RBSE Class 11 Business Studies Important Questions Chapter 2 व्यावसायिक संगठन के स्वरूप

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RBSE Class 11 Business Studies Important Questions Chapter 2 व्यावसायिक संगठन के स्वरूप

बहुचयनात्मक प्रश्न-
 
प्रश्न 1. 
ढाँचे जिसमें स्वामित्व एवं प्रबन्ध पृथक्-पृथक् होते हैं वह .............. कहलाता है। 
(क) एकल स्वामित्व
(ख) साझेदारी 
(ग) कम्पनी 
(घ) सभी व्यावसायिक संगठन। 
उत्तर:
(ग) कम्पनी

प्रश्न 2. 
संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय में कर्ता का दायित्व ................ होता है। 
(क) सीमित 
(ख) असीमित 
(ग) ऋणों के लिए कोई दायित्व नहीं 
(घ) संयुक्त। 
उत्तर:
(ख) असीमित

प्रश्न 3. 
सहकारी समितियों में जिस सिद्धान्त का अनुपालन किया जाता है ........... वह है। 
(क) एक अंश एक वोट
(ख) एक व्यक्ति एक वोट 
(ग) वोट नहीं 
(घ) बहु (अनेक) वोट। 
उत्तर:
(ख) एक व्यक्ति एक वोट

प्रश्न 4. 
संयुक्त पूँजी कम्पनी के निदेशक मण्डल का चुनाव .............. के द्वारा होता है। 
(क) सामान्य जन 
(ख) सरकारी संस्थाएँ 
(ग) अंशधारक 
(घ) कर्मचारी। 
उत्तर:
(ग) अंशधारक

प्रश्न 5. 
लाभ का बँटवारा आवश्यक नहीं। यह कथन ............... से सम्बन्धित है। 
(क) साझेदारी 
(ख) संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय 
(ग) एकल स्वामित्व 
(घ) कम्पनी। 
उत्तर:
(ग) एकल स्वामित्व

प्रश्न 6. 
कम्पनी की पूँजी विभिन्न संख्याओं में विभक्त होती है जिसका प्रत्येक भाग कहलाता है। 
(क) लाभांश 
(ख) लाभ 
(ग) ब्याज 
(घ) अंश। 
उत्तर:
(घ) अंश।

प्रश्न 7. 
संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय के मुखिया को ................ कहते हैं। 
(क) स्वामी 
(ख) निदेशक 
(ग) कर्त्ता 
(घ) प्रबन्धक। 
उत्तर:
(ग) कर्त्ता

प्रश्न 8. 
सदस्यों को उचित मूल्य पर आवासीय स्थान उपलब्ध कराना ................... का उद्देश्य है। 
(क) उत्पादक सहकारी समिति 
(ख) उपभोक्ता सहकारी समिति 
(ग) आवास सहकारी समिति 
(घ) ऋण सहकारी समिति। 
उत्तर:
(ग) आवास सहकारी समिति

प्रश्न 9. 
एक साझेदार जिसके फर्म से सम्बन्ध के बारे में जनता अपरिचित है ................ कहलाता है 
(क) सक्रिय साझेदार 
(ख) सुषुप्त साझेदार 
(ग) नाम-मात्र साझेदार 
(घ) गुप्त साझेदार। 
उत्तर:
(घ) गुप्त साझेदार।

प्रश्न 10. 
एकाकी व्यापार में दायित्व होता है- 
(क) असीमित 
(ख) सीमित 
(ग) नहीं होता है 
(घ) कोई नहीं। 
उत्तर:
(क) असीमित

प्रश्न 11. 
व्यवसाय के स्वामित्व का सबसे पुराना स्वरूप है- 
(क) संयुक्त पूँजी कम्पनी 
(ख) साझेदारी व्यवसाय 
(ग) सहकारी संगठन 
(घ) एकल व्यवसाय। 
उत्तर:
(घ) एकल व्यवसाय।

प्रश्न 12. 
संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय का प्रमुख लक्षण है- 
(क) कर्ता का व्यवसाय पर नियन्त्रण 
(ख) व्यवसाय में निरन्तरता 
(ग) नाबालिग व्यवसाय का सदस्य होना 
(घ) उपर्युक्त सभी। 
उत्तर:
(घ) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 13. 
वह साझेदार जो फर्म के दिन-प्रतिदिन के कार्यों में सक्रिय रूप से भाग नहीं लेता है, कहलाता है- 
(क) सक्रिय साझेदार 
(ख) निष्क्रिय साझेदार 
(ग) उप-साझेदार 
(घ) नाममात्र का साझेदार। 
उत्तर:
(ख) निष्क्रिय साझेदार

प्रश्न 14. 
'पारस्परिक सहायता द्वारा स्वयं की सहायता' यह किस संगठन का मुख्य आदर्श है- 
(क) एकाकी संगठन का 
(ख) संयुक्त पूँजी कम्पनी का 
(ग) सहकारी संगठन का
(घ) उपर्युक्त में से कोई नहीं। 
उत्तर:
(ग) सहकारी संगठन का

प्रश्न 15. 
कम्पनी संगठन का लाभ है-
(क) स्थायी अस्तित्व 
(ख) लाभों का बराबर विभाजन 
(ग) अवयस्क के हितों की रक्षा 
(घ) अल्पमत को संरक्षण। 
उत्तर:
(क) स्थायी अस्तित्व

प्रश्न 16. 
निजी कम्पनी में अधिकतम संख्या कितनी हो सकती है। 
(क) 200 
(ख) 50 
(ग) असीमित 
(घ) 10
उत्तर:
(क) 200

रिक्त स्थान वाले प्रश्न 
निम्न रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए-

 
1. छोटे व्यवसाय के लिए ......................... अत्यन्त उयुक्त प्रारूप है। (एकाकी व्यापार/साझेदारी) 
2. .................... में नाबालिग भी व्यवसाय के सदस्य हो सकते हैं। (सहकारी संगठन/संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय) 
3. वर्तमान में किसी साझेदारी संगठन में अधिकतम ..........................सदस्य हो सकते हैं। (20/50) 
4. किसी भवन के निर्माण या कोई कार्य करने के लिए .......... .....स्थापित की जाती है। (सामान्य साझेदारी/विशिष्ट साझेदारी) 
5. ...................... एक व्यक्ति एक वोट के सिद्धान्त से शासित होती है। (संयुक्त पूंजी कम्पनी/सहकारी समिति) 
6. कम्पनी संगठन .......................... द्वारा शासित होते हैं। (कम्पनी अधिनियम, 1956/कम्पनी अधिनियम, 2013) 
उत्तर:
1. एकाकी व्यापार 
2. संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय 
3. 50 
4. विशिष्ट साझेदारी 
5. सहकारी समिति 
6. कम्पनी अधिनियम, 2013

सत्य/असत्य कथन वाले प्रश्न 
निम्न में से सत्य/असत्य कथन बतलाइये-

1. एकल व्यवसायी को व्यवसाय से सम्बन्धित निर्णय लेने की बहुत अधिक स्वतन्त्रता नहीं होती है। 
2. संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय विशेष प्रकार का संगठन प्रारूप है जो केवल भारत में ही पाया जाता है। 
3. संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति में विवाहित पुत्री को समान अधिकार है। 
4. नाममात्र का साझेदार भी साझेदारी फर्म में पूँजी लगाता है। 
5. भारतीय साझेदारी अधिनियम, 1932 के अनुसार किसी साझेदारी फर्म का पंजीयन करवाना अनिवार्य है। 
6. सहकारी समिति लोकतंत्र एवं धर्मनिरपेक्षता का उदाहरण है। 
7. सार्वजनिक कम्पनी में सदस्यों की अधिकतम सीमा पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। 
उत्तर:
1. असत्य 
2. सत्य 
3. सत्य 
4. असत्य 
5. असत्य 
6. सत्य 
7. सत्य 

मिलान करने वाले प्रश्न 
निम्न को सुमेलित कीजिए-

RBSE Class 11 Business Studies Important Questions Chapter 2 व्यावसायिक संगठन के स्वरूप 1
उत्तर:
RBSE Class 11 Business Studies Important Questions Chapter 2 व्यावसायिक संगठन के स्वरूप 2

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न-
 
प्रश्न 1. 
एकल स्वामित्व वाला व्यवसाय किसे कहते हैं? 
उत्तर:
एकल स्वामित्व वाले प्रारूप में स्वामित्व, प्रबन्ध एवं नियन्त्रण एक ही व्यक्ति के हाथ में होता है तथा वही सम्पूर्ण लाभ पाने का अधिकारी तथा हानि के लिए उत्तरदायी होता है। 

प्रश्न 2. 
एकल स्वामित्व के दो लक्षण लिखिए। 
उत्तर:

  • व्यवसाय की स्थापना एवं उसका समापन दोनों ही सरल। 
  • व्यवसाय में निर्णय लेने का पूरा अधिकार एकल स्वामी के पास। 

प्रश्न 3. 
एकल स्वामित्व स्वरूप का प्रबन्ध एवं संचालन मितव्ययी कैसे है? 
उत्तर:
एकल स्वामित्व स्वरूप में स्वामी स्वयं प्रबन्धकीय कार्यों का निष्पादन करता है, स्वयं ही सारी नीतियाँ निर्धारित कर उन्हें क्रियान्वित करता है। 

प्रश्न 4. 
एकल स्वामित्व स्वरूप के कोई दो प्रमुख गुण बतलाइए। 
उत्तर:

  • शीघ्र निर्णय लेना सम्भव, 
  • सूचनाओं की गोपनीयता।

प्रश्न 5. 
एकल स्वामित्व स्वरूप का कार्यक्षेत्र सीमित होने के दो कारण लिखिए। 
उत्तर:

  • स्वामित्व एवं प्रबन्ध अकेले एकाकी व्यापारी को ही करने होते हैं। 
  • पूँजी की व्यवस्था भी अकेले एकाकी व्यापारी को ही करनी होती है।

प्रश्न 6. 
एकल स्वामी का दायित्व असीमित होता है। इसका क्या अर्थ है? 
उत्तर:
यदि व्यवसाय की सम्पत्तियाँ सभी ऋणों के भुगतान के लिए पर्याप्त नहीं हैं तो स्वामी इन ऋणों के भुगतान के लिए व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होगा। 
 
प्रश्न 7. 
संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय से आपका क्या तात्पर्य है? 
उत्तर:
इसका तात्पर्य उस व्यवसाय से है जिसका स्वामित्व एवं संचालन संयुक्त हिन्दू परिवार के सदस्य करते हैं। 

प्रश्न 8. 
संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय का प्रशासन किस कानून के द्वारा होता है? 
अथवा 
संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय किस अधिनियम से शासित होता है? 
उत्तर:
संयक्त हिन्द परिवार व्यवसाय का प्रशासन हिन्द उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के द्वारा होता है। 

प्रश्न 9. 
संयुक्त परिवार में जन्म लेने वाला व्यक्ति कब तक व्यवसाय में सदस्य बना रह सकता है? 
उत्तर:
संयुक्त परिवार विशेष में जन्म लेने वाला व्यक्ति जन्म लेते ही परिवार के व्यवसाय का सदस्य बन जाता है और वह तीन पीढ़ियों तक व्यवसाय का सदस्य रह सकता है। 

प्रश्न 10. 
संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय के कोई दो लक्षण बतलाइए। 
उत्तर:

  • कर्ता को छोड़कर अन्य सभी सदस्यों का दायित्व उनके अंश तक ही सीमित। 
  • संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय पर कर्ता का ही नियन्त्रण।

प्रश्न 11. 
सह-समांशी किसे कहते हैं। 
उत्तर:
संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय में सभी सदस्यों को पूर्वजों की सम्पत्ति पर बराबर का स्वामित्व होता है, उन्हें ही सह-समांशी कहा जाता है। 

प्रश्न 12. 
क्या संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय की सम्पत्ति में विवाहित पुत्री को समान अधिकार प्राप्त हैं। 
उत्तर:
हिन्दू (संशोधन) अधिनियम, 2005 के अनुसार संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति में विवाहित पुत्री को समान अधिकार है। 

प्रश्न 13. 
संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय के कोई दो लाभ बतलाइए। 
उत्तर:

  • व्यवसाय पर प्रभावशाली नियन्त्रण रहना। 
  • व्यवसाय का अस्तित्व स्थायी बना रहता है। 

प्रश्न 14. 
संयक्त हिन्द परिवार व्यवसाय की कोई दो सीमाएँ लिखिए। 
उत्तर:

  • सीमित पूँजी की समस्या, 
  • कर्ता का दायित्व असीमित रहना। 

प्रश्न 15. 
साझेदारी की परिभाषा कीजिए। 
उत्तर:
साझेदारी उन व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्ध को कहते हैं जो ऐसे कारोबार (व्यापार) के लाभ को आपस में बाँटने के लिए सहमत हुए हों, जिसे सबके द्वारा अथवा उन सबकी ओर से किसी व्यक्ति द्वारा चलाया जाता हो। [धारा 4, साझेदारी अधिनियम, 1932] 

प्रश्न 16. 
साझेदारी के दो लक्षण लिखिए। 
उत्तर:

  • दो या दो से अधिक व्यक्तियों द्वारा साझेदारी का निर्माण। 
  • साझेदारों का दायित्व असीमित होना। 

प्रश्न 17. 
व्यावसायिक संगठन का साझेदारी स्वरूप किस अधिनियम द्वारा शासित होता है? 
उत्तर:
व्यावसायिक संगठन का साझेदारी स्वरूप भारतीय साझेदारी अधिनियम, 1932 द्वारा शासित होता है। 

प्रश्न 18. 
एल.एच. हैने की साझेदारी की परिभाषा दीजिए। 
उत्तर:
साझेदारी उन लोगों के बीच का संबंध है जो अनुबन्ध के लिए सर्वथा योग्य हैं तथा जिन्होंने निजी लाभ के लिए आपस में मिलकर एक वैधानिक व्यापार करने का समझौता किया है। (एल.एच. हैने) 

प्रश्न 19. 
प्रतिनिधि साझेदार (होल्डिंग आउट) किसे कहते हैं? 
उत्तर:
यह वह व्यक्ति होता है जो जान-बूझकर फर्म में अपने नाम को प्रयोग करने देता है अथवा अपने आपको इसका प्रतिनिधि मानने देता है। 

प्रश्न 20. 
साझेदारी संगठन के दो लाभ लिखिए। 
उत्तर:

  • साझेदारी संगठन स्वरूप की स्थापना एवं समापन आसान, 
  • सन्तुलित निर्णय लिया जाना सम्भव। 

प्रश्न 21. 
साझेदारी संगठन की दो सीमाएँ लिखिए। 
उत्तर:

  • साझेदारी फर्म के सदस्यों का दायित्व असीमित होता है। 
  • साझेदारी संगठन में स्थायित्व एवं निरन्तरता नहीं होती। 

प्रश्न 22. 
सुप्त या निष्क्रिय साझेदार किसे कहते हैं? 
उत्तर:
जो साझेदार साझेदारी फर्म के दिन-प्रतिदिन के कार्यों में भाग नहीं लेते हैं, फर्म में पूँजी लगाते हैं, उन्हें सुप्त या निष्क्रिय साझेदार कहते हैं। 

प्रश्न 23. 
गुप्त साझेदार किसे कहते हैं? 
उत्तर:
वह साझेदार जिसके फर्म से सम्बन्ध को साधारण जनता नहीं जानती तथा वह पूँजी लगाता है, प्रबन्ध में भाग लेता है, लाभ हानि को बाँटता है तथा लेनदारों के प्रति उसका दायित्व असीमित होता है, गुप्त साझेदार कहलाता है। 

प्रश्न 24. 
विशिष्ट साझेदारी किसे कहते हैं? 
उत्तर:
साझेदारी की रचना यदि किसी विशिष्ट परियोजनाएँ जैसे किसी भवन के निर्माण या कोई कार्य या किसी एक निश्चित अवधि के लिए की जाती है तो उसे विशिष्ट साझेदारी कहते हैं। 

प्रश्न 25. 
सामान्य साझेदारी क्या होती है? 
उत्तर:
ऐच्छिक साझेदारी का निर्माण साझेदारों के इच्छा से होता है। यह उस समय तक चलती रहती है जब तक कि साझेदार द्वारा अलग होने का नोटिस नहीं दिया जाता है। 

प्रश्न 26. 
सीमित साझेदारी क्या होती है? 
उत्तर:
सीमित साझेदारी वह साझेदारी होती है जिसमें कम-से-कम एक साझेदार का दायित्व असीमित तथा शेष साझेदारों का दायित्व सीमित होता है। 

प्रश्न 27. 
साझेदारी फर्म के पंजीकरण का क्या अर्थ है? 
उत्तर:
साझेदारी फर्म के पंजीकरण का अर्थ है फर्म के पंजीयन अधिकारी के पास रहने वाले फर्मों के रजिस्टर में फर्म का नाम तथा सम्बन्धित विवरण की प्रविष्टि करना। 

प्रश्न 28. 
क्या नाबालिग फर्म में साझेदार बन सकता है? 
उत्तर:
नहीं, नाबालिग को फर्म के सभी साझेदारों की सर्वसम्मति से केवल फर्म के लाभों में हिस्सा प्रदान किया जा सकता है। 

प्रश्न 29. 
साझेदारी फर्म का पंजीयन कहाँ कराना होता है? 
उत्तर:
साझेदारी फर्म को उस राज्य के रजिस्ट्रार के पास पंजीकरण कराना होता है जिस राज्य में वह स्थित है। 

प्रश्न 30. 
'सहकारी' शब्द का क्या अर्थ है? 
उत्तर:
'सहकारी' शब्द का अर्थ है किसी साझे उद्देश्य के लिए एक-साथ मिलकर कार्य करना। 

प्रश्न 31. 
सहकारी संगठन की कोई एक परिभाषा दीजिए। 
उत्तर:
सहकारी संगठन एक समिति है, जिसका उद्देश्य सहकारिता के सिद्धान्तों के अनुसार अपने सदस्यों के आर्थिक हितों को प्रोत्साहित करना है। (भारतीय सहकारिता अधिनियम, 1912) 

प्रश्न 32. 
एक सहकारी समिति का पंजीकरण किस अधिनियम के अन्तर्गत होता है? 
उत्तर:
एक सहकारी समिति का पंजीकरण सहकारी समिति अधिनियम, 1912 के अन्तर्गत होता है। 

प्रश्न 33. 
सहकारी संगठन के कोई दो लक्षण लिखिए। 
उत्तर:

  • सदस्यता का स्वैच्छिक होना। 
  • सहकारी समिति का सदस्यों से पृथक् अस्तित्व। 

प्रश्न 34. 
सहकारी समिति के दो लाभ लिखिए। 
उत्तर:

  • प्रत्येक सदस्य को वोट का समान अधिकार प्राप्त होना। 
  • सदस्यों का दायित्व सीमित होना। 

प्रश्न 35. 
सहकारी समिति संगठन की कोई दो सीमाएँ लिखिए। 
उत्तर:

  • सीमित संसाधनों का होना। 
  • असक्षम या अकुशल प्रबन्ध का होना। 

प्रश्न 36. 
सहकारी समितियों के प्रकृति के आधार पर दो प्रकार बतलाइए। 
उत्तर:

  • उपभोक्ता सहकारी समितियाँ। 
  • उत्पादक सहकारी समितियाँ। 

प्रश्न 37. 
कृषक सहकारी समितियों का गठन क्यों किया जाता है? 
उत्तर:
कृषक सहकारी समितियों का गठन किसानों को उचित मूल्य पर आगत उपलब्ध करवाकर उनके हितों की रक्षा करने के लिये किया जाता है। 

प्रश्न 38. 
सहकारी ऋण समितियों की स्थापना का लक्ष्य बतलाइए। 
उत्तर:
सहकारी ऋण समितियों की स्थापना का लक्ष्य अपने सदस्यों को साहूकारों के शोषण से संरक्षण प्रदान करना है जो ऋणों पर ऊँची दर से ब्याज लेते हैं। 

प्रश्न 39. 
व्यावसायिक स्वामित्व का संयुक्त पूँजी कम्पनी प्रारूप किस अधिनियम द्वारा शासित होता है? 
उत्तर:
संयुक्त पूँजी कम्पनी रूपी संगठन कम्पनी अधिनियम, 2013 के द्वारा शासित होते हैं। 

प्रश्न 40. 
कम्पनी की कम्पनी अधिनियम, 2013 की परिभाषा दीजिए। 
उत्तर:
कम्पनी से आशय उन कम्पनियों से है जिनका समामेलन कम्पनी अधिनियम, 2013 में या इससे पूर्व किसी कम्पनी अधिनियम के अन्तर्गत हुआ है। [कम्पनी अधिनियम 2013 की धारा 2(20)] 

प्रश्न 41. 
कम्पनी की परिभाषा दीजिए। 
उत्तर:
संयुक्त पूँजी कम्पनी लाभ के लिए कुछ लोगों का स्वैच्छिक संगठन है जिसकी पूँजी हस्तान्तरणीय अंशों में विभक्त होती है और पूँजी का स्वामित्व कम्पनी सदस्यता की शर्त है। (प्रो. हैने) 

प्रश्न 42. 
संयुक्त पूँजी कम्पनी के दो लक्षण लिखिए। 
उत्तर:

  • विधान द्वारा निर्मित कृत्रिम व्यक्ति। 
  • पृथक् वैधानिक अस्तित्व का होना। 

प्रश्न 43. 
संयुक्त पूँजी कम्पनी संगठन के दो गुण (लाभ) बतलाइए। 
उत्तर:

  • सदस्यों का सीमित दायित्व होना। 
  • कम्पनी का अस्तित्व स्थायी होना। 

प्रश्न 44. 
कम्पनी की दो प्रमुख सीमाएँ लिखिए।
उत्तर:

  • कम्पनी संगठन का निर्माण जटिल। 
  • गोपनीयता की कमी। 

प्रश्न 45. 
संयुक्त पूँजी कम्पनी के प्रमुख प्रकार बतलाइए। 
उत्तर:

  • निजी कम्पनी 
  • सार्वजनिक कम्पनी। 

प्रश्न 46. 
कम्पनी के वास्तविक स्वामी किन्हें माना जाता है? 
उत्तर:
कम्पनी के वास्तविक स्वामी अंशधारकों को माना जाता है। 

प्रश्न 47. 
बैंकिंग व्यवसाय में साझेदारों की अधिकतम संख्या कितनी हो सकती है? 
उत्तर:
बैंकिंग व्यवसाय में अधिकतम 10 साझेदार हो सकते हैं। 

प्रश्न 48. 
सार्वमुद्रा से क्या आशय है?
उत्तर:
सार्वमुद्रा कम्पनी का नाम खुदी हुई मुहर होती है। कम्पनी द्वारा किये गये समझौतों का उसकी सार्वमुद्रा द्वारा अनुमोदन आवश्यक होता है।

प्रश्न 49. 
सदस्यों की मृत्यु, पागलपन, दिवालियापन अथवा अंश हस्तान्तरण का कम्पनी के अस्तित्व पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
इनका कम्पनी के जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है और कम्पनी का मूल अस्तित्व सदैव बना रहता है। 

प्रश्न 50. 
अंशों द्वारा सीमित संयुक्त पूँजी वाली कम्पनी में सदस्य किस सीमा तक उत्तरदायी ठहराये जा सकते हैं? 
उत्तर:
सदस्यों द्वारा खरीदे गये अंशों के अंकित मूल्य तक। यदि अंशधारियों ने अंशों पर कम्पनी को कुछ धन राशि चुका दी है तो अंशों पर बकाया राशि तक। 

प्रश्न 51. 
कम्पनी के पार्षद सीमा नियम पर कितने व्यक्तियों के हस्ताक्षर होने चाहिए? 
उत्तर:
निजी कम्पनी के पार्षद सीमा नियम पर दो सदस्यों तथा सार्वजनिक कम्पनियों के पार्षद सीमा नियम पर सात सदस्यों के हस्ताक्षर होने चाहिए। 

प्रश्न 52. 
व्यावसायिक स्वामित्व के स्वरूप के उचित चयन करते समय ध्यान देने योग्य चार तत्त्वों को लिखिए। 
उत्तर:

  • व्यवसाय का आकार 
  • व्यवसाय की प्रकृति 
  • पूँजी की आवश्यकता 
  • प्रारम्भिक लागत।

प्रश्न 53. 
निजी कम्पनी की न्यूनतम एवं अधिकतम सदस्य संख्या कितनी होती है? 
उत्तर:
निजी कम्पनी की न्यूनतम सदस्य संख्या 2 तथा अधिकतम सदस्य संख्या 50 हो सकती है। 

प्रश्न 54. 
व्यावसायिक संगठन के विभिन्न स्वरूपों के नाम लिखें। 
उत्तर:

  • एकल स्वामित्व 
  • संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय 
  • साझेदारी 
  • सहकारी समिति 
  • संयुक्त पूँजी कम्पनी। 

प्रश्न 55. 
नाममात्र का साझेदार किसे कहते हैं? 
उत्तर:
वह साझेदार जो फर्म में न तो पूँजी लगाता है तथा न ही इसके प्रबन्ध में सक्रिय रूप से भाग लेता है, न ही लाभ-हानि में भागी होता है लेकिन फर्म उसके नाम का प्रयोग करती है तथा वह ऋणों के भुगतान के लिये भी उत्तरदायी होता है, नाममात्र का साझेदार कहलाता है। 

लघूत्तरात्मक प्रश्न-

प्रश्न 1. 
क्या एकल व्यवसाय की स्थापना करना कठिन एवं खर्चीली है? 
उत्तर:
नहीं, एकल व्यवसाय की स्थापना किसी भी समय की जा सकती है। इसकी स्थापना करते समय किसी वाही को करने की आवश्यकता नहीं होती है। इसकी स्थापना करना सबसे आसान है क्योंकि इसे स्थापित करने के लिए शायद ही किसी वैधानिक औपचारिकता को पूरा करने की जरूरत होती है। हाँ, कुछ मामलों में लाइसेन्स की आवश्यकता हो सकती है। किसी भी व्यक्ति के पास थोड़ी-सी भी पूँजी हो तथा व्यवसाय करने की थोड़ी-सी भी जानकारी हो तो एकल व्यवसाय को आसानी से शुरू किया जा सकता है। इसमें व्यवसायी का अपने व्यवसाय पर प्रत्यक्ष प्रबन्ध एवं नियन्त्रण बना रहता है। 

प्रश्न 2. 
एकल व्यवसाय स्वरूप की स्थापना करना कब उपयुक्त माना जाता है? 
उत्तर:
एकल व्यवसाय स्वरूप की स्थापना में निम्न परिस्थितियाँ अधिक उपयुक्त मानी जाती हैं-

  • जिन व्यवसायों में व्यक्तिगत सम्पर्क एवं व्यक्तिगत देखरेख की आवश्यकता हो, जैसे मरम्मत का कार्य। 
  • जिन व्यवसायों में पूँजी की कम आवश्यकता हो जैसे पान की दुकान, नाई की दुकान। 
  • जिन व्यवसायों के प्रबन्ध सामान्य योग्यता द्वारा किये जा सकते हैं, जैसे-खेती, बागवानी आदि। 
  • जिन व्यवसायों में व्यक्तिगत निपुणता, दक्षता आदि की आवश्यकता हो जैसे-अध्यापक, डॉक्टर आदि। 
  • जिन व्यवसायों में वस्तुओं एवं सेवाओं की माँग सीमित हो जैसे फल-सब्जी की दुकान। 
  • जिन व्यवसायों में ग्राहकों की व्यक्तिगत रुचि पर ध्यान देना आवश्यक हो, जैसे-ब्यूटी पार्लर, दर्जी। 

प्रश्न 3. 
एकाकी व्यापार के तीन दोष बतलाइए। 
उत्तर:
एकाकी व्यापार के दोष- 
1.सीमित संसाधन-एकाकी व्यापार में स्वामी के संसाधन उसकी स्वयं की पूँजी तथा दूसरों से लिये जाने वाले ऋण तक ही सीमित रहते हैं। बैंक एवं दूसरे ऋण देने वाले संस्थान एक एकल स्वामी को दीर्घकालीन ऋण देने में संकोच करते हैं। सीमित संसाधन होने के कारण इसके द्वारा किया जाने वाला व्यापार छोटा ही रहता है। 

2. सीमित जीवन काल-एकाकी व्यापार में व्यवसाय एवं स्वामित्व दोनों ही एक माने जाते हैं। स्वामी की मृत्यु, दिवालिया होने तथा बीमारी आदि का व्यवसाय पर प्रभाव पड़ता है। यहाँ तक कि व्यवसाय बन्द भी हो जाता है। 

3. असीमित दायित्व-एकाकी व्यापार में स्वामी का दायित्व असीमित रहता है। यदि व्यवसाय में वह असफल भी रहता है तो लेनदार अपना पैसा केवल व्यवसाय की सम्पत्ति वरन् उसकी निजी सम्पत्ति से भी वसूल कर सकते हैं। यही कारण है कि एकल स्वामी अपने व्यवसाय में परिवर्तन अथवा विस्तार का जोखिम उठाने के लिए कम ही तैयार होते हैं। 

प्रश्न 4. 
एकाकी व्यापार के कोई तीन/चार गुण बतलाइए। 
उत्तर:
एकाकी व्यापार के गुण-
1. शीघ्र निर्णय-एकल स्वामी को व्यवसाय से सम्बन्धित निर्णय लेने की बहुत अधिक स्वतन्त्रता रहती है। इससे वह कोई भी निर्णय शीघ्रता से ले सकता है और व्यावसायिक सुअवसरों का लाभ उठा सकता है। 

2. सूचना की गोपनीयता-एकल स्वामी व्यवसाय का अकेला स्वामी होने के कारण वह व्यवसाय संचालन सम्बन्धी सूचनाओं को गुप्त रख सकता है। वह किसी भी कानून के अन्तर्गत अपनी सूचनाओं एवं लेखे-जोखे प्रकाशित करने के लिए बाध्य नहीं होता है। 

3. प्रत्यक्ष प्रेरणा-एकल स्वामी स्वयं ही व्यवसाय से होने वाले लाभों को प्राप्त करने का अधिकार रखता है। उसे अपने लाभों को किसी के साथ बाँटने की आवश्यकता नहीं होती। जितनी वह मेहनत करेगा उतनी ही उसे लाभ की अधिक सम्भावना रहेगी। इस प्रकार एकल स्वामी को प्रत्यक्ष प्रेरणा मिलती रहती है। 

4. निर्माण एवं बन्द करना आसान-एकल व्यापार में निर्माण व समापन के लिए किसी प्रकार की वैधानिक औपचारिकताओं की आवश्यकता नहीं होती है। अतः जब चाहे तब वह कोई भी व्यवसाय स्थापित कर सकता है और यदि उसके व्यवसाय को वह बदलना चाहे तो बदल सकता है। 

प्रश्न 5. 
एकल व्यवसाय की उपयोगिता को संक्षेप में समझाइए। 
उत्तर:
एकल व्यवसाय की उपयोगिता निम्न प्रकार से स्पष्ट की जा सकती है-

  • एकल व्यवसायी की पहुँच देश के प्रत्येक कोने में है। यही कारण है कि आधुनिक युग में उसका अस्तित्व ज्यों का त्यों है। 
  • यह रोजगार के अधिकतम अवसर उपलब्ध कराने वाला प्रारूप है जो देश में बेरोजगारी की समस्या को दूर करने में सहयोग करता है। 
  • सरकार की समाजवादी समाज की विचारधारा को क्रियान्वित करने वाला प्रारूप एकल व्यवसाय ही माना जाता है। 
  • एकल व्यवसाय ही साहसियों में अत्यधिक व्यावसायिक गुणों का विकास करता है। 
  • आज जितने भी बड़े-बड़े उद्योगपति हैं उन्होंने अपने व्यावसायिक जीवन की शुरुआत एकाकी प्रारूप द्वारा ही की थी। कोका-कोला प्रारम्भ में एकल स्वामित्व का ही व्यवसाय था। 
  • इस प्रारूप द्वारा ही व्यवसायी उपभोक्ताओं को उनकी आवश्यकता की वस्तुएँ आसानी से व सुविधा से उनके उपभोग स्थान पर उपलब्ध कराते हैं। 
  • एकल व्यवसाय का अपने ग्राहकों से प्रत्यक्ष सम्पर्क रहने के कारण ये अपने ग्राहकों को सन्तुष्ट रख सकते हैं। 
  • एकल व्यवसायी विक्रय के बाद सेवाएँ अधिक अच्छे ढंग से उपलब्ध करा सकते हैं। 

प्रश्न 6. 
संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय के कोई तीन/चार लक्षण स्पष्ट कीजिए। 
उत्तर:
संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय के लक्षण- 
1. निर्माण-संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय के लिए परिवार में कम-से-कम दो सदस्य एवं वह पैतृक सम्पत्ति जो उन्हें विरासत में मिली हो, का होना आवश्यक है। व्यवसाय की स्थापना के लिए किसी अनुबन्ध की आवश्यकता नहीं होती। क्योंकि इसमें सदस्यता जन्म के कारण मिलती है। 

2. दायित्व-कर्ता को छोड़कर परिवार के अन्य सदस्यों का दायित्व व्यवसाय की सह-समांशी सम्पत्ति में उनके अंश तक ही सीमित होता है। 

3. कर्ता का नियन्त्रण-संयुक्त हिन्दू परिवार के व्यवसाय पर कर्ता का नियन्त्रण होता है। वह सभी निर्णय लेता है तथा वही व्यवसाय के प्रबन्धन के लिए अधिकृत होता है। उसके निर्णयों से परिवार के अन्य सदस्य भी बाध्य होते हैं। 

4. निरन्तरता-संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय में कर्ता की मृत्यु होने पर भी व्यवसाय चलता रहता है। क्योंकि कर्ता के बाद परिवार का सबसे बड़ा सदस्य कर्ता का स्थान ले लेता है। 

प्रश्न 7. 
'संयुक्त हिन्दू परिवार में लिंग समता-एक वास्तविकता' पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। 
उत्तर:
हिन्दू (संशोधन) अधिनियम, 2005 के अनुसार संयुक्त हिन्दू परिवार के सह-समांशी की पुत्री जन्म लेते ही एक सह-समांशी बन जाती है। परिवार के बँटवारे के समय सह-समांशी सम्पत्तियाँ सभी सह-समांशियों में, उनके लिंग को ध्यान में रखे बिना, समान रूप से विभाजित हो जायेंगी। परिवार का सबसे बड़ा सदस्य चाहे वह पुरुष हो या स्त्री कर्ता बनता है। इसके साथ ही परिवार की सम्पत्ति में विवाहित पुत्री को समान अधिकार प्राप्त होता है। 

प्रश्न 8. 
संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय के कोई चार लाभ स्पष्ट कीजिए। 
उत्तर:
संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय के लाभ- 
1. प्रभावी नियन्त्रण-व्यवसाय पर कर्ता का प्रभावी नियन्त्रण रहता है। इससे सदस्यों में पारस्परिक मतभेद नहीं होता। क्योंकि उनमें से कोई भी कर्ता द्वारा लिये जाने वाले निर्णय में हस्तक्षेप नहीं कर सकता है। इससे निर्णय शीघ्र लिये जा सकते हैं। 

2. स्थायित्व-व्यवसाय पर कर्ता की मृत्यु का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। क्योंकि सबसे अधिक आयु का व्यक्ति उसका स्थान ले लेता है। फलतः व्यवसाय बन्द नहीं होता तथा व्यवसाय को कोई खतरा भी नहीं होता है। 

3. सीमित दायित्व-कर्ता को छोड़कर परिवार के अन्य सभी सदस्यों का दायित्व सीमित होता है। दायित्व उनके अंश तक ही सीमित होता है। इसलिए इस प्रकार के प्रारूप में जोखिम स्पष्ट एवं निश्चित होती है। 

4. निष्ठा एवं सहयोग में वृद्धि-व्यवसाय को परिवार के सभी सदस्य मिलकर चलाते हैं। इसलिए वे एक दूसरे के प्रति अधिक निष्ठावान होते हैं। व्यवसाय का विकास एवं विस्तार परिवार की उपलब्धि होती है। अतः परिवार के सभी सदस्यों में निष्ठा एवं सहयोग की भावना में वृद्धि होती है। 

प्रश्न 9. 
संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय के तीन/चार दोषों की विवेचना कीजिए। 
उत्तर:
संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय के दोष- 
1. सीमित साधन-संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय में केवल परिवार की पैतृक सम्पत्ति ही लगती है। इसलिए इसके सामने सीमित पूँजी की समस्या रहती है। इससे व्यवसाय के विकास एवं विस्तार की सम्भावना कम हो जाती है। 

2. कर्ता का असीमित दायित्व-व्यवसाय में कर्ता का असीमित दायित्व होता है। व्यवसाय के ऋणों को चुकाने के लिए उसकी निजी सम्पत्ति का भी उपयोग किया जा सकता है। 

3. कर्ता का प्रभुत्व-व्यवसाय पर कर्ता का ही प्रभुत्व रहता है जो कभी-कभी अन्य सदस्यों को स्वीकार्य नहीं होता है। इससे उनमें टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। यहाँ तक कि परिवार का विघटन तक हो जाता है। 

4. सीमित प्रबन्ध कौशल-यह आवश्यक नहीं होता कि व्यवसाय का कर्ता सभी क्षेत्रों का विशेषज्ञ हो। इसलिए व्यवसाय को उसके गलत निर्णयों के परिणाम भुगतने होते हैं। यदि वह उचित निर्णय नहीं ले पाता है तो उससे व्यवसाय में वित्त सम्बन्धी समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं। 

प्रश्न 10. 
साझेदारी का अर्थ बतलाते हुए दो लक्षण लिखिए। 
उत्तर:
साझेदारी का अर्थ-साझेदारी उन व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्ध को कहते हैं जो ऐसे कारोबार (व्यापार) के लाभ को आपस में बाँटने के लिए सहमत हुए हों, जिसे सबके द्वारा अथवा. उन सबकी ओर से किसी व्यक्ति द्वारा चलाया जाता हो। 

लक्षण-
1. दो या दो से अधिक व्यक्तियों का होना-साझेदारी के निर्माण के लिए अनुबन्ध करने योग्य कम-से-कम दो व्यक्तियों का होना आवश्यक है। साझेदारी भी चूँकि एक अनुबन्ध है अतः इसकी स्थापना के लिए कम-से-कम दो व्यक्ति अवश्य होने चाहिए। 

2. असीमित दायित्व-साझेदारी में समस्त साझेदारों का दायित्व असीमित होता है। फर्म में उनका यह दायित्व संयुक्त एवं पृथक् दोनों ही प्रकार का होता है। 

प्रश्न 11. 
साझेदारी की विद्यमानता का निर्णय करने के लिए चार तत्त्व लिखिए। 
उत्तर:
साझेदारी की विद्यमानता का निर्णय- 
1. वैधानिक लक्षणों की उपस्थिति-व्यक्तियों के समूह में साझेदारी अधिनियम 1932, की धारा 4 के अनुसार लक्षण मौजूद हैं या नहीं अर्थात् दो या दो से अधिक व्यक्तियों का होना, अनुबन्ध का होना, किसी कारोबार/व्यापार का होना, लाभ कमाने का उद्देश्य होना, लाभों का बँटवारा होना तथा व्यवसाय का संचालन सभी साझेदारों या उनमें से किसी एक के द्वारा किया जाना आदि लक्षण मौजूद हैं या नहीं। 

2. फर्म के प्रबन्ध एवं संचालन में भाग लेना-यदि व्यक्तियों का समूह साझेदारी है तो प्रत्येक साझेदार को फर्म के प्रबन्ध एवं संचालन में भाग लेने का अधिकार है। 

3. फर्म की पुस्तकों एवं खातों तक पहुँच-फर्म के प्रत्येक साझेदार को फर्म की गोपनीय पुस्तकों, कागज एवं बहियों को देखने का अधिकार है और वह उसकी प्रतिलिपि ले सकता है। 

4. वैधानिक कारोबार-साझेदारी के लिए वैधानिक कारोबार (व्यापार) का होना आवश्यक है। यदि फर्म का कारोबार वैधानिक नहीं है तो उसे साझेदारी नहीं कहा जा सकता है। 

प्रश्न 12. 
साझेदारों के चार प्रकार बतलाइए। 
उत्तर:
साझेदारों के प्रकार- 
1. सक्रिय साझेदार-वह साझेदार जो फर्म में पूँजी लगाता है, लेनदारों के प्रति उसका दायित्व असीमित होता है तथा व्यवसाय के संचालन में सक्रिय रूप से भाग लेता है, सक्रिय साझेदार कहलाता है। 

2. सुप्त अथवा निष्क्रिय साझेदार-वह साझेदार जो फर्म में पूँजी लगाता है, लाभ-हानि को बाँटता है, दायित्व असीमित होता है किन्तु फर्म के दिन-प्रतिदिन के कार्यों में भाग नहीं लेता है सुप्त या निष्क्रिय साझेदार कहलाता है। 

3. गुप्त साझेदार-वह साझेदार जो फर्म में पूँजी लगाता है, प्रबन्ध में भाग लेता है, लाभ-हानि को बाँटता है तथा लेनदारों के प्रति दायित्व असीमित होता है, लेकिन जिसके फर्म से सम्बन्ध को आम जनता नहीं जानती है, गुप्त साझेदार कहलाता है। 

4. नाममात्र का साझेदार-वह साझेदार जो फर्म में पंजी नहीं लगाता है. न ही लाभ-हानि में भागीदार होता है. लेकिन अन्य साझेदारों के समान फर्म के ऋणों के भुगतान के लिए तीसरे पक्षों के प्रति उत्तरदायी होता है और फर्म जिसके नाम का प्रयोग करती है, नाममात्र का साझेदार कहलाता है। 

प्रश्न 13. 
'साझेदारी संलेख' पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। 
उत्तर:
साझेदारी संलेख-फर्म के सभी साझेदारों के बीच वह लिखित समझौता जो साझेदारी को शासित करने के लिए शर्तों व परिस्थितियों का उल्लेख करता है साझेदारी संलेख कहलाता है। साझेदारी संलेख में सामान्यतया निम्न बातें सम्मिलित की जाती हैं-

  • फर्म का नाम;
  • व्यवसाय की प्रकृति एवं स्थान जहाँ वह स्थित है;
  • व्यवसाय की अवधि;
  • प्रत्येक साझेदार द्वारा फर्म में लगायी जाने वाली पूँजी;
  • लाभ-हानि का बँटवारा;
  • साझेदारों के कर्तव्य एवं दायित्व;
  • साझेदारों का वेतन एवं आहरण;
  • साझेदारों का प्रवेश;
  • अवकाश-ग्रहण एवं हटाये जाने सम्बन्धी शर्ते;
  • पूँजी एवं आहरण पर ब्याज;
  • फर्म के समापन की प्रक्रिया;
  • खातों को तैयार करना एवं उसका अंकेक्षण;
  • विवादों के समाधान की पद्धति आदि। 

प्रश्न 14. 
सीमित तथा असीमित साझेदारी को समझाइए। 
उत्तर:
1. सीमित साझेदारी-यह वह साझेदारी होती है जिसका निर्माण इस आधार पर किया जाता है कि कुछ साझेदारों का दायित्व सीमित रहेगा। कम-से-कम एक साझेदार का दायित्व असीमित रहता है। सीमित दायित्व वाले साझेदार फर्म के प्रबन्ध में भाग नहीं ले सकते तथा उनके कार्यों से न तो फर्म और न ही दूसरे साझेदार आबद्ध होते हैं। सीमित दायित्व वाले साझेदारों की मृत्यु, पागलपन या दिवालिया होने से फर्म का अस्तित्व समाप्त नहीं होता है। सीमित साझेदारी का पंजीयन अनिवार्य होता है। 

2. असीमित साझेदारी-असीमित साझेदारी वह साझेदारी होती है जिसमें साझेदारों का दायित्व असीमित होता है। ऐसी साझेदारी में सभी साझेदारों को फर्म के प्रबन्ध एवं संचालन में भाग लेने का समान अधिकार होता है। सामान्यतया इसी प्रकार की साझेदारी का अधिक निर्माण किया जाता है। 

प्रश्न 15. 
अवधि के आधार पर साझेदारी कितने प्रकार की होती है? समझाइए। 
उत्तर:
अवधि के आधार पर साझेदारी के प्रकार- 
(1) ऐच्छिक साझेदारी-ऐसी साझेदारी की स्थापना साझेदारों की इच्छा से होती है। यह साझेदारी उस समय तक चलती है जब तक कि अलग होने का नोटिस नहीं दिया जाता। किसी भी साझेदार द्वारा नोटिस दिये जाने पर यह साझेदारी समाप्त हो जाती है। 

(2) विशिष्ट साझेदारी-ऐसी साझेदारी की स्थापना किसी भवन के निर्माण या कोई कार्य या फिर एक निश्चित अवधि के लिए की जाती है। सामान्यतः जिस उद्देश्य को पूरा करने के लिए इस प्रकार की साझेदारी की स्थापना होती है, उस उद्देश्य के पूरा होते ही यह साझेदारी समाप्त हो जाती है। 

प्रश्न 16. 
साझेदारी संगठन के सम्बन्ध में नाबालिग साझेदार की स्थिति को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
साझेदारी संगठन के सम्बन्ध में नाबालिग साझेदार की स्थिति-साझेदारी दो लोगों के बीच अनुबन्ध पर आधारित होती है। लेकिन एक नाबालिग किसी के साथ अनुबन्ध नहीं कर सकता, इसलिए वह किसी फर्म में साझेदार नहीं बन सकता फिर भी किसी नाबालिग को सभी अन्य साझेदारों की सहमति से फर्म के लाभों में भागीदार बनाया जा सकता है। ऐसे में उसका दायित्व फर्म में लगायी गई उसकी पूँजी तक सीमित होगा। वह फर्म के प्रबन्ध में भाग नहीं ले सकेगा। 

अतः एक नाबालिग केवल लाभ में भागीदार होगा तथा वह हानि को वहन नहीं करेगा। हाँ, यदि वह चाहे तो फर्म के खातों को देख सकता है। नाबालिग की स्थिति उसके बालिग हो जाने पर बदल जाती है। बालिग हो जाने पर नाबालिग को यह निर्णय लेना होगा कि क्या वह फर्म में साझेदार बने रहना चाहता है। 6 महीने में उसे अपने निर्णय की सार्वजनिक सूचना देनी होगी। यदि वह ऐसा करने में असमर्थ रहता है तो उसे पूर्णरूपेण साझेदार माना जायेगा तथा उसकी स्थिति अन्य साझेदारों के समान ही रहेगी। 

प्रश्न 17. 
साझेदारी फर्म का पंजीयन नहीं कराने के परिणाम क्या होते हैं? 
अथवा 
यदि पंजीयन ऐच्छिक है, तो साझेदारी फर्म स्वयं को पंजीकृत कराने के लिए वैधानिक औपचारिकताओं को पूरा करने के लिए क्यों इच्छुक रहती है? समझाइये। 
उत्तर:
यदि साझेदारी फर्म का पंजीयन ऐच्छिक होता है फिर भी साझेदारी फर्म स्वयं को पंजीकृत कराने के लिए वैधानिक औपचारिकताओं को परा करने की इच्छक रहती है. क्योंकि यदि साझेदारी फ जाता है तो इसके निम्नलिखित परिणाम हो सकते हैं- 

  • एक अपंजीकृत फर्म का साझेदार अपनी फर्म अथवा अन्य साझेदारों के विरुद्ध मुकदमा दायर नहीं कर सकता है। 
  • फर्म भी अन्य पक्षों के विरुद्ध मुकदमा नहीं चला सकती है। 
  • फर्म साझेदारों के विरुद्ध मुकदमा नहीं चला सकती है। 
  • तीसरा पक्षकार साझेदारी फर्म पर मुकदमा चला सकता है। 

प्रश्न 18. 
साझेदारी फर्म के पंजीयन की प्रक्रिया को संक्षेप में समझाइए। 
उत्तर:
साझेदारी फर्म के पंजीयन की प्रक्रिया-भारतीय साझेदारी अधिनियम, 1932 के अनुसार किसी फर्म के साझेदार निम्नलिखित प्रक्रिया अपनाकर फर्म के उस रजिस्ट्रार के पास पंजीयन करा सकते हैं जिस राज्य में फर्म स्थित है-

  • फर्मों के रजिस्ट्रार के पास निर्धारित प्रपत्र (फॉर्म) के रूप में आवेदन करना। इस आवेदन पत्र में इस प्रकार का विवरण देना होता है-फर्म का नाम; वह स्थान जहाँ फर्म स्थित है तथा फर्म के व्यवसाय करने का स्थान; प्रत्येक साझेदार के फर्म में प्रवेश की तिथि; साझेदारों के नाम एवं पते; तथा साझेदारी की अवधि। 
  • रजिस्ट्रार को भेजे जाने वाले आवेदन-पत्र पर सभी साझेदारों के हस्ताक्षर होने आवश्यक हैं। 
  • फर्मों के रजिस्ट्रार के यहाँ फर्म के पंजीयन के लिए निर्धारित फीस जमा कराना। 
  • फर्मों के रजिस्ट्रार द्वारा पंजीयन की स्वीकृति देने के पश्चात् वह फर्मों के रजिस्टर में प्रविष्ट कर देगा। 
  • तत्पश्चात् अपने हस्ताक्षर एवं मोहर द्वारा फर्म के पंजीयन का प्रमाण-पत्र जारी कर देता है। 

प्रश्न 19. 
सहकारी समिति की चार विशेषताएँ बतलाइए। 
अथवा 
सहकारी संगठन के तीन/चार लक्षण बताइये। 
उत्तर:
सहकारी समिति की विशेषताएँ- 

  • स्वैच्छिक संगठन-सहकारी समिति एक स्वैच्छिक संगठन है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी स्वेच्छा से सदस्यता ग्रहण करता है। किसी भी व्यक्ति को सदस्य बनने के लिए बाध्य नहीं किया जाता है। 
  • समान मताधिकार-'एक व्यक्ति एक वोट के सिद्धान्त' पर आधारित इस संगठन में प्रत्येक व्यक्ति ने चाहे कितने ही अंश क्यों न ले रखे हों, उसे एक ही मत देने का अधिकार प्राप्त है। 
  • प्रजातान्त्रिक प्रबन्ध-सहकारी समिति में प्रबन्ध व्यवस्था एवं संचालन हेतु एक व्यक्ति एक मत के आधार पर प्रजातान्त्रिक तरीके से प्रबन्ध समिति का चुनाव होता है। इस प्रकार सहकारी समिति एक स्वशासित संगठन है। 
  • सेवा-भावना उद्देश्य-सहकारी समितियों का उद्देश्य अपने सदस्यों की सेवा करना होता है, किसी व्यावसायिक संस्था के समान लाभ कमाना नहीं। 

प्रश्न 20. 
"एक सबके लिए सब एक के लिए" उक्त वाक्य से आप क्या समझते हैं? 
उत्तर:
"एक सबके लिए सब एक के लिए" यह सहकारिता का मूल सिद्धान्त व वाक्य है जो एकता तथा परस्पर एक-दूसरे का सहयोग करने की भावना पर आधारित होता है। यह मिल-जुलकर एक-दूसरे के हित संवर्द्धन करने के लिए साथ-साथ कार्य करने की सामूहिक प्रवृत्ति है। इसमें एक व्यक्ति सबके हितों को ध्यान में रखता है तथा सब व्यक्ति मिलकर उस एक व्यक्ति के हितों को ध्यान में रखते हैं। यह व्यक्तियों को अपनी समस्याओं का समाधान करने के लिए मिलकर कार्य करने की प्रेरणा देता है। 

प्रश्न 21. 
उपभोक्ता सहकारी समितियों के बारे में आप क्या जानते हैं? 
उत्तर:
उपभोक्ता सहकारी समितियाँ-उपभोक्ता सहकारी समितियों से आशय उन समितियों से है जिनका गठन उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए किया जाता है। इसमें वे सदस्य वे उपभोक्ता होते हैं जो अच्छी गुणवत्ता वाली वस्तुएँ उचित मूल्य पर प्राप्त करना चाहते हैं। इन समितियों का उद्देश्य मध्यस्थों को समाप्त करना होता है क्योंकि ये समितियाँ थोक विक्रेता से वस्तुओं को सीधे ही बड़ी मात्रा में क्रय करती हैं तथा उन्हें अपने सदस्यों को बेचती हैं। इन समितियों को यदि लाभ होता है तो उसे वे सदस्यों को क्रय के आधार पर बाँट देती हैं। 

प्रश्न 22. 
संयुक्त पूजी कम्पनी से क्या आशय है? 
उत्तर:
संयुक्त पूँजी कम्पनी का अर्थ-सामान्य अर्थ में कम्पनी से तात्पर्य व्यक्तियों के ऐसे ऐच्छिक संघ से लगाया जाता है जिसका गठन किसी व्यवसाय को चलाने के लिए किया गया हो तथा जिसका अपने सदस्यों से हटकर वैधानिक अस्तित्व हो। 

कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 2 ( 20 ) के अनुसार कम्पनी से आशय उन कम्पनियों से है जिनका समामेलन कम्पनी अधिनियम, 2013 के अन्तर्गत या इससे पूर्व किसी कम्पनी अधिनियम के अन्तर्गत हुआ है। 

सार रूप में, कम्पनी का आशय कम्पनी अधिनियम के अधीन निर्मित एक ऐसे कृत्रिम व्यक्ति से है जिसके अंश धारक कम्पनी के स्वामी होते हैं, जबकि निदेशक मण्डल व प्रमुख प्रबन्धकर्ता अंशधारक चुनते हैं। साधारणतया कम्पनी के स्वामियों का व्यवसाय पर परोक्ष रूप से नियंत्रण होता है। कम्पनी की पूँजी छोटे-छोटे भागों में विभक्त होती है जिन्हें अंश कहा जाता है। जिन्हें एक अंशधारक किसी दूसरे व्यक्ति को स्वतंत्रतापूर्वक हस्तान्तरित कर सकता है। लेकिन निजी कम्पनी का अंशधारक स्वतन्त्रतापूर्वक अपने अंशों को हस्तान्तरित नहीं कर सकता है। 

प्रश्न 23. 
पृथक् वैधानिक अस्तित्व का क्या अर्थ है? 
उत्तर:
पृथक् वैधानिक अस्तित्व का अर्थ-इसका तात्पर्य यह है कि कम्पनी का अस्तित्व उसके सदस्यों से अलग होता है अर्थात् सदस्य व्यक्तिगत रूप से जो भी कार्य करते हैं उसके लिए कम्पनी उत्तरदायी नहीं होती है तथा कम्पनी जो भी कार्य करती है उसके लिए अंशों की अदत्त राशि के अतिरिक्त सदस्य उत्तरदायी नहीं होते हैं। कम्पनी की परिसम्पत्तियाँ एवं इसकी देयताएँ इसके स्वामियों की परिसम्पत्तियों एवं देयताओं से पृथक् होती हैं। कम्पनी कानून, व्यवसाय एवं इसके स्वामियों को एक नहीं मानता है। भूतपूर्व न्यायाधीश हिदायतुल्ला ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि, "एक समामेलित कम्पनी का पृथक् वैधानिक अस्तित्व होता है और कानून उसे उसके सदस्यों को एक भिन्न वैधानिक व्यक्ति स्वीकार करता है।" 

प्रश्न 24. 
कम्पनी के सदस्य किस सीमा तक उत्तरदायी ठहराये जा सकते हैं? 
उत्तर:
कम्पनी के सदस्यों का दायित्व-कम्पनी के सदस्यों का दायित्व प्रायः सीमित रहता है। हानि होने पर कम्पनी के सदस्यों से अंशों की बकाया राशि के अलावा कुछ भी वसूल नहीं किया जा सकता है। लेनदार अपने दावों की भरपायी के लिए केवल कम्पनी की परिसम्पत्तियों का उपयोग कर सकते हैं क्योंकि ऋण का भार कम्पनी पर है न कि इसके सदस्यों पर। उदाहरणार्थ, 'अ' को एक कम्पनी ने 10 रुपये अंकित मूल्य के 100 अंश आबण्टित किये हैं जिन पर 5 रुपये प्रति अंश के हिसाब से 'अ' ने भुगतान कर दिया है। कम्पनी अब किसी भी दशा में 'अ' से बकाया 5 रुपये प्रति अंश की राशि से अधिक वसूल नहीं कर सकती है। 

प्रश्न 25. 
कम्पनी अधिनियम में कम्पनी के सदस्यों की संख्या के सम्बन्ध में क्या प्रावधान है? 
उत्तर:
कम्पनी अधिनियम के अनुसार प्रत्येक कम्पनी में सदस्यों का होना अनिवार्य है। निजी कम्पनी में न्यूनतम सदस्य संख्या 2 होनी चाहिए जबकि सार्वजनिक कम्पनी में न्यूनतम सदस्य संख्या 7 होनी चाहिए। जहाँ तक अधिकतम संख्या का प्रश्न है निजी कम्पनी में यह संख्या 200 से अधिक नहीं हो सकती है, लेकिन इस संख्या में कम्पनी के वर्तमान कर्मचारी जो सदस्य बने हुए हैं तथा भूतपूर्व कर्मचारी जब वे कर्मचारी थे तब सदस्य बने हुए थे और अपनी सेवा समाप्ति के बाद भी कम्पनी के सदस्य बने हुए हैं, शामिल नहीं किये जाते। सार्वजनिक कम्पनी में अधिकतम संख्या के सम्बन्ध में कोई प्रतिबन्ध नहीं है किन्तु यह अधिकतम संख्या कम्पनी द्वारा निर्गमित किये गये अंशों की संख्या तक ही हो सकती है। 

प्रश्न 26. 
कम्पनी में अल्पतन्त्रीय प्रबन्धन होता है, स्पष्ट कीजिए। 
उत्तर:
कम्पनी का अल्पतन्त्रीय प्रबन्धन-सिद्धान्तः कम्पनी एक लोकतांत्रिक संस्था मानी जाती है, जिसमें निदेशक मण्डल का चुनाव अंशधारी करते हैं। निदेशक अंशधारियों के प्रतिनिधि होते हैं। किन्तु व्यवहार में बड़ी कम्पनियों में बड़ी संख्या में ही अंशधारी होते हैं। अतः उन सबका कम्पनी के नियंत्रण एवं उसके संचालन में बहुत कम हाथ होता है। क्योंकि अंशधारी पूरे देश में फैले रहते हैं, उनका बहुत कम प्रतिशत ही साधारण सभा में उपस्थित हो पाता है। फलतः निदेशक मण्डल को अपने अधिकारों का प्रयोग करने की पूरी आजादी मिल जाती है। कई बार तो वे अंशधारियों के हितों के विरुद्ध भी कार्य करते हैं। ऐसी स्थिति में वे अंशधारी जो निदेशकों से संतुष्ट नहीं होते उनके समक्ष कम्पनी के अंशों को बेच देने के अतिरिक्त कोई विकल्प हाथ में नहीं रहता है। चूंकि कम्पनी में निदेशकों को सभी प्रमुख निर्णयों को लेने का अधिकार होता है। अतः यह कहा जा सकता है कि कम्पनी का शासन कुछ लोगों के हाथों में ही होता है। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि कम्पनी में अल्पतन्त्रीय प्रबन्धन होता है। 

प्रश्न 27. 
क्या प्रत्येक कम्पनी में अंशों का हस्तान्तरण स्वतन्त्रतापूर्वक किया जाता है? 
उत्त:
प्रत्येक कम्पनी में अंशों का हस्तान्तरण स्वतन्त्रतापूर्वक नहीं किया जा सकता है। यद्यपि कम्पनी के अंश हस्तान्तरण योग्य होते हैं। एक सार्वजनिक कम्पनी में अंशधारी अन्तर्नियमों की निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार अपने अंशों को स्वतन्त्रतापूर्वक अन्य व्यक्ति को हस्तान्तरित कर सकते हैं। इसमें अंश हस्तान्तरण पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होता है। किन्तु निजी कम्पनी में कम्पनी अधिनियम की व्यवस्थाओं के अनुसार अंश हस्तान्तरण पर प्रतिबन्ध लगे होते हैं जिन्हें ध्यान में रखना होता है। निजी कम्पनी के अंशधारियों को स्वतन्त्रतापूर्वक अंशों के हस्तान्तरण पर छूट नहीं होती है। 

प्रश्न 28. 
निजी कम्पनी की परिभाषा दीजिए। 
उत्तर:
निजी कम्पनी की परिभाषा-निजी कम्पनी से आशय एक ऐसी कम्पनी से है जिसकी प्रदत्त अंश-पूँजी कम-से-कम एक लाख रुपये या इससे अधिक राशि की निर्धारित की गई है तथा जो अपने अन्तर्नियमों द्वारा- 

  • अपने अंशों के हस्तान्तरण के अधिकार पर प्रतिबन्ध लगाती है; 
  • अपने सदस्यों की संख्या 50 तक सीमित रखती है; 
  • अपने अंशों अथवा ऋण-पत्रों के अभिदान के लिए जनता को आमन्त्रित करने पर निषेध लगाती है; 
  • अपने सदस्यों, संचालकों अथवा उनके रिश्तेदारों के अतिरिक्त अन्य किसी व्यक्ति से जमाएँ आमन्त्रित करने अथवा स्वीकार करने पर निषेध लगाती है। 

यदि दो या दो से अधिक व्यक्ति संयुक्त रूप से कम्पनी के अंश क्रय कर लेते हैं तो वे सभी एक सदस्य की तरह ही माने जायेंगे। निजी कम्पनी में सदस्यों की अधिकतम संख्या 50 की गिनती में कम्पनी के ऐसे वर्तमान तथा पूर्व कर्मचारियों को शामिल नहीं किया जाता है जो कर्मचारी रहते हुए कम्पनी के सदस्य बने हुए थे और नौकरी छोड़ने के बाद भी बने हुए हैं। 

प्रश्न 29. 
सार्वजनिक कम्पनी की परिभाषा दीजिए। 
उत्तर:
सार्वजनिक कम्पनी की परिभाषा-एक सार्वजनिक कम्पनी वह है जो निजी कम्पनी नहीं है। कम्पनी अधिनियम के अनुसार एक सार्वजनिक कम्पनी वह है- 

  • जिसमें कम से कम 7 सदस्य हों तथा अधिकतम संख्या की कोई सीमा नहीं हो; 
  • जिसमें अंशों के हस्तान्तरण पर कोई प्रतिबन्ध नहीं हो; 
  • जो अपनी अंशपूँजी के अभिदान के लिए जनता को आमन्त्रित कर सकती है तथा जनसाधारण इसकी सार्वजनिक जमा में रुपया जमा करा सकते हैं। 

यदि एक निजी कम्पनी सार्वजनिक कम्पनी की सहायक कम्पनी है तो वह भी सार्वजनिक कम्पनी के समान ही मानी जायेगी। 

प्रश्न 30. 
निजी कम्पनी तथा सार्वजनिक कम्पनी में अन्तर (चार) बतलाइए। 
उत्तर:
निजी कम्पनी तथा सार्वजनिक कम्पनी में अन्तर
RBSE Class 11 Business Studies Important Questions Chapter 2 व्यावसायिक संगठन के स्वरूप 3

दीर्घ उत्तरात्मक प्रश्न-

प्रश्न 1. 
"एक व्यक्ति का नियन्त्रण सर्वश्रेष्ठ है, यदि वह व्यक्ति समस्त व्यवस्थाओं के लिए पर्याप्त रूप से समर्थ है।" विश्लेषण कीजिए। 
उत्तर:
"एक व्यक्ति का नियन्त्रण विश्व में सर्वश्रेष्ठ है, यदि वह व्यक्ति समस्त व्यवस्थाओं के लिए पर्याप्त रूप से समर्थ है।" प्रो. विलियम बैसेट ने इस कथन में एकल व्यक्ति अर्थात् एकाकी व्यापारी की सर्वश्रेष्ठता को स्वीकार अवश्य किया है किन्तु स्पष्ट रूप से सर्वश्रेष्ठ नहीं माना है। इस सम्बन्ध में विश्लेषण एकल स्वामित्व के लाभ एवं सीमाओं का ध्यान में रख कर ही किया जा सकता है। उनके इस कथन को दो भागों में बाँट सकते हैं- 

(अ) एकल स्वामित्व सर्वश्रेष्ठ है-वास्तव में यदि एकल स्वामित्व से होने वाले लाभों का स्वामित्व के अन्य रूपों से होने वाले लाभों से तुलनात्मक विश्लेषण करें तो स्वतः ही स्पष्ट हो जायेगा कि एकल स्वामित्व अन्य प्रारूपों की तुलना में सर्वश्रेष्ठ है जो निम्नानुसार है-

  • एकल स्वामित्व की स्थापना करना अन्य व्यावसायिक उपक्रमों की अपेक्षा बहुत आसान है। 
  • एकल स्वामित्व अन्य प्रारूपों की तुलना में वैधानिक प्रतिबन्धों से मुक्त है। 
  • इसमें निर्णय लेने में शीघ्रता एवं स्वतन्त्रता रहती है क्योंकि अकेला व्यक्ति ही सर्वेसर्वा होता है। 
  • गोपनीयता भी सर्वाधिक रहती है। 
  • एकल व्यापारी भली-भाँति जानता है कि जितनी अधिक मेहनत एवं लगन से वह कार्य करेगा उसे उतना ही लाभ होगा। अतः कार्य के प्रति उसकी रुचि एवं लगन रहती है। 
  • एकाकी व्यापार में संचालन एवं प्रबन्ध का सम्पूर्ण कार्य एक व्यक्ति के हाथों में रहने के कारण तथा लाभ-हानि में वही भागीदार होने के कारण प्रबन्ध में मितव्ययिता बनी रहती है। 
  • एकल व्यापारी ग्राहकों से भी सीधे सम्पर्क में रहता है। 
  • एक व्यक्ति के नियन्त्रण की सुविधा एकाकी व्यापार में ही सर्वाधिक रहती है। 
  • एकल व्यापार में व्यवसाय के चुनाव की पूर्ण स्वतन्त्रता रहती है। 
  • एकाकी व्यापार को जब चाहें तब शुरू तथा जब चाहें समाप्त कर सकते हैं। 
  • एकल स्वामित्व के अन्तर्गत समाज के प्रत्येक व्यक्ति को अपनी रुचि एवं योग्यता के अनुसार व्यवसाय करने का अवसर मिल जाता है। 

(ब) यदि उसमें सब कार्यों की प्रबन्ध व्यवस्था करने की क्षमता हो-प्रो. बैसेट ने एकल स्वामित्व वाले व्यवसाय की सर्वश्रेष्ठता को स्वतन्त्र रूप से स्वीकार नहीं किया है। उन्होंने एकल स्वामित्व की सीमाओं की ओर ध्यान आकर्षित कर कहा है कि, "यदि उसमें सब कार्यों को करने की प्रबन्ध क्षमता हो" एकल व्यापारी की कुछ सीमाएँ हैं। उन सीमाओं के कारण एक व्यक्ति का नियन्त्रण सर्वश्रेष्ठ नहीं हो सकता है। ये सीमाएँ इस प्रकार हैं-

  • एकल व्यवसायी के वित्तीय स्रोत सीमित ही रहते हैं।
  • प्रबन्धकीय ज्ञान, कौशल एवं क्षमता भी सीमित होती है।
  • एकल व्यवसाय में दायित्व भी असीमित रहता है।
  • एकल स्वामी एवं उसके व्यवसाय में प्रत्यक्ष सम्बन्ध होने के कारण व्यवसाय का अस्तित्व स्थायी नहीं रहता है।
  • एकल व्यवसायी में विविधता एवं विशिष्टीकरण का भी अभाव बना रहता है।
  • एक व्यक्ति द्वारा निर्णय लिये जाने की स्थिति में जल्दीबाजी हो सकती है।
  • एकल व्यवसायी की जितनी स्वयं की ख्याति होती है उतनी ही उसके व्यापार की ख्याति रहती है।

निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि प्रो. बैसेट का कथन शत प्रतिशत सही है। यदि एक व्यक्ति अपनी सीमाओं को तोड़कर सब कार्यों का प्रबन्ध कर सके तो उस व्यक्ति का नियन्त्रण सर्वश्रेष्ठ ही होगा, किन्तु सामान्यतया व्यक्ति अपनी सीमाओं को तोड़ने में असमर्थ रहता है। इसलिए एकल स्वामित्व की श्रेष्ठता एकल व्यवसायी की कुशलता एवं क्षमता पर निर्भर करती है। 

प्रश्न 2. 
संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय का अर्थ एवं विशेषताएँ बतलाइए। 
उत्तर:
संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय का अर्थ-संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय का अभिप्राय उस व्यवसाय से है जिसका स्वामित्व एवं संचालन एक संयुक्त हिन्दू परिवार के सदस्य करते हैं। परिवार विशेष में जन्म लेने पर वह व्यक्ति व्यवसाय का सदस्य बन जाता है एवं तीन पीढ़ियों तक वह सदस्य रह सकता है। इस व्यवसाय पर परिवार के मुखिया का ही व्यवसाय का 'कर्ता' कहलाता है। मखिया परिवार का सबसे अधिक आयु का व्यक्ति होता है। परिवार के सभी सदस्यों का व्यवसाय में बराबर का स्वामित्व होता है तथा उन्हें सह-समांशी कहा जाता है। 

विशेषताएँ-संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं- 
1. निर्माण-संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय की स्थापना परिवार के कम-से-कम दो सदस्य मिलकर कर सकते हैं। व्यवसाय के लिए किसी अनुबन्ध की आवश्यकता नहीं होती है। क्योंकि इसमें सदस्यता जन्म के कारण मिलती है। 

2. शासित-संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 द्वारा शासित होता है। 

3. नियन्त्रण-संयुक्त हिन्दू परिवार के व्यवसाय पर कर्ता का पूर्ण नियन्त्रण रहता है। इसमें कर्ता ही व्यवसाय सम्बन्धी सभी निर्णय लेने तथा व्यवसाय के प्रबन्धन के लिए अधिकृत होता है। परिवार के अन्य सदस्य कर्ता के निर्णय से बाध्य होते हैं। 

4. निरन्तरता-संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय में निरन्तरता बनी रहती है। कर्ता की मृत्यु होने पर भी व्यवसाय निरन्तर चलता रहता है। क्योंकि परिवार का अगला सबसे अधिक आयु का व्यक्ति कर्ता का स्थान ले लेता है। संयुक्त हिन्दू परिवार के व्यवसाय को परिवार के सभी सदस्यों की स्वीकृति से ही समाप्त किया जा सकता है। 

5. अवयस्क सदस्य-संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय में परिवार में जन्म लेने वाला प्रत्येक व्यक्ति सदस्य बन जाता है। अतः इसमें अवयस्क या नाबालिग भी व्यवसाय के सदस्य हो सकते हैं। 

6. व्यवसाय का प्रबन्ध एवं संचालन-परिवार के व्यवसाय का प्रबन्ध एवं संचालन करने का अधिकार कर्ता को होता है। उसे परिवार की ओर से सभी वैधानिक कार्य करने का अधिकार होता है। 

7. पिछला हिसाब माँगना-परिवार का कोई भी सदस्य परिवार से अलग होते समय परिवार के कर्ता से संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय के पिछले हिसाब की मांग नहीं कर सकता है। 

प्रश्न 3. 
संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय के गुण और दोष बतलाइए। 
उत्तर:
संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय के गुण 

  • स्थायी अस्तित्व-संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय का अस्तित्व स्थायी होता है। कर्ता की मृत्यु से व्यवसाय पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि कर्ता के बाद सबसे अधिक आयु का व्यक्ति उसका स्थान ले लेता है। 
  • प्रभावशाली नियन्त्रण-संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय पर कर्ता का प्रभावी नियन्त्रण रहता है। कर्ता के पास निर्णय लेने के पूरे अधिकार होते हैं। इसके कारण निर्णय शीघ्र लिये जाते हैं तथा उनमें लचीलापन होता है। 
  • प्रबन्ध पर एकाधिकार-इसमें व्यापार के प्रबन्ध पर कर्ता का पूर्ण अधिकार होता है। उसकी देखरेख और नियन्त्रण में परिवार के सदस्य कार्य करते हैं। इससे कार्य में रुकावट नहीं आती है। 
  • संदस्य संख्या-संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय में साझेदारी तथा कम्पनी प्रारूप की तरह सदस्यों की न्यूनतम एवं अधिकतम कोई सीमा नहीं होती। 
  • सदस्यों का सीमित दायित्व-कर्ता को छोड़ कर परिवार के सभी सदस्यों का दायित्व व्यवसाय में उनके अंश तक सीमित होता है। इसलिए उनकी जोखिम स्पष्ट एवं निश्चित होती है। 
  • निष्ठा एवं सहयोग में वृद्धि-क्योंकि परिवार के सदस्य मिलकर व्यवसाय चलाते हैं इसलिए वे एक-दूसरे के प्रति अधिक निष्ठावान रहते हैं। व्यवसाय का विकास एवं विस्तार परिवार की उपलब्धि होती है अतः सबमें सहयोग की भी वृद्धि होती है। 

संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय के दोष- 

  • सीमित साधन-संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय मुख्य रूप से पैतृक सम्पत्ति से ही चलाया जाता है । इसलिए इसके समक्ष सीमित पूँजी की समस्या रहती है। 
  • कर्ता का दायित्व असीमित-संयुक्त हिन्दू परिवार में कर्त्ता पर न केवल निर्णय लेने व प्रबन्ध करने का भार होता है बल्कि उस पर असीमित दायित्व का भी भार होता है। 
  • सीमित प्रबन्ध कौशल-यह जरूरी नहीं है कि कर्ता सर्वगुण-सम्पन्न हो। इसलिए व्यवसाय को कर्त्ता के द्वारा लिये गये निर्णयों के परिणाम भुगतने होते हैं । यदि वह समय पर निर्णय नहीं ले पाता है तो भी उससे व्यवसाय को नुकसान हो सकता है। 
  • कर्ता का प्रभुत्व-कर्ता अकेला ही व्यवसाय का प्रबन्ध करता है जो कभी-कभी परिवार के अन्य सदस्यों को स्वीकार्य नहीं होता है। इससे उनमें टकराव हो जाता है।। 
  • सीमित ख्याति-संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय की ख्याति भी सीमित ही होती है। 
  • गोपनीयता के कारण सन्देह-संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय की अधिकांश बातें गोपनीय रहती हैं। इसलिए इसके साथ लेन-देन करने वाले व्यक्तियों को सन्देह होना स्वाभाविक है। 

प्रश्न 4. 
साझेदारी का अर्थ बतलाइए एवं इसकी विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए। 
उत्तर:
साझेदारी का अर्थ एवं परिभाषाएँ-साझेदारी एक ऐसा व्यावसायिक संगठन है जिसमें दो या दो से अधिक व्यक्ति मिलकर अपने वित्तीय साधन व प्रबन्धकीय कुशलताओं के साथ व्यवसाय करते हैं तथा लाभों को आपस में बराबर या पूर्व-निश्चित अनुपात में बाँट लेते हैं। 

एल. एच. हैने के अनुसार, साझेदारी उन लोगों के बीच का सम्बन्ध है जो अनुबन्ध के लिए सर्वथा योग्य हैं तथा जिन्होंने निजी लाभ के लिए आपस में मिलकर एक वैधानिक व्यापार करने का समझौता किया है। 

भारतीय साझेदारी अधिनियम, 1932 के अनुसार, "यह उन व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्ध हैं जिनके द्वारा या उन सबकी ओर से किसी एक साझेदार द्वारा संचालित व्यापार के लाभ को वे आपस में बाँटने के लिए सहमत होते हैं।" 

भारतीय प्रसंविदा अधिनियम के अनुसार, "साझेदारी उन लोगों के मध्य सम्बन्ध है जिन्होंने किसी व्यवसाय में अपनी सम्पत्ति, श्रम अथवा निपुणता को मिला लिया है तथा वे आपस में उससे होने वाले लाभ को बाँट रहे हैं।" 

साझेदारी के प्रत्येक सदस्य को साझेदार कहते हैं तथा उनके संगठित रूप को फर्म कहते हैं। जिस नाम से फर्म का कारोबार चलाया जाता है वह 'फर्म का नाम' कहलाता है। 

साझेदारी की विशेषताएँ-
साझेदारी संगठन की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं- 
1. दो या दो से अधिक व्यक्तियों का होना-साझेदारी के लिए अनुबन्ध करने योग्य कम-से-कम दो व्यक्तियों का होना अनिवार्य है। 

2. समझौता होना-साझेदारी के निर्माण के लिए साझेदारों के बीच समझौता या अनुबन्ध का होना आवश्यक है। यह अनुबन्ध लिखित या मौखिक अवश्य हो सकता है। इस समझौते के द्वारा साझेदारों के मध्य सम्बन्धों, लाभ एवं हानि को बाँटने एवं व्यवसाय के संचालन के तरीकों को निश्चित किया जाता है। यह समझौता एक निश्चित अवधि, निश्चित कार्य अथवा स्वेच्छानुसार व्यवसाय चलाने के लिए हो सकता है। 

3. कारोबार (व्यवसाय) का होना-साझेदारी फर्म की स्थापना किसी वैध कारोबार के संचालन के लिए होती है। 

4. उद्देश्य लाभ कमाना व आपस में बाँटना-साझेदारी में किये जाने वाले व्यवसाय का उद्देश्य लाभ कमाना होना चाहिए। परोपकार के लिए अनुबन्ध करना साझेदारी नहीं हो सकती है। साथ ही फर्म के व्यवसाय में जो लाभ प्राप्त होते हैं उन लाभों का साझेदारों में बराबर या पूर्व निर्धारित मात्रा में बँटवारा होना चाहिए। 

5. व्यवसाय का संचालन एवं प्रबन्ध-साझेदारी में व्यवसाय का संचालन सबके द्वारा मिलकर अथवा उसमें से किसी के द्वारा भी किया जा सकता है। 

6. असीमित दायित्व-साझेदारी फर्म में प्रत्येक साझेदार का दायित्व असीमित होता है। यदि साझेदारी फर्म के ऋण को चुकाने के लिए साझेदारी फर्म की सम्पत्ति अपर्याप्त रहती है तो फर्म के ऋण को चुकाने के लिए साझेदारों की व्यक्तिगत सम्पत्ति भी काम में ली जा सकती है। 

7. निर्णय लेना एवं नियन्त्रण-साझेदार आपस में मिलकर दिन-प्रतिदिन के कार्यों के सम्बन्ध में निर्णय लेने एवं नियन्त्रण करने के उत्तरदायित्व को निभाते हैं। महत्त्वपूर्ण निर्णय सर्वसम्मति से लिये जाते हैं। 

8. अस्थायी अस्तित्व-साझेदारी में व्यवसाय का अस्तित्व अस्थायी ही रहता है। क्योंकि किसी भी साझेदार की मृत्यु, अवकाश-ग्रहण करने, दिवालिया होने या फिर पागल हो जाने से साझेदारी समाप्त हो सकती है। बाकी साझेदार चाहें तो नये समझौते के आधार पर व्यवसाय को चालू रख सकते हैं। 

9. अधिकतम संख्या-साझेदारी संगठन में सदस्यों की अधिकतम संख्या कम्पनी विविध नियम, 2014 के नियम 10 के अनुसार वर्तमान में किसी साझेदारी संगठन में अधिकतम 50 सदस्य हो सकते हैं। 

10. एजेन्सी का सम्बन्ध-साझेदारी संगठन में प्रत्येक साझेदार के मध्य एजेन्सी का सम्बन्ध विद्यमान रहता है। क्योंकि फर्म में प्रत्येक साझेदार एक-दूसरे के लिए स्वामी तथा एजेण्ट की स्थिति में रहता है। प्रत्येक साझेदार अपने कार्यों के लिए दूसरे साझेदारों को बाध्य कर सकता है तथा दूसरे साझेदारों के कार्यों से स्वयं भी बाध्य होता है। 

11. हित हस्तान्तरण पर प्रतिबन्ध-साझेदारी फर्म का कोई भी साझेदार अपने हित का हस्तान्तरण तभी कर सकते हैं जबकि सभी साझेदार सर्वसम्मति से निर्णय ले लें। 

प्रश्न 5. 
साझेदारी संलेख क्या है? साझेदारी संलेख में उल्लेख किये जाने वाले तत्त्वों का उल्लेख कीजिए। 
उत्तर:
साझेदारी संलेख-साझेदारी संलेख वह लिखित प्रलेख है जिसमें साझेदारी के उद्देश्य, कार्यक्षेत्र, शर्ते तथा साझेदारों के पारस्परिक कर्त्तव्य एवं अधिकार आदि का उल्लेख होता है। यह संलेख साझेदारी के अस्तित्व का मूल आधार है। भविष्य में साझेदारों के मध्य मतभेद, कटुता व विवादों को दूर करने के लिए यह नितान्त आवश्यक है। प्रायः ऐसा देखा जाता है कि शुरुआत में तो सभी साझेदारों के मध्य अत्यधिक सद्भाव एवं सहयोग होता है किन्तु कुछ समय पश्चात् छोटी-छोटी बातों पर भी झगड़ा होने लगता है। ऐसे समय पर साझेदारी संलेख एक उपयोगी प्रलेख सिद्ध होता है। 

साझेदारी संलेख में सम्मिलित किये जाने वाले तत्त्व या बातें- 

  • फर्म का नाम-फर्म का व्यापार किस नाम से शुरू किया जायेगा। 
  • फर्म का व्यवसाय-साझेदारी संलेख में व्यवसाय की प्रकृति एवं स्थान जहाँ वह स्थित होगी उसका भी उल्लेख किया जाना आवश्यक है। 
  • फर्म के व्यवसाय की अवधि-फर्म कितने समय के लिए बनायी गई है और फर्म का अन्त किस विधि से किया जायेगा। 
  • साझेदारों की पूँजी-प्रत्येक साझेदार फर्म में कितनी पूँजी लगायेगा तथा कुल मिलाकर फर्म की कितनी पूँजी होगी, इसका उल्लेख भी साझेदारी संलेख में किया जाता है। 
  • पूँजी पर ब्याज-साझेदारों द्वारा फर्म में लगायी गई पूँजी पर ब्याज दिया जायेगा या नहीं और यदि ब्याज दिया जायेगा तो किस दर से दिया जायेगा। 
  • लाभ-हानि का अनुपात-सब साझेदारों में लाभ-हानि विभाजन का अनुपात निश्चित होना चाहिए। क्योंकि यदि ऐसा नहीं होगा तो सभी साझेदारों में समान अनुपात में लाभ-हानि का विभाजन किया जाता है। 
  • कार्य-विभाजन-फर्म में किस साझेदार को क्या कार्य दिया जायेगा, इसका भी उल्लेख किया जाता है। 
  • साझेदारों द्वारा निजी व्यय एवं उस पर ब्याज-निजी व्यय के लिए धन निकालने का अधिकार साझेदार को है या नहीं। साझेदारों द्वारा निजी व्यय के लिए निकाले गये धन पर ब्याज लगाया जायेगा या नहीं। यदि ब्याज लगाया जायेगा तो किस दर से लगाया जायेगा। 
  • वेतन-यदि किसी साझेदार को वेतन दिया जायेगा तो इसका उल्लेखनीय साझेदारी संलेख में किया जाना आवश्यक है। 
  • ख्याति-फर्म की ख्याति का मूल्य किसी साझेदार के प्रवेश अथवा अवकाश ग्रहण करते समय किस प्रकार निकाला जायेगा। 
  • हिसाब लिखने की विधि-फर्म के हिसाब-किताब कौनसी विधि के अनुसार लिखे जायेंगे और हिसाब की जाँच किस प्रकार की जायेगी। 
  • बैंक खाता-बैंक में खाता किसी साझेदार के नाम से रखा जायेगा अथवा फर्म के नाम से रखा जायेगा और चैक पर हस्ताक्षर करने का अधिकार किस साझेदार को दिया जायेगा। 

प्रश्न 6. 
साझेदारों के विभिन्न प्रकारों का तुलनात्मक विश्लेषण कीजिए। 
उत्तर:
साझेदारों के विभिन्न प्रकारों का तुलनात्मक विश्लेषण 
RBSE Class 11 Business Studies Important Questions Chapter 2 व्यावसायिक संगठन के स्वरूप 4

प्रश्न 7. 
संयुक्त पूँजी कम्पनी का अर्थ बतलाइए। इसकी प्रमुख विशेषताओं का विवेचन कीजिए। 
उत्तर:
संयुक्त पूँजी वाली कम्पनी का अर्थ एवं परिभाषाएँ-कम्पनी का आशय व्यक्तियों की एक ऐसी ऐच्छिक संस्था या संघ से है, जिसकी पूँजी प्रायः अंशों में विभाजित होती है। इन अंशों को हस्तान्तरित किया जा सकता है, जो प्रायः लाभ के लिये बनायी जाती हैं और जिसका समामेलन कम्पनी अधिनियम के अनुसार होता है। 

कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 2(20) के अनुसार, कम्पनी से आशय उन कम्पनियों से है जिनका समामेलन कम्पनी अधिनियम, 2013 के अन्तर्गत या इससे पूर्व के किसी कम्पनी अधिनियम के अन्तर्गत हुआ है। 

प्रो. हैने के अनुसार, "कम्पनी विधान द्वारा निर्मित कृत्रिम व्यक्ति है जिसका पृथक् अस्तित्व, शाश्वत उत्तराधिकार एवं सार्वमुद्रा होती है।" 

निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि कम्पनी का आशय कम्पनी अधिनियम के अधीन निर्मित एक ऐसे कृत्रिम व्यक्ति से है, जिसका अपने सदस्यों से पृथक अस्तित्व एवं शाश्वत उत्तराधिकार होता है। अंशधारक कम्पनी के स्वामी होते हैं, जबकि निदेशक मण्डल, प्रमख प्रबन्धकर्ता को अंशधारक अंशधारी चनते हैं। साधारणतया कम्पनी के स्वामियों का व्यवसाय पर परोक्ष नियन्त्रण होता है। कम्पनी की पूँजी छोटे-छोटे भागों में विभक्त होती है जिन्हें अंश कहा जाता है। इन्हें एक अंशधारी किसी दूसरे व्यक्ति को स्वतंत्रतापूर्वक हस्तान्तरित कर सकता है लेकिन निजी कम्पनी में नहीं। 

विशेषताएँ-संयुक्त पूँजी कम्पनी की कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं- 
1. लाभ के लिए ऐच्छिक संघ-संयुक्त पूँजी कम्पनी व्यक्तियों का एक ऐच्छिक संघ है जिसका मूल उद्देश्य लाभ कमाना होता है। व्यक्ति अपनी इच्छा से कम्पनी की सदस्यता स्वीकार करता है, किसी के प्रभाव अथवा दबाव में आकर नहीं। 

2. विधान द्वारा निर्मित कृत्रिम व्यक्ति-संयुक्त पूँजी कम्पनी को विधान द्वारा निर्मित कृत्रिम व्यक्ति माना जाता है, जिसका जन्म, विकास तथा मरण विधान द्वारा होता है। यह अमूर्त है तथा इसका भौतिक शरीर नहीं होता है इसलिए कम्पनी को एक कृत्रिम व्यक्ति के रूप में माना जाता है। कम्पनी को एक व्यक्ति इसलिए माना जाता है क्योंकि उसके एक व्यक्ति की भाँति ही अधिकार एवं उत्तरदायित्व होते हैं। 

3. पृथक् वैधानिक अस्तित्व-संयुक्त पूँजी कम्पनी का अपने सदस्यों से पृथक् अस्तित्व होता है। अर्थात् कम्पनी तथा इसके सदस्यों का अस्तित्व पृथक्-पृथक् होता है। यही कारण है कि सदस्य व्यक्तिगत रूप से जो भी कार्य करते हैं उसके लिए कम्पनी उत्तरदायी नहीं होती है तथा कम्पनी जो भी कार्य करती है उसके लिए अंशों की अदत्त राशि के अतिरिक्त सदस्य उत्तरदायी नहीं होते हैं। 

4. स्थायी अस्तित्व-संयुक्त पूँजी कम्पनी का अस्तित्व स्थायी होता है। कम्पनी के सदस्यों की मृत्यु, पागलपन, दिवालियापन अथवा अंश हस्तान्तरण का कम्पनी के जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है तथा उसका अपना स्थायी अस्तित्व बना रहता है। सभी सदस्यों के बदल जाने पर भी कम्पनी वही संस्था रहेगी तथा उसकी वही सम्पत्तियाँ रहेंगी। 

5. सीमित दायित्व-संयुक्त पूँजी वाली कम्पनी के सदस्यों या अंशधारियों का दायित्व उनके द्वारा खरीदे गये अंशों की अंकित राशि तक ही सीमित रहता है। अन्य शब्दों में, कम्पनी के सदस्यों से अंशों की बकाया राशि के अलावा कुछ भी वसूल नहीं किया जा सकता, चाहे कम्पनी को अपने ऋण चुकाने के लिए अधिक धन की आवश्यकता क्यों न हो। अंशों द्वारा सीमित कम्पनी में अंशों के अंकित मूल्य के बराबर तथा गारण्टी द्वारा सीमित कम्पनी में सदस्यों द्वारा दी गई गारण्टी के बराबर उनका दायित्व रहता है। 

6. सार्वमुद्रा-संयुक्त स्कन्ध कम्पनी एक कृत्रिम व्यक्ति होने के कारण स्वयं हस्ताक्षर नहीं कर सकती है। अतः जहाँ भी कम्पनी को हस्ताक्षर करने होते हैं वहाँ सार्वमुद्रा का प्रयोग किया जाता है। सार्वमुद्रा ही कम्पनी के हस्ताक्षरों का प्रतीक होती है। इस सार्वमुद्रा का प्रयोग किये बिना कम्पनी को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है। सार्वमुद्रा में कम्पनी का नाम तथा रजिस्टर्ड कार्यालय के स्थान का उल्लेख होता है। 

7. सदस्यों की संख्या-प्रत्येक कम्पनी में सदस्यों का होना अनिवार्य है। निजी कम्पनी में कम से कम 2 तथा अधिकतम 200 सदस्य हो सकते हैं, जबकि एक सार्वजनिक कम्पनी में कम से कम 7 तथा अधिकतम उसके द्वारा निर्गमित किये जाने वाले अंशों की संख्या तक सदस्य हो सकते हैं। 

8. प्रजातान्त्रिक प्रबन्ध-संयुक्त पूँजी कम्पनी एक कृत्रिम व्यक्ति होने के कारण स्वयं अपना प्रबन्ध नहीं कर सकती है। इसकी प्रबन्ध व्यवस्था प्रतिनिधि व्यवस्था होती है जिसका आधार प्रजातान्त्रिक होता है। कम्पनी के सदस्यों की संख्या अधिक होने तथा बिखरे हुए रहने के कारण यह सम्भव नहीं है कि सभी सदस्य मिलकर कम्पनी का प्रबन्ध कर सकें। इसीलिए कम्पनी के सदस्य अपने में से कुछ व्यक्तियों को चुन लेते हैं जिन्हें व्यक्तिगत रूप से संचालक तथा सामूहिक रूप से संचालक मण्डल कहा जाता है। यही संचालक मण्डल व्यावहारिक रूप से कम्पनी का प्रबन्ध करता है। 

9. हस्तान्तरणीय अंश-संयुक्त पूँजी वाली कम्पनी में अंश हस्तान्तरित किये जा सकते हैं। एक सार्वजनिक कम्पनी के अंशधारी अन्तर्नियमों की निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार अपने अंशों का स्वतन्त्रतापूर्वक अन्य व्यक्ति को हस्तान्तरण कर सकते हैं। निजी कम्पनी में अंश हस्तान्तरण पर प्रतिबन्ध लगे होते हैं इसलिए इसके अंशधारियों को स्वतन्त्रतापूर्वक अंशों के हस्तान्तरणं की छूट नहीं होती है। 

10. अंश पूँजी-अंश पूँजी वाली कम्पनी की पूँजी कई छोटे-छोटे भागों में विभाजित होती है। प्रत्येक भाग को अंश कहते हैं। इन अंशों को क्रय करने वाले व्यक्तियों को अंशधारी कहते हैं। 

प्रश्न 8. 
निजी कम्पनी तथा सार्वजनिक कम्पनी में अन्तर बतलाइये। 
उत्तर:
निजी कम्पनी तथा सार्वजनिक कम्पनी में अन्तर 
निजी कम्पनी तथा सार्वजनिक कम्पनी में अन्तर को निम्न तालिका की सहायता से समझा जा सकता है-
RBSE Class 11 Business Studies Important Questions Chapter 2 व्यावसायिक संगठन के स्वरूप 5
RBSE Class 11 Business Studies Important Questions Chapter 2 व्यावसायिक संगठन के स्वरूप 6

प्रश्न 9. 
संयुक्त पूँजी वाली कम्पनी के गुण-दोषों का विवेचन कीजिए। 
उत्तर:
संयुक्त पूँजी वाली कम्पनी के गुण 
संयुक्त स्कन्ध वाली कम्पनी के प्रमुख लाभ या गुण निम्नलिखित हैं- 
1. सीमित दायित्व-कम्पनी के सदस्यों का दायित्व सामान्यतया सीमित ही रहता है। चाहे कम्पनी की आर्थिक स्थिति कितनी ही खराब क्यों नहीं हो, कम्पनी के नुकसान अथवा ऋणों के भुगतान के लिए कम्पनी के सदस्य व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी नहीं होते हैं। 

2. स्थायी अस्तित्व-कम्पनी का अस्तित्व स्थायी होता है। इसी गुण के कारण कम्पनियाँ बिना किसी जोखिम के दीर्घकालीन अनुबन्ध कर सकती हैं और अपनी पूँजी का सदुपयोग कर सकती हैं। 

3. अंश हस्तान्तरण-कम्पनी प्रारूप में उसके अंश हस्तान्तरणीय योग्यता रखते हैं। निजी कम्पनी में कुछ प्रतिबन्धों के साथ तथा सार्वजनिक कम्पनी के सदस्य अपनी इच्छा से किसी को भी स्वतन्त्रतापूर्वक अंशों का हस्तान्तरण कर सकते हैं। 

4. विस्तृत वित्तीय साधन-कम्पनी प्रारूप में वित्तीय साधन विस्तृत हो सकते हैं। सार्वजनिक कम्पनी में सदस्यों की संख्या पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। इससे कम्पनी में विस्तत साधन जटाये जा सकते हैं। कम्पनियों को जितनी पँजी की आवश्यकता होती है वह अंशों का निर्गमन कर प्राप्त की जा सकती है। सार्वजनिक कम्पनियाँ जन निक्षेपों द्वारा भी वित्तीय साधन जुटा सकती हैं। 

5. पेशेवर प्रबन्ध-कम्पनी का आकार बड़ा होने तथा विस्तृत वित्तीय संसाधन उपलब्ध होने के कारण इसमें पेशेवर प्रबन्धकों को नियुक्त करना सम्भव होता है। फलतः इस प्रारूप को पेशेवर एवं कुशल प्रबन्ध की सेवाओं का लाभ प्राप्त होता है। 

6. प्रजातान्त्रिक प्रबन्ध-कम्पनी का प्रबन्ध एवं संचालन इसके सदस्यों द्वारा चने हए प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है। इन प्रतिनिधियों को व्यक्तिगत रूप से निदेशक तथा सामूहिक रूप से निदेशक मण्डल कहा जाता है। निदेशक मण्डल में भी निर्णय बहुमत के आधार पर लिये जाते हैं। इस प्रकार से कम्पनी की प्रबन्ध व्यवस्था प्रजातान्त्रिक तरीके से की जाती है। 

7. जन विश्वास-कम्पनी का निर्माण, इसका प्रबन्ध एवं समापन कम्पनी विधान में दी गई व्यवस्थाओं के अनुसार ही होता है। इस पर वैधानिक नियन्त्रण रहता है। फलतः अन्य प्रारूपों की तुलना में जनता का इस प्रारूप में अधिक विश्वास रहता है। 

8. विशेषज्ञों की नियुक्ति-वृहद् आकार एवं वित्तीय संसाधनों के उपलब्ध रहने के कारण एक कम्पनी योग्य एवं कुशल विशेषज्ञों को नियुक्त कर उनकी सेवाओं का लाभ उठा सकती है। 

9. विनियोग को प्रोत्साहन-कम्पनी प्रारूप की सम्पूर्ण पूँजी छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त होती है जिन्हें अंश कहा जाता है । इन अंशों की अंकित राशि कम होने के कारण आम व्यक्ति भी अंश खरीद सकते हैं। फलतः इससे बचत तथा विनियोग दोनों को प्रोत्साहन मिल सकता है। 

10. विकास एवं विस्तार की सम्भावना-एक कम्पनी के पास वित्त के अधिक स्रोत होने, जनता से धन की व्यवस्था होने के साथ-साथ बैंक एवं वित्तीय संस्थाओं से भी ऋण लिया जा सकता है। फलतः इसमें व्यापार के विकास एवं विस्तार की अधिक सम्भावना होती है। 

संयुक्त पूँजी वाली कम्पनी के दोष 
संयुक्त पूँजी वाली कम्पनी के प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं- 
1. निर्माण में कठिनाई-संयुक्त पूँजी कम्पनी के निर्माण में अनेक वैधानिक औपचारिकताओं को पूरा करना पडता है। कम्पनी के निर्माण की प्रक्रिया भी बहुत लम्बी है। इसके लिए अनेक प्रपत्र भी तैयार करने पड़ते हैं, विशेषज्ञ नियुक्त करने पड़ते हैं। इन सब पर बहुत अधिक खर्चा होता है। 

2. सीमित कार्यक्षेत्र-कम्पनी अपने पार्षद सीमा नियम में उल्लेखित उद्देश्यों के बाहर कोई कार्य नहीं कर सकती है। इन उद्देश्यों में परिवर्तन करना भी बहुत कठिन होता है। यही कारण है कि कम्पनी का कार्यक्षेत्र सीमित होता है। 
 
3. गोपनीयता का अभाव-संयुक्त पूँजी वाली कम्पनी का कोई भी कार्य गोपनीय नहीं होता है । कम्पनी के महत्त्वपूर्ण प्रलेखों को कोई भी व्यक्ति देख सकता है। प्रतिवर्ष चिट्ठा व लाभ-हानि खातों का प्रकाशन सार्वजनिक कम्पनियों को करना पड़ता है। इस प्रकार कम्पनी में गोपनीयता का अभाव बना रहता है। 

4. आपसी हितों का टकराव-कम्पनी का सम्बन्ध समाज के विभिन्न वर्गों यथा ग्राहकों, कर्मचारियों, प्रबन्धकों व अंशधारियों आदि से होता है। इन सभी वर्गों का कम्पनी की सफलता में हाथ होता है। अतः कम्पनी को जो भी लाभ प्राप्त होता है उसके वितरण के सम्बन्ध में इनमें आपसी टकराव होता है। 

5. प्रवर्तकों द्वारा कपट-कम्पनी का निर्माण प्रवर्तकों द्वारा किया जाता है। इन प्रवर्तकों से ईमानदारी की अपेक्षा की जाती है किन्तु अनेक बार अंशधारियों के हितों के विरुद्ध कार्य करते हैं तथा कम्पनी का शोषण करना प्रारम्भ कर देते हैं। जिसका अंशधारियों को लम्बे समय तक पता तक नहीं लगता है। 

6. प्रबन्धकों द्वारा शोषण-कम्पनी के निर्माण के बाद अनेक बार ऐसे प्रबन्धकों की नियुक्ति की जाती है जो कम्पनी के वित्तीय साधनों, वाहन, फर्नीचर, टेलीफोन, भवन तथ अन्य सम्पत्तियों को अपने निजी हित में प्रयोग करते हैं। इससे कम्पनी का व्ययभार बढ़ जाता है तथा अंशधारियों को मिलने वाले लाभांश में कमी आने लगती है। 

7. व्यक्तिगत सम्पर्क का अभाव-एकाकी व्यापार एवं साझेदारी में स्वामित्व का ग्राहकों, कर्मचारियों एवं अन्य पक्तिगत सम्पर्क होता है। जिसका लाभ इन संस्थाओं को मिलता है। इस प्रकार का सम्पर्क कम्पनी के स्वामियों द्वारा स्थापित करना सम्भव नहीं हो पाता है। परिणामस्वरूप व्यक्तिगत सम्पर्क के लाभों से कम्पनी को वंचित रहना पड़ता है। 

8. एकाधिकार का भय-कई बार एकसा उत्पादन करने वाली कम्पनियाँ आपसी प्रतिस्पर्धा समाप्त कर आपस में मिलकर (एकाधिकार स्थापित कर) कर्मचारियों एवं ग्राहकों का शोषण करने लगती हैं। इस स्थिति में अनुचित मूल्य वृद्धि करना, कृत्रिम अभाव पैदा करना, माल की किस्म को गिराना आदि दोष पैदा हो जाते हैं। 

9. वैधानिक हस्तक्षेप-कम्पनियों पर कम्पनी विधान का इतना नियन्त्रण होता है कि अनेक बार इनको कार्य करने की उचित स्वतन्त्रता का अभाव महसूस होता है। कम्पनी के प्रारम्भ से लेकर समापन तक कम्पनी विधान का एक मायने में हस्तक्षेप रहता है। 

10. निर्णय में विलम्ब-कम्पनी में निर्णय लेने में अधिक समय लगता है। प्रबन्धक निर्णय लेने में अनेक लोगों से परामर्श लेते हैं। कई बार तो महत्त्वपूर्ण विषयों पर निर्णय लेने के लिए कम्पनी के सदस्यों की सभा तक बुलानी पड़ती है। इससे निर्णय लेने में बहुत विलम्ब हो जाता है। 

प्रश्न 10. 
व्यावसायिक संगठन के विभिन्न स्वरूपों का तुलनात्मक विवेचन कीजिये। 
उत्तर:
व्यावसायिक संगठन के विभिन्न स्वरूपों का तुलनात्मक विवेचन 
RBSE Class 11 Business Studies Important Questions Chapter 2 व्यावसायिक संगठन के स्वरूप 7
RBSE Class 11 Business Studies Important Questions Chapter 2 व्यावसायिक संगठन के स्वरूप 8
RBSE Class 11 Business Studies Important Questions Chapter 2 व्यावसायिक संगठन के स्वरूप 9

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Last Updated on July 6, 2022, 3:16 p.m.
Published July 4, 2022