकने के लिए बनाए जाते थे। रुमालों पर पहाड़ी चित्रकारी की जाती थी, बहिरेखा में रनिंग स्टिच का प्रयोग तथा भराई में डार्क स्टिच का प्रयोग होता था।
निष्कर्ष-भारत में सुंदर-सुंदर वस्त्र मिलते हैं, जिन्हें उनके सौंदर्य तथा दस्तकारी के लिए विश्व भर में मान्यता मिली है। भारत में प्रचलित कला के समसामयिक रूप को समृद्धि और विविधता का श्रेय बहुत हद तक इसकी मिट्टी पर असंख्य सांस्कृतिक वंशों के सह-अस्तित्व को जाता है। भारतीय वस्तुओं की लगभग सभी परंपराएँ बनी हुई हैं। नए डिजाइनों के विकास ने युगों पुरानी परम्पराओं को केवल समृद्ध किया है।

Prasanna
Last Updated on Aug. 3, 2022, 10:35 a.m.
Published Aug. 3, 2022