RBSE Class 11 Drawing Notes Chapter 6 मंदिर स्थापत्य और मूर्तिकला

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RBSE Class 11 Drawing Chapter 6 Notes मंदिर स्थापत्य और मूर्तिकला

→ मंदिर स्थापत्य मंदिर देवी-देवताओं की पूजा करने और ऐसी धार्मिक क्रियायें सम्पन्न करने के लिए बनाए गए होंगे, जो और कालान्तर में आवश्यकताओं के अनुसार इनमें अनेक मंडप-अर्द्धमंडप, महामंडप, रंगमंडप आदि जोड़ दिए गए। 10वीं शताब्दी तक आते-आते भू-प्रशासन में मंदिर की भूमिका काफी अहम् हो गई थी।

→ प्राचीन मंदिर:
स्तूप निर्माण के साथ-साथ भारत में सनातन हिन्दू धर्म के मंदिर और देवी-देवताओं की प्रतिमाएं बनने लगीं। मंदिरों को संबंधित देवी-देवताओं की मूर्तियों से सजाया जाता था। हर मंदिर में एक प्रधान देवता की प्रतिमा होती थी।
मंदिरों के पूजागृह तीन प्रकार के होते थे

  • संधर,
  • निरंधर और
  • सर्वतोभद्र। 

→ हिन्दू मंदिर का मूल रूप
हिन्दू मंदिर निम्न भागों से निर्मित होता है

  • गर्भगृह-इसमें मंदिर के मुख्य अधिष्ठाता की मूर्ति को स्थापित किया जाता है। यह एक छोटा प्रकोष्ठ होता है जिसमें प्रवेश हेतु एक छोटा सा द्वार होता है।
  • मंडप-मंदिर का प्रवेश कक्ष, जो काफी बड़ा होता है।
  • शिखर-पूर्वोत्तर काल में इन पर शिखर बनाए जाने लगे।
  • वाहन-मंदिर के अधिष्ठाता देवता की सवारी । इसे एक स्तंभ या ध्वज के साथ गर्भगृह के साथ कुछ दूरी पर रखा जाता है।

आगे चलकर मंदिरों के निर्माण में ज्यों-ज्यों जटिलता बढ़ती गई, उनमें तरह-तरह की प्रतिमाओं की स्थापना हेतु आले-दिवाले जोड़े जाते रहे, लेकिन मंदिर की आधारभूत योजना पहले जैसी ही रही।

RBSE Class 11 Drawing Notes Chapter 6 मंदिर स्थापत्य और मूर्तिकला 

→ मंदिर की श्रेणियां:
भारत में मंदिरों की दो श्रेणियों को जाना जाता है

  • उत्तर भारत की नागर शैली और 
  • दक्षिण भारत की द्रविड़ शैली।
  • एक अन्य शैली बेसर शैली भी बताई जाती है जो उक्त दोनों का मिश्रित रूप है।

इन परम्परागत प्रमुख श्रेणियों के अन्तर्गत और भी कई उप-श्रेणियां आती हैं।

→ मूर्तिकला, मूर्तिविद्या और अलंकरण

  • मूर्ति विद्या के अन्तर्गत कतिपय प्रतीकों और पुराणों के आधार पर मूर्ति की पहचान की जाती है।
  • प्रत्येक क्षेत्र और काल में मूर्ति विद्या (प्रतिमा विद्या) में अनेक स्थानीय परिवर्तन आते रहे हैं । मूर्तिकला तथा अलंकरण शैली में व्यापकता आती गयी और देवी-देवताओं के रूप उनकी कथाओं के अनुसार बनते-बदलते रहे।
  • मंदिर में मूर्ति की स्थापना की योजना बड़ी सूझ-बूझ के साथ बनाई जाती रही।
  • मुख्य देवता के विभिन्न रूपों को गर्भगृह के बाहरी दीवारों पर दर्शाया जाता है । अष्ट दिग्पात्रों को बाहरी दीवारों पर अपनी-अपनी दिशा की ओर अभिमुख किया जाता है। मुख्य देवालयों की चारों दिशाओं में छोटे देवालय होते हैं।
  • अलंकरण के विविध रूपों का भी प्रयोग मंदिर में विविध स्थानों तथा तरीकों से किया जाता है। 

→ नागर या उत्तर भारतीय मंदिर शैली

  • वेदी-उत्तर भारत में मंदिर स्थापत्य की शैली को नागर शैली कहा जाता है। इसमें सम्पूर्ण मंदिर एक विशाल चबूतरे (वेदी) पर बनाया जाता है और उस तक पहुँचने के लिए सीढ़ियां होती हैं।
  • रेखा प्रसाद-मंदिर में एक घुमावदार गुम्बद होता है जिसे शिखर कहा जाता है। आगे चलकर इन मंदिरों में कई शिखर होते हैं । गर्भगृह का शिखर सबसे ऊँचा होता है।
  • नागर मंदिर उनके शिखरों के रूपाकार के अनुसार कई उप श्रेणियों में विभाजित किए जा सकते हैं । एक साधारण शिखर को प्रायः रेखा प्रसाद कहा जाता है।
  • फमसाना भवन-नागर में एक दूसरा प्रमुख वास्तु रूप है-फमसाना किस्म के भवन जो रेखा प्रसाद की तुलना में अधिक चौड़े और ऊँचाई में कुछ छोटे होते हैं।
  • वलभी-वलभी, नागर शैली की एक उपश्रेणी कहलाती है। इस श्रेणी के वर्गाकार मंदिर में मेहराबदार छतों से शिखर का निर्माण होता है । मेहराबी कक्ष का किनारा गोल तथा यह शकटाकार होता है। मंदिर का यह रूप पांचवीं सदी से पहले बनाये जाने वाले प्राचीन भवन रूपों से प्रभावित था। 

→ मध्य भारत
1. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान के सभी प्राचीन मंदिर बलुआ पत्थर के बने हुए हैं।

2. गुप्तकालीन प्राचीन संरचनात्मक मंदिर मध्यप्रदेश में पाए जाते हैं जो साधारण किस्म के आडंबरहीन पूजा स्थल हैं। इसमें चार खंभों पर टिका एक छोटा मंडप होता है जिसके आगे एक छोटा सा कक्ष, गर्भगृह, होता है। ऐसे दो मंदिर आज बचे हुए हैं, उनमें एक उदयगिरि में है और दूसरा सांची के स्तूप के निकट स्थित है।

3. देवगढ़ (उत्तर प्रदेश) का मंदिर छठी शताब्दी का है, जो उदयगिरि और सांची के छोटे मंदिरों से लगभग 100 साल बाद बना था। यह गुप्तकालीन मंदिर स्थापत्य का श्रेष्ठ उदाहरण माना जाता है। यह मंदिर वास्तुकला की पंचायन शैली में निर्मित हुआ है। इसका शिखर रेखा-प्रसाद शैली का है। यह मंदिर श्रेष्ठ नागर शैली का आरंभिक उदाहरण है।

यह मंदिर पश्चिमाभिमुख है, जबकि अधिकांश मंदिरों का मुख पूर्व या उत्तर की ओर होता है। दूसरे, इसमें परिक्रमा दक्षिण से पश्चिम की ओर की जाती है जबकि आजकल प्रदक्षिणा दक्षिणावर्त (Clockwise) की जाती है। इसमें विष्णु के अनेक रूप प्रस्तुत किए गए हैं।

4. खजुराहो के मंदिर

  • चंदेल राजाओं द्वारा निर्मित खजुराहो के मंदिर देवगढ़ के मंदिर से लगभग 400 वर्ष बाद दसवीं शताब्दी में बनाए गए थे। इनको देखने से ज्ञात होता है कि मंदिर वास्तुकला की नागर शैली और रूप में नाटकीय रूप से अत्यधिक विकास हो गया था।
  • लक्ष्मण मंदिर-खजुराहो का लक्ष्मण मंदिर विष्णु को समर्पित है। यह 954 ई. में बनाया गया। यह मंदिर एक ऊँची वेदी पर बना है, उस तक पहुँचने के लिए सीढ़ियां हैं, कोनों में चार छोटे देवालय हैं, गगनचुम्बी शिखर है, शिखर के अन्त में आमलक है जिस पर एक कलश स्थापित है। मंदिर में आगे निकले हुए बारजे और बरामदे हैं। इस प्रकार यह देवगढ़ के मंदिर से बहुत ही अलग किस्म का है।
  • खजुराहो के कंदरिया महादेव के विशाल मंदिर के स्थापत्य एवं मूर्तिकला में मध्यकालीन भारतीय मंदिर निर्माण के वे सभी लक्षण विद्यमान हैं जिनके लिए मध्य भारत की स्थापत्य कला की श्रेष्ठता जानी जाती है।
  • खजुराहो के मंदिर अपनी कामोद्दीप एवं शृंगार प्रधान प्रतिमाओं के लिए भी प्रसिद्ध हैं।
  • खजुराहो की प्रतिमाओं की अपनी एक खास शैली है, जिसके कुछ विशिष्ट लक्षण हैं, जैसे-वे अपने | पूरे उभार के साथ हैं, वे आस-पास के पत्थर से काटकर बनाई गई हैं, उनकी नाक तीखी है, ठुड्डी बढ़ी हुई है, आँखें लम्बी और भौंहें लंबी मुड़ी हुई हैं।
  • खजुराहो में बहुत से मंदिर हैं। उनमें से अधिकांश हिन्दू देवी-देवताओं के हैं और कुछ जैन मंदिर भी हैं। इनमें से चौंसठ योगिनी मंदिर उल्लेखनीय है। ऐसे बहुत से योगिनी पंथ को समर्पित मंदिर मध्य प्रदेश, ओडिशा और दक्षिण में तमिलनाडु तक 7वीं से 10वीं सदी के बीच यत्र-तत्र बनाए गए थे।

RBSE Class 11 Drawing Notes Chapter 6 मंदिर स्थापत्य और मूर्तिकला

→ पश्चिमी भारत

  • पश्चिमी भारत के क्षेत्र में गुजरात और राजस्थान शामिल हैं, कभी-कभी पश्चिमी मध्य प्रदेश को भी इसमें शामिल कर लिया जाता है।
  • इस क्षेत्र में अत्यधिक मंदिर हैं जो रंग और किस्म दोनों की दृष्टि से अनेक प्रकार के पत्थरों से बने हैं। इनमें बलुआ पत्थर, मुलायम चिकना संगमरमर, धूसर/स्लेटी से काले बेसाल्ट आदि का प्रयोग हुआ है।
  • इस क्षेत्र के अत्यन्त महत्वपूर्ण कला-ऐतिहासिक स्थलों में एक है-गुजरात में शामलाजी, दूसरा है| मोठेरा (गुजरात) का सूर्य मंदिर।

→ पूर्वी भारत
पूर्वी भारत के मंदिरों में वे सभी मंदिर शामिल हैं जो पूर्वोत्तर क्षेत्र, बंगाल और ओडिशा में पाए जाते हैं।
असम-इस क्षेत्र में छठी शताब्दी से दसवीं शताब्दी तक गुप्तकालीन शैली पाल शैली जारी रही। किन्तु 12वीं से 14वीं शताब्दी के बीच में गुवाहाटी और आस-पास के क्षेत्र में 'अहोम शैली' का विकास हुआ।
बंगाल

  • बिहार और बंगाल में नौवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच की अवधि में निर्मित प्रतिमाओं की शैली को पाल शैली कहा जाता है।
  • 11वीं शताब्दी के मध्य भाग से 13वीं सदी के मध्य भाग तक निर्मित्त मूर्तियों की शैली को सेन शासकों के नाम पर सेन शैली कहा जाता है।
  • बराकड़ नगर के पास स्थित नौवीं शताब्दी का सिद्धेश्वर महादेव मंदिर आरंभिक पाल शैली का अच्छा उदाहरण है।
  • नौवीं से 12वीं शताब्दी के बीच अनेक भवन, पुरलिया जिले में तेलकुपी स्थान पर स्थित हैं । उनसे पता चलता है कि तत्कालीन कलाकार उन सभी शेष नागर उपशैलियों से परिचित थे, जो उस समय उत्तर भारत में प्रचलित थे।
  • बंगाल की अनेक स्थानीय भवन निर्माण की परम्पराओं ने भी उस क्षेत्र की मंदिर शैली को प्रभावित किया। बंगाली झोंपड़ी इसका उदाहरण है जिसे सम्पूर्ण भारत में बंगला छत कहा जाता है। 
  • बंगला छत (बंगाली झोंपड़ी) शैली में पाल शैली के बचे-खुचे पुराने रूपों और मुस्लिम वास्तुकला के मेहराबों और गुंबदों के रूपों को भी शामिल कर लिया गया। उदाहरण 17वीं सदी के विष्णुपुर, बांकुड़ा वर्द्धमान भवन।

→ ओडिशा
(1) ओडिशा की वास्तुकला की मुख्य विशेषताओं को तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है-

  • रेखा पीड़,
  • ढाडकेव और
  • खाकरा।

(2) वहाँ के अधिकांश ऐतिहासिक स्थल पुराना भुवनेश्वर, पुरी और कोणार्क के इलाके शामिल हैं।

(3) ओडिशा के मंदिरों की शैली, नागर शैली की एक उप शैली है जिसमें शिखर (देवल) चोटी तक तो बिल्कुल सीधा होता है, लेकिन चोटी पर जाकर अचानक तेजी से भीतर की ओर मुड़ जाता है। इन मंदिरों में जगमोहन, वर्गाकार भूमि योजना, लाट बेलनाकार, चहारदीवारी आदि होते हैं, बाहरी भाग अत्यन्त उत्कीर्ण और भीतरी भाग खाली होता है। कोणार्क का भव्य सूर्य मंदिर इसका उदाहरण है।

→ पहाड़ी क्षेत्र
(1) कुमाऊँ, गढ़वाल, हिमाचल और कश्मीर की पहाड़ियों में वास्तुकला का एक अनोखा रूप विकसित हुआ।

(2) पांचवीं शताब्दी तक आते-आते कश्मीर की कला पर गांधार शैली का प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगा। इसके बाद उसमें गुप्तकालीन और गुप्तोत्तर परम्पराएं जुड़ीं। हिन्दू-बौद्ध परम्पराएं भी आपस में मिलीं और पहाड़ी इलाकों तक पहुँच गईं। स्वयं पहाड़ी क्षेत्रों की भी अपनी एक अलग परम्परा थी। इस प्रकार पहाड़ी क्षेत्रों में मुख्य गर्भगृह और शिखर तो रेखा प्रसाद शैली में बने होते हैं जबकि मंडप काष्ठवास्तु के एक पुराने रूप में होता है। कभी-कभी मंदिर स्वयं पैगोडा (स्तूप) की सूरत ले लेता है।
कश्मीर का कारकोटा काल वास्तुकला की दृष्टि से उल्लेखनीय है। उन्होंने बहुत से मंदिर बनवाए जिनमें पंड्रेथान में निर्मित मंदिर सर्वाधिक महत्वपूर्ण है जो आठवीं और नौवीं सदी में बनाए गए थे। इनमें पंडेरनाथ का मंदिर अधिक उल्लेखनीय है।

(3) चम्बा में मिली प्रतिमाओं में स्थानीय परम्पराओं का गुप्तोत्तर शैली के साथ संगम दिखाई देता है। महिषासुर मर्दिनी और नरसिंह की प्रतिमाएं इसका उदाहरण हैं। जिनमें धातु प्रतिमा परम्परा और सौंदर्य शैली का सम्मिलन है। कुमाऊँ के मंदिरों में अल्मोड़ा के पास गजेश्वर और पिथौरागढ़ के पास चंपावत मंदिर नागर वास्तुकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।

→ दविड़ या दक्षिण भारतीय मंदिर शैली

  • द्रविड़ मंदिर चारों ओर एक चारदीवारी से घिरा होता है जिसके बीच में गोपुरम (प्रवेश-द्वार) होता
  • मंदिर के गुम्बद का रूप (विमान) एक सीढ़ीदार पिरामिड की तरह होता है जो ऊपर की ओर ज्यामितीय रूप से उठा होता है।
  • शिखर एक छोटी स्तूपिका या एक अष्टमुखी गुमटी जैसी होती है।
  • इनमें प्रायः भयानक द्वारपालों की प्रतिमाएं खड़ी की जाती हैं।
  • मंदिर के अहाते में कोई बड़ा जलाशय या तालाब होता है।
  • उप-देवालय होते हैं।
  • मुख्य मंदिर, जिसमें गर्भगृह बना होता है, उसका गुम्बद सबसे छोटा होता है।
  • तमिलनाडु में कांचिपुरम, तंजावुर, मदुरई और कुंभकोणम् सबसे प्रसिद्ध मंदिर नगर हैं।

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→ दविड़ मंदिरों की उप श्रेणियां-द्रविड़ मंदिरों की भी कई उप श्रेणियां हैं।
इनकी मूल आकृतियां पांच प्रकार की होती हैं

  • वर्गाकार,
  • आयताकार,
  • अंडाकार,
  • वृत्त और
  • अष्टास्त्र।

आगे चलकर इन भिन्न-भिन्न रूपों का कहीं-कहीं मिश्रण हो गया और उनके मेल से नए-नए रूप विकसित हो गए।

→ पल्लव वंश-पल्लव वंश दक्षिण भारत का एक पुराना राजवंश था। पल्लव राजा अधिकतर शैव थे, लेकिन उनके शासनकाल के अनेक वैष्णव मंदिर आज भी मौजूद हैं । वे दक्कन के लम्बे बौद्ध इतिहास से भी प्रभावित थे।
पल्लवों में नरसिंहवर्मनं प्रथम ने (640 ई. के आस-पास) महाबलीपुरम् में अनेक भवनों का निर्माण कराया। चूंकि नरसिंहवर्मन प्रथम को मामल्ल भी कहा जाता था, इसलिए महाबलीपुरम् को मामल्लपुरम् भी कहा गया है।

→ महाबलीपुरम् का तटीय मंदिर नरसिंहवर्मन द्वितीय (राजसिंह) के द्वारा 700-728 ई. में बनवाया गया। इस मंदिर में तीन देवालय हैं जिसमें दो शिवालय और इनके बीच में विष्णु का मंदिर है। मंदिर के अहाते में कई जलाशय, एक गोपुरम् तथा कई अन्य प्रतिमाए हैं। मंदिर की दीवारों पर शिव के वाहन नन्दी बैल की प्रतिमाएं हैं।

→ चोलवंश-तंजावुर का भव्य शिव मंदिर जिसे वृहदेश्वर मंदिर कहा जाता है, समस्त भारतीय मंदिरों में सबसे बड़ा और ऊँचा है। इसका निर्माण चोल राजाओं द्वारा कराया गया। इसका बहुमंजिला विमान 70 मीटर ऊँचा है जिसकी चोटी पर एकाश्म शिखर अष्टभुज गुंबद की शक्ल की स्तूपिका में है। यहाँ दो बड़े गोपुर हैं, शिखर के कोनों में नंदी की विशाल प्रतिमाएं हैं। चोटी पर कलश है तथा सैकड़ों आकृतियां विमान पर हैं। मंदिर के प्रमुख देवता शिव हैं । गर्भगृह के चारों ओर की दीवारें पौराणिक आख्यानों से ओत-प्रोत हैं।

→ दक्कन की वास्तुकला
(i) कर्नाटक के मंदिरों में नागर और द्रविड़ शैलियों की मिश्रित शैली का उपयोग हुआ जो सातवीं सदी में लोकप्रिय हुई। इस शैली को बेसर शैली के नाम से जाना जाता है। चालुक्य शासकों ने यहाँ 543 ई. से आठवीं सदी के मध्य तक शासन किया। आरंभिक चालुक्यों ने पहले शैलकृत गुफाएं बनाईं और फिर उन्होंने संरचनात्मक मंदिर बनवाए। बादामी में पाई गई गुफाओं में यह महत्वपूर्ण प्रतिमाओं में से एक नटराज की मूर्ति है। चालुक्य मंदिरों में सर्वोत्तम उदाहरण पट्टडकल स्थित विरुपाक्ष मंदिर है। यह मंदिर द्रविड़ परम्परा का सर्वोत्तम उदाहरण है।

(ii) 7वीं सदी के अन्त और 8वीं सदी के प्रारंभ में एलोरा की परियोजना भव्य बन गई। यह राष्ट्रकूट शासकों ने बनवाए।
एलोरा का कैलाशनाथ मंदिर पूर्णतया द्रविड़ शैली में निर्मित है। यह एक जीवन्त शैल खंड पर उकेर कर बनाया गया है। एलोरा में राष्ट्रकूटकालीन वास्तुकल गतिशील है, आकृतियां असल कद से बड़ी हैं तथा अनुपम भव्यता और ऊर्जा से ओत-प्रोत हैं।

(iii) अन्य चालुक्य मंदिरों की परम्परा के विपरीत बादामी से मात्र 5 किमी. की दूरी पर स्थित महाकूट मंदिर तथा आलमपुर स्थित स्वर्ग ब्राह्म मंदिर में राजस्थान और ओडिसा की उत्तरी नागर शैली की झलक देखने को मिलती है। इसी प्रकार एहोल (कर्नाटक) क़ा दुर्गा मंदिर भी गजपृष्ठाकार बौद्ध चैत्यों के समान शैली में निर्मित है।
इस प्रकार एक ही स्थान बादामी व उसके आस-पास भिन्न-भिन्न शैलियों के मंदिर बने।

(iv) चोलों और पांड्यों की शक्ति के अवसान के साथ कर्नाटक के होयसलों ने दक्षिण भारत में प्रमुखता प्राप्त कर ली। उनकी सत्ता का केन्द्र मैसूर था। वेलूर, हलेबिड और सोमनाथपुरम् के मंदिर इस काल के मंदिरों में प्रमुखतः उल्लेखनीय हैं। इन मंदिरों की योजना को 'तारकीय योजना' कहा जाता है। हलेबिड में स्थित होयसलेश्वर मंदिर होयसल नरेश द्वारा 1150 ई. में बेसर शैली में बनवाया गया। हलेबिड का मंदिर नटराज के रूप में शिव को समर्पित है।

(v) सन् 1336 में स्थापित विजयनगर में वास्तुकला की दृष्टि से सदियों पुरानी द्रविड़ वास्तु शैलियों और पड़ौसी सल्तनतों द्वारा प्रस्तुत इस्लामिक प्रभावों का संश्लिष्ट रूप मिलता है। इनकी मूर्तिकला पर चोल आदर्शों के साथ विदेशी कला की उपस्थिति दिखाई देती है।

→ बौद्ध वास्तुकला की प्रगति
(1) पांचवीं से 14वीं शताब्दियों के दौरान बौद्ध और जैन वास्तुकला ने भी हिन्दू वास्तुकला के साथ कदम से कदम मिलाकर प्रगति की है।

(2) बोधगया का महाबोध मंदिर-यह सर्वप्रथम सम्राट अशोक ने बनवाया था। मंदिर के भीतर आलोंदीवालों में रखी प्रतिमाएं पाल राजाओं के शासनकाल में आठवीं शताब्दी में बनाई गई थीं, लेकिन वर्तमान मंदिर औपनिवेशिक काल में अपने 7वीं सदी के पुराने रूप में बनाया गया था। यह मंदिर नागर मंदिर की तरह संकरा है और द्रविड़ मंदिर की तरह बिना मोड़ सीधे ऊपर की ओर उठा हुआ है।

(3) मूर्तिकला की नालंदा शैली-नालंदा का मठीय विश्वविद्यालय एक महाविहार है। ह्वेनचांग के लेख के अनुसार, एक मठ की नींव कुमारगुप्त द्वारा पांचवीं सदी में रखी गई थी और निर्माण कार्य बाद के सम्राटों के शासनकाल में भी चलता रहा। यहाँ बौद्ध धर्म के तीन सम्प्रदायों-थेरवाद, महायान और वज्रयान-के सिद्धान्त पढ़ाये जाते थे।

  • नालंदा की गजकारी, पत्थर और कांस्य मूर्ति बनाने की कला, सारनाथ की गुप्तकालीन बौद्धकला से विकसित हुई। नौवीं शताब्दी तक आते-आते सारनाथ की गुप्तकालीन शैली और बिहार की स्थानीय परम्परा तथा मध्य भारत की परम्परा के संश्लेषण से एक नई शैली-मूर्तिकला की नालंदा शैली-का जन्म हुआ।
  • इसकी विशेषताएं हैं-प्रतिमाओं को सोच-समझकर अत्यन्त व्यवस्थित रूप से गढ़ना, प्रतिमाएं त्रिआयामी रूपों में बनाई गई हैं। प्रतिमाओं के पीछे पटिया विस्तृत है तथा अलंकार सुकोमल और बारीक है।

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→ नालंदा की कांस्य मर्तियों का काल सातवीं और आठवीं शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक का है। ये कांस्य प्रतिमाएं भी पत्थर की प्रतिमाओं की तरह प्रारंभ में सारनाथ और मथुरा की गुप्त परम्पराओं पर अधिक निर्भर थीं।

  • नालंदा की प्रतिमाएं प्रारंभ से महायान सम्प्रदाय के बौद्ध देवी-देवताओं का प्रतिरूपण करती थीं।।
  • 11वीं और 12वीं शताब्दियों में इन मूर्तियों में वज्रयान सम्प्रदाय के देवी-देवताओं का बोलबाला हो गया।
  • बुद्ध की मुकुटधारी प्रतिमाओं का प्रतिरूपण 12वीं शताब्दी के बाद शुरू हुआ।
  • छत्तीसगढ़ में स्थित सीरपुर में छठी से आठवीं शताब्दी के ओडिशी शैली में हिन्दू तथा बौद्ध दोनों प्रकार के देवालय थे। इनमें पायी जाने वाली बौद्ध प्रतिमाओं के रूप नालंदा की प्रतिमाओं जैसे ही हैं।
  • नागपट्टम (तमिलनाडु) का पट्टननगर चोलकाले तक बौद्ध धर्म और कला का एक प्रमुख केन्द्र बना रहा। चोल शैली की कांस्य और पत्थर की प्रतिमाएं नागपट्टम में पाई जाती हैं।

→ जैन वास्तकला की प्रगति
जैनियों ने भी अपने बड़े-बड़े मंदिर बनवाए और अनेक मंदिर और तीर्थ समस्त भारत में पाए जाते हैं जो आरंभिक बौद्ध पूजा स्थलों के रूप में प्रसिद्ध हैं।

  • दक्कन में एलोरा और एहोल वास्तुकला की दृष्टि से प्रसिद्ध हैं।
  • मध्य भारत में देवगढ़, खजुराहो, चंदेरी और ग्वालियर में उत्कृष्ट जैन मंदिर हैं।
  • कर्नाटक के जैन मंदिरों में गोमटेश्वर में भगवान बाहुबली की ग्रेनाइट पत्थर की मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
  • चामुण्डराय द्वारा बनवाई गई श्रवणबेलगोला स्थित विशाल प्रतिमा उल्लेखनीय है।
  • राजस्थान में माउंट आबू पर स्थित बढ़िया संगमरमर के जैन मंदिर विमलशाह द्वारा बनवाये गये थे। इस मंदिर की प्रसिद्धि का कारण इसकी भीतरी छत पर बेजोड़ नमूने तथा इसकी गुंबद वाली छतों के साथ-साथ सुंदरसुंदर आकृतियों का होना है।
  • गुजरात में काठियावाड़ में पालिताना के निकट शत्रुजय की पहाड़ियों में बीसियों दर्शनीय जैन मंदिर हैं।
Prasanna
Last Updated on Aug. 4, 2022, 3:03 p.m.
Published Aug. 4, 2022